सोमवार, 29 जुलाई 2019

माता वैष्णोदेवी के भक्त श्रीधर की कथा :------आचर्य डा.अजय दीक्षित

माता वैष्णोदेवी के भक्त श्रीधर की कथा :------आचर्य डा.अजय दीक्षित
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                       ।।   राम ।।
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त्रिकुट पर्वत के तराई में बसा हुआ एक गांव था हंसली। इस

गांव में एक गरीब ब्राहमण श्रीधर रहा करते थे , माँ जगदंबा के

परम भक्त।  वैसे तो श्रीधर और उनकी पत्नी निर्धन होते हुए

भी अपना जीवन यापन संतुष्टि से कर रहे थे  लेकिन निसंतान

होने के कारण वे दोनों बहुत दुखी रहा करते थे ।

                                      एक बार कि बात है श्रीधर ने

सपने में देखा कि साक्षात देवी जगदंबा उनसे कह रही है कि

नौ कुवांरी कन्याओं की पूजा कर के उन्हें भोजन कराने

जिससे  तुम्हारी इच्छा जल्द ही पूरी होगी।  सुबह श्रीधर ने

यह बात अपनी पत्नी को बताई जिसे सुनकर वह बहुत खुश

हुई और  माता रानी को प्रणाम किया और अपने पति से

बोली -' अगर माँ जगदंबा ने इशारा किया है तो हमें  जरूर

कुमारी कन्याओं का पूजन करना चाहिए। आप गांव की नौ

बालिकाओं को जाकर कल कन्या- पूजन के लिए न्योता

देकर आइये ।' पत्नी की बात सुनकर श्रीधर चिंता में पड़ गए

और कहा-'कुमारी कन्याओं का पूजन तो करना चाहिए

लेकिन हमारी स्थिति ऐसी कहा है कि हम नौ कन्याओं को

भी अच्छे से भोजन करा सकते है?'

इस पर पत्नी ने कहा-'अगर माता रानी चाहती है कि हम पूजा

करे तो आप चिंता न कीजिये , माँ जगदंबा हमारे साथ है

हम कन्याओं को भोजन अवश्य कराएगे । माँ तो सब जानती

है वे हमारी मदद करेंगी ।'

                               इस तरह दोनों पति-पत्नी ने यह विचार  कर पूजनका निर्णय लिया।  श्रीधर ने गांव की नौ

बालिकाओं को जाकर कल अपने घर आनेका निमंत्रण दे

दिया पर उन्हे गांव में सिर्फ  आठ कन्या हीं मिली । इधर श्रीधर

की पत्नी ने अपने पडोसियों के घर जाकर कुछ खाने का सामान उधार मांग लाई ।

                                                           श्रीधर  जब

घर पहुंचे तो  उन्होंने यह बात अपनी पत्नी को बताई जिसे

सुनकर वह भी चिंतित हो जाती है।  दोनों पति पत्नी किसी

प्रकार रात काटते हैं।  सुबह उठकर दोनों ही पूजा की तैयारी

में जुट जाते हैं लेकिन उनके मन में इस बात को लेकर चिंता

बनी रहती है कि नौवीं कन्या वे कहां से लाएं और इस तरह

तो उनकी पूजा का व्रत अधूरा ही रह जाएगा। लेकिन माता

रानी कैसे अपने सबसे परम भक्त को निराश कर सकतीं हैं ?

यथासमय दोनों ने कन्याओं की पूजा अर्चना करनी शुरू की

और उसी समय कहीं से एक कन्या आई और आठ कन्याओं

की पंक्ति में बैठ गई । श्रीधर और उनकी पत्नी यह देख बड़े

खुश हुए और मन-ही-मन माँ आदि शक्ति को धन्यवाद दिया ।

                               बड़ी श्रद्धा और प्रसन्नता के साथ दोनों ने  कुमारी कन्याओं का पूजन किया। माँ की कृपा से उनका

यह अनुष्ठान  बड़े अच्छे से सम्पन् हुआ । कन्याओं को  भोजन

करा के उन्हें विदा कर दिया।  आठ कन्याए जो गांव से आईं

थी वे सब तो चली गयी लेकिन जो नवीं कन्या आई थी वह

अपने स्थान में बैठे-बैठे मुस्कुरा रही थी।

अब दोनों पति पत्नी का ध्यान उस अपरिचित कन्या की ओर

गया । उन्होंने कन्या के पास जाकर उसे प्रणाम किया और

उसका धन्यवाद दिया । तब भक्त श्रीधर ने कन्या से पूछा कि

'पुत्री तुम कहां से आई हो? इस गांव की तो नहीं लगती '

