सोमवार, 24 जुलाई 2017

भारत के रोचक तथ्य

भारत के रोचक तथ्य
🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛
डा.अजय दीक्षित

1. भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है ।

2. भारत विश्व का सातवां सबसे बड़ा देश है ।

3. भारत का अंग्रेजी में नाम ‘इंडिया’ इं‍डस (सिंध) नदी से बना है |

4. वाराणसी, जिसे बनारस के नाम से भी जाना जाता है, आज विश्व का सबसे पुराना और निरंतर बसे शहर है। विदेशी पर्यटक यहाँ भारी मात्रा में आते हैं।

5.बीज गणित(algebra), त्रिकोणमिति(trigonometry) और कलन(calculation) भारत में ही आरंभ हुआ था। विदेशों में भी गणित भारत के माध्यम से ही पहुंचा।

6. ‘स्थान मूल्य प्रणाली’(place value system) और ‘दशमलव प्रणाली’(decimal system) का विकास भारत में 100 ईसा पूर्व में हुआ था।

7. सांप सीढ़ी(snake & ladder) का खेल भारत में तेरहवीं शताब्‍दी में तैयार किया गया था। संत ज्ञान देव द्वारा तैयार किये गए इस खेल को पहले मोक्षपट के नाम से जाना जाता था।

8. 10वीं शताब्दी के दौरान तिरुपति शहर में बनाया गया विष्णु मंदिर, विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक तीर्थ यात्रा स्थान है।

9. बृहदेश्‍वर मंदिर, विश्व का प्रथम ग्रेनाइट मंदिर हैं। यह तमिलनाडु के तंजौर में स्थित है। इस मंदिर के शिखर ग्रेनाइट के 80 टन के टुकड़ों से बने हैं। यह भव्य मंदिर राजाराज चोल के राज्य के दौरान केवल 5 वर्ष की अवधि में (1004 ए डी और 1009 ए डी के दौरान) निर्मित किया गया था।

10. भारत ने अपने आखिरी 100000 वर्षों के इतिहास में किसी भी देश पर हमला नहीं किया है।

11. भारत का नाम ऋग्वेद के अनुसार प्राचीन जन (कबीला ) ” भरत ” के नाम पर भारत पड़ा। इसके राजा सुदास थे। जिन्होंने परुश्नि (वर्तमान में रावी ) नदी के तट पर दसराज्ञ युद्ध में दस जनों को पराजित किया था।

12. 5000 साल पहले कई संस्कृतियों में घुमंतू(nomads) वनवासी थे, तब भारतीयों ने सबसे पहले सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।

13. हड़प्पा सभ्यता विश्व की पहली नगरीय सभ्यता है। यहाँ हर तरह की बुनियादी सुविधा का बंदोबस्त था।

14. ईरान से आए आक्रमणकारी “स” का उच्चारण(pronunciation) “ह” करते थे। इस तरह उन्होंने सिंधु को हिंदु की तरह प्रयोग किया। और भविष्य में चलकर इसी से देश को ‘हिंदुस्तान’ नाम मिला।

15. दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट का मैदान हिमाचल प्रदेश के चायल नामक स्थान पर है। इसे समुद्री सतह से 2444 मीटर की ऊंचाई पर भूमि को समतल बना कर 1893 में तैयार किया गया था।

16. भारत में विश्व भर से सबसे अधिक संख्या में डाक खाने स्थित हैं।

17. भारतीय रेल देश का सबसे बड़ा नियोक्ता है। यह दस लाख से अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करता है।

18. विश्व का सबसे प्रथम विश्‍वविद्यालय 700 बी सी में तक्षशिला में स्थापित किया गया था। इसमें 60 से अधिक विषयों में 10,500 से अधिक छात्र दुनियाभर से आकर अध्‍ययन करते थे।

19. नालंदा विश्‍वविद्यालय चौथी शताब्‍दी में स्थापित किया गया था जो शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की महानतम उपलब्धियों में से एक है। चाणक्य नालंदा विश्वविद्यालय में आचार्य थे।

20. आयुर्वेद मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे आरंभिक चिकित्सा शाखा है। शाखा विज्ञान के जनक माने जाने वाले चरक ने 2500 वर्ष पहले आयुर्वेद का समेकन किया था।

21. भारत 17वीं शताब्दी के आरंभ तक ब्रिटिश राज आने से पहले सबसे संपन्न देश था। क्रिस्‍टोफर कोलम्‍बस भारत की सम्पन्नता से आकर्षित हो कर भारत आने का समुद्री मार्ग खोजने चला और उसने गलती से अमेरिका को खोज लिया।

22. नौवहन की कला और नौवहन का जन्‍म 6000 वर्ष पहले सिंध नदी में हुआ था। दुनिया का सबसे पहला नौवहन संस्‍कृ‍त शब्‍द नव गति से उत्पन्न हुआ है। शब्‍द नौ सेना भी संस्कृत शब्‍द नोउ से हुआ।

23. भास्‍कराचार्य ने खगोल शास्त्र के कई सौ साल पहले पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने में लगने वाले सही समय की गणना की थी। उनकी गणना के अनुसार सूर्य की परिक्रमा में पृथ्‍वी को 365.258756484 दिन का समय लगता है।

24. भारतीय गणितज्ञ बुधायन द्वारा जिस संकल्पना को समझाया उसे पाइथागोरस का प्रमेय करते हैं। उन्‍होंने इसकी खोज छठवीं शताब्‍दी में की, जो यूरोपीय गणितज्ञों से काफी पहले की गई थी।

25. बीज गणित, त्रिकोण मिति और कलन का उद्भव भी भारत में हुआ था। चतुष्‍पद समीकरण का उपयोग 11वीं शताब्‍दी में श्री धराचार्य द्वारा किया गया था।

26. ग्रीक तथा रोमनों द्वारा उपयोग की गई की सबसे बड़ी संख्‍या 106 थी जबकि हिन्‍दुओं ने 10*53 जितने बड़े अंकों का उपयोग (अर्थात 10 की घात 53), के साथ विशिष्‍ट नाम 5000 बीसी के दौरान किया। आज भी उपयोग की जाने वाली सबसे बड़ी संख्‍या टेरा: 10*12 (10 की घात12) है।

27. वर्ष 1896 तक भारत विश्व में हीरे का एक मात्र स्रोत था।
(स्रोत: जेमोलॉजिकल इंस्‍टी‍ट्यूट ऑफ अमेरिका)

28. बेलीपुल विश्व में सबसे ऊंचा पुल है। यह हिमाचल पर्वत में द्रास और सुरु नदियों के बीच लद्दाख घाटी में स्थित है।

29. भारत में होने वाला कुम्भ मेला दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला होता है। कुम्भ मेले को अन्तरिक्ष से भी देखा जा सकता है।

