भगवान शंकर द्वारा इन्द्र का अभिमान हरण*
ब्रम्हा जी ने कहा- "इस समय सूर्यपुत्र यमराज महायज्ञ में लगे हुए है, इसी से पृथ्वी के प्राणियों की मृत्यु नहीं हो रही है । जब वे अपना सब काम पूरा कर लेंगे, तब लोगों की मृत्यु होगी । तुमलोगों की शक्ति से शक्तिमान होकर यमराज मृत्यु लोक के प्राणियों का संहार करेंगे । तब मनुष्य तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकेंगे । लोक-पितामह ब्रह्मा की यह बात सुनकर देवता लोग उसी स्थान पर गये, जहाँ यज्ञ हो रहा था ।
एक दिन सब लोग नदी के तट पर बैठे हुये थे । उन्होंने देखा कि धारा में एक बड़ा ही सुन्दर कमल बहा जा रहा है । उसे देखकर लोगो को बड़ा आश्चर्य हुआ । देवताओ में सबसे श्रेष्ठ देवराज इंद्र वहाँ उपस्थित थे । उनके मन में उस पुष्पका समाचार जानने की उत्सुकता हुई । वे चल पड़े, आगे जाने पर उन्होंने देखा कि जहाँ से नदी निकली है ।
वहां एक बड़ी तेजस्वनी स्त्री नदी के भीतर खड़ी होकर जल भर रही है । उसकी आँखों से आँसु बह रहे थे । *'आँसु की जो बुँदे नदी में गिरती, वही सोने का कमल हो जाता ।'* इन्द्र उसके पास गये ।
उन्होंने उससे पूछा - "कल्याणी ! तुम कौन हो ? किसलिये रो रही हो ? अपनी सब बात मुझसे कहो ।" उस स्त्री ने कहा - "देवराज ! आप तनिक मेरे साथ आगे चले आये, आपको मालूम हो जाएगा कि मैं कौन हूँ और क्यों रो रही हूँ ।" इन्द्र उसके पीछे - पीछे चलने लगे । इन्द्र ने आगे जाकर देखा कि हिमाचल के शिखर पर एक परम् सुन्दर युवा पुरुष सिद्धासन लगाये बैठा है और उसके पास ही एक सुन्दरी युवती बैठी है । वे दोनों आसपास में चौसर खेल रहे थे । इन्द्र के पहुचने पर भी उन लोगो ने कुछ विशेष ध्यान नही दिया । इन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि ये तो मेरा अपमान कर रहे हैं । उनके कलेजे में कुछ थोड़ी-थोड़ी जलन होने लगी । उन्होंने क्रोध पूर्ण दृष्टि से उस पुरुष की ओर देखकर कहा -- "युवक क्या तुम नहीं जानते कि मैं इस लोक का स्वामी हूँ ? यह लोक मेरे अधीन है । अब भी तुम्हे मालूम होना चाहिये कि मैं ईश्वर हूँ ।"
वह पुरुष अपने खेल में तन्मय हो रहा था । इन्द्र के इस प्रकार कहने पर उसने एक बार सिर उठाया और हँस दिया । एक बार उसकी दृष्टि इन्द्र पर पड़ गयी; दृष्टि पड़ते ही इन्द्र ठूँठ के समान हो गये - न हिल सकते और न ही डोल सकते थे ।
वह स्त्री रोने लगी, खेल समाप्त होने पर उस पर युवा पुरुष ने रोती हुई स्त्री से कहा - "इन्द्र को मेरे पास ले आओ, मैं इन्द्र का अनिष्ट नही कर रहा हूँ । मैं ऐसा उपाय कर रहा हूँ कि *'इन्द्र को अपने ईश्वरपन का कभी गर्व न हो ।'* स्त्री ने जाकर ज्योही इन्द्र को स्पर्श किया, इन्द्र पृथ्वी पर गिर पड़े ।