  इस पर कन्या ने कहा कि-'मैं त्रिकुट पर्वत पर रहती हूँ  ,

जब मुझे पता चला कि इस गांव में कुमारी कन्याओं का पूजन

और उन्हें भोजन कराया जा रहा है तो मैं यहां आ गई और

संयोगवश नौवीं कन्या का स्थान खाली था। '

कन्या की बात सुनकर श्रीधर और उनकी पत्नी दोनों संतुष्ट

हुए लेकिन भोजन कराने के पश्चात तथा  सारी कन्याओं के

चले जाने के बाद भी  वह कन्या अपने स्थान पर बैठी रही ।

अपने स्थान में बैठी-बैठी वह दोनों को देख मुस्कुराती।

                 तब श्रीधर की पत्नी ने कन्या से पूछा कि-'तुम्हे

अपने घर जाने की जल्दी नहीं है क्या  ? सारी कन्याए तो कब

की चली गई।'   यह सुनकर कन्या हंसकर बोली- ' मैं आपके

घर में भंडारा और ब्राहमण भोजन करवाना चाहती हूँ।  आप

ब्राहमणों  को भंडारे का निमंत्रण दे आइए और साथ ही पूरे

गांव के लोगों को भी बुला लाइए।'

कन्या की बात सुनकर श्रीधर और उनकी पत्नी दोनों एक

दूसरे को देखने लगे । श्रीधर ने कहा-'पुत्री  यह आप क्या कह

रही है, हमारी इतनी औकात कहा कि हम माता रानी का

भंडारा करे और साथ ही पूरे गांव को भोजन भी करा सके '

               'आप बस ब्राहमणों और गांव वालों को न्योता दे

कर आइये बाकि सब मुझ पर छोड दें।  मैं इतना प्रबंध करके

यहां आई हूँ कि सभी को भोजन करा सकती हूँ ' उस दिव्य

कन्या ने श्रीधर से कहा और उन्हें भोजन आदि सामाग्री जो

वह अपने साथ लाई थी दिखाया।

श्रीधर और उनकी पत्नी दोनों उस अपरिचित कन्या की बातों

से अचम्भे में थे उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि यह कन्या

