गुरुवार, 29 नवंबर 2018

श्री रामायण की कथाएँ-- श्री बालमीक रामायण युद्ध कांड 92 सर्ग

श्री रामायण की कथाएँ--
         श्री बालमीक रामायण युद्ध कांड 92 सर्ग    के अनुसार  इंद्रजीत की मृत्यु के बाद शोक से अत्यंत व्याकुल  रावण ने क्रोधित होकर श्री सीता जी का वध करने का निश्चय किया और  तलवार लेकर अशोक वाटिका की ओर दौड़ा ,--
     मंत्रियो , मंदोदरी आदि ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की परंतु वह नही माना --श्री सीता जी भी उसको क्रोध में आते देखकर भयभीत और चिंचित हो गयी थी फिर रावण  के  सुशील और शुद्ध विचार वाले  मंत्री
" सुपार्श्व " के  बहुत प्रार्थना करने पर वह रुका और सीताजी के वध करने से विरत हुआ । सुपार्श्व ने रावण  के बल , पराक्रम की प्रसंशा करते हुए ,उसे नीति की बाते समझायी तथा बोला --
      "" आज कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी है इसलिए आज ही  युद्ध की  तैयारी करके कल अमावस्या के दिन सेना के साथ प्रस्थान करो ""
     हम विजया दशमी ---दशमी तिथि को मनाते है इस हिसाब से शायद केवल राम रावण का युद्ध 11 दिन चला होगा ?
       
            श्री बालमीक रामायण के 105 वे सर्ग के अनुसार जब श्री राम चन्द्र जी युद्ध से थककर चिंता करते हुए युद्धभूमि में खड़े थे , इतने में ही रावण भी उनके सामने युद्ध के लिए उपस्थित हुआ --यह देखकर श्री अगस्तय मुनि जो देवताओ के साथ युद्ध देखने आए थे -ने श्री राम  के पास आकर उनसे भुवन भास्कर का  सनातन गोपनीय स्त्रोत --" आदित्य ह्रदय  स्त्रोत "" जो परम् पवित्र व संपूर्ण  शत्रुओ का  नाश  करने वाला है  --व सर्व मंगल कारक है का  उपदेश दिया व   पाठ करने का सुझाव दिया --
       उनसे   स्त्रोत  को सुनकर श्री राम का सारा दुख  और  चिंता समाप्त हो गयी और श्री राम ने इस पावन स्त्रोत को ह्रदय में धारण किया  और तीन बार आचमन करके ,शुद्घ होकर , भगवान सूर्य की ओर देखते  हुए इसका 3 बार  जाप किया -- उस समय देवताओ के मध्य में खड़े होकर भगवान सूर्य देव ने भगवान  श्री रामचंद्र की  ओर देखा --और  निशाचर राज रावण के विनाश  का समय निकट जानकर  हर्ष पूर्वक कहा --" रघुनन्दन अब जल्दी करो ""

       श्री राम चरित मानस लंका कांड 93 के अनुसार  अपने कटे सिरों के बदले नए सिरों के प्रगट हो जाने से ,अब मृत्यु  भय से मुक्त हुए  रावण ने एक प्रचंड शक्ति विभीषन की ओर चलायी --
         "" आवत देखी सक्ति अति घोरा ।  प्रनतारति    भजन पन मोरा ।।
             तुरत  विभीषन  पीछे  मेला  । सन्मुख राम  सहेउ सोई सेला ।।""

        भक्तवत्सल श्री राम  का वचन है कि वे  शरण मे आये हुओं  के समस्त  कष्टों से उनकी रक्षा करते है ,इसलिए उन्होंने विभीषण को पीछे करके स्वयम अपनी छाती पर उस शक्ति के वार को झेला - प्रभु की कुछ समय की बेहोशी से ही सभी व्याकुल हो गए --और क्रोधित विभीषन भी रावण से भिड़ गया -- रावण ने नाना प्रकार से  मायावी युद्ध किया -प्रभु ने छन भर में  उसकी सभी माया को काट दिया ,--फिर रावण  के शीशों की बाढ़ से चिंतित और  दुखी   सीता जी को  त्रिजिता  ने  रावण की मृत्यु का रहस्य बताकर समझाया था  --