*'तेजस्वी युवक रूपधारी भगवान शंकर'*ने कहा- "इंद्र अब कभी इस प्रकार अभिमान मत करना कि 'मैं ईश्वर हूँ ' । तुम्हारे शरीर में जो बड़ी शक्ति है, वह तुम्हारी नही दूसरे की है । अच्छा माना तुम्हारे अन्दर बड़ी शक्ति है, तुम इस पर्वत-शिला को हटाकर नीचे की गुफा में जाओ, वहाँ तुम्हारे समान और भी तेजस्वी इन्द्र है । इन्द्र ने वैसा ही किया । उस शिला के हटने पर देखा कि उसके समान चार इन्द्र वहाँ है । उन्हें देखकर इन्द्र को बहुत दुःख हुआ, और सोचने लगे - क्या मेरी दशा भी इन्ही के समान होगी ।
वहां एक बड़ी तेजस्वनी स्त्री नदी के भीतर खड़ी होकर जल भर रही है । उसकी आँखों से आँसु बह रहे थे । *'आँसु की जो बुँदे नदी में गिरती, वही सोने का कमल हो जाता ।'* इन्द्र उसके पास गये ।
उन्होंने उससे पूछा - "कल्याणी ! तुम कौन हो ? किसलिये रो रही हो ? अपनी सब बात मुझसे कहो ।" उस स्त्री ने कहा - "देवराज ! आप तनिक मेरे साथ आगे चले आये, आपको मालूम हो जाएगा कि मैं कौन हूँ और क्यों रो रही हूँ ।" इन्द्र उसके पीछे - पीछे चलने लगे । इन्द्र ने आगे जाकर देखा कि हिमाचल के शिखर पर एक परम् सुन्दर युवा पुरुष सिद्धासन लगाये बैठा है और उसके पास ही एक सुन्दरी युवती बैठी है । वे दोनों आसपास में चौसर खेल रहे थे । इन्द्र के पहुचने पर भी उन लोगो ने कुछ विशेष ध्यान नही दिया । इन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि ये तो मेरा अपमान कर रहे हैं । उनके कलेजे में कुछ थोड़ी-थोड़ी जलन होने लगी । उन्होंने क्रोध पूर्ण दृष्टि से उस पुरुष की ओर देखकर कहा -- "युवक क्या तुम नहीं जानते कि मैं इस लोक का स्वामी हूँ ? यह लोक मेरे अधीन है । अब भी तुम्हे मालूम होना चाहिये कि मैं ईश्वर हूँ ।"
वह पुरुष अपने खेल में तन्मय हो रहा था । इन्द्र के इस प्रकार कहने पर उसने एक बार सिर उठाया और हँस दिया । एक बार उसकी दृष्टि इन्द्र पर पड़ गयी; दृष्टि पड़ते ही इन्द्र ठूँठ के समान हो गये - न हिल सकते और न ही डोल सकते थे ।
वह स्त्री रोने लगी, खेल समाप्त होने पर उस पर युवा पुरुष ने रोती हुई स्त्री से कहा - "इन्द्र को मेरे पास ले आओ, मैं इन्द्र का अनिष्ट नही कर रहा हूँ । मैं ऐसा उपाय कर रहा हूँ कि *'इन्द्र को अपने ईश्वरपन का कभी गर्व न हो ।'* स्त्री ने जाकर ज्योही इन्द्र को स्पर्श किया, इन्द्र पृथ्वी पर गिर पड़े ।
*'तेजस्वी युवक रूपधारी भगवान शंकर'*ने कहा- "इंद्र अब कभी इस प्रकार अभिमान मत करना कि 'मैं ईश्वर हूँ ' । तुम्हारे शरीर में जो बड़ी शक्ति है, वह तुम्हारी नही दूसरे की है । अच्छा माना तुम्हारे अन्दर बड़ी शक्ति है, तुम इस पर्वत-शिला को हटाकर नीचे की गुफा में जाओ, वहाँ तुम्हारे समान और भी तेजस्वी इन्द्र है । इन्द्र ने वैसा ही किया । उस शिला के हटने पर देखा कि उसके समान चार इन्द्र वहाँ है । उन्हें देखकर इन्द्र को बहुत दुःख हुआ, और सोचने लगे - क्या मेरी दशा भी इन्ही के समान होगी ।
भगवान शंकर द्वारा पाँचों इंद्र एवं स्वर्ग-लक्ष्मी को मृत्यु-लोक में जन्म लेने भेजना*