30.  “भारत, मानव जाति का उद्गम स्थल, मानव भाषण का जन्मस्थान है, इतिहास की जननी, कथा की दादी, और परंपरा की दादी है। आदमी के इतिहास में सबसे अधिक मूल्यवान और सबसे शिक्षाप्रद सामग्री भारत में ही है। ” -मार्क ट्वेन

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁 जय सियाराम 🚩

पृथ्वी का रहस्य ।डा.अजय दीक्षित

डा.अजय दक्षित

1. पृथिवी अथवा पृथ्वी का नाम पौराणिक कथा पर आधारित है जिसका संबंध महाराज पृथु से है। अन्य नाम हैं – धरा, भूमि, धरित्री, रसा, रत्नगर्भा इत्यादि। अंग्रेजी में Earth (अर्थ) और लेटिन भाषा में टेरा।

2. वैज्ञानिकों  के अनुसार पृथ्वी की कुल उम्र 4 .6 अरब वर्ष मानी गई हैं।

3. दुनिया के छह बड़े देश ऐसे हैं जिन्होंने धरती का 40% हिस्सा घेरा हुआ है।

4. रोजाना 4500 बादल पृथ्वी पर गरजते हैं।

5. हर सेकंड पृथ्वी पर कहीं न कहीं 100 बार आसमानी बिजली गिरती है।

6. सौर मंडल में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जिस पर जीवन का अस्तित्व है।

7. पृथ्वी के 29% भाग भू-भाग है और 71% पानी ही पानी है।

8. सूरज को फुटबाल मानने पर हमारी धरती कांच की छोटी गोली की तरह होगी।

9. पृथ्वी पर 97 % पानी खारा है या पीने लायक नहीं है और मात्र  3% ही पीने लायक साफ़ पानी है।

10. सूरज धरती का सबसे पास का तारा है।

11. पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण शक्ति के कारण पर्वतों का 15,000 मीटर से ऊँचा हो पाना संभव नही है।

12. पृथ्वी पर मापा गया सबसे कम तापमान  – 89. 2  डिग्री सेल्सियस है।

13. सौर मंडल में पृथ्वी आकार में सबसे बड़े ग्रहों में पांचवे स्थान पर आती है।

14. सूर्य का प्रकाश धरती पर पहुँचने में 8 मिनट 18 सेकंड लगते हैं।

15. पृथ्वी अपना एक चक्कर 23 घंटे 56 मिनट और 4 सेकंड्स में पूरा करती है।

16. सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में धरती को 365 दिन और 6 घंटे का समय लगता है। 6 घंटे जोड़-जोड़ कर जो एक दिन बढ़ता है। वह हर चौथे साल फ़रवरी में जोड़ दिया जाता है। वही फ़रवरी का महीना 29 दिन का होता है।

17. पृथ्वी 1670 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से घूमती है।

18. अगर चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह नहीं होता तो धरती पर दिन लगभग 30 घंटों का  होता।.

19. धरती पे मौजूद हर जीव में कार्बन जरूर है।

20.  पृथ्वी आकाश गंगा का टैकटोनिक प्लेटों की व्यवस्था  वाला एकमात्र ग्रह है।

21. 1989 में रूस में मनुष्य द्वारा सबसे ज्यादा गहरा गड्ढा खोदा गया था। जिसकी गहराई 12.262 किलोमीटर थी।

22. पृथ्वी के भू-भाग का सिर्फ 11 प्रतीशत हिस्सा ही भोजन उत्पादित करने के लिए उपयोग किया जाता है।

23. धरती पर हर साल 5 लाख भूकंप आते हैं। इनमें से एक लाख भूकंप सिर्फ महसूस किए जाते हैं जबकि 100 विनाशकारी होते हैं।

24.  हर वर्ष लगभग 30,000 आकाशीय पिंड धरती के वायुमंडल मे दाखिल होते हैं। पर इनमें से ज्यादातर धरती के वायुमंडल के अंदर पहुँचने पर घर्षण के कारण जलने लगते है जिन्हें कई लोग ‘टूटता रा’ कह कर पुकारते हैं।

25. माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई समुद्र स्तर से 8850 मीटर है।पर अगर बात करें पृथ्वी के केंद्र से अंतरिक्ष की दूरी की तो हम पाते हैं कि सबसे ऊंचा पर्वत इक्वाडोर का माउंट चिम्बोराजो है। इसकी ऊंचाई 6310 मीटर है।

26. पृथ्वी की एक फोटो 3.7 बिलियन मील की दूरी से ली गयी थी। जिसका नाम ‘पेल ब्ल्यू डॉट’ है। यह अब तक की सबसे अधिक दूरी से ली गई धरती की तस्वीर है।

27. कहते हैं आज से 450 करोड़ साल पहले, सौर्य मंडल में मंगल के आकार का एक ग्रह था। जो कि पृथ्वी के साथ एक ही ग्रहपथ पर सुर्य की परिक्रमा करता था। मगर यह ग्रह किसी कारण धरती से टकराया और एक तो धरती मुड़ गई और दूसरा इस टक्कर के फलस्वरूप जो पृथ्वी का हिस्सा अलग हुआ उससे चाँद बन गया।

28. अंतरिक्ष में मौजूद कचरे का एक टुकड़ा हर दिन पृथ्वी पर गिरता है। यह अनुमान नासा के वैज्ञानिकों ने लगाया है।

29. पृथ्वी पर 1 सेकेंड में 100 बार और हर दिन 80.6 लाख बार आकाशीय बिजली गिरती है।

30. पृथ्वी के केंद्र में इतना सोना मौजूद है जिससे 1.5 फीट की चादर से धरती की पूरी सतह को ढंका जा सकता है।

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩 जय सियाराम 🚩

हमारी भारतीय संस्कृति ।डा.अजय दीक्षित

डा.अजय दक्षित

* दो पक्ष *

कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष!

* तीन ऋण *

देव ऋण, पितृ ऋण एवं ऋषि ऋण!

* चार युग *

सतयुग, त्रेता युग, द्वापरयुग एवं कलयुग!

* चार धाम *

द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथ पूरी एवं रामेश्वरम धाम!

* चारपीठ *

शारदा पीठ (द्वारिका ), ज्योतिष पीठ (जोशीमठ बद्रिधाम), गोवर्धन

पीठ ( जगन्नाथपुरी ) एवं श्रन्गेरिपीठ!

* चार वेद *

ऋग्वेद, अथर्ववेद, यजुर्वेद एवं सामवेद!

* चार आश्रम *

ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास!

* चार अंतःकरण *

मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार!

* पञ्च गव्य *

गाय का घी, दूध, दही, गोमूत्र एवं गोबर!

* पञ्च देव *

गणेश, विष्णु, शिव, देवी और सूर्य!

* पंच तत्व *

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश!

* छह दर्शन *

वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा एवं दक्षिण मिसांसा!

* सप्त ऋषि *

विश्वामित्र, जमदाग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्री, वशिष्ठ और कश्यप!