  श्री राम सब कुछ जानते हुए भी विभीषन से  रावण की मृत्यु का रहस्य जानना चाहते थे , --
        ,""मरइ न रिपु श्रम भयउ विशेषा ।  राम    विभीषन  तन तब देखा ।। ( लंका कांड 2101 / 102 )
           उमा  काल मर  जाकी   इच्छा  । सो प्रभु जन कर   प्रीति परीक्षा ।।
           सुनु   सर्बग्य  चराचर   नायक  ।  प्रनतपाल  सुर मुनि सुखदायक ।।
           नाभिकुण्ड   पियूष  बस याकेँ ।  नाथ   जिअत   रावण बल ताकें ।।
      विभीषण की बात सुनकर   राम ने  --
       खैंचि सरासन  श्रवन  लगि , छाड़े  सर  इकतीस । रघुनायक सायक चले ,मानहु काल  फनीस ।।
            एक   बाण ने  उसकी नाभि का अम्रत कुंड सोखा और बाकी के  बाणों ने  उसके बीस भजाओ और दसो सिरों को काट दिया --फिर उसके धड़ के भी दो टुकड़े कर दिए ।
          तासु तेज समान प्रभु  आनन , हरषे  देखि संभु   चतुरानन  ।।
         रावण की आत्मा  प्रभु के मुख में प्रवेश करके लीन हो गयी -, श्री ब्रम्हा  जी और शंकर जी भी यह देखकर चकित रह गए --
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         एक किम्वदन्ती  यह चल गयी है कि  श्री राम ने मरते हुए  रावण से  धर्म की शिक्षा लेने लक्ष्मण जी को भेजा था -- इसकी सच्चाई का कोई प्रश्न ही नही उठता है -- रावण  के सभी दसो सिर  काट दिए गए थे तथा धड़ भी दो हिस्सों में काट  दिया गया था , आश्चर्य है फिर भी  कपोल कल्पनाएं चलती रहती है
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बुधवार, 28 नवंबर 2018

🍑सुगर को जड से करे खत्म🍎यह एक प्रकार का आयुर्वेदिक काढा है 🍑

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यह नौ वृक्षों के पत्तियों को उबालकर उनका रस निकाला गया है। यह रस सुगर को तुरंत कंट्रोल करता है। धीरे धीरे सुगर को जड से खत्म कर देता है । यह रस पाचन क्रिया को दुरुस्त करता है। कब्ज को हटाता है ।तथा सुगर को पूरी तरह से खत्म करता है।
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आचार्य डा.अजय दीक्षित
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वास्तुशास्त्र में दिशाओं का ज्ञान एवं उनका महत्व

वास्तुशास्त्र में दिशाओं का ज्ञान एवं उनका महत्व
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वास्तुशास्त्र में दिशाओं का ज्ञान रखना महत्वपूर्ण है। वास्तु के सभी सिद्धांत पंच तत्त्व एवं दिशाओं पर ही आधारित हैं। पहले के समय में दिशाओं को जानने के  कई साधन प्रचलित थे जैसे- सूर्य के उदय होने की दिशा, ध्रुव तारे की दिशा इत्यादि पर आज के समय में कुतुबनुमा ( कम्पास ) के आधार पे दिशा ज्ञान अत्यंत आधुनिक एवं विश्वशनीय हो गया है। हम सभी जानते हैं कि दिशायें चार हैं।
(1) पूर्व, (2) पश्चिम, (3) उत्तर और  (4) दक्षिण तथा इन चारों दिशाओं के मिलन स्थान को

