गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

वैशाख-स्नान से पाँच प्रेतों का उद्धार :---आचार्य डा.अजय दीक्षित

वैशाख-स्नान से पाँच प्रेतों का उद्धार :---आचार्य डा.अजय दीक्षित द्वारा प्रकाशित किया गया ।

अम्बरीष ने कहा – मुने ! जिसके चिन्तन मात्र से पाप राशि का लय हो जाता है, उस पाप प्रशमन नामक स्तोत्र को मैं भी सुनना चाहता हूँ। आज मैं धन्य हूँ, अनुगृहीत हूँ, आपने मुझे उस शुभ विधि का श्रवण कराया, जिसके सुनने मात्र से पापों का क्षय हो जाता है। वैशाख मास में जो भगवान केशव के कल्याणमय नामों का कीर्तन किया जाता है, उसी को मैं संसार में सबसे बड़ा पुण्य, पवित्र, मनोरम तथा एकमात्र सुकृत से ही सुलभ होने वाला शुभ कर्म मानता हूँ।। अहो ! जो लोग माधव मास में भगवान मधुसूदन के नामों का स्मरण करते हैं वे धन्य हैं। अत: यदि आप उचित समझें तो मुझे पुन: माधवमास की ही पवित्र कथा सुनाएँ।

सूतजी कहते हैं – राजाओं में श्रेष्ठ हरिभक्त अम्बरीष का वचन सुनकर नारद मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। यद्यपि वे वैशाख स्नान के लिये जाने को उत्कंठित थे, तथापि सत्संग में आनन्द आने के कारण रुक गये और राजा से बोले।

नारद जीने कहा – महीपाल ! मुझे ऎसा जान पड़ता है कि यदि दो व्यक्तियों में परस्पर भगवत्कथा-संबंधी सरस वार्तापाल छिड़ जाए तो वह अत्यन्त विशुद्ध – अन्त:करण को शुद्ध करने वाला होता है। आज तुम्हारे साथ जो माधवमास के माहात्म्य की चर्चा चल रही है, यह वैशाख-स्नान की अपेक्षा अधिक पुण्य प्रदान करने वाली है क्योंकि माधवमास के देवता भगवान श्रीविष्णु हैं (अत: उनका कीर्तन भगवान का ही कीर्तन है)। जिसका जीवन धर्म के लिए और धर्म भगवान की प्रसन्नता के लिए है तथा जो रातों-दिन पुण्योपार्जन में ही लगा रहता है, उसी को इस पृथ्वी पर मैं वैष्णव मानता हूँ। राजन् ! अब मैं वैशाख स्नान से होने वाले पुण्य फल का संक्षेप में वर्णन करता हूँ। विस्तार के साथ सारा वर्णन तो मेरे पिता – ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते। वैशाख में डुबकी लगाने मात्र से समस्त पाप छूट जाते हैं।

पूर्वकाल की बात है कोई मुनीश्वर तीर्थयात्रा के प्रसंग से सर्वत्र घूम रहे थे। उनका नाम था मुनिशर्मा। वे बड़े धर्मात्मा, सत्यवादी, पवित्र तथा शम, दम एवं शान्तिधर्म से युक्त थे। वे प्रतिदिन पितरों का तर्पण और श्राद्ध करते थे। उन्हें वेदों और स्मृतियों के विधानों का सम्यक् ज्ञान था। वे मधुर वाणी बोलते और भगवान का पूजन करते रहते थे। वैष्णवों के संसर्ग में ही उनका समय व्यतीत होता था। वे तीनों कालों के ज्ञाता, मुनि, दयालु, अत्यन्त तेजस्वी, तत्वज्ञानी और ब्राह्मणभक्त थे। वैशाख का महीना था, मुनिशर्मा स्नान के लिए नर्मदा के किनारे जा रहे थे। उसी समय उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषों को देखा, जो भारी दुर्गति में फँसे हुए थे। वे अभी-अभी एक-दूसरे से मिले थे। उनके शरीर का रंग काला था। वे एक बरगद की छाया में बैठे थे और पापों के कारण उद्विग्न होकर चारों ओर दृष्टिपात कर रहे थे।

उन्हें देखकर द्विजवर मुनिशर्मा बड़े विस्मय में पड़े और सोचने लगे – इस भयानक वन में मनुष्य कहाँ से आए? इनकी चेष्टा बड़ी दयनीय है किन्तु इनका आकार बड़ा भयंकर दिखाई देता है। ये पापभागी चोर तो नहीं हैं? विप्रवर मुनिशर्मा की बुद्धि बड़ी स्थिर थी, वे ज्यों ही इस प्रकार विचार करने लगे, उसी समय उपर्युक्त पाँचों पुरुष उनके पास आये और हाथ जोड़कर मुनिशर्मा से बोले।