* सप्त पूरी *

अयोध्या पूरी, मथुरा पूरी, माया पूरी ( हरिद्वार ), काशी, कांची (शिन कांची-विष्णु कांची), अवंतिका और द्वारिका पूरी!

* आठ योग *

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधी!

* आठ लक्ष्मी *

आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य, भोग एवं योग लक्ष्मी!

* नव दुर्गा *

शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री!

* दस दिशाएं *

पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, इशान, नेत्रत्य, वायव्य आग्नेय, आकाश एवं पाताल!

* मुख्या ग्यारह अवतार *

मत्स्य, कच्छप, बराह, नरसिंह, बामन, परशुराम, श्रीराम, कृष्ण, बलराम, बुद्ध एवं कल्कि!

* बारह मास *

चेत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फागुन!

* बारह राशी *

मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ एवं कन्या!

* बारह ज्योतिर्लिंग *

सोमनाथ, मल्लिकर्जुना, महाकाल, ओमकालेश्वर, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ, त्रियम्वाकेश्वर, केदारनाथ, घुष्नेश्वर, भीमाशंकर एवं नागेश्वर!

* पंद्रह तिथियाँ *

प्रतिपदा, द्वतीय, तृतीय,. चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी,

दशमी, एकादशी, द्वादशी,

त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा , अमावस्या।।

🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪
जय सियाराम 🚩

आखिर ! कब, कहां और किस लिए तुलसीदास जी ने की "श्री हनुमान चालीसा की रचना

।।। राम राम राम राम राम ।।।
,,,,,,,डा.अजय दीक्षित,,,आखिर ! कब, कहां और किस लिए तुलसीदास जी ने की "श्री हनुमान चालीसा की रचना"
🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛
   हनुमान चालीसा की रचना
भगवान को अगर किसी युग में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है तो वह युग है :- कलियुग। इस कथन को सत्य करता एक दोहा रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है :-
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩

कलियुग केवल नाम अधारा ,
सुमिर सुमिर  नर उतरहि  पारा।

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

जिसका अर्थ है की कलयुग में मोक्ष प्राप्त करने का एक ही लक्ष्य है वो है भगवान का नाम लेना। तुलसीदास ने अपने पूरे जीवन में कोई भी ऐसी बात नहीं लिखी जो गलत हो। उन्होंने अध्यात्म जगत को बहुत सुन्दर रचनाएँ दी हैं।

🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔮

गोश्वामी तुलसीदास और अकबर
🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿🌿

हनुमान चालीसा की रचना
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

ये बात उस समय की है जब भारत पर मुग़ल सम्राट अकबर का राज्य था। सुबह का समय था एक महिला ने पूजा से लौटते हुए तुलसीदास जी के पैर छुए। तुलसीदास जी ने  नियमानुसार उसे सौभाग्यशाली होने का आशीर्वाद दिया।

🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈🌈

आशीर्वाद मिलते ही वो महिला फूट-फूट कर रोने लगी और रोते हुए उसने बताया कि अभी-अभी उसके पति की मृत्यु हो गई है।

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
इस बात का पता चलने पर भी तुलसीदास जी जरा भी विचलित न हुए और वे अपने आशीर्वाद को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थे। क्योंकि उन्हें इस बात का ज्ञान भली भाँति था कि भगवान राम बिगड़ी बात संभाल लेंगे और उनका आशीर्वाद खाली नहीं जाएगा।
📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖📖

उन्होंने उस औरत सहित सभी को राम नाम का जाप करने को कहा। वहां उपस्थित सभी लोगों ने ऐसा ही किया और वह मरा हुआ व्यक्ति राम नाम के जाप आरंभ होते ही जीवित हो उठा।

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
यह बात पूरे राज्य में जंगल की आग की तरह फैल गयी। जब यह बात बादशाह अकबर के कानों तक पहुंची तो उसने अपने महल में तुलसीदास को बुलाया और भरी सभा में उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा कि कोई चमत्कार दिखाएँ।

🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂

ये सब सुन कर तुलसीदास जी ने अकबर से बिना डरे उसे बताया की वो कोई चमत्कारी बाबा नहीं हैं, सिर्फ श्री राम जी के भक्त हैं।

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩


गोश्वामी तुलसीदास हनुमान चालीसा के रचयिता

🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿

अकबर इतना सुनते ही क्रोध में आ गया और उसने उसी समय सिपाहियों से कह कर तुलसीदास जी को कारागार में डलवा दिया। तुलसीदास जी ने तनिक भी प्रतिक्रिया नहीं दी और राम का नाम जपते हुए कारागार में चले गए।

🔯🔯🔯🔯🔯📖📖📖📖📖📖📖📖📖🔯🔯🔯🔯

उन्होंने कारागार में भी अपनी आस्था बनाए रखी और वहां रह कर ही हनुमान चालीसा की रचना की और लगातार 40 दिन तक उसका निरंतर पाठ किया।

🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛
हनुमान चालीसा चमत्कार
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

चालीसवें दिन एक चमत्कार हुआ। हजारों बंदरों ने एक साथ अकबर के राज्य पर हमला बोल दिया। अचानक हुए इस हमले से सब अचंभित हो गए।

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩

अकबर एक सूझवान बादशाह था इसलिए इसका कारण समझते देर न लगी।  उसे भक्ति की महिमा समझ में आ गई। उसने उसी क्षण तुलसीदास जी से क्षमा मांग कर कारागार से मुक्त किया और आदर सहित उन्हें विदा किया।

🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪

इतना ही नहीं अकबर ने उस दिन के बाद तुलसीदास जी से जीवनभर मित्रता निभाई।
इस तरह तुलसीदास जी ने एक व्यक्ति को कठिनाई की घड़ी से निकलने के लिए हनुमान चालीसा के रूप में एक ऐसा रास्ता दिया है। जिस पर चल कर हम किसी भी मंजिल को प्राप्त कर सकते हैं।
इस तरह हमें भी भगवान में अपनी आस्था को बरक़रार रखना चाहिए। ये दुनिया एक उम्मीद पर टिकी है। अगर विश्वास ही न हो तो हम दुनिया का कोई भी काम नहीं कर सकते।

🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪🎪
                   ।। जय सियाराम 🚩।।

शनिवार, 22 जुलाई 2017

आखिर ! क्यों बढ रहे हैं ये पांच शिव लिंग ?