जैसे-  आग्नेय(S/E) जो पूर्वी तथा दक्षिण दिशा के संधि स्थान पे हैं,  

नैऋत्य (S/W) जो दक्षिण और पश्चिम दिशा के संधि स्थान पे स्थित है,

वायव्य(N/W) जो पश्चिमी तथा उत्तरी दिशा के संधि स्थान पे स्थित है,

और ईशान्य(N/E) जो पूर्वी तथा उत्तरी दिशा के संधि स्थान पे स्थित है ।

ईशान्य दिशा को वास्तुशास्त्र के अनुसार बहोत ही शुभ एवं पवित्र माना  गया है। इन सभी आठ दिशाओं में क्या निर्माण किया जाना उचित होता है और क्या निर्माण नहीं किया जाना चाहिए वास्तुशास्त्र में हमें यही जानकारी प्राप्त होती है। यदि दिशाओं में सही निर्माण कर लिया जाता है, तो वास्तु नियमो के अनुसार वहां निवास करने वालों लोगों पर किसी भी प्रकार की समस्याएं अथवा दुःख-कष्ट अपना प्रभाव नहीं देते हैं। प्रायः वास्तुशास्त्री  भवन का वास्तु करते समय यही बताते हैं कि फलां दिशा में जो निर्माण किया है, वह ठीक नहीं है अथवा फलां दिशा में यह निर्माण कार्य अवश्य किया जाना चाहिए। भवन के वास्तु को ठीक प्रकार से समझने से पहले यह आवश्यक है कि हम गहराई से इन चार दिशाओं तथा चार कोनों के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त करें। किसी निश्चित दिशा का स्वामी कौन है तथा उसका हमारे जीवन पर किस प्रकार से प्रभाव पड़ता है उस स्वामी को क्या पसंद है क्या पसंद नहीं है। इन सब के बारे में जानकारी होने के साथ जब हम अपने भवन का निर्माण करवाते हैं अथवा किसी बने- बनाए मकान को खरीदते हैं, तो हम स्वयं खुद कुछ न कुछ निर्णय कर सकते हैं कि वहां का वास्तु कैसा है और उसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा। आइये जाने कि हर एक दिशा का कौन स्वामी है, वह दिशा हमें क्या फल प्रदान करती है, उस दिशा का तत्व क्या है, उसकी प्रकृति क्या है ??

(1) पूर्व दिशा

पूर्व दिशा के स्वामी ग्रह सूर्य हैं तथा देवता इंद्र हैं। यह दिशा अग्नि तत्व को प्रभावित करती है। सूर्य को जीवन का आधार माना गया है अर्थात सूर्य ही जीवन है। जिसकी वजह से वास्तुशास्त्र में इस दिशा को हमारी पुष्टि एवं मान-सम्मान की दिशा कहा गया है। सूर्य के आभाव में सृष्टि में न जीवन की कल्पना की जा सकती है और ना ही किसी प्रकार की वनस्पति उत्पन्न हो सकती है। इस लिए भवन निर्माण में पूर्व दिशा में निर्मित किए जाने वाले निर्माणों के बारे में निर्माणकर्ता को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए।  इस दिशा में ऊँचे और भारी निर्माण को शुभ नहीं कहा जा सकता। संभवत इसीलिए कि उचें निर्माण से प्रातः कालीन सूर्य किरणे भवन पे नहीं पहुंच पाती इसलिए ऐसे भवन में निवास करने से भिन्न-भिन्न प्रकार की व्याधियां उत्पन्न हो जाती है।  ऐसे भवन में निवास करने वाले मनुष्य के मान सम्मान की हानि होती है। उस पर ऋण का बोझ बढ़ता है। पित्रदोष लगता है । घर में मांगलिक कार्यों में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। यहां तक कि इस प्रकार का गृह निर्माण करने से घर के मुखिया को मृत्युतुल्य कष्ट एवं व्याधियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।अतः गृहनिर्माण में पूर्व इस दिशा में ज्यादा से ज्यादा खुला स्थान रखने का प्रावधान गृहस्वामी को करना चाहिए। इस दिशा की तरफ पूजन कक्ष, बैठक, बाथरूम आदि बनवाये जा सकते हैं। इस दिशा में खिड़कियां तथा दरवाजे रखना बहोत शुभ हैं और जगह होने की स्थिति में दरवाजे के बहार छोटा सा ही सही लॉन  अवश्य बनाना चाहिए।

(2) पश्चिम
पश्चिम दिशा के स्वामी ग्रह शनि हैं तथा देवता वरुण है। यह दिशा वायु तत्व को प्रभावित करती है। शनि को ज्योतिष में भगवान शंकर द्वारा न्यायाधीश की पदवी प्राप्त हुई है। यह  हमारे कर्मो के आधार पर फला-फल की न्यायोचित व्यवस्था करते हैं। क्यों की आज कलयुग में बुरे कर्मों का बोलबाला है, सो अधिकांश लोग शनि देव को लेकर भय एवं भ्रम की स्थिति में रहते हैं। वास्तु में इस दिशा को कारोबार, गौरव, स्थायित्व, यश और सौभाग्य के लीये जाना जाता है।
इस दिशा में सूर्यास्त होता है। वहीँ आम जनमानस में डूबते हुए सूर्य को देखना शुभ नहीं माना जाता क्यों की सूर्य की ढलती हुई किरणे हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं इसलिए आवश्यक है कि हम भवन में पश्चिम दिशा में भारी और ऊँचा निर्माण करें। इस दिशा में डाइनिग रूम बनवाना शुभ होता है। मेरे अनुभव के अनुसार इस दिशा में बच्चों के लिए उनके पढ़ने का कमरा बनवाना उत्तम होता है क्यों की  शनि ग्रह किसी भी विषय की गहराई में जाने की शक्ति प्रदान करते हैं सो यहाँ बच्चों में गंभीरता आती हैं और वह बुद्धिजीवी होते हैं। यह दिशा जल के देवता वरुण की है इसलिए यहाँ रसोईघर अच्छा नहीं माना गया है। रसोई में अग्नि की प्रधानता होती है और अग्नि एवं जल आपस में शत्रु होते हैं। वैसे इसके अलावां इस दिशा में लगभग सभी निर्माण किये जा सकते हैं।