कौन है और कहां से आई हैं,साथ ही यह भंडारा भी करवाना

चाहती है और सारी सामाग्री भी अपने साथ लाई है।

इस तरह दोनों पति पत्नी ने कन्या की बात मान ली और पूरे

गांव में सभी को बुलाने गए । श्रीधर ने गोरखनाथ जी और

उनके शिष्यों भैरवनाथ सहित सब को निमंत्रण दिया ।

सभी गांव वाले तथा भैरवनाथ यह जानने के लिए उत्सुक थे

कि आखिर यह दिव्य कन्या कौन है जो इतना बड़ा आयोजन

अकेले कर रही है।

                        सभी लोग श्रीधर के घर पहुंचे। माँ का

भंडारा हुआ और तत्पश्चात दिव्य कन्या ने सभी को भोजन

परोसना शुरू किया।  गोरखनाथ जी और उनके शिष्य

भैरवनाथ तो समझ गए कि यह कोई साधारण सी कन्या नहीं

है ।  जब कन्या भैरवनाथ के पास पहुंची खाना लेकर तो

उन्होंने खीर पूरी की बजाय मांस और मदिरा की मांग की।

तब कन्या रूपी देवी जगदंबा ने भैरवनाथ से कहा कि यह

भंडारे का भोग है और यहां ब्राहमणों  का भोजन चल रहा है

मांस-मदिरा यहां वर्जित है लेकिन भैरवनाथ जिद पर अड़ गए

और माता को छूना चाहा । माता रानी भैरवनाथ के कपट को

पहचान गई और धीरे से श्रीधर के घर के बाहर जाकर वायु

रूप लेकर अपने निवास स्थान की ओर चल पड़ी । भैरवनाथ

भी श्रीधर के घर से निकल माता का पीछा करने लगे ।

                                     कन्या रूपी देवी जगदंबा ने भैरवनाथ को उनका पीछा करने के लिए मना किया फिर भी

वह न माना और देवी के पीछे -पीछे चलने लगा । देवी अपनी

गुफा में प्रवेश करती है। गुफा के बाहर पवनसुत श्री हनुमान

जी साधु वेश में माता की रक्षा के लिए स्वंय विराजमान होते

है, वे भैरवनाथ को चेतावनी देते हैं कि इस कन्या का पीछा

करना छोड़ दें यह कोई साधारण कन्या नहीं है साक्षात देवी

आदि शक्ति जगदंबा है तू उनका पीछा छोड़ दें । भैरवनाथ

हनुमान जी की बात नहीं मानते हैं और इस तरह दोनों का

युद्ध  शुरू हो जाता है  । माता स्वंय महाकाली का रूप लेकर

भैरव का संहार करती है।  अपनी मृत्यु के पश्चात भैरवनाथ

को  अपनी भूल का अहसास होता है और वह माता से क्षमा -

याचना करता है । माता जानती थी कि इसमें भैरव  की मंशा

मोक्ष प्राप्ति की थी न कि उनका अहित करना ।

                        तत्पश्चात देवी ने भैरवनाथ को सिर्फ मोक्ष

ही नहीं प्रदान किया बल्कि उसे वरदान भी दिया कि जब तक

मेरे दर्शन के लिए आया कोई भक्त तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा

उसकी यात्रा पूर्ण नहीं होगी और देवी सदा के लिए उसी गुफा

में तीन पिण्डियों के रूप में ध्यानमग्न हो गई । ये तीन पिंड

(सिर ) ही माता वैष्णो देवी के रूप में जाने जाते हैं । माँ

काली (दाएँ ) बीच में माँ सरस्वती ओर बाएं तरफ माँ लक्ष्मी

के रूप में माता वैष्णोदेवी यहां विराजमान हुई।

                            दूसरी ओर माता रानी के भक्त श्रीधर भंडारे के दिन से ही व्याकुल हो रहे हैं उन्हें पता था कि

कन्या के रूप में माता वैष्णोदेवी  ही उनके घर पूजन के लिए

आई थी । वे त्रिकुट पर्वत के उसीगुफा की ओर चल पड़े जिस

गुफा को वे अपने सपने में उस रात से देखते थे जब से माता

वहां ध्यानमग्न हुई थी ।
                                 अततः वे उस गुफा में पहुंचे और

वहां विराजमान पिण्डियों की पूजा अर्चना करना अपनी

दिनचर्या बना लिया । समय  के साथ माता रानी की कृपा से

भक्त श्रीधर को  चार पुत्रों की प्राप्ति हुई।  माँ ने श्रीधर की

भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया और तभीसे  श्रीधर

और उनके पुत्र इसके बाद उनके वंशज माँ की पूजा करते

आ रहे हैं।

भीम और हिडिम्बा का ब्याह

आचार्य डा.अजय दीक्षित

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कौरवों द्वारा लाक्षागृह में पांडवो को मार डालने का षडयंत्र

