गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

महीनों के नामकरण की विधि

महीनों के नामकरण की विधि
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कुल सताइस नक्षत्र होते हैं,
१-अश्विनी १०-मघा १९-मूल ) केतु
२-भरणी ११-पूर्वाफाल्गुनी २०-पूर्वाषाढ़ा )शुक्र
३-कृतिका १२-उत्तराफाल्गुनी २१-उत्तराषाढ़ा )सूर्य
४-रोहिणी १३-हस्त २२-श्रवण )चन्द्र
५-मृगशिरा १४-चित्रा २३-धनिष्ठा )मंगल
६-आर्द्रा १५-स्वाति २४-शतभिषा )राहू
७-पुनर्वसु १६-विशाखा २५-पूर्वाभाद्रपदा )गुरू
८-पुष्य १७-अनुराधा २६-उत्तराभाद्रपदा)शनि
९-आश्लेषा १८-ज्येष्ठा २७-रेवती )बुध
इस प्रकार उपरोक्त सताइस नक्षत्रों की नौ के क्रम में श्रृंखला है जिनके सम्मुख उनके स्वामियों के नाम अंकित हैं | यद्यपि एक अन्य नक्षत्र भी है, परन्तु वह दो नक्षत्रों के मध्य अत्यल्प होने से ज्योतिषीय गणनाओं में सम्मिलित नहीं है |
यद्यपि नक्षत्रों के स्वामियों की गणना फलित ज्योतिष का विषय है, फिर भी यहां सहजता हेतु रख दिया गया है |
अब हम माह नामकरण विषय पर आते हैं-
सभी को पता होगा कि एक सौर माह में तीस दिन होते हैं, क्योंकि सूर्य लगभग एक अंश प्रतिदिन गति करके माह भर में तीस अंश(एक राशि) आगे बढ़ जाता है, तथा चन्द्रमा उससे भी तेज चलकर लगभग सवा दो दिन में एक राशि पार कर जाता है | इस प्रकार चन्द्रमा लगभग सताइस दिन में पूरा भचक्र(राशिचक्र-मेषादि बारहों राशियों) परिभ्रमण कर लेता है | तथा सूर्य को सम्पूर्ण भचक्र का चक्कर लगाने में लगभग एक वर्ष लगता है |
परन्तु जो पञ्चांग बहुधा हम प्रयोग करते हैं, उसमें सूर्य व चन्द्रमा की सापेक्षिक गतियों को आधार बनाया जाता है | पाश्चात्य ज्योतिषि सूर्य को केन्द्र मानकर गणना करते हैं, तब ही आपने देखा होगा कि चौदह जनवरी से सोलह फरवरी तक जन्म लिये सब जातकों की वे जन्मराशि मेष ही बताते हैं, क्योंकि सूर्य उस अवधि में मेष राशि में ही रहते हैं |
उनके यहां दिनों की ही अब गणना की जाती है, जिसे वे मध्याह्न रात्रि से आगणित करते हैं |
जबकि हमारे सनातनी संस्कृति में सूर्योदय से सूर्योदय पर्यन्त एक दिवस मानते हैं, तथा उसमें भी आपने देखा होगा कि कयी बार एक दिन में दो तिथियां पड़ जाती हैं |
जानते हैं ऐसा क्यों ?
क्योंकि तिथियां सूर्य व चन्द्रमा के मध्य दूरी से निर्धारित होती हैं, जब सूर्य व चन्द्रमा के मध्य १२ अंश का अन्तर भचक्र(अन्तरिक्ष में स्पष्ट पथ) में होता है तब एक तिथि बीत जाती है | अमावस्या के दिन सूर्य व चन्द्र जब समान राशि, अंश, कला व विकला पर हों तब पूर्णरूपेण अमावस्या होती है, फिर दोनों अपनी गति से चलते हुये एक दूसरे से दूर होने लगते हैं, जब उनमें बारह अंश का अन्तर हो जाय तब प्रतिपदा तिथि बीत गयी व दूज चालू, फिर चौबीस अंश के अन्तर पर दूज बीतकर तीज चालू | ऐसे ही जब सूर्य व चन्द्रमा के मध्य १८० अंश का अन्तर हो जाता है तब वह अन्तिम(पन्द्रहवां) बारह अंश की अवधि पूर्णिमा तिथि होती है | बस ऐसे ही पुनः अन्तर बारह-बारह के क्रम में कम होते चला जाता है तथा पुनः अमावस्या आ जाती है | हम जानते हैं कि न तो सूर्य, चन्द्रमा व पृथ्वी तीनों ही पूर्णरूपेण गोल हैं और न ही इनके मार्ग पूर्णरूपेण गोल होंगे, सो इनकी गति घटती बढ़ती रहती है, जो कारण है तिथिवृद्धि अथवा तिथि क्षयों की |
अब मूल विषय- जिस माह की पूर्णिमा/अमावस्या के आसपास चन्द्रमा जिस नक्षत्र में हो उसी नक्षत्र के नामपर उस माह का नाम होता है | बहुधा इन अवसरों पर चित्रा, विशाषा, ज्येष्ठ, पूर्वा/उत्तर आषाढ़ा, श्रवण, पूर्वा/उत्तर भाद्रपदा, आश्विन, कृतिका, मार्गशीर्ष, पुष्य, मघा अथवा पूर्वा/उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र पड़ते हैं | अतः इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर बारहों माहों के नाम क्रमशः-
१-चैत्र, २-वैसाख, ३-ज्येष्ठ(जेठ), ४-आषाढ़ (अषाढ़), ५-श्रावण (सावन), ६-भाद्रपद (भादों), ७-आश्विन (क्वार), ८-कार्तिक (कातिक), ९-मार्गशीर्ष (अगहन), १०-पौष (पूष), ११-माघ और १२-फाल्गुन (फागुन) हैं |

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