(3) उत्तर दिशा
उत्तर दिशा के स्वामी ग्रह बुध हैं तथा देवता कुबेर हैं। यह दिशा जल तत्व से प्रभावित है। यह दिशा मातृ भाव की है।  रात्रि में ध्रुव तारा इसी दिशा में निकलता है यह हमारी सुरक्षा तथा स्थायित्व का प्रतीक है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा में खिड़की-दरवाजे अवश्य होना चाहिए। इस दिशा को समस्त आर्थिक कार्यों के निमित्त उत्तम माना जाता है। भवन का प्रवेश द्वार या लिविंग रूम, बैठक, बच्चों के लिए पढाई का कमरा इसी भाग में बनाने का सुझाव दिया जाता है। इस दिशा में भूलकर भी भारी और ऊँचा निर्माण नहीं करना चाहिए इस भाग को संभव हो तो ज्यादा खुला रखना चाहिए । चूंकि  वास्तुशास्त्र के अनुसार भारत उत्तरी अक्षांश पर स्थित है, इसीलिए उत्तरी भाग अधिक प्रकाशमान रहता है। यही वजह है कि वास्तु में हमें घर के उत्तरी भाग को अधिक  खुला रखने का सुझाव दिया जाता है, जिससे इस स्थान से घर में प्रवेश करने वाला प्रकाश बाधित न हो। इस दिशा में सूर्य का भ्रमण नहीं है अर्थात इसे शान्ति की दिशा भी कहते हैं। अगर भवन में इस दिशा में कोई दोष हुआ तो धन-धान्य की कमी के साथ-साथ गृह की शांति भी भंग होगी ।

(4)  दक्षिण दिशा
दक्षिण दिशा के स्वामी ग्रह मंगल हैं तथा देवता यम हैं। यह दिशा पृथ्वी तत्व को प्रभावित करती है इस लिए यह दिशा धैर्य एवं स्थिरता की प्रतीक है। पितृ लोक तथा मृत्यु लोक की कल्पना भी इसी दिशा में की गई है तथा प्रायः पाताल को भी इसी दिशा से जोड़कर देखा जाता है। यह दिशा समस्त बुराइयों का नाश करती है, इस दिशा से शत्रुभय भी होता है तथा यह दिशा रोग भी प्रदान करती है इसी कारण से सभी वास्तुशास्त्री इस दिशा को भारी तथा बंद रखने की सलाह देते हैं। अगर इस दिशा की ज्यादातर खिड़कियां और दरवाजे बंद रक्खें जाय तो इस दिशा के दूषित प्रभाव को रोका जा सकता है। क्षत्रिय वर्ण अथवा इस तरह के वीरता के कार्य करने वाले  इस दिशा में अपना मुख्यद्वार रख सकते हैं।
जिस भूमि पर आप भवन निर्माण कर रहे हैं, उसकी दक्षिण दिशा की तरफ खाली जगह नहीं छोड़नी चाहिए। माना जाता है कि इस तरह की खाली जगह पर आसुरी शक्तियों का प्रभाव हो सकता है अर्थात इस तरह खाली स्थान छोड़ने पर अनिष्टकारक प्रभाव उत्पन्न होने की संभावना हो सकती है।  दक्षिण दिशा की तरफ शयन कक्ष का निर्माण शुभ माना जाता है । इस तरफ बाथरूम टॉयलेट दोनों बनाए जा सकते हैं । दक्षिण दिशा के अशुभता को ध्यान में रखते हुए इस तरफ प्रवेश द्वार अथवा खिड़कियों का निर्माण करने से बचना चाहिए। दक्षिण दिशा की तरफ रसोई घर का निर्माण किया जाना उचित नहीं है। इस तरफ स्टोर रूम बनाया जा सकता है। यह ऐसा स्थान है जहां पर आप भारी समान रख सकते हैं। जब भी आप प्लॉट लेकर भवन का निर्माण करवाते हैं तो दक्षिण दिशा की तरफ के निर्माण को ध्यानपूर्वक करवाएं। यदि आप बना बनाया मकान भी खरीदते हैं तब भी इस दिशा की जांच अपने वास्तुशास्त्री से  ठीक प्रकार से करवा लेनी चाहिए।