।। ओम् भूतेश्वाराय महादेवाय नमो नमः।।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
डा.अजय दीक्षित
🔮🔮🔮🔮🔮🔮🔛सदियों से निरंतर बढ़ रहे है ये 5 शिवलिंग
🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛🔛

पूरी दुनिया में करोड़ों शिवलिंग मौजूद हैं, सभी की अपनी मान्यता और महत्व है। कुछ शिवलिंग अपने इतिहास के कारण प्रसिद्ध हैं तो कुछ अपने से जुड़े चमत्कारों के कारण। भारत में ऐसे ही 5 शिवलिंग हैं, जो बहुत खास माने जाते हैं।
🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯

ये 5 शिवलिंग इसलिए खास हैं क्योंकि हर साल इनकी लम्बाई अपने आप चमत्कारिक रूप से बढ़ती जा रही है। कैसे बढ़ रही है इन शिवलिंगों की लम्बाई यह विज्ञान के लिए भी रहस्य की बात है। जानिए कौन से हैं वे 5 चमत्कारी शिवलिंग और उनसे जुड़ी मान्यताएं-
🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿🎿

1. तिल भांडेश्वर, काशी
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

भगवान शिव की नगरी काशी में कई शिव प्रसिद्ध शिव मंदिर है, इनमें एक है बाबा तिल भांडेश्वर। कहते हैं यह सतयुग में प्रकट हुआ स्वयंभू शिवलिंग है। कल‌युग से पहले तक यह शिवलिंग हर दिन तिल के आकार में बढ़ता था। लेकिन कलयुग के आगमन पर लोगों को यह चिंता सताने लगी कि यह इसी आकार में हर दिन बढ़ता रहा तो पूरी दुनिया इस शिवलिंग में समा जाएगी। भगवान शिव की आराधाना करने पर भगवान शिव ने प्रकट होकर साल में केवल संक्रांति पर ही इसके बढ़ने का वरदान दिया। कहते हैं उस समय से हर साल मकर संक्रांति पर इस शिवलिंग का आकार बढ़ता है।

2. पौड़ावाला शिव मंदिर, हिमाचल प्रदेश
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

हिमाचल प्रदेश में नाहन से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर पौड़ीवाला शिव मंदिर है। इसका संबंध रावण से माना जाता है। कहते हैं कि रावण ने इसकी स्‍थापना की थी। इसे स्वर्ग की दूसरी पौड़ी के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि हर वर्ष महाशिवरात्रि पर यह शिवलिंग एक जौ के दाने के बराबर बढ़ता है। ऐसी धारणा है कि इस शिवलिंग में साक्षात शिव विराजते हैं और भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं।

3. मतंगेश्वर शिवलिंग, मध्यप्रदेश
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
मध्यप्रदेश के खजुराहो का मतंगेश्वर शिवलिंग जिसके बारे में मान्यता है कि भगवान श्री राम ने भी यहां पूजा की है। 18 फीट के इस शिवलिंग के बारे में कहा जाता है कि हर साल यह तिल के आकार में बढ़ रहा है।

4. भूतेश्वर महादेव, छत्तीसगढ़
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गरियाबंद जिला में एक प्राकृतिक शिवलिंग है, जिसे भूतेश्वर महादेव कहा जाता है। इसे भकुर्रा महादेव के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि हर साल यह शिवलिंग 6-8 इंच तक बढ़ जाता है। कहते हैं यहां पर भक्तों की मनोकामना जरूर पूरी होती है, मनोकामना पूरी होने पर दौबारा यहां आकर भगवान को धन्यवाद करने की परंपरा है।

5. मृदेश्वर महादेव मंदिर, गुजरात
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
गुजरात के गोधरा में स्थित मृदेश्वर महादेव के बढ़ते शिवलिंग के आकार को प्रलय का संकेत माना जाता है। इस शिव लिंग के विषय में मान्यता है कि जिस दिन लिंग का आकार साढ़े आठ फुट का हो जाएगा उस दिन यह मंदिर की छत को छू लेगा। जिस दिन ऐसा होगा उसी दिन महाप्रलय आ जाएगा। शिवलिंग को मंदिर की छत छूने में लाखों वर्ष लग सकते हैं क्योंकि शिवलिंग का आकार एक वर्ष में एक चावल के दाने के बराबर बढ़ता है।

मृदेश्वर शिवलिंग की विशेषता है कि इसमें से स्वतः ही जल की धारा निकलती रहती है जो शिवलिंग का अभिषेक कर रही है। इस जल धारा में गर्मी एवं सूखे का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, धारा अविरल बहती रहती है।