उन पुरुषों ने कहा – विप्रवर ! हमें आप कल्याणमय पुरुषोत्तम जान पड़ते हैं, हम दु:खी जीव हैं। अपना दु:ख विचारकर आपको बताना चाहते हैं। द्विजराज ! आप कृपा करके हमारी कष्ट कथा सुनें। दैववश जिनके पाप प्रकट हो गए हैं, उन दीन दु:खी प्राणियों के आधार आप जेसे संत महात्मा ही हैं। साधु पुरुष अपनी दृष्टिमात्र से पीड़ितों की पीड़ाएँ हर लेते हैं, अब उनमें से एक ने सबका परिचय देना आरंभ किया – मैं पंचाल देश का क्षत्रिय हूँ, मेरा नाम नरवाहन है।

मैंने मार्ग में मोहवश बाण द्वारा एक ब्राह्मण की हत्या कर डाली। मुझसे ब्रह्म हत्या का पाप हो गया इसलिए शिखा, सूत्र और तिलक से रहित होकर इस पृथ्वी पर घूमता हूँ और सबसे कहता फिरता हूँ कि “मैं ब्रह्महत्यारा हूँ।” मुझ महापापी ब्रह्मघाती को आप कृपा की भिक्षा दें। इस दशा में पड़े-पड़े मुझे एक वर्ष बीत गया। मैं पाप से जल रहा हूँ, मेरा चित्त शोक से व्याकुल है तथा ये जो सामने दिखाई देते हैं, इनका नाम चन्द्रशर्मा है। ये जाति के ब्राह्मण है, इन्होंने मोह से मलिन होकर गुरु का वध किया है और ये मगध देश के निवासी हैं। इनके स्वजनों ने इनका परित्याग कर दिया है। ये भी घूमते-घामते दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इनके भी न शिखा है न सूत्र। ब्राह्मण का कोई भी चिह्न इनके शरीर में नहीं रह गया है।

इनके सिवा जो ये तीसरे व्यक्ति हैं, इनका नाम देवशर्मा है। स्वामिन् ! ये भी बड़े कष्ट में है। ये भी जाति के ब्राह्मण हैं, किन्तु मोहवश वेश्या की आसक्ति में फँसकर शराबी हो गए थे। इन्होंने भी पूछने पर अपना सारा हाल सच-सच कह सुनाया है। अपने प्रथम पापाचार को याद करके इनके हृदय में बड़ा संताप होता है। ये सदा मनस्ताप से पीड़ित रहते हैं। इनको इनकी स्त्री ने, बन्धु-बान्धवों ने तथा गाँव के सब लोगों ने वहाँ से निकाल दिया है। ये अपने उसी पाप के साथ भ्रमण करते हुए यहाँ आए हैं।

ये चौथे महाशय जाति के वैश्य हैं। इनका नाम विधुर है। ये गुरुपत्नी के साथ समागम करने वाले हैं। इनकी माता मिथिला में जाकर वेश्या हो गई थी। इन्होंने मोहवश तीन महीनों तक उसी का उपभोग किया है परन्तु जब असली बात का पता लगा है तो बहुत दु:खी होकर पृथ्वी पर विचरते हुए ये भी यहाँ आ पहुँचे हैं। हम में से ये जो पाँचवें दिखाई दे रहे हैं, ये भी वैश्य ही हैं, इनका नाम नन्द है। ये पापियों का संसर्ग करने वाले महापापी हैं। इन्होंने प्रतिदिन धन के लालच में पड़कर बहुत चोरी की है। पातकों से आक्रान्त हो जाने पर इन्हें स्वजनों ने त्याग दिया है तब ये स्वयं भी खिन्न होकर दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं।

इस प्रकार हम पाँचों महापापी एक स्थान पर जुट गए हैं। हम सब के सब दु:खों से घिरे हुए हैं। अनेकों तीर्थों में घूम आए मगर हमारा घोर पातक नहीं मिटता। आपको तेज से उद्दीप्त देखकर हम लोगों का मन प्रसन्न हो गया है। आप जैसे साधु पुरुष के पुण्यमय दर्शन से हमारे पातकों के अन्त होने की सूचना मिल रही है। स्वामिन् ! कोई ऎसा उपाय बताइए, जिससे हम लोगों के पापों का नाश हो जाए। प्रभो ! आप वेदार्थ के ज्ञाता और परम दयालु जान पड़ते हैं, आपसे हमें अपने उद्धार की बड़ी आशा है।

