मंगलवार, 24 अक्टूबर 2017

ब्रह्मपुराण अध्याय – २ राजा पृथु का चरित्

ब्रह्मपुराण

अध्याय – २

राजा पृथु का चरित्र

मुनियों ने कहा – लोमहर्षणजी ! पृथु के जन्म की कथा विस्तारपूर्वक कहिये | उन महत्माने इस पृथ्वीका किस प्रकार दोहन किया था ?

लोमहर्षणजी बोले – द्विजवरो ! मैं वेनकुमार पृथु की कथा विस्तार के साथ सुनाता हूँ | आप लोग एकाग्रचित्त होकर सुनें | ब्राह्मणों ! जो पवित्र नहीं रहता, जिसका हृदय खोता हैं, जो अपने शासन में नहीं हैं, जो व्रत का पालन नहीं करता तथा जो कृतघ्न और अहितकारी है – ऐसे पुरुष को मैं यह कृतघ्न और अहितकारी हैं – ऐसे पुरुष को मैं यह प्रसंग नहीं सुना सकता | यह स्वर्ग देनेवाला, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, परम धन्य, वेदों के तुल्य, माननीय तथा गूढ़ रहस्य हैं | ऋषियों ने जैसा कहा हैं, वह सब मैं ज्यों-का-त्यों सुना रहा हूँ; सुनो | जो प्रतिदिन ब्राह्मणों को नमस्कार करके वेनकुमार पृथु के चरित्र का विस्तारपूर्वक कीर्तन करता हैं, उसे ‘अमुक कर्म मैंने किया और अमुक नहीं किया’ – इस बातका शोक नहीं होता | पूर्वकाल की बात हैं, अत्रि-कुल में उत्पन्न प्रजापति अंग बड़े धर्मात्मा और धर्म के रक्षक थे | वे अत्रि के समान ही तेजस्वी थे | उनका पुत्र वेन था, जो धर्म के तत्त्व को बिलकुल नहीं समझता था | उसका जन्म मृत्युकन्या सुनीथा के गर्भ से हुआ था | अपने नाना के स्वाभावदोष के कारण वह धर्मको पीछे रखकर काम और लोभ में प्रवृत्त हो गया | उसने धर्मकी मर्यादा भंग कर दी और वैदिक धर्मोका उल्लंघन करके वह अधर्म में तत्पर हो गया | विनाशकाल उपस्थित होनेके कारण उसने यह क्रूर प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘किसीको यज्ञ और होम नहीं करने दिया जायेगा | यजन करने योग्य, यज्ञ करनेवाला तथा यज्ञ भी मैं ही हूँ | मेरे ही लिये यज्ञ करना चाहिये | मेरे ही उद्देश्य से हवन होना चाहिये |’ इसप्रकार मर्यादा का उल्लंघन करके सब कुछ ग्रहण करनेवाले अयोग्य वेन से मरीचि आदि सब महर्षियों ने कहा – ‘वेन ! हम अनेक वर्षों के लिए यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करनेवाले हैं | तुम अधर्म न करो | यह यज्ञ आदि कार्य सनातन धर्म हैं |’