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩 जय सियाराम 🚩

सोमवार, 17 जुलाई 2017

आइये जाने :---- कब, कहां और कैसे जपें भगवान का नाम

पुराणों में मनुष्य को विभिन्न कार्यों को करते समय भगवान के अलग-अलग नाम-स्मरण करने के लिए कहा गया है, जैसे–
–सोकर उठते ही ‘विष्णु’ का स्मरण करें–उत्तिष्ठन् कीर्तयेद् विष्णुम्।
–निद्राकाल में मनुष्य ‘माधव’ व ‘पद्मनाभ’ का स्मरण करे–प्रस्वपन् माधवं नर:।
–स्नान, देवार्चन, हवन, प्रणाम तथा प्रदक्षिणा करते समय मनुष्य को ‘वासुदेव’ नाम का जप करना चाहिए–कीर्तयेद् भगवन्नाम वासुदेवेति तत्पर:।
–भोजन करते समय ‘गोविन्द’ व ‘जनार्दन’ का स्मरण करें–भोजने चैव गोविन्दं।
–औषधि-सेवन करते समय ‘अच्युत’, ‘अमृत’ व ‘विष्णु’ नामों का जप करना चाहिए।
–संतान की प्राप्ति के लिए भक्तिपूर्वक ‘जगत्पति’ (जगदीश या जगन्नाथ) की स्तुति करने वाला कभी दु:खी नहीं होता–जगत्पतिमपत्यार्थं स्तुवन् भक्त्या न सीदति।
–विद्यार्थी को प्रतिदिन ‘पुरुषोत्तम’ नाम का स्मरण करना चाहिए।
–सभी प्रकार की नेत्र बाधाओं में नित्य-निरन्तर ‘केशव’ तथा ‘पुण्डरीकाक्ष’ नामों का जप करना चाहिए।
–जल को पार करते समय भगवान ‘कूर्म’ (कच्छप), ‘वराह’ अथवा ‘मत्स्य’ का स्मरण करना चाहिए–कूर्मं वराहं मत्स्यं वा जलप्रतरणे स्मरेत्।
–कही आग लग गयी हो उसकी शान्ति के लिए ‘भ्राजिष्णु’ इस नाम का लगातार जप करना चाहिए। घर या गांव में आग लग जाने पर ‘जलशायी’ का स्मरण करना चाहिए–अग्निदाहे समुत्पन्ने संस्मरेज्जलशायिनम्।
–अत्यन्त घोर अंधकार में डाकू तथा शत्रुओं की संभावना होने पर मनुष्य को बारम्बार ’नरसिंह’नाम का स्मरण करना चाहिए।
–‘गरुणध्वज’ नाम के बारम्बार स्मरण से मनुष्य से सर्पविष का प्रभाव दूर हो जाता है।
–युद्ध के लिए जाते समय ‘अपराजित’ नाम का स्मरण करना चाहिए–संग्रामाभिमुखे गच्छन् संस्मरेदपराजितम्।
–सम्पूर्ण अरिष्टों के निवारण के लिए सदा ‘विशोक’ नाम का जप करना चाहिए–अरिष्टेषु ह्यशेषेषु विशोकं च सदा जपेत्।
–बंधन में पड़ा हुआ मनुष्य नित्य ही’ दामोदर’ नाम का जप करे–दामोदरं बन्धगतो नित्यमेव जपेन्नर:।
–भय-नाश के लिए ‘हृषीकेश’ नाम का स्मरण करना चाहिए–हृषीकेशं भयेषु च।
–सब प्रकार के अभ्युदय के लिए ‘श्रीश’ व ’श्रीपति’ नाम का बार-बार उच्चारण करना चाहिए–श्रीशं सर्वाभ्युदयिके कर्मण्याशु प्रकीर्तयेत्।
–धन-धान्यादि की स्थापना के समय मनुष्य को श्रद्धापूर्वक ‘अनन्त’ व ‘अच्युत’ इन नामों का स्मरण करना चाहिए।
–परदेश जाते समय या परदेश में रहते समय कल्याण चाहने वाले व्यक्ति को ‘चक्री’ (चक्रपाणि), ‘गदी’ (गदाधर), ‘शांर्गी’ (शांर्गधर) तथा ‘खंगी’ (खंगधर)–इन नामों का स्मरण करना चाहिए।
–मांगलिक कार्यों में मंगलकारी ‘श्रीविष्णु’ का स्मरण करें–मंगल्यं मंगले विष्णुं मंगल्येषु च कीर्तयेत्।
–युद्ध के समय युद्धार्थी मनुष्य ‘बलभद्र’ का स्मरण करे–बलभद्रं तु युद्धार्थी।
–खेती के आरम्भ में किसान ‘हलायुध’ का स्मरण करे–कृष्यारम्भे हलायुधम्।
–व्यापार करने वाले वैश्य ‘उत्तारण’ का चिन्तन करें व अभ्युदय की इच्छा रखने वाला ‘राम’ का स्मरण करे–उत्तारणं वणिज्यार्थी राममभ्युदये नृप।
–अभीष्ट कामना की सिद्धि के लिए ‘काम’, ‘कामप्रद’, ‘कान्त’, ‘कामपाल’, ‘हरि’, ‘आनन्द’और ‘माधव’–इन नामों का जप करना चाहिए–काम: कामप्रद: कान्त: कामपालस्तथा हरि:। आनन्दो माधवश्चैव कामसंसिद्धये जपेत्।।
–शत्रुओं पर विजय पाने की इच्छा वाले लोगों को ‘राम’, ‘परशुराम’, ‘नृसिंह’, ‘विष्णु’ तथा‘विक्रम’ इन भगवन्नामों का जप करना चाहिए।
–स्वेच्छा या परइच्छावश किसी निर्जन स्थान में पहुंचने पर, आंधी-तूफान, अग्नि (दावानल), अगाध जलराशि में फंसने पर जब प्राण संकट में हों तो बुद्धिमान मनुष्य को ‘वासुदेव’ नाम का जप करना चाहिए।
–समस्त व्यवहारों में सदा मनुष्य ‘अजित’, ‘अधिप’, ‘सर्व’ तथा ‘सर्वेश्वर’–इन नामों का स्मरण करे।
–हर समय मानव  ‘मधुसूदन’ का चिन्तन करें।
आर्ता विषण्णा: शिथिलाश्च भीता,
घोरेषु च व्याघ्रादिषु वर्तमाना:।
संकीर्त्य नारायण शब्दमात्रं,
विमुक्तदु:खा: सुखिनो भवन्ति।। (पाण्डव-गीता)