(5) आग्नेय (दक्षिण-पूर्व)
आग्नेय दिशा के स्वामी ग्रह शुक्र है तथा देवता अग्नि हैं। इन विदिशावों का वास्तुशास्त्र में बड़ा प्रभाव कहा गया हैं क्यों की इन विदिशावों के स्वामी के प्रभाव के साथ-साथ अन्य ग्रहों व उनके तत्व का भी प्रभाव यहाँ होता है । अग्निकोण में जहाँ शुक्र ग्रह का प्रभाव हैं वही पूर्व दिशा के स्वामी ग्रह सूर्य एवं दक्षिण दिशा के स्वामी ग्रह मंगल का भी प्रभाव है। इस दिशा में अग्नि तत्व प्रमुख माना गया है। यह दिशा ऊष्मा, जीवन शक्ति, और ऊर्जा की दिशा है। रसोईं के लिए यह दिशा सर्वोत्तम है। सुबह के सूरज की पैराबैगनी किरणों का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ने के कारण रसोईघर मक्खी-मक्षर आदि जीवाणुओं से मुक्त रहता है। इस दिशा का सम्बन्ध सीधे तौर पर हमारे स्वास्थ्य से है। अगर भवन में यह दिशा दूषित होती है तो भवन में रहने वाले  प्रायः सभी सदस्यों का स्वास्थ्य किसी न किसी रूप में खराब रहता है अधिकतम स्त्रियों का और जल्दी रोग जाने का नाम नहीं लेता। साथ ही भवन में अग्नि भय और चोरों का भी भय रहता है।
यह दिशा अग्नितत्व की है इसलिए यहाँ पानी का भंडारण नहीं करना चाहिए क्यों की आप-हम सभी जानते हैं कि अग्नि और जल आपस में एक दूसरे के विरोधी तत्व हैं। यहाँ शयनकक्ष को बहोत उचित नहीं कहा गया है यहाँ शयन करने पे मानसिक समस्याएं अधिक हो सकती हैं। इनमे चिंता तथा तनाव मुख्य है । भयानक स्वप्न भी दीखते हैं। इससे बेचैनी हो सकती है। क्यों की इस दिशा में शुक्र के ऊपर मंगल का प्रभाव है जिसकी वजह  से कामेक्षा की अत्यधिक वृद्धि हो जाती है, जो कभी-कभी अनियंत्रित होकर अवांछित परिणामो को जन्म दे सकती है।

(6) नैऋत्य दिशा  (दक्षिण-पश्चिम)
इस दिशा के स्वामी ग्रह राहु हैं तथा यह नैऋति की दिशा है। यह दिशा पृथ्वी तत्व प्रमुख है। क्यों की नैऋति समस्त कष्ट एवं दुखों के स्वामी हैं। इसलिए इस दिशा में निर्माण करवाते समय विशेष सावधानी रखनी चाहिए। वशतुशास्त्र के अनुसाय यह दिशा भवन में रहने वाले व्यक्तियों को जीवन में स्थायित्व प्रदान करती है। विज्ञान कहता है कि ईशान्य से प्रवाहित होनेवाली समस्त प्राणमयी ऊर्जा नैऋत्य में आकर ही रूकती है। विज्ञान के अनुसार इस कोने में सर्वाधिक चुम्बकीय ऊर्जा होती है। इस दिशा के दूषित होने पे अर्थात भवन में इस दिशा में कुआँ, बोरिंग, अंदारग्राउंट पानी का भंडारण, इस दिशा का भारहिन व खुला हुआ होना, मुख्य द्वार आदि होने से भवन में आकस्मिक दुर्घटनाएं, अधिक शत्रुओं का प्रभाव, भूत-प्रेत की समस्याएं, अल्पमृत्यु, तथा स्थायित्व में कमीआदि समस्याओं से भवन घिरा रहता हैं।
इस दिशा में भवन के मुखिया का कमरा होना चाहिए, अपार्टमेंट कल्चर में यहाँ मास्टर बेडरूम सर्वोत्तम होता है। पृथ्वी तत्व की अधिकता होने की वजह से यहाँ शयन करने वाले व्यक्ति को स्थायित्व तो प्राप्त होगा ही साथ ही साथ उसकी पकड़ घर पे मजबूत बनी रहेगी, वह दृढ़ता से फैसले ले पाने में खुद को सहज महशुस करेगा। भवन के इस दिशा वाले कमरे में अत्यधिक भार जैसे- आलमारी ( जिसका द्वार उत्तर की तरफ खुलता हो) कपाट आदि रखना शुभ होता है।