महर्षियों को यों कहते देख खोटी बुद्धिवाले वेन ने हँसकर कहा – ‘अरे ! मेरे सिवा दूसरा कौन धर्मका स्त्रष्टा हैं | मैं किसकी बात सुनूँ | विद्या, पराक्रम, तपस्या और सत्य के द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस भूतलपर कौन हैं ? मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों की और विशेषत: सब धर्मो की उत्पत्तिका कारण हूँ | तुम सब लोग मुर्ख और अचेत हो, इसलिये मुझे नहीं जानते | यदि मैं चाहूँ तो इस पृथ्वीको भस्म कर दूँ, जलमें बहा दूँ या भूलोक तथा द्युलोक को भी रूँध डालूँ | इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं हैं |’ जब महर्षिगण वेन को मोह और अहंकार से किसी तरह हटा न सके, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ | उन महात्माओं ने महाबली वेन को पकड़कर बाँध लिया | उससमय वह बहुत उछल-कूद मचा रहा था | महर्षि कुपित तो थे ही, वेन की बायीं जंघा का मंथन करने लगे | इससे एक काले रंग का पुरुष उत्पन्न हुआ, जो बहुत ही नाटा था | वह भयभीत हो हाथ जोडकर खड़ा हो गया | उसे व्याकुल देख अत्रि ने कहा –‘निषीद (बैठ जा) |’ इससे वह निषादवंश का प्रवर्तक हुआ और वेन के पाप से उत्पन्न हुए धीवरों की सृष्टि करने लगा | तत्पश्च्यात महात्माओं ने पुन: अरणी की भाँती वेन की दाहिनी भुजा का मंथन किया | उससे अग्रि के समान तेजस्वी पृथुका प्रादुर्भाव हुआ | वे भयानक टंकार करनेवाले आजगव नामक धनुष, दिव्य बाण तथा रक्षार्थ कवच धारण किये प्रकट हुए थे | उनके उत्पन्न होनेपर समस्त प्राणी बड़े प्रसन्न हुए और सब ओर से वहाँ एकत्रित होने लगे | वेन स्वर्गगामी हुआ |

महात्मा पृथु-जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर वेन को ‘पुम’ नामक नरक से छुड़ा दिया | उनका अभिषेक करने के लिये समुद्र और सभी नदियाँ रत्न एवं जल लेकर स्वयं ही उपस्थित हुई | आंगिरस देवताओं के साथ भगवान् ब्रह्माजी तथा समस्त चराचर भूतों ने वहाँ आकर राजा पृथु का राज्याभिषेक किया | उन महाराज ने सभी प्रजाका मनोरंजन किया | उनके पिताने प्रजा को बहुत दु:खी किया था, किन्तु पृथु ने उन सबको प्रसन्न कर लिया; प्रजा का मनोरंजन करने के कारण ही उनका नाम राजा हुआ | वे सब समुद्र की यात्रा करते तब उसका जल स्थिर हो जाता था | पर्वत उन्हें जाने के लिये मार्ग दे देते थे और उनके रथ की ध्वजा कभी भंग नहीं हुई | उनके राज्य में पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी | राजाका चिन्तन करनेमात्र से अन्न सिद्ध हो जाता था | सभी गौएँ कामधेनु बन गयी थीं और पत्तों के दोने-दोने में मधु भरा रहता था | उसीसमय पृथु ने पैतामह (ब्रह्माजी से सम्बन्ध रखनेवाला) यज्ञ किया | उसमें सोमाभिषव् के दिन सूति (सोमरस निकालने की भूमि) से परम बुद्धिमान सूत की उत्पत्ति हुई | उसी महायज्ञ में विद्वान मागध का भी प्रादुर्भाव हुआ | उन दोनों को महर्षियों ने पृथु की स्तुति करने के लिये बुलाया और कहा – ‘तुम लोग इन महाराज की स्तुति करो | यह कार्य तुम्हारे अनुरूप है और ये महाराज भी इसके योग्य पात्र हैं |’ यह सुनकर सूत और मागध ने उन महर्षियों से कहा – ‘हम अपने कर्मों से देवताओं तथा ऋषियों को प्रसन्न करते हैं | इन महाराज का नाम, कर्म, लक्षण और यश – कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है, जिससे इन तेजस्वी नरेश की हम स्तुति कर सकें |’ तब ऋषियों ने कहा – ‘भविष्य में होनेवाले गुणों का उल्लेख करते हुए स्तुति करो |’ उन्होंने वैसा ही किया | उन्होंने जो-जो कर्म बताये, उन्हीं को महाबली पृथु ने पीछे से पूर्ण किया | तभीसे लोक में सूत, मागध और वंदीजनों के द्वारा आशीर्वाद दिलाने की परिपाटी चल पड़ी | वे दोनों जब स्तुति कर चुके, तब महाराज पृथु ने अत्यंत प्रसन्न होकर अनूप देशका राज्य सूत को और मगध का मागध को दिया | पृथु को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई प्रजा से महर्षियों ने कहा – ‘ ये महाराज तुम्हें जीविका प्रदान करनेवाले होंगे |’ यह सुनकर सारी प्रजा महात्मा राजा पृथु की ओर दौड़ी और बोली – ‘आप हमारे लिये जीविका का प्रबंध कर दें |’ जब प्रजाओं ने उन्हें इसप्रकार घेरा, तब वे उनका हित करने की इच्छासे धनुष-बाण हाथ में ले प्रथ्वी की और दौड़े | पृथ्वी उनके भय से थर्रा उठी और गौका रूप धारण करके भागी | तब पृथु ने धनुष लेकर भागती हुई पृथ्वीका पीछा किया | पृथ्वी उनके भयसे ब्रह्मलोक आदि अनेक लोकों में गयी, किन्तु सब जगह उसें धनुष लिये हुए पृथु को अपने आगे ही देखा | अग्रि के समान प्रज्वलित तीखे बाणों के कारण उनका तेज और भी उद्दीप्त दिखायी देता था | वे महान योगी महात्मा देवताओं के लिये भी दुर्धर्ष प्रतीत होते थे | जब और कहीं रक्षा न हो सकी, तब तीनों लोकों की पूजनीया पृथ्वी हाथ जोडकर फिर महाराज पृथु की ही शरण में आयी और इसप्रकार बोली – ‘राजन ! सब लोक मेरे ही ऊपर स्थित हैं | मैं ही इस जगत को धारण करती हूँ | यदि मेरा नाश हो जाय तो समस्त प्रजा नष्ट हो जायगी | इस बातको अच्छी तरह समझ लेना | भूपाल ! यदि तुम प्रजाका कल्याण चाहते हो तो मेरा वध न करो | मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनो; ठीक उपायसे आरम्भ किये हुए सब कार्य सिद्ध होते हैं | तुम इस उपायपर ही दृष्टीपात करो, जिससे इस प्रजाको जीवित रख सकोगे | मेरी हत्या करके भी तुम प्रजा के पालन-पोषण में समर्थ न होगे | महामते ! तुम क्रोध त्याग दो, मैं तुम्हारे अनुकूल हो जाऊँगी | तिर्यग्योनि में भी स्त्री को अवध्य बताया गया हैं; यदि यह बात सत्य है तो तुम्हें धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये |’