रविवार, 16 जुलाई 2017

भगवान शिव को बिल्वपत्र चढाने के 108 मन्त्र

बिल्वपत्र चढाने के 108 मन्त्र
        डा.अजय दीक्षित


त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।
त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१॥
त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः ।
तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२॥
सर्वत्रैलोक्यकर्तारं सर्वत्रैलोक्यपालनम् ।
सर्वत्रैलोक्यहर्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३॥
नागाधिराजवलयं नागहारेण भूषितम् ।
नागकुण्डलसंयुक्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४॥
अक्षमालाधरं रुद्रं पार्वतीप्रियवल्लभम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५॥
त्रिलोचनं दशभुजं दुर्गादेहार्धधारिणम् ।
विभूत्यभ्यर्चितं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६॥
त्रिशूलधारिणं देवं नागाभरणसुन्दरम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७॥
गङ्गाधराम्बिकानाथं फणिकुण्डलमण्डितम् ।
कालकालं गिरीशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८॥
शुद्धस्फटिक सङ्काशं शितिकण्ठं कृपानिधिम् ।
सर्वेश्वरं सदाशान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९॥
सच्चिदानन्दरूपं च परानन्दमयं शिवम् ।
वागीश्वरं चिदाकाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०॥
शिपिविष्टं सहस्राक्षं कैलासाचलवासिनम् ।
हिरण्यबाहुं सेनान्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥११॥
अरुणं वामनं तारं वास्तव्यं चैव वास्तवम् ।
ज्येष्टं कनिष्ठं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१२॥
हरिकेशं सनन्दीशं उच्चैर्घोषं सनातनम् ।
अघोररूपकं कुम्भं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१३॥
पूर्वजावरजं याम्यं सूक्ष्मं तस्करनायकम् ।
नीलकण्ठं जघन्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१४॥
सुराश्रयं विषहरं वर्मिणं च वरूधिनम् I
महासेनं महावीरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१५॥
कुमारं कुशलं कूप्यं वदान्यञ्च महारथम् ।
तौर्यातौर्यं च देव्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१६॥
दशकर्णं ललाटाक्षं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम् ।
अशेषपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१७॥
नीलकण्ठं जगद्वन्द्यं दीननाथं महेश्वरम् ।
महापापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१८॥
चूडामणीकृतविभुं वलयीकृतवासुकिम् ।
कैलासवासिनं भीमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१९॥
कर्पूरकुन्दधवलं नरकार्णवतारकम् ।
करुणामृतसिन्धुं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२०॥
महादेवं महात्मानं भुजङ्गाधिपकङ्कणम् ।
महापापहरं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२१॥
भूतेशं खण्डपरशुं वामदेवं पिनाकिनम् ।
वामे शक्तिधरं श्रेष्ठं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२२॥
फालेक्षणं विरूपाक्षं श्रीकण्ठं भक्तवत्सलम् ।
नीललोहितखट्वाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२३॥
कैलासवासिनं भीमं कठोरं त्रिपुरान्तकम् ।
वृषाङ्कं वृषभारूढं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२४॥
सामप्रियं सर्वमयं भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।
मृत्युञ्जयं लोकनाथं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२५॥
दारिद्र्यदुःखहरणं रविचन्द्रानलेक्षणम् ।
मृगपाणिं चन्द्रमौळिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२६॥
सर्वलोकभयाकारं सर्वलोकैकसाक्षिणम् ।
निर्मलं निर्गुणाकारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२७॥
सर्वतत्त्वात्मकं साम्बं सर्वतत्त्वविदूरकम् ।
सर्वतत्त्वस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२८॥
सर्वलोकगुरुं स्थाणुं सर्वलोकवरप्रदम् ।
सर्वलोकैकनेत्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II२९॥
मन्मथोद्धरणं शैवं भवभर्गं परात्मकम् ।
कमलाप्रियपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३०॥
तेजोमयं महाभीमं उमेशं भस्मलेपनम् ।
भवरोगविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३१॥
स्वर्गापवर्गफलदं रघुनाथवरप्रदम् ।
नगराजसुताकान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३२॥
मञ्जीरपादयुगलं शुभलक्षणलक्षितम् ।
फणिराजविराजं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३३॥
निरामयं निराधारं निस्सङ्गं निष्प्रपञ्चकम् ।
तेजोरूपं महारौद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३४॥
सर्वलोकैकपितरं सर्वलोकैकमातरम् ।
सर्वलोकैकनाथं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३५॥
चित्राम्बरं निराभासं वृषभेश्वरवाहनम् ।
नीलग्रीवं चतुर्वक्त्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३६॥
रत्नकञ्चुकरत्नेशं रत्नकुण्डलमण्डितम् ।
नवरत्नकिरीटं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३७॥
दिव्यरत्नाङ्गुलीस्वर्णं कण्ठाभरणभूषितम् ।
नानारत्नमणिमयं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३८॥
रत्नाङ्गुलीयविलसत्करशाखानखप्रभम् ।
भक्तमानसगेहं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३९॥
वामाङ्गभागविलसदम्बिकावीक्षणप्रियम् ।
पुण्डरीकनिभाक्षं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४०॥
सम्पूर्णकामदं सौख्यं भक्तेष्टफलकारणम् ।
सौभाग्यदं हितकरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४१॥
नानाशास्त्रगुणोपेतं स्फुरन्मङ्गल विग्रहम् ।
विद्याविभेदरहितं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४२॥
अप्रमेयगुणाधारं वेदकृद्रूपविग्रहम् ।
धर्माधर्मप्रवृत्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४३॥
गौरीविलाससदनं जीवजीवपितामहम् ।
कल्पान्तभैरवं शुभ्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४४॥
सुखदं सुखनाशं च दुःखदं दुःखनाशनम् ।
दुःखावतारं भद्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४५॥
सुखरूपं रूपनाशं सर्वधर्मफलप्रदम् ।
अतीन्द्रियं महामायं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४६॥
सर्वपक्षिमृगाकारं सर्वपक्षिमृगाधिपम् ।
सर्वपक्षिमृगाधारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४७॥
जीवाध्यक्षं जीववन्द्यं जीवजीवनरक्षकम् ।
जीवकृज्जीवहरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४८॥
विश्वात्मानं विश्ववन्द्यं वज्रात्मावज्रहस्तकम् ।
वज्रेशं वज्रभूषं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४९॥
गणाधिपं गणाध्यक्षं प्रलयानलनाशकम् ।
जितेन्द्रियं वीरभद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५०॥
त्र्यम्बकं मृडं शूरं अरिषड्वर्गनाशनम् ।
दिगम्बरं क्षोभनाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५१॥
कुन्देन्दुशङ्खधवलं भगनेत्रभिदुज्ज्वलम् ।
कालाग्निरुद्रं सर्वज्ञं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५२॥
कम्बुग्रीवं कम्बुकण्ठं धैर्यदं धैर्यवर्धकम् ।
शार्दूलचर्मवसनं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५३॥
जगदुत्पत्तिहेतुं च जगत्प्रलयकारणम् ।
पूर्णानन्दस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५४॥
सर्गकेशं महत्तेजं पुण्यश्रवणकीर्तनम् ।
ब्रह्माण्डनायकं तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५५॥
मन्दारमूलनिलयं मन्दारकुसुमप्रियम् ।
बृन्दारकप्रियतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५६॥
महेन्द्रियं महाबाहुं विश्वासपरिपूरकम् ।
सुलभासुलभं लभ्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५७॥
बीजाधारं बीजरूपं निर्बीजं बीजवृद्धिदम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५८॥
युगाकारं युगाधीशं युगकृद्युगनाशनम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५९॥
धूर्जटिं पिङ्गलजटं जटामण्डलमण्डितम् ।
कर्पूरगौरं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६०॥
सुरावासं जनावासं योगीशं योगिपुङ्गवम् ।
योगदं योगिनां सिंहं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६१॥
उत्तमानुत्तमं तत्त्वं अन्धकासुरसूदनम् ।
भक्तकल्पद्रुमस्तोमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६२॥
विचित्रमाल्यवसनं दिव्यचन्दनचर्चितम् ।
विष्णुब्रह्मादि वन्द्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६३॥
कुमारं पितरं देवं श्रितचन्द्रकलानिधिम् ।
ब्रह्मशत्रुं जगन्मित्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६४॥
लावण्यमधुराकारं करुणारसवारधिम् ।
भ्रुवोर्मध्ये सहस्रार्चिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६५॥
जटाधरं पावकाक्षं वृक्षेशं भूमिनायकम् ।
कामदं सर्वदागम्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६६॥
शिवं शान्तं उमानाथं महाध्यानपरायणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६७॥
वासुक्युरगहारं च लोकानुग्रहकारणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६८॥
शशाङ्कधारिणं भर्गं सर्वलोकैकशङ्करम् I
शुद्धं च शाश्वतं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६९॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम् ।
गम्भीरं च वषट्कारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७०॥
भोक्तारं भोजनं भोज्यं जेतारं जितमानसम् I
करणं कारणं जिष्णुं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७१॥
क्षेत्रज्ञं क्षेत्रपालञ्च परार्धैकप्रयोजनम् ।
व्योमकेशं भीमवेषं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७२॥
भवज्ञं तरुणोपेतं चोरिष्टं यमनाशनम् ।
हिरण्यगर्भं हेमाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७३॥
दक्षं चामुण्डजनकं मोक्षदं मोक्षनायकम् ।
हिरण्यदं हेमरूपं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७४॥
महाश्मशाननिलयं प्रच्छन्नस्फटिकप्रभम् ।
वेदास्यं वेदरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७५॥
स्थिरं धर्मं उमानाथं ब्रह्मण्यं चाश्रयं विभुम् I
जगन्निवासं प्रथममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७६॥
रुद्राक्षमालाभरणं रुद्राक्षप्रियवत्सलम् ।
रुद्राक्षभक्तसंस्तोममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७७॥
फणीन्द्रविलसत्कण्ठं भुजङ्गाभरणप्रियम् I
दक्षाध्वरविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७८॥
नागेन्द्रविलसत्कर्णं महीन्द्रवलयावृतम् ।
मुनिवन्द्यं मुनिश्रेष्ठमेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७९॥
मृगेन्द्रचर्मवसनं मुनीनामेकजीवनम् ।
सर्वदेवादिपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८०॥
निधनेशं धनाधीशं अपमृत्युविनाशनम् ।
लिङ्गमूर्तिमलिङ्गात्मं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८१॥
भक्तकल्याणदं व्यस्तं वेदवेदान्तसंस्तुतम् ।
कल्पकृत्कल्पनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८२॥
घोरपातकदावाग्निं जन्मकर्मविवर्जितम् ।
कपालमालाभरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८३॥
मातङ्गचर्मवसनं विराड्रूपविदारकम् ।
विष्णुक्रान्तमनन्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८४॥
यज्ञकर्मफलाध्यक्षं यज्ञविघ्नविनाशकम् ।
यज्ञेशं यज्ञभोक्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८५॥
कालाधीशं त्रिकालज्ञं दुष्टनिग्रहकारकम् ।
योगिमानसपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८६॥
महोन्नतमहाकायं महोदरमहाभुजम् ।
महावक्त्रं महावृद्धं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८७॥
सुनेत्रं सुललाटं च सर्वभीमपराक्रमम् ।
महेश्वरं शिवतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् II८८॥
समस्तजगदाधारं समस्तगुणसागरम् ।
सत्यं सत्यगुणोपेतं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८९॥
माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजार्थं च जगद्गुरोः ।
दुर्लभं सर्वदेवानां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९०॥
तत्रापि दुर्लभं मन्येत् नभोमासेन्दुवासरे ।
प्रदोषकाले पूजायां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९१॥
तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम्
कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९२॥
दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II९३॥
तुलसीबिल्वनिर्गुण्डी जम्बीरामलकं तथा ।
पञ्चबिल्वमिति ख्यातं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९४॥
अखण्डबिल्वपत्रैश्च पूजयेन्नन्दिकेश्वरम् ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९५॥
सालङ्कृता शतावृत्ता कन्याकोटिसहस्रकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९६॥
दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधसहस्रकम् ।
सवत्सधेनुदानानि एकबिल्वं शिवार्पणम् II९७॥
चतुर्वेदसहस्राणि भारतादिपुराणकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९८॥
सर्वरत्नमयं मेरुं काञ्चनं दिव्यवस्त्रकम् ।
तुलाभागं शतावर्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९९॥
अष्टोत्तरश्शतं बिल्वं योऽर्चयेल्लिङ्गमस्तके ।
अधर्वोक्तं अधेभ्यस्तु एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१००॥
काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०१॥
अष्टोत्तरशतश्लोकैः स्तोत्राद्यैः पूजयेद्यथा ।
त्रिसन्ध्यं मोक्षमाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०२॥
दन्तिकोटिसहस्राणां भूः हिरण्यसहस्रकम्
सर्वक्रतुमयं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०३॥
पुत्रपौत्रादिकं भोगं भुक्त्वा चात्र यथेप्सितम् ।
अन्ते च शिवसायुज्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०४॥
विप्रकोटिसहस्राणां वित्तदानाच्च यत्फलम् ।
तत्फलं प्राप्नुयात्सत्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०५॥
त्वन्नामकीर्तनं तत्त्वं तवपादाम्बु यः पिबेत्
जीवन्मुक्तोभवेन्नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०६॥
अनेकदानफलदं अनन्तसुकृतादिकम् ।
तीर्थयात्राखिलं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०७॥
त्वं मां पालय सर्वत्र पदध्यानकृतं तव ।
भवनं शाङ्करं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०८॥


शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

भगवान शंकर द्वारा इन्द्र का अभिमान हरण*

भगवान शंकर द्वारा इन्द्र का अभिमान हरण*
                               
                           
ब्रम्हा जी ने कहा- "इस समय सूर्यपुत्र यमराज महायज्ञ में लगे हुए है, इसी से पृथ्वी के प्राणियों की मृत्यु नहीं हो रही है । जब वे अपना सब काम पूरा कर लेंगे, तब लोगों की मृत्यु होगी । तुमलोगों की शक्ति से शक्तिमान होकर यमराज मृत्यु लोक के प्राणियों का संहार करेंगे । तब मनुष्य तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकेंगे । लोक-पितामह ब्रह्मा की यह बात सुनकर देवता लोग उसी स्थान पर गये, जहाँ यज्ञ हो रहा था ।
       एक दिन सब लोग नदी के तट पर बैठे हुये थे । उन्होंने देखा कि धारा में एक बड़ा ही सुन्दर कमल बहा जा रहा है । उसे देखकर लोगो को बड़ा आश्चर्य हुआ । देवताओ में सबसे श्रेष्ठ देवराज इंद्र वहाँ उपस्थित थे । उनके मन में उस पुष्पका समाचार जानने की उत्सुकता हुई । वे चल पड़े, आगे जाने पर उन्होंने देखा कि जहाँ से नदी निकली है ।
       वहां एक बड़ी तेजस्वनी स्त्री नदी के भीतर खड़ी होकर जल भर रही है । उसकी आँखों से आँसु बह रहे थे । *'आँसु की जो बुँदे नदी में गिरती, वही सोने का कमल हो जाता ।'* इन्द्र उसके पास गये ।
उन्होंने उससे पूछा - "कल्याणी ! तुम कौन हो ? किसलिये रो रही हो ? अपनी सब बात मुझसे कहो ।" उस स्त्री ने कहा - "देवराज ! आप तनिक मेरे साथ आगे चले आये, आपको मालूम हो जाएगा कि मैं कौन हूँ और क्यों रो रही हूँ ।" इन्द्र उसके पीछे - पीछे चलने लगे ।         इन्द्र ने आगे जाकर देखा कि हिमाचल के शिखर पर एक परम् सुन्दर युवा पुरुष सिद्धासन लगाये बैठा है और उसके पास ही एक सुन्दरी युवती बैठी है । वे दोनों आसपास में चौसर खेल रहे थे । इन्द्र के पहुचने पर भी उन लोगो ने कुछ विशेष ध्यान नही दिया । इन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि ये तो मेरा अपमान कर रहे हैं । उनके कलेजे में कुछ थोड़ी-थोड़ी जलन होने लगी । उन्होंने क्रोध पूर्ण दृष्टि से उस पुरुष की ओर देखकर कहा -- "युवक क्या तुम नहीं जानते कि मैं इस लोक का स्वामी हूँ ? यह लोक मेरे अधीन है । अब भी तुम्हे मालूम होना चाहिये कि मैं ईश्वर हूँ ।"
        वह पुरुष अपने खेल में तन्मय हो रहा था । इन्द्र के इस प्रकार कहने पर उसने एक बार सिर उठाया और हँस दिया । एक बार उसकी दृष्टि इन्द्र पर पड़ गयी; दृष्टि पड़ते ही इन्द्र ठूँठ के समान हो गये - न हिल सकते और न ही डोल सकते थे ।
        वह स्त्री रोने लगी, खेल समाप्त होने पर उस पर युवा पुरुष ने रोती हुई स्त्री से कहा - "इन्द्र को मेरे पास ले आओ, मैं इन्द्र का अनिष्ट नही कर रहा हूँ । मैं ऐसा उपाय कर रहा हूँ कि *'इन्द्र को अपने ईश्वरपन का कभी गर्व न हो ।'* स्त्री ने जाकर ज्योही इन्द्र को स्पर्श किया, इन्द्र पृथ्वी पर गिर पड़े ।
        *'तेजस्वी युवक रूपधारी भगवान शंकर'*ने कहा- "इंद्र अब कभी इस प्रकार अभिमान मत करना कि 'मैं ईश्वर हूँ ' । तुम्हारे शरीर में जो बड़ी शक्ति है, वह तुम्हारी नही दूसरे की है । अच्छा माना तुम्हारे  अन्दर बड़ी शक्ति है, तुम इस पर्वत-शिला को हटाकर नीचे की गुफा में जाओ, वहाँ तुम्हारे समान और भी तेजस्वी इन्द्र है । इन्द्र ने वैसा ही किया । उस शिला के हटने पर देखा कि उसके समान चार इन्द्र वहाँ है । उन्हें देखकर इन्द्र को बहुत दुःख हुआ, और सोचने लगे -  क्या मेरी दशा भी इन्ही के समान होगी ।

