मंगलवार, 4 जुलाई 2017

क्या संत रविदास जी ब्राह्मण थे ? 🔮डा.अजय दीक्षित 🔮

 गोस्वामी तुलसीदासजी तुलसी­सतसईमें कहते हैं –
                                
चतुराई चूल्हे परो भारो पलो अचार।
तुलसी भजे न राम को चारों बरन चमार॥
(तु.स.स.)
अर्थात् जो भगवान्‌का भजन नहीं करता, केवल चमड़ेपर प्रीति रखता है, वही तो चमार है। यह सुनकर जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीने क्रोध करके कह दिया – “जाओ, अब तुम्हारा जन्म चमारके घरमें होगा।” ब्रह्मचारीका शरीर छूट गया, और उनका जन्म काशीमें रह रहे रघुचमारके यहाँ हुआ, जबकि वे चमार होते हुए भी ‘हरिजन’ थे अर्थात् भगवद्भक्त थे। नवजात शिशुको पूर्वजन्मका स्मरण था। वह दूध नहीं पी रहा था, सतत रो रहा था। सब लोगोंको चिन्ता हुई – “क्या किया जाए?” तब जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजी स्वयं उसके घर पधारे, क्योंकि महाराजको आभास हो गया था कि उनके द्वारा अभिशप्त शिष्य उनके दर्शनोंके लिये चिल्ला रहा है। जगद्गुरुजीका अपनी झोंपड़ीमें आगमन देखकर वे दम्पती बहुत प्रसन्न हुए। रघुचमारने अपनी पत्नीके सहित आचार्यचरणमें अभिवादन किया, और कहा – “भगवन्! इस बालकको बचा लीजिये।” जगद्गुरु रामानन्दाचार्यजीने बालकको श्रवणमें राम­मन्त्र सुनाया और उनको कहा – “कोई बात नहीं, अब मैंने शापका अनुग्रह कर लिया है। अब तुम चिन्ता मत करो। जो हुआ, सब ठीक हुआ।” फिर तो भगवान्‌की कृपासे रैदासजीकी भक्ति दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती गई।
अन्ततोगत्वा रैदासजीका उन्हींकी ज्ञातिकी एक भगवत्परायणा महिलासे विवाह हुआ, जिनका नाम था प्रभुता। प्रभुताजीके साथ जब रैदासजी गृहस्थाश्रममें आए तब तो और भजनका रङ्ग चढ़ गया। संयोग होते हैं। रघुचमारने रैदासजीको घरसे निकाल दिया और उन्हें कुछ नहीं दिया, पीछे थोड़ा-सा स्थान दे दिया। वहाँ रैदासजी झोंपड़ी बनाकर रहते थे। कुछ नहीं था, पर भगवान् तो भगवान्! भगवान् आनन्द करते थे। एक बार भगवान् श्रीराम एक सेठके रूपमें आए और उन्होंने कहा – “रैदास! ये लो। मैं तुमको एक पारस­मणि देता हूँ। इसे जिससे भी स्पर्श कराओगे, लोहा सोना बन जाएगा।” रैदासजीने कहा – “रख दीजिये, छप्परके कोनेमें रख दीजिये, हम नहीं जानते।” तेरह महीनेके पश्चात् जब भगवान् फिर आए और उन्होंने पूछा – “तुमने इसका उपयोग क्यों नहीं किया?” रैदासजीने कहा – “नहीं, आप अपनी मणि ले जाइये। मैं क्या करूँगा? मुझको तो आपके चरणके चिह्न ही पारस लगते हैं,” मानहुँ पारस पायउ रंका (मा. २.२३८.३), “संतोंका स्पर्श भी पारस लगता है,” पारस परसि कुधातु सुहाई (मा. १.३.९)। फिर तो भगवान् प्रातःकाल उनको पाँच मोहर अर्पित करने लगे। उनको भी जब रैदासजीने नहीं छूना चाहा तो भगवान्‌ने उन्हें सपनेमें आज्ञा दी – “देखो हठ मत करो। इन्हीं मोहरोंसे लेकर मन्दिर बनवाओ और ठीक-से संत­सेवा करो।” रैदासजीने वैसा ही किया। वे पक्के चमड़ेसे जूती बनाते थे और संतोंको धारण करानेमें कोई पैसा नहीं लेते थे, अन्यसे जो मिल जाता था उसीसे उनकी जीविका चलती थी। उनका भजन अद्भुत होता गया और जीवन भगवन्मय चलने लगा।
एक बार चित्तौड़की महारानीने काशी आकर उनसे दीक्षा ली और उन्हें बुलवाया – “आप चित्तौड़ पधारें।” श्रीरैदासजी महाराज चित्तौड़ गए। ब्राह्मणोंने आपत्ति की – “ये तो ब्राह्मण नहीं हैं, हम कैसे भण्डारेमें आएँगे?” जब भण्डारा हुआ, तब यद्यपि रैदासजी नहीं गए थे फिर भी हर दो ब्राह्मणोंके बीचमें एक रैदासजी दिख जाते थे। ब्राह्मण आश्चर्यमें पड़ गए। राज­सिंहासनपर बैठकर रैदासजीने अपने कंधेको चीरकर सोनेका जनेऊ दिखा दिया अर्थात् बता दिया – “मैं पूर्वजन्मका ब्राह्मण ही हूँ। यह तो शापवशात् इस शरीरमें आ गया हूँ।” काशीमें आनेपर जब कर्मकाण्डियोंने रैदासजीका विरोध किया और कहा – “इसे पूजाका अधिकार नहीं है,” तो काशिराजने एक व्यवस्था दी – “भगवान्‌की मूर्तिको रख दिया जाए। जिसके कहनेपर भगवान् गोदमें आ जाएँगे, पूजाका अधिकार उसे मिल जाएगा।” कर्मकाण्डी पुरुष­सूक्तका वाचन करते रहे, कुछ अन्तर नहीं पड़ा। रैदासजीने जब कहा – पतित पावन नाम आज प्रकट कीजै, तुरन्त सिंहासन­सहित भगवान् रैदासजीकी गोदमें आ गए। इस प्रकार रैदासजीका जीवन भगवन्मय और भक्तिपरायण था, और संत­सेवामें ही संपन्न हुआ। और उन्होंने यह कहा – प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी

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