सोमवार, 29 जुलाई 2019

माता वैष्णोदेवी के भक्त श्रीधर की कथा :------आचर्य डा.अजय दीक्षित

माता वैष्णोदेवी के भक्त श्रीधर की कथा :------आचर्य डा.अजय दीक्षित
🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴


 




                 

                       ।।   राम ।।
                      -----------------

त्रिकुट पर्वत के तराई में बसा हुआ एक गांव था हंसली। इस

गांव में एक गरीब ब्राहमण श्रीधर रहा करते थे , माँ जगदंबा के

परम भक्त।  वैसे तो श्रीधर और उनकी पत्नी निर्धन होते हुए

भी अपना जीवन यापन संतुष्टि से कर रहे थे  लेकिन निसंतान

होने के कारण वे दोनों बहुत दुखी रहा करते थे ।

                                      एक बार कि बात है श्रीधर ने

सपने में देखा कि साक्षात देवी जगदंबा उनसे कह रही है कि

नौ कुवांरी कन्याओं की पूजा कर के उन्हें भोजन कराने

जिससे  तुम्हारी इच्छा जल्द ही पूरी होगी।  सुबह श्रीधर ने

यह बात अपनी पत्नी को बताई जिसे सुनकर वह बहुत खुश

हुई और  माता रानी को प्रणाम किया और अपने पति से

बोली -' अगर माँ जगदंबा ने इशारा किया है तो हमें  जरूर

कुमारी कन्याओं का पूजन करना चाहिए। आप गांव की नौ

बालिकाओं को जाकर कल कन्या- पूजन के लिए न्योता

देकर आइये ।' पत्नी की बात सुनकर श्रीधर चिंता में पड़ गए

और कहा-'कुमारी कन्याओं का पूजन तो करना चाहिए

लेकिन हमारी स्थिति ऐसी कहा है कि हम नौ कन्याओं को

भी अच्छे से भोजन करा सकते है?'

इस पर पत्नी ने कहा-'अगर माता रानी चाहती है कि हम पूजा

करे तो आप चिंता न कीजिये , माँ जगदंबा हमारे साथ है

हम कन्याओं को भोजन अवश्य कराएगे । माँ तो सब जानती

है वे हमारी मदद करेंगी ।'

                               इस तरह दोनों पति-पत्नी ने यह विचार  कर पूजनका निर्णय लिया।  श्रीधर ने गांव की नौ

बालिकाओं को जाकर कल अपने घर आनेका निमंत्रण दे

दिया पर उन्हे गांव में सिर्फ  आठ कन्या हीं मिली । इधर श्रीधर

की पत्नी ने अपने पडोसियों के घर जाकर कुछ खाने का सामान उधार मांग लाई ।

                                                           श्रीधर  जब

घर पहुंचे तो  उन्होंने यह बात अपनी पत्नी को बताई जिसे

सुनकर वह भी चिंतित हो जाती है।  दोनों पति पत्नी किसी

प्रकार रात काटते हैं।  सुबह उठकर दोनों ही पूजा की तैयारी

में जुट जाते हैं लेकिन उनके मन में इस बात को लेकर चिंता

बनी रहती है कि नौवीं कन्या वे कहां से लाएं और इस तरह

तो उनकी पूजा का व्रत अधूरा ही रह जाएगा। लेकिन माता

रानी कैसे अपने सबसे परम भक्त को निराश कर सकतीं हैं ?

यथासमय दोनों ने कन्याओं की पूजा अर्चना करनी शुरू की

और उसी समय कहीं से एक कन्या आई और आठ कन्याओं

की पंक्ति में बैठ गई । श्रीधर और उनकी पत्नी यह देख बड़े

खुश हुए और मन-ही-मन माँ आदि शक्ति को धन्यवाद दिया ।

                               बड़ी श्रद्धा और प्रसन्नता के साथ दोनों ने  कुमारी कन्याओं का पूजन किया। माँ की कृपा से उनका

यह अनुष्ठान  बड़े अच्छे से सम्पन् हुआ । कन्याओं को  भोजन

करा के उन्हें विदा कर दिया।  आठ कन्याए जो गांव से आईं

थी वे सब तो चली गयी लेकिन जो नवीं कन्या आई थी वह

अपने स्थान में बैठे-बैठे मुस्कुरा रही थी।

अब दोनों पति पत्नी का ध्यान उस अपरिचित कन्या की ओर

गया । उन्होंने कन्या के पास जाकर उसे प्रणाम किया और

उसका धन्यवाद दिया । तब भक्त श्रीधर ने कन्या से पूछा कि

'पुत्री तुम कहां से आई हो? इस गांव की तो नहीं लगती '

  इस पर कन्या ने कहा कि-'मैं त्रिकुट पर्वत पर रहती हूँ  ,

जब मुझे पता चला कि इस गांव में कुमारी कन्याओं का पूजन

और उन्हें भोजन कराया जा रहा है तो मैं यहां आ गई और

संयोगवश नौवीं कन्या का स्थान खाली था। '

कन्या की बात सुनकर श्रीधर और उनकी पत्नी दोनों संतुष्ट

हुए लेकिन भोजन कराने के पश्चात तथा  सारी कन्याओं के

चले जाने के बाद भी  वह कन्या अपने स्थान पर बैठी रही ।

अपने स्थान में बैठी-बैठी वह दोनों को देख मुस्कुराती।

                 तब श्रीधर की पत्नी ने कन्या से पूछा कि-'तुम्हे

अपने घर जाने की जल्दी नहीं है क्या  ? सारी कन्याए तो कब

की चली गई।'   यह सुनकर कन्या हंसकर बोली- ' मैं आपके

घर में भंडारा और ब्राहमण भोजन करवाना चाहती हूँ।  आप

ब्राहमणों  को भंडारे का निमंत्रण दे आइए और साथ ही पूरे

गांव के लोगों को भी बुला लाइए।'