पृथु ने कहा – भद्रे ! जो अपने या पराये किसी एक के लिए बहुत-से प्राणियों का वध करता हैं, उसे अनंत पातक लगता है; परन्तु जिस अशुभ व्यक्तिका वध करनेपर बहुत-से लोग सुखी हों, उसके मारने से पातक या उपपातक कुछ नहीं लगता | अत: वसुन्धरे ! मैं प्रजाका कल्याण करनेके लिये तुम्हारा वध करूँगा | यदि मेरे कहने से आज संसारका कल्याण नहीं करोगी तो अपने बाणसे तुम्हारा नाश कर दूँगा और अपनेको ही पृथ्वीरूप में प्रकट करके स्वयं ही प्रजा को धारण करूँगा; इसलिये तुम मेरी आज्ञा मानकर समस्त प्रजाकी जीवन-रक्षा करो; क्योंकि तुम सबके धारण में समर्थ हो | इस समय मेरी पुत्री बन जाओ; तभी मैं इस भयंकर बाण को, जो तुम्हारे वध के लिये उद्यत हैं, रोकूँगा |

पृथ्वी बोली – वीर ! नि:संदेह मैं यह सब कुछ करूँगी | मेरे लिये कोई बछड़ा देखो, जिसके प्रति स्नेहयुक्त होकर मैं दूध दे सकूँ | धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भूपाल ! तुम मुझे सब ओर बराबर कर दो, जिससे मेरा दूध सब ओर बह सके |