रचा गया था जिसके बारे मे पांडवो  को पहले ही पता चल

गया और उन्होंने  रातो-रात महल के अंदर सुरंग बना लिया

और वहां से निकल गए।  लाक्षागृह षडयंत्र में अपनी जान

बचाने के बाद पांचो पांडव और माता कुंती के साथ एक

जंगल में पहुंचे । यह जंगल मायावी था और इस जंगल में

राक्षसराज हिडिम्ब का राज था ।

                                         जब पांडव भाई और कुंती इस

जंगल में पहुंचे तो उन सभी को बड़ी प्यास लगी थी

फलस्वरूप भीम उन सभी के लिए जल लेने गए और जब

लौटे तो देखा कि सभी थककर  सो चुके थे । भीमसेन को

इस बात का बड़ा अफसोस हुआ कि वे समय पर जल ला न

सके , और वे जागते हुए पहरा देने लगे ।

उधर राक्षस हिडिम्ब को अपने प्रदेश में अपने राक्षस प्रवृत्ति के

कारण मनुष्य के होने की गंध लग गई । उसने अपनी बहन

हिडिम्बा को आदेश दिया कि जल्दी से उन लोगों मनुष्यों को

उसके पास लाया जाए ।

                               हिडिम्बा अपने भाई के आदेश का

पालन करने के लिए उसी जगह पहुँच गई जहां माता कुंती

सहित चारों पांडव सो रहे थे।  हिडिम्बा ने देखा कि एक

मनुष्य ओर भी है जो इधर-उधर घूमते हुए पहरा दे रहा था।

भीमसेन की छवि देखते ही राक्षसी हिडिम्बा भूल गई कि वह

यहां किस उद्देश्य से आई थी । उसने ऐसा सुदंर विशालकाय

हष्ट पुष्ट शरीर  कभी नहीं देखा था  । वह भीम की चाल-ढाल

पर इतनी मोहित हुई कि सुध-बुध खो बैठी कि वह एक

राक्षसी  है और भीम एक मनुष्य ।  हिडिम्बा अपने आप को

रोक न सकी और एक सुंदर स्त्री का वेश धारण कर भीम के

पास गई ।



                 Bheema second pandavas


          
           हिडिम्बा भीम से बोली- 'हे वीर पुरूष ! आप कौन हैं

मैं आपको देखते ही आपपर मोहित हो गई और आपसे विवाह

की इच्छुक हूँ । ' हिडिम्बा के इतना बोलते ही वह अपने

असली रूप में आ गई जिसे देख भीम अचानक से अचम्भे में

आ गए और हिडिम्बा से इसका अर्थ पूछा।

हिडिम्बा ने कहा कि वह इस जंगल के राजा हिडिम्ब की बहन

है और यहां वह उन सभी को अपने भाई के आदेश पर

भोजन के लिए लेने आई हैं।हिडिम्बा के इतना बोलते ही भीम

गुस्से से बेकाबू हो उठे और हिडिम्बा से अपने राक्षस भाई

हिडिम्ब के पास ले जाने को कहा।

                              तत्पश्चात हिडिम्बा भीम को उनकी

माता और भाईयों सहित अपने भाई के पास ले गई ।

राक्षसराज हिडिम्ब तो पहले से ही अपने शिकार का इंतजार

कर रहा था । उन सभी मनुष्यों को एक साथ देखकर बहुत

खुश हुआ और अपनी बहन हिडिम्बा को  खुश होकर देखा ।

दूसरी ओर भीमसेन तो पहले से ही गुस्से में थे और इस

राक्षस को देखकर तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर

पहुंच गए ।

भीम गुस्से से बेकाबू हो उसकी ओर झपटे । हिडिम्ब ने भी

जब भीम को अपनी ओर झपटते देखा तो  वह भी भिड़

गया । उन दोनों में घमासान युद्ध हुआ पंरतु अंत में विजय

भीम की ही हुई । भीम राक्षसी हिडिम्बा को भी मार डालना

चाहते थे लेकिन माता कुंती ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया ।

राक्षसों की परंपरा के अनुसार जो भी व्यक्ति राजा का वध

करता है उसे उसकी कन्या या फिर उसकी बहन से विवाह कर

समस्त राक्षस समुदाय का राजा मान लिया जाता   है ।

हिडिम्बा को इस रिवाज का पता था इसलिए वह बहुत खुश

थी कि उसके मन की मुराद पूरी हो गई । परंतु जैसे ही यह

बात माता कुंती और पांडवो को पता चली उनहोंने साफ मना

कर दिया। एक तो भीम मनुष्य थे और हिडिम्बा राक्षसी  दूसरी

बात कि वे कौरवों की वजह से  एक स्थान पर नहीं रह

सकते थे  ।

हिडिम्बा ने अपने प्रेम के बारे मे भीम की माता को बताया

और उनसे निवेदन करने लगी कि वह भीम को किसी सीमा

मे बांधकर नहीं रखेगी और संतान प्राप्ति के पश्चात भीम

कहीं भी जाने के लिए मुक्त होंगे ।

हिडिम्बा के काफी अनुनय विनय करने के पश्चात माता कुंती

उसके और अपने पुत्र भीम के विवाह के लिए सहमत हो गई ।

                                    राक्षस रीति रिवाज के अनुसार

भीम और हिडिम्बा का विवाह हुआ । विवाह के साथ ही

भीम को राक्षसों का नया राजा घोषित किया जाता है ।

एक साल के भीतर ही हिडिम्बा और भीम को एक पुत्र की

प्राप्ति होती है जिसका नाम "घटोत्कच" रखा जाता है ।

संतान प्राप्ति के पश्चात  हिडिम्बा की बारी आती है कि वह

अपना दिया वचन पूरा करे । फलस्वरूप भीम अपने पुत्र

घटोत्कच को राक्षसों का नया राजा घोषित करते हैं और

अपने चार भाइयों और माता सहित वहां से विदा होते हैं ।

कालयवन का बध

  आचार्य डा.अजय दीक्षित
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कंस द्वारा बाल श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई निष्फल प्रयास
किये गये । एक बार हार कर कंस ने अपने ससुर जरासंध की