मुनिशर्मा ने कहा – तुम लोगों ने अज्ञानवश पाप किया, किन्तु इसके लिए तुम्हारे हृदय में अनुताप है तथा तुम सब के सब सत्य बोल रहे हो, इस कारण तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपनी भुजा उठाकर कहता हूँ, मेरी सत्य बातें सुनो। पूर्वकाल में जब मुनियों का समुदाय एकत्रित हुआ था, उस समय मैंने महर्षि अंगिरा के मुख से जो कुछ सुना था वही वेद शास्त्रों में भी देखा। वह सबके लिए विश्वास करने योग्य है। मेरी आराधना से संतुष्ट हुए स्वयं भगवान विष्णु ने भी पहले ऎसी ही बात बताई थी, वह इस प्रकार है।

भोजन से बढ़कर दूसरा कोई तृप्ति का साधन नहीं है। पिता से बढ़कर कोई गुरु नहीं है। ब्राह्मणों से उत्तम दूसरा कोई पात्र नहीं है तथा भगवान विष्णु से श्रेष्ठ दूसरा कोई देवता नहीं है। गंगा की समानता करने वाला कोई तीर्थ, गोदान की तुलना करने वाला कोई दान, गायत्री के समान जप, एकादशी के तुल्य व्रत, भार्या के सदृश मित्र, दया के समान धर्म तथा स्वतंत्रता के समान सुख नहीं है। गार्हस्थ्य से बढ़कर आश्रम और सत्य से बढ़कर सदाचार नहीं है। इसी प्रकार संतोष के समान सुख तथा वैशाख माह के समान महान् पापों का अपहरण करने वाला दूसरा कोई मास नहीं है।

वैशाख मास भगवान मधुसूदन को बहुत ही प्रिय है। गंगा आदि तीर्थों में तो वैशाख स्नान का सुयोग अत्यन्त दुर्लभ है। उस समय गंगा, जमुना तथा नर्मदा की प्राप्ति कठिन होती है। जो शुद्ध हृदय वाला मनुष्य भगवान के भजन में तत्पर हो पूरे वैशाख भर प्रात:काल गंगा स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है। इसलिए पुण्य के सारभूत इस वैशाख मास में तुम सभी पातकी मेरे साथ नर्मदा तट पर चलो और उसमें गोते लगाओ। नर्मदा के जल का मुनि लोग भी सेवन करते हैं, वह समस्त पापों के भय का नाश करने वाला है। मुनि के यों कहने पर वे सब पापी उनके साथ अद्भुत पुण्य प्रदान करने वाली नर्मदा की प्रशंसा करते हुए उसके तट पर गए।

किनारे पहुँचकर ब्राह्मण श्रेष्ठ मुनिशर्मा का चित्त परसन्न हो गया। उन्होंने वेदोक्त विधि के अनुसार नर्मदा के जल में प्रात: स्नान किया। उपर्युक्त पाँचों पापियों ने भी ब्राह्मण के कहने से ज्यों ही नर्मदा में डुबकी लगाई त्यों ही उनके शरीर का रंग बदल गया। वे तत्काल सुवर्ण के समान कान्तिमान हो गए फिर मुनिशर्मा ने सब लोगों के सामने उन्हें पाप-प्रशमन नामक स्तोत्र सुनाया।

भूपाल ! अब तुम पाप-प्रशमन नामक स्तोत्र सुनो। इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करके भी मनुष्य पाप राशि से मुक्त हो जाता है। इसके चिन्तन मात्र से बहुतेरे पापी शुद्ध हो चुके हैं। इसके सिवा और भी बहुत-से मनुष्य इस स्तोत्र का सहारा लेकर अज्ञानजनित पाप से मुक्त हो गए हैं। जब मनुष्यों का चित्त परायी स्त्री, पराए धन तथा जीव-हिंसा आदि की ओर जाए तो इस प्रायश्चित्तरुपा स्तुति की शरण लेनी चाहिए, यह स्तुति इस प्रकार है –

 

विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नम:।

नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतं हरिम्।।

चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्।

विष्णुमीड्यमशेषाणामनादिनिधनं हरिम्।।

अर्थ – संपूर्ण विश्व में व्यापक भगवान श्रीविष्णु को सर्वदा नमस्कार है। विष्णु को बारम्बार प्रणाम है। मैं अपने चित्त में विराजमान विष्णु को नमस्कार करता हूँ। अपने अहंकार में व्याप्त श्रीहरि को मस्तक झुकाता हूँ। श्रीविष्णु चित्त में विराजमान ईश्वर (मन और इन्द्रियों के शासक), अव्यक्त, अनन्त, अपराजित, सबके द्वारा स्तवन करने योग्य तथा आदि-अन्त से रहित है, ऎसे श्रीहरि को मैं नित्य-निरन्तर प्रणाम करता हूँ।

 

विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत्।

योsहंकारगतो विष्णुर्यो विष्णुर्मयि संस्थित:।।

करोति कर्तृभूतोsसौ स्थावरस्य चरस्य च।

तत्पापं नाशमायाति तस्मिन् विष्णौ विचिन्तिते।।

अर्थ – जो विष्णु मेरे चित्त में विराजमान हैं, जो विष्णु मेरी बुद्धि में स्थित हैं, जो विष्णु मेरे अहंकार में व्याप्त हैं तथा जो विष्णु सदा मेरे स्वरुप में स्थित हैं, वे ही कर्ता होकर सब कुछ करते हैं। उन विष्णु भगवान का चिन्तन करने पर चराचर प्राणियों का सारा पाप नष्ट हो जाता है।

 

ध्यातो हरति य: पापं स्वप्ने दृष्टश्च पापिनाम्।

तमुपेन्द्रमहं विष्णुं नमामि प्रणतप्रियम्।।

अर्थ – जो ध्यान करने और स्वप्न में दिख जाने पर भी पापियों के पाप हर लेते हैं तथा चरणों में पड़े हुए शरणागत भक्त जिन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, उन वामनरूपधारी भगवान श्रीविष्णु को नमस्कार करता/करती हूँ।

 

जगत्यस्मिन्निरालम्बे ह्यजमक्षरमव्ययम्।

हस्तावलम्बनं स्तोत्रं विष्णुं वन्दे सनातनम्।।

अर्थ – जो अजन्मा, अक्षर और अविनाशी हैं तथा इस अवलम्बशून्य संसार में हाथ का सहारा देने वाले हैं, स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, उन सनातन श्रीविष्णु को मैं सदा प्रणाम करता/करती हूँ।

 

सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज।

हृ्षीकेश हृ्षीकेश हृ्षीकेश नमोsस्तु ते।।

अर्थ – हे सर्वेश्वर ! हे ईश्वर ! हे व्यापक परमात्मन् ! हे अधोक्षज ! हे इन्द्रियों का शासन करने वाले अन्तर्यामी हृषीकेश ! आपको बारम्बार नमस्कार है।

 

नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव।

दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाशु जनार्दन।।

अर्थ – हे नृसिंह ! हे अनन्त ! हे गोविन्द ! हे भूतभावन ! हे केशव ! हे जनार्दन ! मेरे दुर्वचन, दुष्कर्म और दुश्चिन्तन को शीघ्र नष्ट कीजिए।

 

यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना।

आकर्णय महाबाहो तच्छमं नय केशव।।

अर्थ – महाबाहो ! मेरी प्रार्थना सुनिए – अपने चित्त के वश में होकर मैंने जो कुछ बुरा चिन्तन किया हो, उसको शान्त कर दीजिए।

 

ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण।

जगन्नाथ जगद्धात: पापं शमय मेsच्युत।।

अर्थ – ब्राह्मणों का हित साधन करने वाले देवता गोविन्द ! परमार्थ में तत्पर रहने वाले जगन्नाथ ! जगत को धारण करने वाले अच्युत ! मेरे पापों का नाश कीजिए।

 

यच्चापराह्णे सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि।

कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता।।

जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।

नामत्रयोच्चारणत: सर्वं यातु मम क्षयम्।।

अर्थ – मैंने पूर्वाह्न, सायाह्न, मध्याह्न तथा रात्रि के समय शरीर, मन और वाणी के द्वारा, जानकर या अनजान में जो कुछ पाप किया हो, वह सब “हृषीकेश, पुण्डरीकाक्ष और माधव” – इन तीन नामों के उच्चारण से नष्ट हो जाए।

 

शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष मानसम्।

पापं प्रशममायातु वाक्कृतं मम माधव।।

अर्थ – हृषीकेश ! आपके नामोच्चारण से मेरा शारीरिक पाप नष्ट हो जाए, पुण्डरीकाक्ष ! आपके स्मरण से मेरा मानस पाप शान्त हो जाए तथा माधव ! आपके नाम-कीर्तन से मेरे वाचिक पाप का नाश हो जाए।

 

यद् भुज्जान: पिबंस्तिष्ठन् स्वपण्जाग्रद् यदा स्थित:।

अकार्षं पापमर्थार्थं कायेन मनसा गिरा।।

महदल्पं च यत्पापं दुर्योनिनरकावहम्।

तत्सर्वं विलयं यातु वासुदेवस्य कीर्तनात् ।।

अर्थ – मैंने खाते, पीते, खड़े होते, सोते, जागते तथा ठहरते समय मन, वाणी और शरीर से, स्वार्थ या धन के लिए जो कुत्सित योनियों और नरकों की प्राप्ति कराने वाला महान या थोड़ा पाप किया है, वह सब भगवान वासुदेव का नामोच्चारण करने से नष्ट हो जाए।

 