तब राजा पृथु ने अपने धनुष की नोक से लाखों पर्वतों को उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर एकत्रित किया | इससे पर्वत बढ़ गये | इससे पहले की सृष्टि में भूमि समतल न होने के कारण पुरों अथवा ग्रामों का कोई सीमाबद्ध विभाग नहीं हो सका था | उससमय अन्न, गोरक्षा, खेती और व्यापार भी नहीं होते थे | यह सब तो वेन-कुमार पृथु के समय से ही आरम्भ हुआ है | भूमिका जो-जो भाग समतल था, वहीँ-वहीपर समस्त प्रजाने निवास करना पसंद किया | उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल-मूल ही था और वह भी बड़ी कठिनाई से मिलता था | राजा पृथुने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ में ही पृथ्वी को दुहा | उन प्रतापी नरेश ने पृथ्वी से सब प्रकार के अन्नों का दोहन किया | उसी अन्नसे आज भी सब प्रजा जीवन धारण करती है | उससमय ऋषि, देवता, पितर, नाग, दैत्य, यक्ष, पुण्यजन, गंधर्व, पर्वत और वृक्ष – सबने पृथ्वी को दुहा | उनके दूध, बछड़ा, पात्र और दुह्नेवाला- ये सभी पृथक-पृथक थे | ऋषियों के चन्द्रमा बछड़ा बने, बृहस्पति ने दुहने का काम किया, तपोमय ब्रह्म उनका दूध था और वेद ही उनके पात्र थे | देवताओं ने सुवर्णमय पात्र लेकर पुष्टिकारक दूध दुहा | उनके लिए इंद्र बछड़ा बने और भगवान् सूर्य ने दुहनेका काम किया | पितरों का चाँदी का पात्र था | प्रतापी यम बछड़ा बने, अन्तक ने दूध दुहा | उनके दूध को ‘स्वधा’ नाम दिया गया हैं | नागों ने तक्षक को बछड़ा बनाया | तुम्बीका पात्र रखा | ऐरावत नागसे दुहने का काम लिया और विषरूपी दुग्ध का दोहन किया | असुरों में मधु दुहनेवाला बना | उसने मायामय दूध दुहा | उससमय विरोचन बछड़ा बना था और लोहे के पात्र में दूध दुहा गया था | यक्षों का कच्चा पात्र था | कुबेर बछड़ा बने थे | रजतनाभ यक्ष दुहनेवाला था और अन्तर्धान होने की विद्या ही उनका दूध था | राक्षसेन्द्रों में सुमाली नामका राक्षस बछड़ा बना | रजतनाम दुह्नेवाला था | उसने कपालरूपी पात्र में शोणितरूपी दूध का दोहन किया | गन्धर्वों में चित्ररथ ने बछड़े का काम पूरा किया | कमल ही उनका पात्र था | सुरुचि दुह्नेवाला था और पवित्र सुगंध ही उनका दूध था | पर्वतों में म्हागिरि मेरु ने हिमवान को बछड़ा बनाया और स्वयं दुह्नेवाला बनकर शिलामय पात्र में रत्नों एवं ओषधियों को दूध के रूप में दुहा | वृक्षों में प्लक्ष (पाकड़) बछड़ा था | खिले हुए शाल के वृक्ष ने दुहने का काम किया | पलाश का पात्र था और जल ने तथा कटनेपर पुन: अंकुरित हो जाना ही उनका दूध था |