मदद ली । जरासंध ने भी कई षडयंत्र रचे लेकिन हर बार उसे
भी असफलता ही हाथ लगी।  तब मगध नरेश जरासंध को

अपने एक मित्र 'कालयवन' की याद आई । कालयवन यवन
देश का राजा था । वह ऋषि शेशिरायण और स्वर्ग की अप्सरा

रंभा का पुत्र था । एक बार ऋषि ने भगवान भोलेनाथ की
तपस्या की थी और उनसे यह वरदान प्राप्त किया था कि

उनका एक पुत्र हो जो अजेय हो सारे अस्त्र-शस्त्र उसके सामने
निस्तेज हो जाए ।भगवान ने उसे यही वरदान प्रदान किया

और कहा तुम्हारा पुत्र अजेय होगा कोई भी चन्द्रवंशी या
सूर्यवंशी राजा उसे हरा नहीं सकता तथा किसी भी अस्त्र-शस्त्र

से उसे मारा नहीं जा सकेगा । इस वरदान के फलस्वरूप ऋषि
एक बार एक झरने के पास से गुज़र रहे थे तो उन्हें वहां एक

अति सुन्दर युवती दिखाई पड़ी जो जल-क्रीड़ा (जलसेखेलना)
कर रही थी । वह युवती ओर कोई नहीं बल्कि अप्सरा रंभा

थी । दोनो ने एक दूसरे को देखा और मोहित हो गए और फिर
उन्होंने विवाह कर लिया । समय के साथ उनका एक पुत्र हुआ

जो कालयवन के नाम से जाना गया ।

                                                उस समय प्रतापी राजा
काल जंग यवन देश पर राज करता था । सभी छोटे-बड़े राजा

उससे डरते थे परंतु वह बहुत दुखी रहा करता था क्योंकि उसकी कोई संतान नहीं थी जो उसके बाद उसके साम्राज्य

का राजा बने । एक बार उसका मंत्री उसे आनंद गिरि पर्वत के बाबा के पास ले गया । वहां बाबा ने उसे परामर्श दिया कि वह

ऋषि शेशिरायण से उनका पुत्र मांग ले तत्पश्चात कलजंग ने
ऋषि को उनका पुत्र मांगा परंतु वे न माने । जब उन्होंने बाबा

की वाणी सुनी तब जाकर अपने पुत्र कालयवन को राजा कालजंग को सौंप दिया फलस्वरूप कालयवन यवन देश का

राजा बना ।

जरासंध के कहने पर कालयवन श्रीकृष्ण को मारने के लिए
मथुरा पहुंचा। उसने संपूर्ण मथुरा को घेर लिया और तब

मथुरा नरेश श्रीकृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा । श्रीकृष्ण
जानते थे कि शिव जी के वरदान के कारण कोई भी उसे नहीं

मार सकता था। इसलिए उन्होंने कालयवन को संदेशा भिजवाया कि युद्ध हम दोनों के बीच हो जाए तो अच्छा है

इसमें पूरी सेना को व्यर्थ मे क्यों शामिल करना । कालयवन ने
उनकी बात मान ली और द्वन्द युद्ध के लिए तैयार हो गया ।

श्रीकृष्ण अपने राजमहल से निकल कर युद्ध भूमि पर आएं।

                                  जब उन दोनों के बीच द्वन्द युद्ध का
जय हो गया तो कालयवन श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा । श्रीकृष्ण

तुरंत ही मुहं घुमाकर रणभूमि छोड़ भागने लगे । उनके इस प्रकार रणभूमि छोड़ कर भागने के कारण ही श्रीकृष्ण का

नाम "रणछोड़" पड़ा । कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ पड़ा
और वे लीला करते हुए भागते रहे । भागते-भागते श्रीकृष्ण

एक गुफा में घुस गए उनके पीछे कालयवन भी घुसा । वहां
एक व्यक्ति पहले से ही सो रहा था तो कालयवन ने सोचा कि

श्रीकृष्ण ही सो रहे हैं , पहले द्वन्द युद्ध के लिए तैयार किया
फिर रणभूमि छोड़ भागने लगे और अब यहां आकर आराम से

सो रहे हैं । ऐसा सोचकर उसने उस सोए व्यक्ति को एक लात
मारी। पैर के प्रहार से उस व्यक्ति की नींद खुल गई और उसने