भगवान शंकरजी ने अपने दया भरे चेहरे को कठोर बनाया और भयंकर भाव प्रकट करते हुए कहा - "इन्द्र ! मूर्खता के कारण तुमने मेरा अनादर किया है । जाओ, तुम भी इसी इसी गुफा में रहो ।" शंकरजी ई बात सुनकर इन्द्र मारे डर के थर-थर काँपने लगे । उन्होंने अञ्जलि बांधकर कर सिर नवाकर भगवान शंकर से निवेदन किया-- "प्रभो ! आपने। मुझ पर विजय पायी । आप स्वयं तीनो लोको के स्वामी हो ।" भगवान शंकर बड़ी उग्र हँसी हँसने लगे । उन्होंने कहा-
"ऐसे अभिमानियों को कभी क्षमा नही करना चाहिये । जिन्हें तुम गुफा में देख रहे हो वो भी ऐसा ही काम कर चुके हैं । उसी के फलस्वरूप उन्हें यह दशा प्राप्त हुई है, अब तुम भी इसी गुफा में पड़े रहो । *'इसके बाद तुम सबको और इस स्त्री को मनुष्य-योनि में मृत्यु-लोक में जन्म लेना पड़ेगा । यह स्त्री तुम पाँचों की धर्मपत्नी होगी । तुम लोग अद्धभुत कार्य और असंख्य प्राणियों का नाश करके फिर अपने कार्य के फलस्वरूप पूर्वोपार्जित इंद्रलोक को आ जाओगे । इसके अतिरिक्त मनुष्य लोक में तुम्हे और भी कम करने पड़ेंगे । मेरी बात सर्वथा सत्य होगी ।'*
पहले के इंद्र ने कहा- प्रभो ! हम आपकी आज्ञा का पालन करेगें । मृत्यु लोक में में जन्म लेकर मोक्ष ही प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु यह बहुत कठिन है । हमारी प्रार्थना यह है कि हम किसी मनुष्य के द्वारा उत्पन्न न हो, बल्कि धर्म, वायु, सूर्य और अश्वनी कुमारों से ही हमारी उतप्ति हो । दिव्य अस्त्रो के द्वारा हम मनुष्यो से युद्ध कर और अंत में अपने लोक लौट आये । नये आये हुए इन्द्र ने कहा - "मैं देव कार्य के लिए पाँचवा पुरुष उत्पन्न कर दूंगा ।"
भगवान शंकर ने प्रार्थना स्वीकार की और उस स्त्री को आज्ञा दी जो की उस समय भी रो रही थी । उन्होंने कहा-- *"कल्याणी ! तुम स्वर्ग की लक्ष्मी हो । तुम आदिशक्ति भगवती लक्ष्मी की अंशरूपा ( सीता हरण के समय भगवान श्रीराम ने सीताजी की छाया-मूर्ति रूप में प्रकट किया था, सीताजी अग्नि प्रवेश के बाद इन्ही का हरण हुआ था ) हो, तुम भी इन लोगो के साथ मर्त्यलोक में जाओ और इन पाँचों की धर्मपत्नी बनो ( पूर्व में पढ़ चुके हैं कि इन्होंने पाँच बार पति की कामना थी, पाँच पतियों का वरदान मिला था ) ।*
*उस स्त्री भगवान शंकर की आज्ञा को शिरोधार्य किया । इन पाँचों इन्द्रो के नाम ये है - 'विश्वभूक, भूतधाम, शिबि, शान्ति और तेजस्वी । वह स्त्री स्वर्ग की लक्ष्मी ।'*
"ऐसे अभिमानियों को कभी क्षमा नही करना चाहिये । जिन्हें तुम गुफा में देख रहे हो वो भी ऐसा ही काम कर चुके हैं । उसी के फलस्वरूप उन्हें यह दशा प्राप्त हुई है, अब तुम भी इसी गुफा में पड़े रहो । *'इसके बाद तुम सबको और इस स्त्री को मनुष्य-योनि में मृत्यु-लोक में जन्म लेना पड़ेगा । यह स्त्री तुम पाँचों की धर्मपत्नी होगी । तुम लोग अद्धभुत कार्य और असंख्य प्राणियों का नाश करके फिर अपने कार्य के फलस्वरूप पूर्वोपार्जित इंद्रलोक को आ जाओगे । इसके अतिरिक्त मनुष्य लोक में तुम्हे और भी कम करने पड़ेंगे । मेरी बात सर्वथा सत्य होगी ।'*
पहले के इंद्र ने कहा- प्रभो ! हम आपकी आज्ञा का पालन करेगें । मृत्यु लोक में में जन्म लेकर मोक्ष ही प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु यह बहुत कठिन है । हमारी प्रार्थना यह है कि हम किसी मनुष्य के द्वारा उत्पन्न न हो, बल्कि धर्म, वायु, सूर्य और अश्वनी कुमारों से ही हमारी उतप्ति हो । दिव्य अस्त्रो के द्वारा हम मनुष्यो से युद्ध कर और अंत में अपने लोक लौट आये । नये आये हुए इन्द्र ने कहा - "मैं देव कार्य के लिए पाँचवा पुरुष उत्पन्न कर दूंगा ।"
भगवान शंकर ने प्रार्थना स्वीकार की और उस स्त्री को आज्ञा दी जो की उस समय भी रो रही थी । उन्होंने कहा-- *"कल्याणी ! तुम स्वर्ग की लक्ष्मी हो । तुम आदिशक्ति भगवती लक्ष्मी की अंशरूपा ( सीता हरण के समय भगवान श्रीराम ने सीताजी की छाया-मूर्ति रूप में प्रकट किया था, सीताजी अग्नि प्रवेश के बाद इन्ही का हरण हुआ था ) हो, तुम भी इन लोगो के साथ मर्त्यलोक में जाओ और इन पाँचों की धर्मपत्नी बनो ( पूर्व में पढ़ चुके हैं कि इन्होंने पाँच बार पति की कामना थी, पाँच पतियों का वरदान मिला था ) ।*
*उस स्त्री भगवान शंकर की आज्ञा को शिरोधार्य किया । इन पाँचों इन्द्रो के नाम ये है - 'विश्वभूक, भूतधाम, शिबि, शान्ति और तेजस्वी । वह स्त्री स्वर्ग की लक्ष्मी ।'*
देवताओं के मन में मनुष्यों के संहार की वासना थी, अतः भगवान ने उन्हें पाण्डवों के रूप में पैदा करके उनकी इच्छा भी पूर्ण कर दी है और उनके द्वारा धर्मराज्य की स्थापना और अधर्म राज्य का संहार कराकर जगत का हित भी सम्पन्न कर दिया । एक बात और भी ध्यान देने योग्य है -- *'इन्द्र को यह अभिमान था कि 'मैं ईश्वर हूँ, जगत की व्यवस्था करने का मुझे अधिकार है । शिवरुप में दर्शन देकर भगवान ने उनका घमण्ड तोड़कर और उन्हें दिखला दिया कि तुम्हारे जैसे कितने ही इंद्र यहाँ गुफा में कैद है । स्वर्ग की लक्ष्मी के और जगत के निर्माण तथा संहार के तुम्हें अधिकारी नहीं हो, और भी बहुत से इन्द्र है जो इन्द्र अपने को ईश्वर बतलाते थे, वे स्वतन्त्रता से हिल-डोल भी नहीं सकते । वे तो भगवान की दृष्टि के अधीन है ।'*
जब इन्द्र धमण्ड से फूले होते है अथवा अपनी अशक्ति का अनुभव करके निच्श्रेष्ट होते है, दोनों ही स्थिति में भगवान शिव अपनी शक्ति भगवती पार्वती के साथ क्रीडा में लगे रहते है । इससे सिद्ध होता है कि जीव जिन परिस्थितियों में सुख-दुःख मानता है, वे भगवान शिव के लिये क्रीडामात्र है । उनके हृदय में इनसे कभी कोई छोभ नहीं होता।
जब इन्द्र धमण्ड से फूले होते है अथवा अपनी अशक्ति का अनुभव करके निच्श्रेष्ट होते है, दोनों ही स्थिति में भगवान शिव अपनी शक्ति भगवती पार्वती के साथ क्रीडा में लगे रहते है । इससे सिद्ध होता है कि जीव जिन परिस्थितियों में सुख-दुःख मानता है, वे भगवान शिव के लिये क्रीडामात्र है । उनके हृदय में इनसे कभी कोई छोभ नहीं होता।
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