इसप्रकार सबका धारण-पोषण करनेवाली यह पावन वसुंधरा समस्त चराचर जगत की आधारभूता तथा उत्पत्तिस्थान हैं | यह सब कामनाओं को देनेवाली तथा सब प्रकार के अन्नों को अंकुरित करनेवाली है | गोरुपा पृथ्वी मेदिनी के नामसे विख्यात हैं | यह समुद्रतक पृथु के ही अधिकार में थी | मधु और कैटभ के मेद से व्याप्त होने के कारण यह मेदिनी कहलाती है | फिर राजा पृथु की आज्ञा के अनुसार भूदेवी उनकी पुत्री बन गयी, इसलिये इसे पृथ्वी भी कहते हैं | पृथु ने इस पृथ्वीका विभाग और शोधन किया, जिससे यह अन्न की खान और समृद्धिशालिनी बन गयी | गाँवों और नगरों के कारण इसकी बड़ी शोभा होने लगी | वेन-कुमार महाराज पृथुका ऐसा ही प्रभाव था | इसमें संदेह नहीं कि वे समस्त प्राणियों के पूजनीय और वन्दनीय हैं | वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों को भी महाराज पृथु की ही वंदना करनी चाहिये, क्योंकि वे सनातन ब्रह्मयोनि हैं | राज्य की इच्छा रखनेवाले राजाओं के लिये भी परम प्रतापी महाराज पृथु ही वन्दनीय हैं | युद्ध में विजय की कामना करनेवाले पराक्रमी योद्धाओं को भी उन्हें मस्तक झुकाना चाहिये | क्योंकि योद्धाओं में वे अग्रगण्य थे | जो सैनिक राजा पृथु का नाम लेकर संग्राम में जाता हैं, वह भयंकर संग्राम से भी सकुशल लौटता है और यशस्वी होता है | वैश्यवृत्ति करनेवाले धनि वैश्यों को भी चाहिये कि वे महाराज पृथु को नमस्कार करें, क्योंकि राजा पृथु सबके वृत्तिदाता और परम यशस्वी थे | इस संसार में परमकल्याण की इच्छा रखनेवाले तथा तीनों वर्णों की सेवामें लगे रहनेवाले पवित्र शुदों के लिये भी राजा पृथु ही वन्दनीय हैं | इसप्रकार जहाँ पृथ्वी को दुहने के लिये जो विशेष-विशेष बछड़े, दुहनेवाले, दूध तथा पात्र कल्पित किये गये थे , उन सबका मैंने वर्णन किया |

– नारायण नारायण –

संध्या – विधि माता गायत्री

संध्या – विधि

अग्निदेव कहते हैं – वसिष्ठ ! जो पुरुष ॐकार को जानता हैं, वह योगी और विष्णुस्वरूप हैं | इसलिये सम्पूर्ण मन्त्रों के सारस्वरूप और सब कुछ देनेवाले ॐकार का अभ्यास करना चाहिये | समस्त मन्त्रों के प्रयोग में ॐकार का सर्वप्रथम स्मरण किया जाता हैं | जो कर्म उससे युक्त है, वही पूर्ण है | उससे विहीन कर्म पूर्ण नहीं हैं | आदिमें ॐकार से युक्त (‘भू: भुव: स्व:’ – ये ) तीन शाश्वत महाव्याह्रतियों एवं (तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात्’ इस ) तीन पदों से युक्त गायत्री को ब्रह्म का (वेद अथवा ब्रह्माका) मुख जानना चाहिये | जो मनुष्य नित्य तीन वर्षोतक आलस्यरहित होकर गायत्री का जप करता हैं, वह वायुभूत और आकाश्स्वरूप होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है | एकाक्षर ॐकार ही परब्रह्म है और प्राणायाम ही परम तप है | गायत्री-मन्त्र से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है | मौन रहनेसे सत्यभाषण करना ही श्रेष्ठ हैं’ ||१-५||

गायत्री की सात आवृत्ति पापों का हरण करनेवाली हैं, दस आवृत्तियों से वह जपकर्ता को स्वर्ग की प्राप्ति कराती है और बीस आवृत्ति करनेपर तो स्वयं सावित्री देवी जप करनेवाले को ईश्वरलोक में ले जाती हैं | साधक गायत्री का एक सौ आठ बार जप करके संसार-सागर से तर जाता हैं | रूद्र-मन्त्रो के जप तथा कुष्मांड-मन्त्रो के जप से गायत्री-मन्त्र का जप श्रेष्ठ हैं | गायत्री से श्रेष्ठ कोई भी जप करनेयोग्य मंत्र नहीं है तथा व्याह्रति-होम के समान कोई होम नहीं हैं | गायत्री के एक चरण, आधा चरण, सम्पूर्ण ऋचा अथवा आधी ऋचा का भी जप करनेमात्र से गायत्री देवी साधक को ब्रह्महत्या, सुरापान, सुवर्ण की चोरी एवं गुरुपत्नी-गमन आदि महापातकों से मुक्त कर देती है||६-९||

