बुधवार, 3 जुलाई 2019

पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।

#प्रस्तुत_चौपाई_का_यथामति_भाव_विस्तार!

"पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।"
              (रा.च.मा.३।३४।२)

अर्थः "शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणगणों से युक्त और ज्ञान में निपुण शूद्र(क्षुद्र) भी पूजनीय नहीं है।"
यहाँ शूद्र का अर्थ 'क्षुद्र'(श्रेष्ठ आचरण से हीन,अधम,निम्न कर्म करने वाला) भी लिया जा सकता है।

श्रीरामचरितमानस की किसी भी चौपाई का भाव समझने के लिए उसके ऊपर नीचे की चौपाई को भी देखना/समझना चाहिए तथा सम्बन्धित चौपाई किस प्रसंग में और क्यों आया है; यह भी जानना नितांत आवश्यक है। ऐसे तैसे मनगढ़ अर्थ ग्रहण कर हम चौपाई के भाव को न केवल विकृत कर देते हैं बल्कि बाबा तुलसी को भी कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकते।

'देवो भूत्वा देवं यजेत्' जैसे सम्बन्धित इष्ट या किसी देवता की पूजा देवता बनकर किया जाना चाहिए वैसे ही गोस्वामी तुलसीदास जी को समझने के लिए गोस्वामी जी ही जैसा बनना पड़ेगा तो राम-नाम का अलख जगाइये; और कीजिए प्रभु श्रीराम की भक्ति। सारी बात धीरे-धीरे समझ में आने लगेगी। उन्होंने समाज को जोड़ा है; तोड़ने का काम कभी नहीं किया क्योंकि तुलसीदास जी जैसा 'लोकमंगल की कामना' करनेवाला कोई कवि हुआ ही नहीं। वैष्णव,शैव,शाक्त,गाणपत्य और सौर इन पंचदेवों की उपासना पद्धति के अनुयायियों को न केवल जोड़ा बल्कि उनमें तादाम्य भी स्थापित कराया। ये पाँचों देव (ईश्वर कोटि) आपको श्रीरामचरितमानस में मिल जायेंगे। न केवल उनका विवाद मिटाया बल्कि जगद्गुरु शंकराचार्य (शिवांश आचार्य शंकर) के अद्वैत दर्शन को 'सीय राममय सब जग जानी' सूत्र से व्यावहारिक भी बनाया और सबको एकसूत्र में पिरोया भी।

यह चौपाई अरण्यकाण्ड में 'कबंध-उद्धार' प्रसंग में उद्धृत है और जब कबंध प्रभु श्रीराम से अपनी दुर्गति का कारण महर्षि दुर्वासा का शाप बताता है तब प्रभु श्रीराम ने उससे यह कहा था किः
सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।(रा.च.मा.३।३४।१-२)

अर्थात् शाप देता हुआ, ताड़ना करता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी दुर्वासा जी जैसा विप्र पूजनीय है क्योंकि संतजन भी उनकी महिमा को भलीभाँति जानते हैं कि दुर्वासा जी रुद्रांश हैं 'क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे' जिनका स्वभाव है और तब प्रभु ने उसे अपने निज धर्म (भागवत धर्म) का उपदेश भी दिया है क्योंकि दुर्वासा जी भी परम भागवत हैं और उन्हीं के अंशी भगवान शिव (दुर्वासा जिसके अंश हैं) का कहीं कोई विशेष गुण या कोई बाह्य विशेषता दिखायी देता है क्या कि जिससे उन्हें 'श्रीरामभक्त' या 'परमवैष्णव' समझा जाय? लेकिन 'तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती।' राम-नाम का आदर सहित रात-दिन जप करते रहते हैं और वो भी अकेले नहीं 'उमा सहित जेहि जपत पुरारी' माता भगवती समेत और इसीलिए वे वैष्णवों में परमश्रेष्ठ और सिरमौर हैं 'वैष्णवानां यथा शम्भुः'--(भागवतः१२।१३।१६)

संतों ने ऐसा गायन किया है कि ब्रह्म से पूरित ऐसे महापुरुष विप्र हैं। गुणातीत ऐसे महापुरुष में कोई विशेष आचरण भी दिखायी नहीं देता जिसमें न शील है और न ही कोई विशेष गुण; तो क्या इन्हें शूद्र मान लिया जाए? नहीं.! "शूद्र न.."  ये शूद्र नहीं हैं। ये ज्ञान में प्रवीण हैं; इनकी वाणी ही वेद है और परमेश्वर के साथ आत्मस्थित होने के कारण वे प्रवीण हैं। हृदय में ईश्वर की प्रत्यक्ष जानकारी ही ज्ञान है; वे शूद्र(क्षुद्र) जैसे दिखायी भर ही पड़ते हैं परन्तु वे परमपूज्य हैं।

कुछ विशेषः
'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः'(गीताः४।१३)
गीतागायक भगवान श्रीकृष्ण का ये कथन है कि गुण और कर्म के आधार पर ही मैंने चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की सृष्टि की है और संभवतः इसी कारण क्षत्रिय कुलोद्भव विश्वामित्र अपने कर्म से ब्राह्मण (ब्रह्मर्षि--ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति) हुए और ब्राह्मण कुल में अवतरित होकर भी भगवान परशुराम कर्म से क्षत्रिय।

यास्क मुनि के अनुसारः
जन्मना जायते शूद्रः(जन्म से सभी शूद्र हैं।)
संस्कारात् भवेत द्विजः(संस्कार से द्विज बनते हैं)
वेद पाठात् भवेत विप्रः(वेदपाठी विप्र कहलाते हैं)
ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः(और सबसे श्रेष्ठ स्थिति,जो ब्रह्म को जान गया वही 'ब्राह्मण' है।)
ये सब एक स्थिति विशेष के नाम हैं।

जितना ऊँचा वर्ण और कुल; उतना ऊँचा गुण और कर्म भी तो होना चाहिएः
"ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होय।
सुबरन   कलस   सुरा  भर्या  साधू  निंदा   सोय।।"

सिर्फ ऊँची जाति या ऊँचे कुल में जन्म लेने से कुछ नहीं हो जाता। आपके कर्म अधिक मायने रखते हैं। आपके कर्मों से ही आपकी पहचान बनती है। यह वैसे ही है जैसे यदि सोने के बरतन में मदिरा रखी जाये तो इससे सोने के गुण फीके पड़ जाते हैं।

सबसे बड़ा है भगवान् का भक्त चाहे वो चाण्डाल ही क्यों न होः

"अहो बत श्वपचोSतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम्।
तेपस्तपस्ते जुहुवः सस्नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम   गृणन्ति  ये   ते।।"(भागवत३।३३।७)

'अहो! आश्चर्य है कि जिसकी जिह्वा पर तुम्हारा पवित्र नाम रहता है, वह चाण्डाल भी श्रेष्ठ है; क्योंकि जो तुम्हारे नाम का कीर्तन करते हैं, उन श्रेष्ठ पुरुषों ने तप, यज्ञ, तीर्थस्नान और वेदाध्ययन आदि सब कुछ कर लिया।'

समस्त भक्तजनों कोः
सादर जय सियाराम!!!

3 टिप्‍पणियां:

  1. आप भी सही बताए हैं !
    पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।। का सही अर्थ-
    https://www.adensnews.in/2022/02/pujey-vipra-sel-gun-hina-sudra-n-gun-gan-gyan-pravina-ramcharitmanas.html

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  2. Kuch bhi ? Saaf saaf likha h 😂 fir v jabardasti sahi tahra rha hai tulsidas ko..

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