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।

अस्मिन् संकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु।।

अर्थ – जिसे परब्रह्म, परम धाम और परम पपवित्र कहते हैं, वह तत्त्व भगवान विष्णु ही है, इन श्रीविष्णु भगवान का कीर्तन करने से मेरे जो भी पाप हों, वे नष्ट हो जाएँ।

 

यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शविवर्जितम्।

सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं मे भवत्वलम्।।

अर्थ – जो गन्ध और स्पर्श से रहित हैं, ज्ञानी पुरुष जिसे पाकर पुन: इस संसार में नहीं लौटते, वह श्रीविष्णु का ही परम पद है। वह सब मुझे पूर्णरूप से प्राप्त हो जाए।

 

पापप्रशमनं स्तोत्रं य: पठेच्छृृणुयान्नर:।

शारीरैर्मानसैर्वाचा कृतै: पापै: प्रमुच्यते।।

मुक्त: पापग्रहादिभ्यो याति विष्णो:परं पदम्।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्तोत्रं  सर्वाघनाशनम्।।

प्रायश्चित्तमघौघानां पठितव्यं नरोत्तमै: (अध्याय 88, श्लोक 72 से 91 तक)

अर्थ – यह “पाप-प्रशमन” नामक स्तोत्र है. जो मनुष्य इसे पढ़ता और सुनता है वह शरीर, मन और वाणी द्वारा किए हुए पापों से मुक्त हो जाता है. इतना ही नहीं वह पाप ग्रह आदि के भय से भी मुक्त होकर विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है. यह स्तोत्र सब पापों का नाश करने वाला तथा पाप राशि का प्रायश्चित है. इसलिए श्रेष्ठ मनुष्यों को पूर्ण प्रयत्न कर के इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए.

राजन् ! इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से पूर्वजन्म तथा इस जन्म के किये हुए पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यह स्तोत्र पापरूपी वृक्ष के लिए कुठार और पापमय ईंधन के लिए दावानल है। पापराशिरूपी अन्धकार-समूह का नाश करने के लिए यह स्तोत्र सूर्य के समान है। मैंने सम्पूर्ण जगत पर अनुग्रह करने के लिए इसे तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है। इसके पुण्यमय माहात्म्य का वर्णन करने में स्वयं श्रीहरि भी समर्थ नहीं हैं

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

सर्वार्थ सिद्धि योग – 2020आचार्य डा.अजय दीक्षित द्वारा प्रकाशित किया गया

सर्वार्थ सिद्धि योग – 2020

आचार्य डा.अजय दीक्षित द्वारा प्रकाशित किया गया

कुछ विशेष कार्य जैसे – कोई व्यापार या बिजनेस शुरु करना हो, कोई सरकारी अथवा राजकीय कॉन्ट्रैक्ट करना हो, परीक्षा देनी हो, नौकरी पर जाना हो, चुनाव के लिए आवेदन पत्र देना हो, भूमि से संबंधित कोई कार्य हो, यात्रा पर जाना हो, वस्त्र या आभूषण आदि लेने हो या फिर मुकदमा आरंभ करना हो लेकिन कोई शुभ मूहुर्त ना मिल रहा हो तब सर्वार्थ सिद्धि योग में ये सभी काम शुरु किए जा सकते हैं. कई बार शुक्र या गुरु अस्त होता है या अधिकमास पड़ जाता है या फिर वेध आदि की वजह से भी नया काम प्रारंभ करने की मनाही होती हैं लेकिन इन सब के साथ सर्वार्थ सिद्धि योग उस दिन बन रहा हो तब उपरोक्त काम शुरु किए जा सकते हैं. 

 

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सर्वार्थ सिद्धि योग – मई 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                             समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
3 मई 21:434 मई सूर्योदय 
8 मई 08:38 9 मई सूर्योदय 
10 मई सूर्योदय 11 मई 04:13 
17 मई 13:59 18 मई सूर्योदय 
19 मई 19:53 20 मई सूर्योदय 
23 मई सूर्योदय 24 मई 04:52 
25 मई सूर्योदय 25 मई 06:10 
28 मई सूर्योदय 28 मई 07:27 
31 मई सूर्योदय 1 जून सूर्योदय 


 

सर्वार्थ सिद्धि योग – जून 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                             समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
1 जून सूर्योदय तक 
4 जून 18:37 5 जून 16:44
7 जून सूर्योदय 7 जून 14:11 
14 जून सूर्योदय 14 जून 24:22
16 जून सूर्योदय 17 जून सूर्योदय 
20 जून सूर्योदय 20 जून 12:02
26 जून 11:26 27 जून सूर्योदय 
28 जून सूर्योदय 29 जून सूर्योदय 


 