कोई भी पाप करनेपर उसके प्रायश्चित्तस्वरुप तिलों का हवन और गायत्री का जप बताया गया हैं | उपवासपूर्वक एक सहस्त्र गायत्री-मन्त्र का जप करनेवाला अपने [पापों को नष्ट कर देता है | गो-वध, पितृवध, मातृवध, ब्रह्महत्या अथवा गुरुपत्नीगमन करनेवाला, ब्राह्मण की जीविका का अपहरण करनेवाला, सुवर्ण की चोरी करनेवाला और सुरापान करनेवाला महापातकी भी गायत्री का एक लाख जप करनेसे शुद्ध हो जाता है | अथवा स्नान करके जल के भीतर गायत्री का सौ बार जप करे | तदनंतर गायत्री से अभिमंत्रित जल के सौ आचमन करे | इससे भी मनुष्य पापरहित हो जाता है | गायत्री का सौ बार जप करनेपर वह समस्त पापों का उपशमन करनेवाली मानी गयी है और एक सहस्त्र जप करनेपर उपपातकों का भी नाश करती है | एक करोड़ जप करनेपर गायत्री देवी अभीष्ट फल प्रदान करती है | जपकर्ता देवत्व और देवराजत्व को भी प्राप्त कर लेता है ||१०-१३||
आदि में ॐकार, तदनंतर ‘भूर्भुव: स्व:’ का उच्चारण करना चाहिये | उसके बाद गायत्री मन्त्र का एवं अंत में पुन: ॐकार का प्रयोग करना चाहिये | जप में मन्त्र का यही स्वरूप बताया गया है |

ॐकारं पूर्वमुच्चार्य भूर्भुव: स्वस्तथैव च ||
गायत्रीं प्रणवश्चान्ते जपे चैव मुदाह्र्तम | (अग्नि. २१५ /१४-१५)

– इसके अनुसार जपनीय मन्त्र का पाठ यों होगा –

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि | धियो यो न: प्रचोदयात् ॐ |

गायत्री मन्त्र के विश्वामित्र ऋषि, गायत्री छंद और सविता देवता है | उपनयन, जप एवं होम में इनका विनियोग करना चाहिये |

गायत्र्या विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छंद: सविता देवताग्निर्मुखमुपनयने जपे होमे वा विनियोग: |

गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों के अधिष्ठातृदेवता क्रमश: ये है – अग्नि, वायु, रवि, विद्युत्, यम, जलपति, गुरु, पर्जन्य, इंद्र, गंधर्व, पूषा, मित्र, वरुण, त्वष्टा, वसुगण, मरुद्गण, चंद्रमा, अग्निरा, विश्वदेव, अश्विनीकुमार, प्रजापतिसहित समस्त देवगण, रूद्र, ब्रह्मा और विष्णु | गायत्री जप के समय उपर्युक्त देवताओं का उच्चारण किया जाय तो वे जपकर्ता के पापों का विनाश करते हैं ||१४-१८ ||