(7) वायव्य कोण ( उत्तर/पश्चिम)
इस दिशा के स्वामी ग्रह चन्द्र हैं तथा देवता वायुदेव हैं। यह दिशा वायु तत्व प्रमुख है। यह दिशा परिवर्तन की है। वायु चलायमान होती है इसी लिए प्रायः इस दिशा में जिनका कमरा होता है वे यात्राएं खूब करते हैं और घर से ज्यादातर बाहर ही रहते हैं। इस दिशा के स्वामी ग्रह चंद्र पे पश्चिम दिशा के स्वामी ग्रह शनि व उत्तर दिशा के स्वामी ग्रह बुध का भी प्रभाव होता है जिससे इस दिशा से भवन में रहने वाले व्यक्तियों को दीर्घायु, स्वास्थ्य एवं शक्ति प्राप्त होती है। साथ ही यह दिशा व्यवहारों में परिवर्तन की भी सूचक  हैं। वास्तुशास्त्र के अनुसार इस कोण में भण्डारगृह बनाना सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि करता है और अन्न पुष्टिवर्धक और सुरक्षित रहता हैं। यह दिशा चंद्रमा की होती है और चंद्रमा को ज्योतिष में मां ( स्त्री ) का कारक कहा गया है। अगर भवन में इस दिशा में कोई दोष पूर्ण निर्माण हुआ तो भवन की स्त्रियों को स्वास्थ्य की परेसानी झेलनी पड़ सकती है। अक्सर इस दिशा के दोष की वजह से मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। शक्ति का ह्वास हॉता है। आयु क्षीण होती है। अच्छे व्यवहार परिवर्तित हो जाते हैं। भवन में रहने वाले प्रायः घमंडी भी हो जाते हैं। अदालती मामले उत्पन्न हो जाते हैं।
इस दिशा में टॉयलेट, मेहमानों का कमरा, नौकरों का कमरा, बेडरूम, गौशाला अथवा गैरेज बनाना शुभ होता है।

(8) ईशान दिशा ( उत्तर/पूर्व)
इस दिशा के स्वामी ग्रह बृहस्पति है। यह  भगवान शिव (ईश) की दिशा है। इस दिशा में  जल तत्व का प्रभाव है।यहाँ देव गुरु बृहस्पति के साथ पूर्व दिशा के स्वामी ग्रह सूर्य और उत्तर दिशा के स्वामी ग्रह बुध का भी प्रभाव होने से यह दिशा हमें बुद्धि, ज्ञान, विवेक, धैर्य एवं साहस तथा धर्माचरण प्रदान करती है। वास्तुशास्त्र के अनुसार भवन की इस दिशा को सदा पवित्र एवं हल्का-फुल्का रखना शुभ होता है ऐसे घर पर देवताओं की कृपा होती है। यह दिशा वास्तु नियमों के अनुसार व्यवस्थित की जाये तो भवन में रहने वाले सभी व्यक्ति विद्यावान, गुणवान, तेजवान, तथा सौभाग्यवान होते हैं और धर्म का आचरण करने वाले होते हैं।
इस दिशा में पूजा घर, अध्यन कक्ष, बैठक का निर्माण शुभ माना गया है। इस जगह शौचालय, सीढ़ी, रसोईं, का निर्माण बहोत ही अशुभ माना गया है। अगर असावधानी वस इस दिशा में ऐसा कुछ निर्माण भवन में हो जाता है तो फिर भवन में रहने वाले व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न प्रकार के कष्ट झेलने पड़ते हैं, बुद्धि भ्रष्ट होती है। कलहपूर्ण वातावरण बना रहता है। भवन में  कन्या संतान अधिक जन्म लेती हैं। अगर पुत्र हो भी जाये तो  उसकी अल्प मृत्यु की संभावना हमेसा बनी रहती है। ऐसे भवन में निवास करने वाले प्रायः मानसिक रोगों के शिकार मिलते हैं। वास्तुपुरुष का मस्तक आने से दिमांक संबंधी परेशानिया देखी जाती हैं। प्रायः घर के बालकों के बुद्धि के विकाश में अवरोध उत्पन्न होता है।