सर्वार्थ सिद्धि योग – जुलाई 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                        समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
2 जुलाई 02:343 जुलाई 01:14
5 जुलाई 23:026 जुलाई सूर्योदय 
6 जुलाई 23:12 7 जुलाई सूर्योदय 
12 जुलाई सूर्योदय 12 जुलाई 08:18 
14 जुलाई सूर्योदय 14 जुलाई 14:07
15 जुलाई 16:4316 जुलाई सूर्योदय 
20 जुलाई 21:2121 जुलाई सूर्योदय 
24 जुलाई सूर्योदय 24 जुलाई 16:03
26 जुलाई सूर्योदय 26 जुलाई 12:37
29 जुलाई 08:3330 जुलाई 07:41


 

सर्वार्थ सिद्धि योग – अगस्त 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                      समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
2 अगस्त 06:523 अगस्त सूर्योदय 
3 अगस्त 07:194 अगस्त सूर्योदय 
7 अगस्त सूर्योदय 7 अगस्त 13:33
9 अगस्त 19:0610 अगस्त सूर्योदय 
11 अगस्त 24:5713 अगस्त 03:26
17 अगस्त 06:4418 अगस्त 05:43 
18 अगस्त सूर्योदय 19 अगस्त 04:08 
26 अगस्त सूर्योदय 26 अगस्त 13:04
30 अगस्त सूर्योदय 30 अगस्त 13:52 
31 अगस्त सूर्योदय 31 अगस्त 15:04


 

सर्वार्थ सिद्धि योग – सितंबर 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                      समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
4 सितंबर 23:285 सितंबर सूर्योदय 
6 सितंबर सूर्योदय 7 सितंबर 05:24
8 सितंबर 08:2610 सितंबर सूर्योदय 
13 सितंबर 16:3414 सितंबर 15:52
15 सितंबर सूर्योदय 15 सितंबर 14:25
21 सितंबर 20:4922 सितंबर सूर्योदय 
26 सितंबर 19:2627 सितंबर सूर्योदय 


 

सर्वार्थ सिद्धि योग – अक्तूबर 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                   समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
2 अक्तूबर 05:573 अक्तूबर सूर्योदय 
4 अक्तूबर सूर्योदय 4 अक्तूबर 11:52
6 अक्तूबर सूर्योदय 6 अक्तूबर 17:54
7 अक्तूबर सूर्योदय 8 अक्तूबर सूर्योदय 
9 अक्तूबर 24:27 10 अक्तूबर सूर्योदय 
11 अक्तूबर सूर्योदय 11 अक्तूबर 25:19 (रात्रि 01:19)
17 अक्तूबर 11:5218 अक्तूबर सूर्योदय 
19 अक्तूबर सूर्योदय 20 अक्तूबर 03:53
23 अक्तूबर 25:28 (रात्रि 01:28)24 अक्तूबर 26:38 (रात्रि 02:38) 
29 अक्तूबर 12:0031 अक्तूबर सूर्योदय 


 

सर्वार्थ सिद्धि योग – नवंबर 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                    समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
2 नवंबर 23:503 नवंबर सूर्योदय 
4 नवंबर सूर्योदय 5 नवंबर 04:51
6 नवंबर 06:457 नवंबर सूर्योदय 
8 नवंबर सूर्योदय 8 नवंबर 08:45
12 नवंबर 04:2512 नवंबर सूर्योदय 
14 नवंबर सूर्योदय 14 नवंबर 20:09
16 नवंबर सूर्योदय 16 नवंबर 14:37
20 नवंबर 09:2221 नवंबर 09:53
24 नवंबर 15:3225 नवंबर सूर्योदय 
26 नवंबर सूर्योदय 27 नवंबर 24:23
30 नवंबर सूर्योदय 1 दिसंबर सूर्योदय 


 

सर्वार्थ सिद्धि योग – दिसंबर 2020

 प्रारंभ काल (Starting Time)                                                        समाप्ति काल  (Ending Time)

तिथियाँ (Dates)समय (Time) तिथियाँ (Dates) समय (Time) 
1 दिसंबर सूर्योदय तक 
2 दिसंबर सूर्योदय 2 दिसंबर 10:38 
3 दिसंबर 12:21 4 दिसंबर 13:39 
9 दिसंबर 12:3310 दिसंबर सूर्योदय 
18 दिसंबर सूर्योदय 18 दिसंबर 19:04
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31 दिसंबर सूर्योदय 1 जनवरी (2021) सूर्योदय 

नक्षत्रों का वर्गीकरण:----🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁आचार्य डा.अजय दीक्षित

नक्षत्रों का वर्गीकरण:----

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आचार्य डा.अजय दीक्षित द्वारा प्रकाशित किया गया

अभिजित समेत कुल 28  नक्षत्रों का वर्गीकरण सात भागों में किया गया है. जिन सात भागों में इन नक्षत्रों को बांटा गया है उस हरेक वर्ग को भी एक नाम दिया गया है जिसका वर्णन इस लेख में किया जा रहा है.