गायत्री मन्त्र के एक-के अक्षर का अपने निम्नलिखित अंकों में क्रमश: न्यास करे | पैरों के दोनों अंगुष्ठ, गुल्फ्द्वय, नल्क (दोनों पिंडलियाँ), घुटने, दोनों जाँघें, उपस्थ, वृषण, कटिभाग, नाभि, उदर, स्तनमंडल, ह्रदय, ग्रीवा, मुख (अधरोष्ठ), तालु, नासिका, नेत्रद्वय, भ्रूमध्य, ललाट,पूर्व आनन (उत्तरोष्ठ), दक्षिण पार्श्व, उत्तर पार्श्व, सिर और सम्पूर्ण मुखमंडल | गायत्री के चौबीस अक्षरों के वर्ण क्रमश” इसप्रकार है –
पीत, श्याम, कपिल, मरकतमणितुल्य, अग्नितुल्य, रुक्मसदृश, विद्युत्प्रभ, धूम्र, कृष्ण, रक्त, गौर, इन्द्रनीलमणिसदृश, स्फटिकमणिसदृश, स्वर्णिम, पांडू, पुखराजतुल्य, अखिलद्युति, हेमाभधूम्र, रक्तनील, रक्तकृष्ण, सुवर्णाभ, शुक्ल, कृष्ण और पलाशवर्ण | गायत्री ध्यान करनेपर पापों का अपहरण करती और हवन करनेपर सम्पूर्ण अभीष्ट कामनाओं को प्रदान करती है | गायत्री मन्त्र से तिलों का होम सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला है | शान्ति की इच्छा रखनेवाला जौ का और दीर्घायु चाहनेवाला घृत का हवन करे | कर्म की सिद्धि के लिये सरसों का, ब्रह्मतेज की प्राप्ति के लिये दुग्ध का, पुत्र की कामना करनेवाला दधि का और अधिक धान्य चाहनेवाला अगहनी के चावल का हवन करे | गृहपीड़ा की शान्ति के लिये खैर वृक्ष की समिधाओं का, धन की कामना करनेवाला बिल्वपत्रों का, लक्ष्मी चाहनेवाला कमल-पुष्पों का, आरोग्य का इच्छुक और महान उत्पात से आतकिंत मनुष्य दुर्वा का, सौभाग्याभिलाशी गुग्गुल का और विद्याकामी खीर का हवन करे | दस हजार आहुतियों से उपर्युक्त कामनाओं की सिद्धि होती है और एक लाख आहुतियों से साधक मनोभिलषित वस्तु को प्राप्त करता हैं | एक करोड़ आहुतियों से होता ब्रह्महत्या के महापातक से मुक्त हो अपने कुल का उद्धार करके श्रीहरिस्वरुप हो जाता है | ग्रह-यज्ञ-प्रधान होम हो, अर्थात ग्रहों की शान्ति के लिए हवन किया जा रहा हो तो उसमें भी गायत्री-मन्त्र से दस हजार आहुतियाँ देनेपर अभीष्ट फल की सिद्धि होती है ||१९-३०||

संध्या-विधि
गायत्री का आवाहन करके ॐकार का उच्चारण करना चाहिये | गायत्री मन्त्रसहित ॐकार का उच्चारण करके शिखा बाँधे | फिर आचमन करके ह्रदय, नाभि और दोनों कंधों का स्पर्श करे | प्रणव के ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छंद, अग्नि अथवा परमात्मा देवता है | इसका सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ में प्रयोग होता है |

ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दोंग्निर्देवता शुक्लो वर्ण: सर्वकर्मोरम्भे विनियोग: |

निम्नलिखित मन्त्र से गायत्री देवी का ध्यान करे –

शुक्ला चाग्निमुखी दिव्या कात्यायनसगोत्रजा |
त्रैलोक्यवरणा दिव्या पृथिव्याधारसंयुता ||
अक्षसुत्रधरा देवी पद्मासनगता शुभा ||

तदनंतर निम्नांकित मन्त्र से गायत्री देवी का आवाहन करे –

‘ॐ तेजोऽसि महोऽसि बलमसि भ्राजोऽसि देवानां धामनामाऽसि |
विश्वमसि विश्वायु: सर्वमसि सार्वायु: ॐ अभि भू: |’
आगच्छ वरदे देवि जपे में संनिधौ भव |
गायन्तं त्रायसे यस्माद गायत्री त्वं तत: स्मृता ||

समस्त व्याह्रतियों के ऋषि प्रजापति ही हैं; वे सब – व्यष्टि और समष्टि दोनों रूपों से परब्रह्मस्वरुप एकाक्षर ॐकार में स्थित हैं |

सप्तव्याह्र्तियों के क्रमश: ये ऋषि हैं – विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ तथा कश्यप | उनके देवता क्रमश: – ये है – अग्नि, वायु, सूर्य, बृहस्पति, वरुण, इंद्र और विश्वदेव | गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, पंकि, त्रिष्टुप और जगती – ये क्रमश: सात व्याह्र्तियों के छंद हैं | इन व्याह्र्तियों का प्राणायाम और होम में विनियोग होता हैं |

ॐ आपो हि ष्ठा मयो भुव:, ॐ ता न ऊर्जे दधातन, ॐ महेरणाय चक्षसे, ॐ यो व: शिवतमो रस:, ॐ तस्य भाजयतेह न: , ॐ उशतीरिव मातर:, ॐ तस्मा अरं गमाम व: ॐ यस्य क्षयाय: जिन्वथ, ॐ आपो जनयथा च न: |