ब्रह्म स्थल ( आकाश )

इस दिशा के स्वामी ग्रह गुरु-केतु हैं यह ब्रह्मदेव की दिशा है । भवन में ब्रह्मस्थल का बहोत महत्त्व है, इस जगह को सर्वाधिक शुभ और श्रेष्ठ कहा गया है। इस जगह पे कोई भी निर्माण करने से वास्तुशास्त्र में रोका गया है। इसी लिए पुराने समय के भवनों के ठीक विचो-विच आंगन छोड़ने की परंपरा थी।  और इस आंगन में तुलसी का पौधा भी लगाते थे और संध्या समय उस पौधे के पास घी का  दीपक जलाते थे जिससे भवन में  नकारात्मक शक्तियाँ फटकने भी नहीं पाती थी। यही वास्तुपुरुष का नाभि स्थल होता है। भवन की प्रताड़ित वायु इसी आंगन के रास्ते निकल जाती थी और भवन में रहने वाले लोग निरोग एवं स्वस्थ्य रहते थे। पर आज के समय में आंगन वाली परंपरा समाप्त हो चुकी है। सहरों में फ़्लैट सिस्टम एवं मल्टीस्टोरी बिल्डिंगों में अब आंगन की कल्पना करना भी हास्यपद है। पर फिर भी ध्यान रखना चाहिए कि इस स्थान पे भारी सामान न रखा जाये, यहाँ साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए। यहाँ अगर पिलर  अथवा खम्भा हो तो उसका उचित उपचार करवाना आवश्यक है। फ़्लैटों में यहाँ पूजा स्थल रखना शुभ होता है।

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

राधारानी के चरण चिन्ह

।। राधे राधे जी।।



                         