1) ध्रुव-स्थिर नक्षत्र | Dhruv-Sthir Nakshatra

इन नक्षत्रों की श्रेणी में उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद, रोहिणी नक्षत्र के साथ रविवार को रखा गया है. इन नक्षत्रों में स्थिर स्वभाव के कार्य जैसे मकान की नींव रखना, कुंआ खोदना, भवन निर्माण, उपनयन संस्कार, कृषि से जुड़े कार्य, नौकरी आरम्भ करना आदि आते हैं.

महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जो कार्य मृदु नक्षत्रों में किए जाते हैं उन कार्यों को इन नक्षत्रों में भी किया जा सकता है.

2) चर अथवा चल नक्षत्र | Char Or Chal Nakshatra

इसमें स्वाति नक्षत्र, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और सोमवार को लिया गया है. सभी चर अथवा चल स्वभाव के कार्य जैसे वाहन चलाना अथवा वाहन की सवारी करना, घुड़सवारी, हाथी की सवारी करना, यात्रा करना आदि ऐसे कार्य किए जाते हैं जिनमें गतिशीलता रहती है.

महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जो कार्य क्षिप्र-लघु नक्षत्रों में किए जाते हैं उन कार्यों को भी इन नक्षत्रों में किया जा सकता है.  

3) उग्र-क्रूर नक्षत्र | Ugra Or Krur Nakshatra

इसमें पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी, मघा और मंगलवार का दिन शामिल किया गया है. आक्रामक स्वभाव के कार्य इन नक्षत्रों में किए जाते हैं. ह्त्या, विश्वासघात, अग्नि से संबंधित अशुभ कार्य, चोरी, विष देना, विष संबंधित दवाईयों पर खोज, शल्य चिकित्सा, हथियारों का क्रय-विक्रय, अथवा प्रयोग आदि सभी क्रूर प्रवृत्ति के कार्यों के लिए ये अनुकूल नक्षत्र माने गए हैं.

महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जो कार्य दारुण-तीक्ष्ण नक्षत्रों में किए जा सकते हैं उन्हें इन नक्षत्रों में भी किया जा सकता है. ये नक्षत्र शुभ कार्यों के लिए सामान्यतः वर्जित माने जाते हैं.

4) मिश्र-साधारण नक्षत्र | Mishra-Sadharan Nakshatra

इस श्रेणी में विशाखा तथा कृत्तिका नक्षत्र और बुधवार का दिन लिया गया है. इसमें अग्नि संबंधित कार्य, धातुओं को गरम करके अथवा उन्हें गलाकर ढालने का काम, गैस संबंधित कार्य, सजाने-संवारने के कार्य, दवा निर्माण आदि के कार्य किए जाते हैं.

5) क्षिप्र-लघु नक्षत्र | Kshipra-Laghu Nakshatra

इसमें हस्त नक्षत्र, अश्विनी, पुष्य, अभिजित और बृहस्पतिवार का दिन लेते हैं. इन नक्षत्रों में दुकान का प्रारम्भ तथा निर्माण किया जाता है, विक्रय करने, शिक्षा का प्रारम्भ, गहने अथवा जवाहरात बनाने अथवा पहनने, मैत्री अथवा किसी से साझेदारी का काम, कला सीखना या दिखाने का काम, किसी नए काम को सीखने का काम इन नक्षत्रों में करना उपयुक्त माना गया है.

जो कार्य चल अथवा चर नक्षत्रों में किए जाते हैं उन्हें भी इन नक्षत्रों में किया जा सकता है.

6)  मृदु-मैत्र नक्षत्र | Mridu-Maitra Nakshatra

इसमें मृगशिरा नक्षत्र, रेवती, चित्रा, अनुराधा और शुक्रवार का दिन शामिल किया गया है. गायन सीखना आरम्भ करना, संगीत सीखना, वस्त्र सिलवाने अथवा पहनने का काम, क्रीड़ा, खेल की बारीकियों को सीखने का काम, मित्र बनाने, गहने बनाने अथवा पहनने आदि का काम इन नक्षत्रों में किया जाता है.

जिन कार्यों को ध्रुव-स्थिर नक्षत्रों में किया जाता है उन सभी कार्यों को भी इन नक्षत्रों में किया जा सकता है.

7) तीक्ष्ण-दारुण नक्षत्र | Teekshna-Darun Nakshatra

इनमें मूल नक्षत्र, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा और शनिवार का दिन शामिल किया गया है. इन तीक्ष्ण-दारुण नक्षत्र में तांत्रिक क्रियाएं, ह्त्या, काला जादू, आक्रामक व मृत्यु तुल्य कृत्यों को करना, जानवरों को प्रशिक्षण देना तथा उन्हें वश में करना, साधना जैसे हठ योग आदि कार्य किए जाते हैं.