कन्या की बात सुनकर श्रीधर और उनकी पत्नी दोनों एक

दूसरे को देखने लगे । श्रीधर ने कहा-'पुत्री  यह आप क्या कह

रही है, हमारी इतनी औकात कहा कि हम माता रानी का

भंडारा करे और साथ ही पूरे गांव को भोजन भी करा सके '

               'आप बस ब्राहमणों और गांव वालों को न्योता दे

कर आइये बाकि सब मुझ पर छोड दें।  मैं इतना प्रबंध करके

यहां आई हूँ कि सभी को भोजन करा सकती हूँ ' उस दिव्य

कन्या ने श्रीधर से कहा और उन्हें भोजन आदि सामाग्री जो

वह अपने साथ लाई थी दिखाया।

श्रीधर और उनकी पत्नी दोनों उस अपरिचित कन्या की बातों

से अचम्भे में थे उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि यह कन्या

कौन है और कहां से आई हैं,साथ ही यह भंडारा भी करवाना

चाहती है और सारी सामाग्री भी अपने साथ लाई है।

इस तरह दोनों पति पत्नी ने कन्या की बात मान ली और पूरे

गांव में सभी को बुलाने गए । श्रीधर ने गोरखनाथ जी और

उनके शिष्यों भैरवनाथ सहित सब को निमंत्रण दिया ।

सभी गांव वाले तथा भैरवनाथ यह जानने के लिए उत्सुक थे

कि आखिर यह दिव्य कन्या कौन है जो इतना बड़ा आयोजन

अकेले कर रही है।

                        सभी लोग श्रीधर के घर पहुंचे। माँ का

भंडारा हुआ और तत्पश्चात दिव्य कन्या ने सभी को भोजन

परोसना शुरू किया।  गोरखनाथ जी और उनके शिष्य

भैरवनाथ तो समझ गए कि यह कोई साधारण सी कन्या नहीं

है ।  जब कन्या भैरवनाथ के पास पहुंची खाना लेकर तो

उन्होंने खीर पूरी की बजाय मांस और मदिरा की मांग की।

तब कन्या रूपी देवी जगदंबा ने भैरवनाथ से कहा कि यह

भंडारे का भोग है और यहां ब्राहमणों  का भोजन चल रहा है

मांस-मदिरा यहां वर्जित है लेकिन भैरवनाथ जिद पर अड़ गए

और माता को छूना चाहा । माता रानी भैरवनाथ के कपट को

पहचान गई और धीरे से श्रीधर के घर के बाहर जाकर वायु

रूप लेकर अपने निवास स्थान की ओर चल पड़ी । भैरवनाथ

भी श्रीधर के घर से निकल माता का पीछा करने लगे ।

                                     कन्या रूपी देवी जगदंबा ने भैरवनाथ को उनका पीछा करने के लिए मना किया फिर भी

वह न माना और देवी के पीछे -पीछे चलने लगा । देवी अपनी

गुफा में प्रवेश करती है। गुफा के बाहर पवनसुत श्री हनुमान

जी साधु वेश में माता की रक्षा के लिए स्वंय विराजमान होते

है, वे भैरवनाथ को चेतावनी देते हैं कि इस कन्या का पीछा

करना छोड़ दें यह कोई साधारण कन्या नहीं है साक्षात देवी

आदि शक्ति जगदंबा है तू उनका पीछा छोड़ दें । भैरवनाथ

हनुमान जी की बात नहीं मानते हैं और इस तरह दोनों का

युद्ध  शुरू हो जाता है  । माता स्वंय महाकाली का रूप लेकर

भैरव का संहार करती है।  अपनी मृत्यु के पश्चात भैरवनाथ

को  अपनी भूल का अहसास होता है और वह माता से क्षमा -

याचना करता है । माता जानती थी कि इसमें भैरव  की मंशा

मोक्ष प्राप्ति की थी न कि उनका अहित करना ।

                        तत्पश्चात देवी ने भैरवनाथ को सिर्फ मोक्ष

ही नहीं प्रदान किया बल्कि उसे वरदान भी दिया कि जब तक

मेरे दर्शन के लिए आया कोई भक्त तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा

उसकी यात्रा पूर्ण नहीं होगी और देवी सदा के लिए उसी गुफा

में तीन पिण्डियों के रूप में ध्यानमग्न हो गई । ये तीन पिंड

(सिर ) ही माता वैष्णो देवी के रूप में जाने जाते हैं । माँ

काली (दाएँ ) बीच में माँ सरस्वती ओर बाएं तरफ माँ लक्ष्मी

के रूप में माता वैष्णोदेवी यहां विराजमान हुई।

                            दूसरी ओर माता रानी के भक्त श्रीधर भंडारे के दिन से ही व्याकुल हो रहे हैं उन्हें पता था कि

कन्या के रूप में माता वैष्णोदेवी  ही उनके घर पूजन के लिए

आई थी । वे त्रिकुट पर्वत के उसीगुफा की ओर चल पड़े जिस

गुफा को वे अपने सपने में उस रात से देखते थे जब से माता

वहां ध्यानमग्न हुई थी ।
                                 अततः वे उस गुफा में पहुंचे और

वहां विराजमान पिण्डियों की पूजा अर्चना करना अपनी

दिनचर्या बना लिया । समय  के साथ माता रानी की कृपा से

भक्त श्रीधर को  चार पुत्रों की प्राप्ति हुई।  माँ ने श्रीधर की

भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया और तभीसे  श्रीधर

और उनके पुत्र इसके बाद उनके वंशज माँ की पूजा करते

आ रहे हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें