मेंरोध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं॥
अगस्त्य पुलस्त्य पुलह च्यबन बसिष्ठ सौभरि ऋषि।
कर्दम अत्रि ऋचीक गर्ग गौतम ब्यासशिषि॥
लोमस भृगु दालभ्य अंगिरा शृंगि प्रकासी।
मांडव्य बिश्वामित्र दुर्बासा सहस अठासी॥
जाबालि जमदग्नि मायादर्श कश्यप परबत पाराशर पदरज धरौं।
ध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं॥
मूलार्थ – जिन राजर्षि-महर्षियोंने चतुर्भुज अर्थात् चार भुजाओंवाले भगवान् विष्णुके ध्यानको, अथवा चतुर्भुज अर्थात् भक्तोंके पत्र-पुष्प-फल-जल रूप नैवेद्यको ग्रहण करनेवाले चारों वस्तुओंके भोक्ता भगवान् श्रीरामकृष्णान्यतरके ध्यानको जिन्होंने चित्तमें धारण कर लिया है, उनकी शरणका मैं अनुसरण करता हूँ। जैसे (१) महर्षि अगस्त्य (२) महर्षि पुलस्ति (३) महर्षि पुलह (४) महर्षि च्यवन (५) महर्षि वसिष्ठ, जो श्रीरामजीके गुरुदेव हैं (६) महर्षि सौभरि, जिनको अन्तमें वैराग्य हुआ (७) महर्षि कर्दम, जो कपिलदेवके पिताश्री हैं (८) महर्षि अत्रि, जो सप्तर्षियोंमें एक हैं, और ब्रह्माजीके मानसपुत्रोंमें द्वितीय हैं। इन्होंने ही श्रीचित्रकूटमें भगवान् श्रीसीता-राम-लक्ष्मणका स्वागत किया और नमामि भक्तवत्सलम् (मा. ३.४.१-१२) जैसे स्तोत्रका गायन किया (९) महर्षि ऋचीक, जो जमदग्निजीके पिता हैं, जिनके चरुके प्रसादसे जमदग्नि और विश्वामित्र दोनोंकी उत्पत्ति हुई और (१०) महर्षि गर्ग – इन्होंने ही भगवान् कृष्णका नामकरण किया। इनके संदर्भमें भागवतके दसवें स्कन्धके आठवें अध्यायके प्रथम श्लोकमें कहा गया –
गर्गः पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः।
व्रजं जगाम नन्दस्य वसुदेवप्रचोदितः॥
(भा.पु. १०.८.१)
(११) महर्षि गौतम – अहल्याजीके पति। इन्होंने ही तो अहल्याको पाषाण बननेका शाप दिया। इनके संबन्धमें रामचरितमानसमें कहा गया –
गौतम नारी स्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहती कृपा करहु रघुबीर॥
(मा. १.२१०)
इसी प्रकार (१२) वेदव्यासजीके अनेक शिष्य (१३) महर्षि लोमश, जो काकभुशुण्डिजीको पहले तो शाप देते हैं फिर उनके गुरुदेव बनकर उन्हें धन्य कर देते हैं (१४) महर्षि भृगु (१५) महर्षि दाल्भ्य (१६) श्रीअङ्गिरा (१७) परम प्रकाशवान् शृङ्गी अथवा ऋष्यशृङ्ग – इन्हींके द्वारा किये गए पुत्रेष्टियज्ञसे भगवान् श्रीरामजीका आविर्भाव हुआ, इसलिये इन्हें प्रकासी कहा गया – प्रकाशमान ऋष्यशृङ्ग (१८) महर्षि माण्डव्य – इन्होंने ही तो यमराजको शाप देकर विदुर बना दिया (१९) महर्षि विश्वामित्र, जो गायत्रीजीके द्रष्टा और भगवान् श्रीरामके गुरु रहे हैं, और जिनकी कथा रामायणमें बहुत रोचकतासे प्रस्तुत की गई है –
बिश्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन शुभ आश्रम जानी॥
(मा. १.२०६.२)
(२०) महर्षि दुर्वासा, जिनके क्रोधकी कथा रामायण, महाभारत और पुराणोंमें बहुशः प्रसिद्ध है (२१) अट्ठासी सहस्र ऋषि, जो पुराणसत्रके श्रोता रहे हैं। इसी प्रकार (२२) महर्षि जाबालि, जिनका वाल्मीकीयरामायणमें श्रीरामजीसे बहुत कथनोपकथन हुआ (२३) महर्षि जमदग्नि, जो परशुरामजीके पिताश्री हैं और सम्प्रति सप्तर्षियोंमें द्वितीय महर्षिके रूपमें पूजित हो रहे हैं (२४) मायादर्श अर्थात् मायाके दर्शन करने वाले महर्षि मार्कण्डेय (२५) महर्षि कश्यप जो सूर्यनारायण और संपूर्ण देवताओंके पिता हैं, और यही आगे चलकर श्रीदशरथ बनते हैं (२६) परमऋषि पर्वत और (२७) महर्षि पराशर, जो वेदव्यासजीके पिता और पराशरस्मृतिके रचयिता हैं – इनके चरणकमलकी धूलिको मैं अपने मस्तकपर धारण कर रहा हूँ।
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साधन साध्य सत्रह पुराण फलरूपी श्रीभागवत॥
ब्रह्म विष्णु शिव लिंग पदम अस्कँद बिस्तारा।
बामन मीन बराह अग्नि कूरम ऊदारा॥
गरुड नारदी भविष्य ब्रह्मबैबर्त श्रवण शुचि।
मार्कंडेय ब्रह्मांड कथा नाना उपजे रुचि॥
परम धर्म श्रीमुखकथित चतुःश्लोकी निगम शत।
साधन साध्य सत्रह पुराण फलरूपी श्रीभागवत॥
मूलार्थ – सत्रहों पुराण तो साधन-साध्य हैं परन्तु श्रीभागवत इनका फलरूप ही है। जैसे (१) ब्रह्मपुराण (२) विष्णुपुराण (३) शिवपुराण (४) लिङ्गपुराण (५) पद्मपुराण (६) विस्तृत स्कन्दपुराण (७) वामनपुराण (८) मत्स्यपुराण (९) वराहपुराण (१०) अग्निपुराण (११) परम उदार कूर्मपुराण (१२) गरुडपुराण (१३) नारदपुराण (१४) भविष्यपुराण (१५) श्रवण करनेमें पवित्र ब्रह्मवैवर्तपुराण (१६) मार्कण्डेयपुराण और (१७) ब्रह्माण्डपुराण, जिनकी नाना कथाओंमें रुचि उत्पन्न होती है – ये सत्रहों पुराण साधन-साध्य हैं। परन्तु भागवतपुराण इसलिये फलरूप है कि श्रीमुख द्वारा कथित इसमें परमधर्मका वर्णन है और श्रेष्ठ वेदके रूपमें यहाँ चतुःश्लोकी भागवत कही गई है।
भागवतकी चतुःश्लोकी इस प्रकार है –
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्॥
ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात्सर्वत्र सर्वदा॥
(भा.पु. २.९.३२-३५)
भगवान् कहते हैं कि सृष्टिके प्रारम्भमें भी और सृष्टिके पूर्व भी मैं ही था। ये जो कुछ सत्-असत् दिखाई पड़ रहा है, स्थूल-सूक्ष्म ये कुछ नहीं था। पश्चात् भी मैं ही रहूँगा। जो इस समय वर्तमान है वह भी मैं ही हूँ। परमात्माके दर्शनके अभावमें जो प्रतीत हो रही है, और परमात्माका साक्षात्कार हो जानेपर जो नहीं प्रतीत होती उसीको परमात्माकी माया कहते हैं। जैसे रात्रिमें जुगनूका प्रकाश प्रतीत होता है और दिनमें प्रतीत नहीं होता जबकि वह रहता है, उसी प्रकार अज्ञानमें यह माया प्रतीत होती है और ज्ञान होनेपर नहीं प्रतीत होती है। जिस प्रकार पाँचों महाभूत सभी पदार्थोंमें अंशतः रहते हैं, पूर्णतः नहीं रहते; उसी प्रकार मैं परमात्मा सबके हृदयमें अंशतः अर्थात् अन्तर्यामी रूपमें रहता हूँ, पूर्णतः कहीं नहीं रहता। तत्त्वजिज्ञासुके द्वारा यही जिज्ञास्य है, यही जानने योग्य है, कि जो अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा सर्वत्र विराजमान है अर्थात् सृष्टिके रहनेपर भी जो रहेगा और न रहनेपर भी जो विद्यमान रहेगा वही तो परमात्मतत्त्व है।
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दस आठ स्मृति जिन उच्चरी तिन पद सरसिज भाल मो॥
मनुस्मृति आत्रेय वैष्णवी हारीतक जामी।
जाग्यबल्क्य अंगिरा शनैश्चर सांवर्तक नामी॥
कात्यायनि शांडिल्य गौतमी बासिष्ठी दाषी।
सुरगुरु शातातापि पराशर क्रतु मुनि भाषी॥
आशा पास उदारधी परलोक लोक साधन सो।
दस आठ स्मृति जिन उच्चरी तिन पद सरसिज भाल मो॥
मूलार्थ – अठारह स्मृतियोंका जिन आचार्योंने उच्चारण किया है, ऐसे (१) मनु (२) अत्रि (३) विष्णु (४) हारीत (५) यम (६) याज्ञवल्क्य (७) अङ्गिरा (८) शनैश्चर (९) सांवर्तक (१०) कात्यायन (११) शाण्डिल्य (१२) गौतम (१३) वसिष्ठ (१४) दक्ष (१५) बृहस्पति (१६) शातातप (१७) पराशर और (१८) क्रतु – इन आचार्योंके चरणकमल मेरे मस्तकपर सतत विराजमान रहें। ये स्मृतियाँ हैं – मनुस्मृति, अत्रिस्मृति, वैष्णवी स्मृति, हारीतकस्मृति, यामी स्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, अङ्गिरःस्मृति, शनैश्चरस्मृति, सांवर्तकस्मृति, कात्यायनस्मृति, शाण्डिल्यस्मृति, गौतमस्मृति, वसिष्ठस्मृति, दक्षस्मृति, बृहस्पतिस्मृति, शातातपस्मृति, पराशरस्मृति, और क्रतुस्मृति। ये आचार्य ही हमारे जीवनकी आशा हैं, ये उदारबुद्धि वाले हैं, और ये परलोक और लोक दोनोंमें हमारे लिये साधनस्वरूप हैं।
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शुभ दृष्टि वृष्टि मोपर करौ जे सहचर रघुवीर के॥
दिनकरसुत हरिराज बालिबछ केसरि औरस।
दधिमुख द्विबिद मयंद रीछपति सम को पौरस॥
उल्कासुभट सुषेन दरीमुख कुमुद नील नल।
शरभर गवय गवाच्छ पनस गँधमादन अतिबल॥
पद्म अठारह यूथपति रामकाज भट भीर के।
शुभ दृष्टि वृष्टि मोपर करौ जे सहचर रघुवीर के॥
मूलार्थ – अठारह पद्म यूथोंके अधिपति प्रभु श्रीरामके नित्य सहचर हैं एवं युद्धके अवसरपर भगवान् श्रीरामका काज करनेवाले हैं, अर्थात् ये यूथपति युद्धके अवसरपर भगवान् श्रीरामके राक्षसवध रूप कार्यमें नित्य सहायक हैं। ऐसे सीतापति श्रीराघवकी संहारलीलाके नित्य परिकर भट मुझपर शुभ दृष्टिकी वृष्टि करते रहें, अर्थात् मुझे अपनी कल्याणमयी चितवनसे निहारकर मुझ अकिञ्चनमें श्रीरामप्रेमको भरते रहें। इनमें प्रमुख हैं – (१) सूर्यपुत्र वानरोंके राजा सुग्रीव (२) वालिपुत्र युवराज अङ्गद (३) केसरीजीके औरसपुत्र अञ्जनानन्दवर्धन श्रीहनुमान्जी महाराज (४) दधिमुख (५) द्विविद (६) मयन्द (७) जिनके समान और किसीका पौरुष नहीं है अर्थात् अतुल बलशाली ऋक्षराज जाम्बवान् (८) उल्कासुभट अर्थात् अन्धकारके समय दीपक जलाकर सेवा करनेवाले उल्कासुभट नामक विशेष यूथपति (९) सुषेण (१०) दरीमुख (११) कुमुद (१२) नील (१३) नल (१४) शरभ (१५) गवय (१६) गवाक्ष (१७) पनस और (१८) अत्यन्त बलशाली गन्धमादन। इस प्रकार अठारह पद्म यूथ वानरोंके पूर्ववर्णित अठारह यूथपति अर्थात् सुग्रीव, अङ्गद, हनुमान्, दधिमुख, द्विविद, मयन्द, जाम्बवान्, उल्कासुभट, सुषेण, दरीमुख, कुमुद, नील, नल, शरभ, गवय, गवाक्ष, पनस और गन्धमादन – जो युद्धके समय श्रीरामकार्यके संपादनमें परमवीरता करते हैं वे मुझपर कल्याणमयी दृष्टिका वर्षण करते रहें। इसी आशयको रामचरितमानसके सुन्दरकाण्डमें शुकने भी रावणसे स्पष्ट किया है –
अस मैं सुना श्रवन दशकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर॥
(मा. ५.५५.३)
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नाभाजीने इस छन्दमें वृषभानु कुँवरि सहचरि कहा है। राधाजीकी मुख्य आठ सखियाँ प्रसिद्ध हैं। यहाँ ध्यान रखना चाहिये कि जैसे भगवती सीताजीकी आठ सखियाँ प्रसिद्ध हैं – (१) चारुशीला (२) लक्ष्मणा (३) हेमा (४) क्षेमा (५) वरारोहा (६) पद्मगन्धा (७) सुलोचना और (८) सुभगा, उसी प्रकार राधाजीकी भी आठ सखियाँ प्रसिद्ध हैं – (१) ललिता (२) विशाखा (३) चित्रा (४) इन्दुलेखा (५) चम्पकलता (६) रङ्गदेवी (७) सुदेवी और (८) तुङ्गविद्या। इन्हीं आठ सखियोंके आलोकमें राधाजीकी लीलाएँ चलती रहती हैं और इनमें ही भगवान्की लीलाके दर्शनसे मनमें आनन्द रहता है।
भगवान् श्रीरामके साकेतके आठ श्रेष्ठ सर्प द्वारपाल हैं, जो सावधान होकर भगवान्के साकेत धाममें स्थित रहते हैं। उनके नाम हैं – (१) इलापत्र (२) अनन्त (३) पद्म (४) शङ्कु (५) अंशुकम्बल (६) वासुकि (७) कर्कोटक और (८) तक्षक। इनमेंसे इलापत्र और अनन्त – ये अनन्त मुखोंसे भगवान्की कीर्तिका विस्तार करते रहते हैं। पद्म और शङ्कु – इनका प्रण प्रकट है, ये अपने मनसे भगवान्के ध्यानको कभी नहीं दूर करते। अंशुकम्बल और वासुकि – ये निरन्तर अजित भगवान् श्रीरामकी आज्ञाका अनुवर्तन करते रहते हैं। कर्कोटक और तक्षक – ये वीर सेवा रूप पृथ्वीको अपने सिरपर धारण किये रहते हैं।
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श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजीकी पद्धतिका प्रताप तो पृथ्वीपर अमृत होकर अवतीर्ण हो गया अर्थात् भगवती श्रीसीताजीने इस राममन्त्रपरम्पराको चलाया। श्रीरामजीसे षडक्षर मन्त्र प्राप्त करके सीताजीने श्रीहनुमान्जीको प्रथम राममन्त्र दिया और हनुमान्जीको ही नहीं, मायाकी सीताको अपना माध्यम बनाकर उन्होंने संपूर्ण वानरोंको राममन्त्रका उपदेश किया, इसीलिये तो पट गिराया था –
कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥
(मा. ३.३१.२५)
श्रीहनुमान्जीने यह श्रीराममन्त्र ब्रह्माजीको प्रदान किया। ब्रह्माजीने श्रीराममन्त्र वसिष्ठजीको प्रदान किया। वशिष्ठजीने श्रीराममन्त्र अपने पुत्र शक्तिको प्रदान किया। शक्तिने यही श्रीराममन्त्र पराशरको प्रदान किया। पराशरने यही श्रीराममन्त्र वेदव्यासजीको प्रदान किया। वेदव्यासजीने यही श्रीराममन्त्र शुकाचार्यजीको प्रदान किया। इसीलिये भागवतमें शुकाचार्यजीने भगवान् रामकी शरणागति स्वीकारी –
यस्यामलं नृपसदस्सु यशोऽधुनापि गायन्त्यघघ्नमृषयो दिगिभेन्द्रपट्टम्।
तं नाकपालवसुपालकिरीटजुष्टपादाम्बुजं रघुपतिं शरणं प्रपद्ये॥
(भा.पु. ९.११.२१)
अर्थात् जिनके निर्मल यशको आज भी संपूर्ण पापोंके हरणके रूपमें ऋषिगण गाते रहते हैं, जो दिशाओंके दिग्गजोंका पट्टवस्त्र है, स्वर्गपालक इन्द्र और राजगणोंके मुकुटोंसे जिनके चरणकमलकी पूजा की जाती है – ऐसे श्रीरामजीको मैं शरण्य रूपमें स्वीकार कर रहा हूँ, मैं श्रीरामजीकी शरणमें जा रहा हूँ। शुकाचार्यजीसे ही बोधायनाचार्य पुरुषोत्तमाचार्यने यह श्रीराममन्त्र प्राप्त किया। फिर तो परम्परासे चलते-चलते यह द्वितीय बृहस्पतिके समान श्रीदेवाचार्य अर्थात् देवानन्दाचार्यको प्राप्त हुआ, उनसे उनके शिष्य श्रीहर्यानन्दजी महाराजने, जो अद्भुत श्रीरामभक्त थे, यह श्रीराममन्त्र प्राप्त किया। जगन्नाथकी यात्रामें जाते समय जब जगन्नाथजीका रथ रुक गया, तो हर्यानन्दजीने कहा – “तुम सब लोग शान्त रहो! श्रीजगन्नाथजीका रथ स्वयं चलेगा।” हर्यानन्दजीकी प्रीतिनिष्ठाको ख्यापित करनेके लिये बिना किसीके खींचे ही जगन्नाथजीका रथ सौ कदम तक चलता रहा। ऐसे महामहिमासंपन्न हर्यानन्दजीके कृपापात्र साक्षात् वसिष्ठजीके अवतार श्रीराघवानन्दजी महाराज हुए, जो भक्तोंका अत्यन्त सम्मान करते थे और श्रीकाशीमें स्थाई रूपमें विराजते थे। उन्होंने संपूर्ण पृथ्वीको अपने वैष्णवविजयपत्रके अवलम्बमें कर लिया था अर्थात् संपूर्ण वैष्णवविरोधियोंको जीतकर पृथ्वीपर एकमात्र दिग्विजयकी पताका फहराई थी, और सभीने यह पत्र लिख दिया था कि सब-के-सब वैष्णवविरोधी श्रीराघवानन्दाचार्यसे हार चुके हैं। चारों वर्णों और चारों आश्रमों – सबमें उन्होंने भगवान् श्रीरामकी भक्तिको दृढ़ किया था। उन्होंने कहा था – “भगवान् श्रीरामजीकी भक्तिमें सबका अधिकार है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – सबको श्रीरामभक्तिमें अधिकार है।” कदाचित् इसी सिद्धान्तका पोषण करनेके लिये गोस्वामी तुलसीदासजीने यह कहा –
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी। कबि कोबिद विरक्त संन्यासी॥
जोगी शूर सुतापस ग्यानी। धर्म निरत पंडित बिग्यानी॥
तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी। राम नमामि नमामि नमामि॥
(मा. ७.१२४.५-७)
ऐसे परम यशस्वी, परम तपस्वी, परम मनस्वी, वसिष्ठजीके अवतार श्रीराघवानन्दाचार्यजीके ही यहाँ शिष्यके रूपमें श्रीरामानन्दाचार्य महाराज प्रकट हुए। यहाँ प्रगट शब्दका एक बहुत गम्भीर तात्पर्य है। तात्पर्य यह है कि जब जगद्गुरु श्रीमदाद्य रामानन्दाचार्यजी महाराज आठ वर्षकी अवस्थामें ही घर-द्वार छोड़कर श्रीकाशी आ गए, और जब उन्होंने श्रीराघवानन्दाचार्यजीसे श्रीराममन्त्रकी दीक्षा ली, तब उनके यशको देखकर उनके माता-पिताने भी उनसे दीक्षा लेनी चाही और अनुरोध किया – “प्रभो! आप हमें श्रीराममन्त्रकी दीक्षा दें।” चूँकि रामानन्दाचार्यजी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामजीके ही तो अवतार हैं, तो वे माता-पिताको शिष्य कैसे बनाते! इसीलिये सबके देखते-देखते जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजी अन्तर्धान हो गए। तब तो माता-पिता अनाथ होने लगे। उसी समय राघवानन्दाचार्यजीने कहा – “तुम सब लोग चिन्ता मत करो! ये श्रीराममन्त्रके एक पुरश्चरणके पश्चात् अपने आप प्रकट हो जाएँगे।” और वही हुआ। राममन्त्रका यज्ञ चलता रहा। एक पुरश्चरण जब हुआ तब, अर्थात् चौबीस लाख राममन्त्रके जपके तुरन्त पश्चात्, जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजी प्रकट हो गए, अर्थात् तब भौतिक शरीरसे कोई लेना-देना नहीं रहा। तब जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्यजीको राघवानन्दाचार्यजीने विरक्त त्रिदण्डी संन्यासीकी दीक्षा दी, त्रिदण्ड धारण करवाया और तब उन्होंने पुण्यसदन शर्मा और सुशीला माताको भी दीक्षा दी। यही प्रगटका तात्पर्य है – तिन के रामानंद प्रगट – वे प्रकट हुए और अबकी बार उन्होंने विश्वमङ्गलात्मक शरीर धारण किया।
संसारमें सबसे बड़ा है कौन? किसीने कहा – “अवनी अर्थात् पृथ्वी बड़ी हैं, जो जगत्का आधार हैं।” किसीने कहा – “पृथ्वीके भी आधार तो फणीजी अर्थात् श्रीशेषनारायण हैं, अतः शेषजी बड़े होंगे।” तो किसीने कहा – “नहीं। शेषनारायणजीने यद्यपि पृथ्वीको धारण किया है, पर उनको तो शिवजीने आभूषण बनाया है, अतः शिवजी बड़े होंगे।” किसीने कहा – “ठीक है, शिवजीने आभूषण तो शेषनारायणजीको बनाया, पर शिवजी तो कैलासपर विराजते हैं, तो कैलास बड़ा होगा।” फिर किसीने कहा – “ठीक है, पर शिवजीके आसन अर्थात् निवासस्थान कैलासको रावणने अपनी भुजाओंमें भर लिया था, अतः रावण बड़ा होगा।” फिर किसीने कहा – “नहीं, रावणको तो बालिने जीता था, बालि बड़ा होगा।” फिर किसीने कहा – “बालिको तो राघवजीने एक बाणमें मार डाला था, अतः राघवजी बड़े हैं।” अन्ततोगत्वा अग्रदासजीने कहा – “वही सबसे बड़ा है, जिसने अपने हृदयमें भगवान्को धारण किया है, अर्थात् हनुमान्जी और हनुमान्जीके समान अन्य सभी भक्त,” –
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम शर चाप धर॥
(मा. १.१७)
इसका तात्पर्य यह है कि जिन्होंने भगवान्को हृदयमें धारण किया, वे भक्त बड़े हैं। फलतः अन्य भक्त तो सदैव भगवान्को हृदयमें नहीं धारण कर पाते, परन्तु पूर्णरूपसे भगवान् श्रीहनुमान्जीके हृदयमें विराजते रहते हैं, यथा –
पवन तनय संतन हितकारी। हृदय बिराजत अवधबिहारी॥
(वि.प. ३६.२)
और भरतजीके भी हृदयमें सीतारामजी रहते हैं, यथा भरत हृदय सिय राम निवासू (मा. २.२९५.७)। इस प्रकार श्रीरामको हृदयमें धारण करने वाले हनुमान्जी सबसे बड़े हैं, भरतजी सबसे बड़े हैं। और भी जिनके हृदयमें श्रीरामजी रहते हैं, ऐसे शिवजी प्रभृति सबसे बड़े हैं।
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व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्रके मन और भवनमें साथ रहने वाले सोलह ऐसे सेवक हैं जो देखनेमें सुन्दर हैं, सेवामें चतुर हैं, और चित्तकी आकाङ्क्षाओंको भी स्वीकार कर लेते हैं। वे सदैव भगवान्की सेवामें तत्पर रहते हैं। वे हैं – (१) रक्तक (२) पत्रक तथा (३) पत्री – ये सबको भाते रहते हैं। इसी प्रकार (४) मधुकण्ठ (५) मधुव्रत (६) रसाल तथा (७) विशाल – ये सेवक बहुत सुन्दर लगते हैं। (८) प्रेमकन्द (९) मकरन्द (१०) सदानन्द (११) चन्द्रहास (१२) पयोद (१३) बकुल (१४) रसदान (१५) शारदाप्रकाश एवं (१६) बुद्धिप्रकाश – ये सभी परिकर भगवान् श्रीकृष्णके मन और भवनमें साथ रहते हुए, प्रभुका अनुगमन करते हुए, सेवामें सदैव तत्पर रहते हैं और सेवाके समयका विचार करके सबके संबलकी रक्षा करते हुए, चतुराईपूर्वक भगवान्की रुचिको समझकर सेवा करते रहते हैं।
अब नाभाजी अन्य सप्तद्वीपीय वैष्णवोंकी चर्चा करते हैं। वे हैं –
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मध्यद्वीप अर्थात् जम्बूद्वीपके नवों खण्डोंमें जो भक्त हैं, वे मेरे राजा हैं। यहाँ प्रत्येक खण्डके नाम, उनके अधीश्वर भगवान्के नाम, और उनके प्रसिद्ध परिकर भक्तके नामका वर्णन है। जैसे – (१) इलावर्त नामक खण्डके अधीश्वर भगवान् संकर्षण हैं, उनके अनुगामी सदाशिव हैं। (२) इसी प्रकार रमणकखण्डके अधीश्वर भगवान् मत्स्य हैं, और उनके भक्त मनु अर्थात् वैवस्वत मनु हैं, जिन्हें सत्यव्रत भी कहते हैं (भागवत ८.२४.५८के अनुसार चाक्षुष मन्वन्तरके राजर्षि सत्यव्रत ही इस वैवस्वत मन्वन्तरके मनु हैं)। (३) हिरण्यखण्डके ईश्वर भगवान् कूर्म हैं, और उनके सेवक अर्यमा हैं। (४) इसी प्रकार कुरुखण्डके अधीश्वर हैं भगवान् वराह और उनकी सेविका हैं भूदेवी। (५) इसी प्रकार हरिवर्षखण्डके ईश्वर हैं भगवान् नृसिंह और उनके सेवक हैं परम भागवत प्रह्लाद। (६) किंपुरुषखण्डके अधीश्वर हैं भगवान् राम और उनके सेवक हैं श्रीहनुमान्जी महाराज। (७) भरतखण्डके अधीश्वर हैं नारायण और उनके सेवक हैं वीणापाणि नारद। (८) भद्राश्वखण्डके अधीश्वर हैं हयग्रीव और उनके सेवक हैं भद्रश्रवा। (९) केतुमालखण्डके अधीश्वर हैं भगवान् कामेश्वर और उनकी सेविका हैं अनुपमेय कमला अर्थात् लक्ष्मीजी।
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