     भगवान शंकर द्वारा पाँचों इंद्र एवं स्वर्ग-लक्ष्मी को मृत्यु-लोक में जन्म लेने भेजना*
भगवान शंकरजी ने अपने दया भरे चेहरे को कठोर बनाया और भयंकर भाव प्रकट करते हुए कहा - "इन्द्र ! मूर्खता के कारण तुमने मेरा अनादर किया है । जाओ, तुम भी इसी इसी गुफा में रहो ।" शंकरजी ई बात सुनकर इन्द्र मारे डर के थर-थर काँपने लगे । उन्होंने अञ्जलि बांधकर कर सिर नवाकर भगवान शंकर से निवेदन किया-- "प्रभो ! आपने। मुझ पर विजय पायी । आप स्वयं तीनो लोको के स्वामी हो ।" भगवान शंकर बड़ी उग्र हँसी हँसने लगे । उन्होंने कहा-
"ऐसे अभिमानियों को कभी क्षमा नही करना चाहिये । जिन्हें तुम गुफा में देख रहे हो वो भी ऐसा ही काम कर चुके हैं । उसी के फलस्वरूप उन्हें यह दशा प्राप्त हुई है, अब तुम भी इसी गुफा में पड़े रहो । *'इसके बाद तुम सबको और इस स्त्री को मनुष्य-योनि में मृत्यु-लोक में जन्म लेना पड़ेगा । यह स्त्री तुम पाँचों की धर्मपत्नी होगी । तुम लोग अद्धभुत कार्य और असंख्य प्राणियों का नाश करके फिर अपने कार्य के फलस्वरूप पूर्वोपार्जित इंद्रलोक को आ जाओगे । इसके अतिरिक्त मनुष्य लोक में तुम्हे और भी कम करने पड़ेंगे । मेरी बात सर्वथा सत्य होगी ।'*
 पहले के इंद्र ने कहा- प्रभो ! हम आपकी आज्ञा का पालन करेगें । मृत्यु लोक में में जन्म लेकर मोक्ष ही प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु यह बहुत कठिन है । हमारी प्रार्थना यह है कि हम किसी मनुष्य के द्वारा उत्पन्न न हो, बल्कि धर्म, वायु, सूर्य और अश्वनी कुमारों से ही हमारी उतप्ति हो । दिव्य अस्त्रो के द्वारा हम मनुष्यो से युद्ध कर और अंत में अपने लोक लौट आये । नये आये हुए इन्द्र ने कहा -             "मैं देव कार्य के लिए पाँचवा पुरुष उत्पन्न कर दूंगा ।"
         
भगवान शंकर ने प्रार्थना स्वीकार की और उस स्त्री को आज्ञा दी जो की उस समय भी रो रही थी । उन्होंने कहा--   *"कल्याणी ! तुम स्वर्ग की लक्ष्मी हो । तुम आदिशक्ति भगवती लक्ष्मी की अंशरूपा ( सीता हरण के समय भगवान श्रीराम ने सीताजी की छाया-मूर्ति रूप में प्रकट किया था, सीताजी अग्नि प्रवेश के बाद इन्ही का हरण हुआ था ) हो, तुम भी इन लोगो के साथ मर्त्यलोक में जाओ और इन पाँचों की धर्मपत्नी बनो (  पूर्व में पढ़ चुके हैं कि इन्होंने पाँच बार पति की कामना थी, पाँच पतियों का वरदान मिला था ) ।*
         
*उस स्त्री भगवान शंकर की आज्ञा को शिरोधार्य किया । इन पाँचों इन्द्रो के नाम ये है - 'विश्वभूक, भूतधाम, शिबि, शान्ति और तेजस्वी । वह स्त्री स्वर्ग की लक्ष्मी ।'*

          देवताओं के मन में  मनुष्यों के संहार की वासना थी, अतः भगवान ने उन्हें पाण्डवों के रूप में पैदा करके उनकी इच्छा भी पूर्ण कर दी है और उनके द्वारा धर्मराज्य की स्थापना और अधर्म राज्य का संहार कराकर जगत का हित भी सम्पन्न कर दिया । एक बात और भी ध्यान देने योग्य है -- *'इन्द्र को यह अभिमान था कि 'मैं ईश्वर हूँ, जगत की व्यवस्था करने का मुझे अधिकार है । शिवरुप में दर्शन देकर भगवान ने उनका घमण्ड तोड़कर और उन्हें दिखला दिया कि तुम्हारे जैसे कितने ही इंद्र यहाँ गुफा में कैद है । स्वर्ग की लक्ष्मी के और जगत के निर्माण तथा संहार के तुम्हें अधिकारी नहीं हो, और भी बहुत से इन्द्र है जो इन्द्र अपने को ईश्वर बतलाते थे, वे स्वतन्त्रता से हिल-डोल भी नहीं सकते । वे तो भगवान की दृष्टि के अधीन है ।'*                              
       
जब इन्द्र धमण्ड से फूले होते है अथवा अपनी अशक्ति का अनुभव करके निच्श्रेष्ट होते है, दोनों ही स्थिति में भगवान शिव अपनी शक्ति भगवती पार्वती के साथ क्रीडा में लगे रहते है । इससे सिद्ध होता है कि जीव जिन परिस्थितियों में सुख-दुःख मानता है, वे भगवान शिव के लिये क्रीडामात्र है । उनके हृदय में इनसे कभी कोई छोभ नहीं होता।