धीरे-धीरे अपनी आँखे खोली । जैसे ही उसकी नजर कालयवन पर पड़ी , वह जलकर तुरंत ही भस्म हो गया।

यह महापुरुष जो कालयवन को गुफा में मिले इक्ष्वाकु वंशीय
राजा मुचुकुंद थे । सूर्यवंशी राजा मुचुकुंद को यह वरदान प्राप्त

था कि जो भी उन्हें निद्रा से जगाएगा और उनकी प्रथम दृष्टि
उस व्यक्ति पर पड़ेगी वह उसी समय भस्म हो जाएगा ।


शुक्रवार, 26 जुलाई 2019

राम की महिमा राम ही जाने

।।राम की महिमा राम ही जाने ।।
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आचार्य डा.अजय दीक्षित
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कन्धे पर कपड़े का थान लादे और हाट-बाजार जाने की तैयारी करते हुए भक्त कबीर जी को माता लोई जी ने सम्बोधन करते हुए कहा- भगत जी! आज घर में खाने को कुछ भी नहीं है।
आटा, नमक, दाल, चावल, गुड़ और शक्कर सब खत्म हो गए हैं।
शाम को बाजार से आते हुए घर के लिए राशन का सामान लेते आइएगा।

भक्त कबीर जी ने उत्तर दिया- देखता हूँ लोई जी।
अगर कोई अच्छा मूल्य मिला,
तो निश्चय ही घर में आज धन-धान्य आ जायेगा।

माता लोई जी- सांई जी! अगर अच्छी कीमत ना भी मिले,
तब भी इस बुने हुए थान को बेचकर कुछ राशन तो ले आना।
घर के बड़े-बूढ़े तो भूख बर्दाश्त कर लेंगे।
पर कमाल ओर कमाली अभी छोटे हैं,
उनके लिए तो कुछ ले ही आना।

जैसी मेरे राम की इच्छा।
ऐसा कहकर भक्त कबीर जी हाट-बाजार को चले गए।

बाजार में उन्हें किसी ने पुकारा- वाह सांई! कपड़ा तो बड़ा अच्छा बुना है और ठोक भी अच्छी लगाई है।
तेरा परिवार बसता रहे।
ये फकीर ठंड में कांप-कांप कर मर जाएगा।
दया के घर में आ और रब के नाम पर दो चादरे का कपड़ा इस फकीर की झोली में डाल दे।

भक्त कबीर जी- दो चादरे में कितना कपड़ा लगेगा फकीर जी?

फकीर ने जितना कपड़ा मांगा,
इतेफाक से भक्त कबीर जी के थान में कुल कपड़ा उतना ही था।
और भक्त कबीर जी ने पूरा थान उस फकीर को दान कर दिया।

दान करने के बाद जब भक्त कबीर जी घर लौटने लगे तो उनके सामने अपनी माँ नीमा, वृद्ध पिता नीरू, छोटे बच्चे कमाल और कमाली के भूखे चेहरे नजर आने लगे।
फिर लोई जी की कही बात,
कि घर में खाने की सब सामग्री खत्म है।
दाम कम भी मिले तो भी कमाल और कमाली के लिए तो कुछ ले आना।

अब दाम तो क्या,
थान भी दान जा चुका था।
भक्त कबीर जी गंगा तट पर आ गए।

जैसी मेरे राम की इच्छा।
जब सारी सृष्टि की सार खुद करता है,
तो अब मेरे परिवार की सार भी वो ही करेगा।
और फिर भक्त कबीर जी अपने राम की बन्दगी में खो गए।

अब भगवान कहां रुकने वाले थे।
भक्त कबीर जी ने सारे परिवार की जिम्मेवारी अब उनके सुपुर्द जो कर दी थी।

अब भगवान जी ने भक्त कबीर जी की झोंपड़ी का दरवाजा खटखटाया।

माता लोई जी ने पूछा- कौन है?

कबीर का घर यही है ना?
भगवान जी ने पूछा।

माता लोई जी- हांजी! लेकिन आप कौन?