                      ।। जय श्री कृष्ण।।
         राधारानी के उन्नीस चरण  मंगल चिन्ह
         श्रीराधा जी बांये पैर के 11 चिह्न सज्जित हैं :-   जौ,  चक्र,  छत्र,  कंकण,  ऊर्ध्वरेखा, कमल,  ध्वजा , अर्धचंद्र,  अंकुश,   पुष्प, पुष्पलता,
अंगूठे  में  जौ, उसके नीचे  चक्र, फिर  छत्र, कंकण,  बगल में  ऊर्ध्वरेखा,  मध्य मे  कमल, नीचे ध्वजा,  अंकुश,   ऊंगलियों मे  अर्धचन्द्र,  पुष्प  और  लता   के चिह्न हैं।
        1. जौ  - जौ  सांसारिक मोहमाया को छोड़कर इन चरणकमलों की शरण लेने से सारे पाप-ताप मिट जाते हैं। जौ का चिह्न सर्वविद्या और सिद्धियों का दाता है, इसके ध्यान से भक्त जन्म मरण के छुटकर जौ के दानो के समान बहुत छोटी हो जाती है।
        2. चक्र - राधा कृष्ण के चरण कमल का ध्यान  काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, आदि से भक्तों के मन की कामरूपी निशाचर को मारकर अज्ञान का नाश कर देता है।
        3. छत्र – शरण ग्रहण करने वाले भक्त भौतिक कष्टों कि अविराम वर्षा से बचे रहते है।
       4. कंकण  -  निकुंजलीला में कंकणों के मुखरित श्रीराधा ने कंकण उतारकर उसके चिह्न अपने चरणकमल में धारण किया है।
       5. उर्ध्व रेखा – जो भी राधाश्याम के पद कमल से लिपटे रहते है, यह संसार रूपी सागर पार कर श्रीराधा ऊर्ध्वरेखा नामक पुल से संसार के सागर से पार हो जाते है।
       6. कमल -श्री चरण कमल चिह्न का भाव सभी प्रकार के वैभव व नवनिधि का दाता है। इससे भक्तो के मन में प्रेम हेतु लोभ उत्पन्न करता है।
      7. ध्वज – भय से  सुरक्षा करता है कलियुग मे कुटिल गति देख मनुष्य शीघ्र भयभीत हो जायेगा। उसकी निर्भयता और विजय हेतु श्रीराधा ने अपने चरण में ध्वज धारण किया है।
      8. पुष्प - श्रीराधा के चरण कठोर न प्रतीत हों इस हेतु पुष्पचिह्न धारण करती हैं। इसका ध्यान करने से श्रीराधाजी की भक्ति प्राप्त करता है।
       9. पुष्पलता  - श्रीराधा के चरण में लता चिह्न, और श्रीकृष्ण के चरण में वृक्ष चिह्न है। जिस प्रकार लता वृक्ष का आश्रय लेकर सदैव ऊपर चढ़ती चली जाती है उसी प्रकार श्रीराधा सदैव श्रीकृष्णाश्रय में रहती हैं। इसका ध्यान करने से सदैव उन्नति होती है।
      10. अर्धचंद्र - अर्ध-चन्द्र निष्कलंक माना गया है। इसलिये श्रीराधा जी ने अपने चरण मे धारण कर चन्द्र को शोभित किया है अर्ध-चन्द्र के चिह्न का ध्यान त्रिताप को नष्ट करके भक्ति और समृद्धि को बढ़ाता है।
       11. अंकुश - अंकुश मन रूपी गज को वश में करता है उसे सही मार्ग दिखाता है इसलिये श्रीराधा के चरणों में अंकुश चिह्न का ध्यान करना चाहिए।
        राधारानी जी के दाये चरण आठ मंगल चिन्ह से अलंकृत है।
       शंख,   पर्वत ,   रथ,   मीन,   वेदी,    गदा, पाश,    कुंडल.
     दो उंगलियों के नीचे   पर्वत,    फिर   गिरी, शंख ,   गदा,    वेदी,   कुंडल,   पाश,   मीन इस प्रकार कुल 8 चिह्न हैं।
       १. शंख - शंख विजय का प्रतीक है यह बताता है श्री राधा चरणकमल ग्रहण करने पर व्यक्ति सदैव दुख से बचे रहते है और अभय दान प्राप्त करते है. इसलिए श्रीराधा के चरण में जलतत्त्वरूपी शंख का चिह्न है।
        २. पर्वत  -   गिरी-गोवर्धन की गिरिवर के रूप में व्रज में सर्वत्र पूजा होती है,  गिरी-गोवर्धन राधिका की  चरण सेवा करते है. इसलिये गिरिगोवर्धननाथ (श्रीकृष्ण) हैं, वे श्रीराधा की आराधना करते हैं। श्रीराधा की इसी महिमा से ही चरण में पर्वत का चिह्न है।
        ३. रथ -   मन रूपी रथ को राधा के चरणकमलों में लगाकर सुगमता पूर्वक नियंत्रित किया जा  सकता है. इस हेतु श्रीराधा के चरण में रथ के चिह्न का भाव है क्योंकि संसार रथरूप है जो निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा है. उसकी सारथि श्रीयुगलस्वरूप श्रीराधाकृष्ण हैं। श्रीराधा के रथ चिह्न का ध्यान करने से संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
       ४. मीन –     जिस प्रकार मछली जल के बिना नहीं रह सकती, उसी तरह भक्त भी राधा-श्याम के बिना नहीं रह सकते. जैसे जल के बिना मछली जिन्दा नहीं रहती उसी प्रकार श्रीराधा श्रीकृष्ण भी अभिन्न हैं। श्री चरण में मछली का चिह्न इसी भाव को प्रकट करता है।
        ५. वेदी -   श्रीराधा और श्रीकृष्ण दोनों अभिन्न हैं। श्रीकृष्ण यज्ञरूप हैं तो श्रीराधा स्वाहा होता है, इसलिए श्रीराधा के चरणों में वेदी का चिह्न है।
        ६.गदा -    श्रीकृष्ण विष्णुरूप में गदाधारी हैं, इसलिए श्रीराधा के चरणों में गदा का चिह्न है। इसके ध्यान से शत्रु नष्ट हो जाते हैं, पितरों की सद्गति होती है।
         ७. पाश -     श्रीराधा के चरणकमल में पाश-चिह्न का भाव है, जो भी इसका ध्यान करता है शरण प्रेमपाश में फंसकर भवसागर से तर जाता है।
        ८. कुंडल -      श्रीराधा के चरणों के नूपुर से जो कलरव होता है, वही विश्व में शब्दब्रह्मरूप में व्याप्त है। उनकी मधुर झंकार सुनने के लिए श्रीकृष्ण के कान सदैव तरसते रहते हैं इसलिए श्रीकृष्ण के कुंडल के चिह्न श्रीराधा के चरणों में हैं। इनके ध्यान से साधक को सुख प्राप्त होता है।         
                                ।। जय श्री कृष्ण।।                                             
                                 ।। राधे राधे जी।।