मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

संध्या – विधि माता गायत्री

संध्या – विधि

अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! जो पुरुष ॐकार को जानता हैं, वह योगी और विष्णुस्वरूप हैं | इसलिये सम्पूर्ण मन्त्रों के सारस्वरूप और सब कुछ देनेवाले ॐकार का अभ्यास करना चाहिये | समस्त मन्त्रों के प्रयोग में ॐकार का सर्वप्रथम स्मरण किया जाता हैं | जो कर्म उससे युक्त है, वही पूर्ण है | उससे विहीन कर्म पूर्ण नहीं हैं | आदिमें ॐकार से युक्त (‘भू: भुव: स्व:’ – ये ) तीन शाश्वत महाव्याह्रतियों एवं (तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात्’ इस ) तीन पदों से युक्त गायत्री को ब्रह्म का (वेद अथवा ब्रह्माका) मुख जानना चाहिये | जो मनुष्य नित्य तीन वर्षोतक आलस्यरहित होकर गायत्री का जप करता हैं, वह वायुभूत और आकाश्स्वरूप होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है | एकाक्षर ॐकार ही परब्रह्म है और प्राणायाम ही परम तप है | गायत्री-मन्त्र से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है | मौन रहनेसे सत्यभाषण करना ही श्रेष्ठ हैं’ ||१-५||

गायत्री की सात आवृत्ति पापों का हरण करनेवाली हैं, दस आवृत्तियों से वह जपकर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति कराती है और बीस आवृत्ति करनेपर तो स्वयं सावित्री देवी जप करनेवाले को ईश्वरलोक में ले जाती हैं | साधक गायत्री का एक सौ आठ बार जप करके संसार-सागर से तर जाता हैं | रूद्र-मन्त्रो के जप तथा कुष्मांड-मन्त्रो के जप से गायत्री-मन्त्र का जप श्रेष्ठ हैं | गायत्री से श्रेष्ठ कोई भी जप करनेयोग्य मंत्र नहीं है तथा व्याह्रति-होम के समान कोई होम नहीं हैं | गायत्री के एक चरण, आधा चरण, सम्पूर्ण ऋचा अथवा आधी ऋचा का भी जप करनेमात्र से गायत्री देवी साधक को ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्ण की चोरी एवं गुरुपत्नी-गमन आदि महापातकों से मुक्त कर देती है||६-९||

कोई भी पाप करनेपर उसके प्रायश्चित्तस्वरुप तिलों का हवन और गायत्री का जप बताया गया हैं | उपवासपूर्वक एक सहस्त्र गायत्री-मन्त्र का जप करनेवाला अपने [पापों को नष्ट कर देता है | गो-वध, पितृवध, मातृवध, ब्रह्महत्या अथवा गुरुपत्नीगमन करनेवाला, ब्राह्मण की जीविका का अपहरण करनेवाला, सुवर्ण की चोरी करनेवाला और सुरापान करनेवाला महापातकी भी गायत्री का एक लाख जप करनेसे शुद्ध हो जाता है | अथवा स्नान करके जल के भीतर गायत्री का सौ बार जप करे | तदनंतर गायत्री से अभिमंत्रित जल के सौ आचमन करे | इससे भी मनुष्य पापरहित हो जाता है | गायत्री का सौ बार जप करनेपर वह समस्त पापों का उपशमन करनेवाली मानी गयी है और एक सहस्त्र जप करनेपर उपपातकों का भी नाश करती है | एक करोड़ जप करनेपर गायत्री देवी अभीष्ट फल प्रदान करती है | जपकर्ता देवत्व और देवराजत्व को भी प्राप्त कर लेता है ||१०-१३||
आदि में ॐकार, तदनंतर ‘भूर्भुव: स्व:’ का उच्चारण करना चाहिये | उसके बाद गायत्री मन्त्र का एवं अंत में पुन: ॐकार का प्रयोग करना चाहिये | जप में मन्त्र का यही स्वरूप बताया गया है |

ॐकारं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुव: स्वस्तथैव च ||
गायत्रीं प्रणवश्चान्ते जपे चैव मुदाह्र्तम | (अग्नि. २१५ /१४-१५)

– इसके अनुसार जपनीय मन्त्र का पाठ यों होगा –

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि | धियो यो न: प्रचोदयात् ॐ |

गायत्री मन्त्र के विश्वामित्र ऋषि, गायत्री छंद और सविता देवता है | उपनयन, जप एवं होम में इनका विनियोग करना चाहिये |

गायत्र्या विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छंद: सविता देवताग्निर्मुखमुपनयने जपे होमे वा विनियोग: |

गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों के अधिष्ठातृदेवता क्रमश: ये है – अग्नि, वायु, रवि, विद्युत्, यम, जलपति, गुरु, पर्जन्य, इंद्र, गंधर्व, पूषा, मित्र, वरुण, त्वष्टा, वसुगण, मरुद्गण, चंद्रमा, अग्निरा, विश्वदेव, अश्विनीकुमार, प्रजापतिसहित समस्त देवगण, रूद्र, ब्रह्मा और विष्णु | गायत्री जप के समय उपर्युक्त देवताओं का उच्चारण किया जाय तो वे जपकर्ता के पापों का विनाश करते हैं ||१४-१८ ||

गायत्री मन्त्र के एक-के अक्षर का अपने निम्नलिखित अंकों में क्रमश: न्यास करे | पैरों के दोनों अंगुष्ठ, गुल्फ्द्वय, नल्क (दोनों पिंडलियाँ), घुटने, दोनों जाँघें, उपस्थ, वृषण, कटिभाग, नाभि, उदर, स्तनमंडल, ह्रदय, ग्रीवा, मुख (अधरोष्ठ), तालु, नासिका, नेत्रद्वय, भ्रूमध्य, ललाट,पूर्व आनन (उत्तरोष्ठ), दक्षिण पार्श्व, उत्तर पार्श्व, सिर और सम्पूर्ण मुखमंडल | गायत्री के चौबीस अक्षरों के वर्ण क्रमश” इसप्रकार है –
पीत, श्याम, कपिल, मरकतमणितुल्य, अग्नितुल्य, रुक्मसदृश, विद्युत्प्रभ, धूम्र, कृष्ण, रक्त, गौर, इन्द्रनीलमणिसदृश, स्फटिकमणिसदृश, स्वर्णिम, पांडू, पुखराजतुल्य, अखिलद्युति, हेमाभधूम्र, रक्तनील, रक्तकृष्ण, सुवर्णाभ, शुक्ल, कृष्ण और पलाशवर्ण | गायत्री ध्यान करनेपर पापों का अपहरण करती और हवन करनेपर सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओं को प्रदान करती है | गायत्री मन्त्र से तिलों का होम सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला है | शान्ति की इच्छा रखनेवाला जौ का और दीर्घायु चाहनेवाला घृत का हवन करे | कर्म की सिद्धि के लिये सरसों का, ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिये दुग्ध का, पुत्र की कामना करनेवाला दधि का और अधिक धान्य चाहनेवाला अगहनी के चावल का हवन करे | गृहपीड़ा की शान्ति के लिये खैर वृक्ष की समिधाओं का, धन की कामना करनेवाला बिल्वपत्रों का, लक्ष्मी चाहनेवाला कमल-पुष्पों का, आरोग्य का इच्छुक और महान उत्पात से आतकिंत मनुष्य दुर्वा का, सौभाग्याभिलाशी गुग्गुल का और विद्याकामी खीर का हवन करे | दस हजार आहुतियों से उपर्युक्त कामनाओं की सिद्धि होती है और एक लाख आहुतियों से साधक मनोभिलषित वस्तु को प्राप्त करता हैं | एक करोड़ आहुतियों से होता ब्रह्महत्या के महापातक से मुक्त हो अपने कुल का उद्धार करके श्रीहरिस्वरुप हो जाता है | ग्रह-यज्ञ-प्रधान होम हो, अर्थात ग्रहों की शान्ति के लिए हवन किया जा रहा हो तो उसमें भी गायत्री-मन्त्र से दस हजार आहुतियाँ देनेपर अभीष्ट फल की सिद्धि होती है ||१९-३०||

संध्या-विधि
गायत्री का आवाहन करके ॐकार का उच्चारण करना चाहिये | गायत्री मन्त्रसहित ॐकार का उच्चारण करके शिखा बाँधे | फिर आचमन करके ह्रदय, नाभि और दोनों कंधों का स्पर्श करे | प्रणव के ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छंद, अग्नि अथवा परमात्मा देवता है | इसका सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ में प्रयोग होता है |

ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दोंग्निर्देवता शुक्लो वर्ण: सर्वकर्मोरम्भे विनियोग: |

निम्नलिखित मन्त्र से गायत्री देवी का ध्यान करे –

शुक्ला चाग्निमुखी दिव्या कात्यायनसगोत्रजा |
त्रैलोक्यवरणा दिव्या पृथिव्याधारसंयुता ||
अक्षसुत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा ||

तदनंतर निम्नांकित मन्त्र से गायत्री देवी का आवाहन करे –

‘ॐ तेजोऽसि महोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानां धामनामाऽसि |
विश्वमसि विश्वायु: सर्वमसि सार्वायु: ॐ अभि भू: |’
आगच्छ वरदे देवि जपे में संनिधौ भव |
गायन्तं त्रायसे यस्माद गायत्री त्वं तत: स्मृता ||

समस्त व्याह्रतियों के ऋषि प्रजापति ही हैं; वे सब – व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपों से परब्रह्मस्वरुप एकाक्षर ॐकार में स्थित हैं |