भगवान जी ने कहा- सेवक की क्या पहचान होती है भगतानी?
जैसे कबीर राम का सेवक,
वैसे ही मैं कबीर का सेवक।
ये राशन का सामान रखवा लो।

माता लोई जी ने दरवाजा पूरा खोल दिया।
फिर इतना राशन घर में उतरना शुरू हुआ,
कि घर के जीवों की घर में रहने की जगह ही कम पड़ गई।
इतना सामान! कबीर जी ने भेजा है?
मुझे नहीं लगता।
माता लोई जी ने पूछा।

भगवान जी ने कहा- हाँ भगतानी! आज कबीर का थान सच्ची सरकार ने खरीदा है।
जो कबीर का सामर्थ्य था उसने भुगता दिया।
और अब जो मेरी सरकार का सामर्थ्य है वो चुकता कर रही है।
जगह और बना।
सब कुछ आने वाला है भगत जी के घर में।

शाम ढलने लगी थी और रात का अंधेरा अपने पांव पसारने लगा था।

समान रखवाते-रखवाते लोई जी थक चुकी थीं।
नीरू ओर नीमा घर में अमीरी आते देख खुश थे।
कमाल ओर कमाली कभी बोरे से शक्कर निकाल कर खाते और कभी गुड़।
कभी मेवे देख कर मन ललचाते और झोली भर-भर कर मेवे लेकर बैठ जाते।
उनके बालमन अभी तक तृप्त नहीं हुए थे।

भक्त कबीर जी अभी तक घर नहीं आये थे,
पर सामान आना लगातार जारी था।

आखिर लोई जी ने हाथ जोड़ कर कहा- सेवक जी! अब बाकी का सामान कबीर जी के आने के बाद ही आप ले आना।
हमें उन्हें ढूंढ़ने जाना है क्योंकी वो अभी तक घर नहीं आए हैं।

भगवान जी बोले- वो तो गंगा किनारे भजन-सिमरन कर रहे हैं।

फिर नीरू और नीमा,
लोई जी, कमाल ओर कमाली को लेकर गंगा किनारे आ गए।

उन्होंने कबीर जी को समाधि से उठाया।

सब परिवार वालों को सामने देखकर कबीर जी सोचने लगे,
जरूर ये भूख से बेहाल होकर मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

इससे पहले कि भक्त कबीर जी कुछ बोलते,
उनकी माँ नीमा जी बोल पड़ीं- कुछ पैसे बचा लेने थे।
अगर थान अच्छे भाव बिक गया था,
तो सारा सामान तूने आज ही खरीद कर घर भेजना था क्या?

भक्त कबीर जी कुछ पल के लिए विस्मित हुए।
फिर माता-पिता, लोई जी और बच्चों के खिलते चेहरे देखकर उन्हें एहसास हो गया,
कि जरूर मेरे राम ने कोई खेल कर दिया है।

लोई जी ने शिकायत की- अच्छी सरकार को आपने थान बेचा और वो तो समान घर मे फैंकने से रुकता ही नहीं था।
पता नही कितने वर्षों तक का राशन दे गया।
उससे मिन्नत कर के रुकवाया- बस कर! बाकी कबीर जी के आने के बाद उनसे पूछ कर कहीं रखवाएँगे।

भक्त कबीर जी हँसने लगे और बोले- लोई जी! वो सरकार है ही ऐसी।
जब देना शुरू करती है तो सब लेने वाले थक जाते हैं।
उसकी बख्शीश कभी भी खत्म नहीं होती।
उस सच्ची सरकार की तरह सदा कायम रहती है।

महामृत्युंजय मंत्र पौराणिक महात्म्य एवं विधि

महामृत्युंजय मंत्र पौराणिक महात्म्य एवं विधि
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महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना कई तरीके से होती है। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है।

मंत्र निम्न प्रकार से है
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एकाक्षरी👉  मंत्र- ‘हौं’ ।
त्र्यक्षरी👉  मंत्र- ‘ॐ जूं सः’।
चतुराक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ वं जूं सः’।
नवाक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः पालय पालय’।
दशाक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः मां पालय पालय’।

(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)

वेदोक्त मंत्र👉
महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥

इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।

इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।

मंत्र विचार
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इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।

शब्द बोधक
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‘त्र’ ध्रुव वसु ‘यम’ अध्वर वसु
‘ब’ सोम वसु ‘कम्‌’ वरुण
‘य’ वायु ‘ज’ अग्नि
‘म’ शक्ति ‘हे’ प्रभास
‘सु’ वीरभद्र ‘ग’ शम्भु
‘न्धिम’ गिरीश ‘पु’ अजैक
‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य ‘व’ पिनाक
‘र्ध’ भवानी पति ‘नम्‌’ कापाली
‘उ’ दिकपति ‘र्वा’ स्थाणु
‘रु’ भर्ग ‘क’ धाता
‘मि’ अर्यमा ‘व’ मित्रादित्य
‘ब’ वरुणादित्य ‘न्ध’ अंशु
‘नात’ भगादित्य ‘मृ’ विवस्वान
‘त्यो’ इंद्रादित्य ‘मु’ पूषादिव्य
‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य ‘य’ त्वष्टा
‘मा’ विष्णुऽदिव्य ‘मृ’ प्रजापति
‘तात’ वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।

शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-

शब्द शक्ति 👉 ‘त्र’ त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज
‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति
‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर
‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज
‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष
‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी
‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी
‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति
‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी
‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी
‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय
‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी
‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश
‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श

यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।

महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ।

मंत्र निम्नलिखित हैं
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तांत्रिक बीजोक्त मंत्र
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ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ ॥

संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या
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ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।

महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र
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ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
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महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे।
अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।

1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
6. माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
14. मिथ्या बातें न करें।
15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।

कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?
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महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए।

निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है।
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(1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।
(2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।
(3) जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो।
(4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।
(5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।
(6) धन-हानि हो रही हो।
(7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।
(8) राजभय हो।
(9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।
(10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।
(11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।
(12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।

महामृत्युंजय मंत्र जप विधि
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महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। यहाँ हमने आपकी सुविधा के लिए संस्कृत में जप विधि, विभिन्न यंत्र-मंत्र, जप में सावधानियाँ, स्तोत्र आदि उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार आप यहाँ इस अद्‍भुत जप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

महामृत्युंजय जपविधि – (मूल संस्कृत में)

कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः । आचम्य । प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये।
॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः।
ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः।
इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌।

भूतशुद्धिः विनियोगः
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ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।

आसनः
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ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌।
गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌।
अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा। तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥
॥ इति भूतशुद्धिः ॥

अथ प्राण-प्रतिष्ठा
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विनियोगःअस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।

डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।
ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।
णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌।
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्।
एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः।
हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।
मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।
ततो हृदयकमले न्यसेत्‌।
यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।
रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।
लं मांसात्मने नमः पूर्वे ।
वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे ।
शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।
ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।
सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।
हे जीवात्मने नमः मध्ये एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌।
विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया
देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥

॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥

संकल्प
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तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।

विनियोग
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अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अनीष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।

अथ यष्यादिन्यासः
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ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।
अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।
श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।
श्री बीजाय नमोगुह्ये।
ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।

॥ इति यष्यादिन्यासः ॥

अथ करन्यासः
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ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्रायं शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यं नमः।
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्याँ नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्याँ वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्याँ हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याँ वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्याँ फट् ।

॥ इति करन्यासः ॥

अथांगन्यासः
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ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसे स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रां कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥

अथाक्षरन्यासः
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त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।
बं नमः,
कं नमः,
यं नमः,
जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु ।
मं नमः वामचरणाग्रे ।
हें नमः,
सुं नमः,
गं नमः,
धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु ।
पुं नमः, गुह्ये।
ष्टिं नमः, आधारे।
वं नमः, जठरे।
र्द्धं नमः, हृदये।
नं नमः, कण्ठे।
उं नमः, दक्षिणकराग्रे।
वां नमः,
रुं नमः,
कं नमः,
मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।
वं नमः, बामकराग्रे।
बं नमः,
धं नमः,
नां नमः,
मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।
त्यों नमः, वदने।
मुं नमः, ओष्ठयोः।
क्षीं नमः, घ्राणयोः।
यं नमः, दृशोः।
माँ नमः श्रवणयोः ।
मृं नमः भ्रवोः ।
तां नमः, शिरसि।
॥ इत्यक्षरन्यास ॥

अथ पदन्यासः
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त्र्यम्बकं शरसि।
यजामहे भ्रुवोः।
सुगन्धिं दृशोः ।
पुष्टिवर्धनं मुखे।
उर्वारुकं कण्ठे।
मिव हृदये।
बन्धनात्‌ उदरे।
मृत्योः गुह्ये ।
मुक्षय उर्वों: ।
माँ जान्वोः ।
अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥

मृत्युञ्जयध्यानम्‌
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हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,
द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं,
स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌,
जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड,
इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥

अथ बृहन्मन्त्रः
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ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

समर्पण
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एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥

॥ इति महामृत्युंजय जप विधि ।।
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