इन तीन ऋचाओं का तथा ‘ॐ द्रुपदादिव मुमुचान: स्विन्न: स्रातो मलादिव | पूतं पवित्रेणवाज्यमाप: शुन्धन्तु मैनस: |’ इस मन्त्र का ‘हिरण्यवर्णा: शुचय:’इत्यादि पावमानी ऋचाओं का उच्चारण करके (पवित्रो अथवा दाहिने हाथ की अँगुलियोंद्वारा) जल के आठ छीटे ऊपर उछालें | इससे जीवनभर के पाप नष्ट हो जाते हैं ||३१-४१||

जल के भीतर ‘ऋतं च’ – इस अघमर्षण मन्त्र का तीन बार जप करें |

ॐ ऋतजं सत्यष्ठाभीद्धात्तपसोध्यजायत | ततो राज्यजायत | तत: समुद्रो अर्णव: | समुद्रादर्नवादधिसंवत्सरो अजावत | अहो रात्रापि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी | सूर्याचन्द्रमसी धाता यथापूर्वमकल्पयत | दिवस पृथिविशान्तरिक्षमयो स्व: ||

‘आपो हि ष्ठा’ आदि तीन ऋचाओं के सिन्धुद्वीप ऋषि, गायत्री छंद और जल देवता माने गये हैं | ब्राह्मस्नान के लिये मार्जन में इसका विनियोग किया जाता है |

आपो हिष्ठेत्यादि तुचस्य सिन्धुद्वीप ऋषि: गायत्री छंद:, आपो देवता ब्राह्मस्नानाय मार्जने विनियोग: |

अघमर्षण मन्त्र का विनियोग इसप्रकार करना चाहिये | इस अघमर्षण सूक्त के अघमर्षण ऋषि, अनुष्टुप छंद और भाववृत्त देवता हैं | पापनि:सारण के कर्म में इसका प्रयोग किया जाता हैं |

अघमर्षणसुक्त्याघमर्षण ऋषिरनुष्टपछन्दों भाववृतो देवता अघमर्षने विनियोग: |

‘ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम |’ यह गायत्री मन्त्र का शिरोभाग हैं | इसके प्रजापति ऋषि हैं | यह छंदरहित यजुर्मन्त्र हैं; क्योंकि यजुर्वेद के मन्त्र किसी नियत अक्षरवाले छंद में आबद्ध नहीं है | शिरोमंत्र के ब्रह्मा, आग्नि, वायु और सूर्य देवता माने गये हैं |

शिरस: प्रजापतिऋषित्रिपदा गायत्री छन्दों ब्रह्माग्निवायुसुर्या देवता यजु:प्राणायामे विनियोग: |

प्राणायाम से वायु, वायु से अग्नि और अग्निसे जल की उत्पत्ति होती है तथा उसी जल से शुद्धि होती है | इसलिये जल का आचमन निम्नलिखित मन्त्र से करे –

ॐ अन्तश्वरसि भूतेषु गुहायां विश्वमुर्तिषु | तपो यज्ञो वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम ||

‘उदुत्यं जातवेद्सं ‘ – इस मन्त्र के प्रस्कन्व ऋषि कहे गये हैं | इसका गायत्री छंद और सूर्य देवता हैं | इसका अतिरात्र और अग्निष्टोम याग में विनियोग होता है ( परन्तु संध्योपासना में इसका सूर्योपस्थान कर्म में विनियोग किया जाता हैं |)

उदुत्पमिति प्रस्कन्व ऋषिगायत्री छंद: सूर्यो देवता सुर्योपस्थाने विनियोग: |

‘चित्रं देवानां’ – इस ऋचा के कौत्स ऋषि कहे गये है | इसका छंद त्रिष्टुप और देवता सूर्य माने गये हैं | यहाँ इसका भी विनियोग सुर्योपस्थान में ही हैं ||४२-५०||

चित्रमित्यस्य कौत्स ऋषिस्रिष्टपछंद: सूर्यो देवता सुर्योपस्थाने विनियोग: |

इसप्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘संध्याविधि का वर्णन’ नामक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ || ९४ ||

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