सप्तव्याह्र्तियों के क्रमश: ये ऋषि हैं – विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ तथा कश्यप | उनके देवता क्रमश: – ये है – अग्नि, वायु, सूर्य, बृहस्पति, वरुण, इंद्र और विश्वदेव | गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, पंकि, त्रिष्टुप और जगती – ये क्रमश: सात व्याह्र्तियों के छंद हैं | इन व्याह्र्तियों का प्राणायाम और होम में विनियोग होता हैं |

ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुव:, ॐ ता न ऊर्जे दधातन, ॐ महेरणाय चक्षसे, ॐ यो व: शिवतमो रस:, ॐ तस्य भाजयतेह न: , ॐ उशतीरिव मातर:, ॐ तस्मा अरं गमाम व: ॐ यस्य क्षयाय: जिन्वथ, ॐ आपो जनयथा च न: |

इन तीन ऋचाओं का तथा ‘ॐ द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स्रातो मलादिव | पूतं पवित्रेणवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस: |’ इस मन्त्र का ‘हिरण्यवर्णा: शुचय:’इत्यादि पावमानी ऋचाओं का उच्चारण करके (पवित्रो अथवा दाहिने हाथ की अँगुलियोंद्वारा) जल के आठ छीटे ऊपर उछालें | इससे जीवनभर के पाप नष्ट हो जाते हैं ||३१-४१||

जल के भीतर ‘ऋतं च’ – इस अघमर्षण मन्त्र का तीन बार जप करें |

ॐ ऋतजं सत्यष्ठाभीद्धात्तपसोध्यजायत | ततो राज्यजायत | तत: समुद्रो अर्णव: | समुद्रादर्नवादधिसंवत्सरो अजावत | अहो रात्रापि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी | सूर्याचन्द्रमसी धाता यथापूर्वमकल्पयत | दिवस पृथिविशान्तरिक्षमयो स्व: ||

‘आपो हि ष्ठा’ आदि तीन ऋचाओं के सिन्धुद्वीप ऋषि, गायत्री छंद और जल देवता माने गये हैं | ब्राह्मस्नान के लिये मार्जन में इसका विनियोग किया जाता है |

आपो हिष्ठेत्यादि तुचस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:, आपो देवता ब्राह्मस्नानाय मार्जने विनियोग: |

अघमर्षण मन्त्र का विनियोग इसप्रकार करना चाहिये | इस अघमर्षण सूक्त के अघमर्षण ऋषि, अनुष्टुप छंद और भाववृत्त देवता हैं | पापनि:सारण के कर्म में इसका प्रयोग किया जाता हैं |

अघमर्षणसुक्त्याघमर्षण ऋषिरनुष्टपछन्दों भाववृतो देवता अघमर्षने विनियोग: |

‘ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम |’ यह गायत्री मन्त्र का शिरोभाग हैं | इसके प्रजापति ऋषि हैं | यह छंदरहित यजुर्मन्त्र हैं; क्योंकि यजुर्वेद के मन्त्र किसी नियत अक्षरवाले छंद में आबद्ध नहीं है | शिरोमंत्र के ब्रह्मा, आग्नि, वायु और सूर्य देवता माने गये हैं |

शिरस: प्रजापतिऋषित्रिपदा गायत्री छन्दों ब्रह्माग्निवायुसुर्या देवता यजु:प्राणायामे विनियोग: |

प्राणायाम से वायु, वायु से अग्नि और अग्निसे जल की उत्पत्ति होती है तथा उसी जल से शुद्धि होती है | इसलिये जल का आचमन निम्नलिखित मन्त्र से करे –

ॐ अन्तश्वरसि भूतेषु गुहायां विश्वमुर्तिषु | तपो यज्ञो वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम ||

‘उदुत्यं जातवेद्सं ‘ – इस मन्त्र के प्रस्कन्व ऋषि कहे गये हैं | इसका गायत्री छंद और सूर्य देवता हैं | इसका अतिरात्र और अग्निष्टोम याग में विनियोग होता है ( परन्तु संध्योपासना में इसका सूर्योपस्थान कर्म में विनियोग किया जाता हैं |)

उदुत्पमिति प्रस्कन्व ऋषिगायत्री छंद: सूर्यो देवता सुर्योपस्थाने विनियोग: |

‘चित्रं देवानां’ – इस ऋचा के कौत्स ऋषि कहे गये है | इसका छंद त्रिष्टुप और देवता सूर्य माने गये हैं | यहाँ इसका भी विनियोग सुर्योपस्थान में ही हैं ||४२-५०||

चित्रमित्यस्य कौत्स ऋषिस्रिष्टपछंद: सूर्यो देवता सुर्योपस्थाने विनियोग: |

इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘संध्याविधि का वर्णन’ नामक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ || ९४ ||

– ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ –

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