 

नक्षत्रों को उनकी दृष्टि के अनुसार भी बांटा गया है और उनका यह वर्गीकरण इस प्रकार से है :-

1) उर्ध्वमुखी नक्षत्र | Urdhvamukhi Nakshatra 

इसमें आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, तीनों उत्तरा और रोहिणी नक्षत्र आते हैं. इन नक्षत्रों में बहुमंजिले भवन बनाना, घर बनाना, मंदिर निर्माण करना, उद्यान आदि बनाने का काम आरम्भ किया जाता है. इसके अतिरिक्त यह नक्षत्र उन सभी कार्यों के लिए अनुकूल होते हैं जिनमें ऊपर की ओर देखना पड़ता है.

2) अधोमुखी नक्षत्र | Adhomukhi Nakshatra

इसमें मूल नक्षत्र, आश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, तीनों पूर्वा नक्षत्र, भरणी और मघा को लिया गया है. इन नक्षत्रों में भूमि से जुड़े कार्य जैसे कुँए बनाना, तालाब के लिए जमीन खोदना, नींव रखने के लिए जमीन की खुदाई करना, भूमि के नीचे के निर्माण कार्य, खदान का काम, जमीन के अंदर गंदे पानी की निकासी की खुदाई का काम आदि करना अनुकूल माना गया है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है ये नक्षत्र उन कार्यों के लिए अनुकूल है जिनमें नीचे की ओर देखा जाता है.

3) तिर्यङ्कमुखी नक्षत्र | Tiryakmukhi Nakshatra

इसमें मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, अश्विनी और ज्येष्ठा नक्षत्र शामिल किए गए हैं. इन नक्षत्रों का मुख सीधा होता है जिस से इनकी दृष्टि सामने की ओर होती है. इन नक्षत्रों को यात्रा अथवा यात्रा संबंधित कार्यों के लिए शुभ माना जाता है. वाहन चलाना, वाहन में चढ़ना, सड़क निर्माण आदि ऐसे कार्यों के लिए ये नक्षत्र उपयुक्त माने गए हैं. वो सभी कार्य जिनमे सामने की ओर देखने की आवश्यकता होती है, इस नक्षत्र के अंतर्गत आते हैं.

श्री दुर्गा सप्तशती पाठ:---आचार्य डा.अजय दीक्षित

श्री दुर्गा सप्तशती पाठ:---आचार्य डा.अजय दीक्षित

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आचार्य डा.अजय दीक्षित द्वारा प्रकाशित किया गया

ऊँ नमश्चण्डिकायै नम:

अथ श्री दुर्गा सप्तशती :-----------

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पहला अध्याय –

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(महर्षि ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को देवी की महिमा बताना)

महर्षि मार्कण्डेय बोले – सूर्य के पुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ सुनो, सावर्णि महामाया की कृपा से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए, उसका भी हाल सुनो। पहले स्वारोचिष नामक राज्य था। वह प्रजा को अपने पुत्र के समान मानते थे तो भी कोलाविध्वंशी राजा उनके शत्रु बन गये। दुष्टों को दण्ड देने वाले राजा सुरथ की उनके साथ लड़ाई हुई, कोलाविध्वंसियों के संख्या में कम होने पर भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे हार गए। तब वह अपने नगर में आ गये, केवल अपने देश का राज्य ही उनके पास रह गया और वह उसी देश के राजा होकर राज्य करने लगे किन्तु उनके शत्रुओं ने उन पर वहाँ आक्रमण किया।

राजा को बलहीन देखकर उसके दुष्ट मंत्रियों ने राजा की सेना और खजाना अपने अधिकार में कर लिया। राजा सुरथ अपने राज्याधिकार को हार कर शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार होकर वहाँ से एक भयंकर वन की ओर चल गये। उस वन में उन्होंने महर्षि मेधा का आश्रम देखा, वहाँ मेधा महर्षि अपने शिष्यों तथा मुनियों से सुशोभित बैठे हुए थे और वहाँ कितने ही हिंसक जीव परम शान्ति भाव से रहते थे। राजा सुरथ ने महर्षि मेधा को प्रणाम किया और महर्षि ने भी उनका उचित सत्कार किया। राजा सुरथ महर्षि के आश्रम में कुछ समय तक ठहरे।

अपने नगर की ममता के आकर्षण से राजा अपने मन में सोचने लगे – पूर्वकाल में पूर्वजों ने जिस नगर का पालन किया था वह आज मेरे हाथ से निकल गया। मेरे दुष्ट एवं दुरात्मा मंत्री मेरे नगर की अब धर्म से रक्षा कर रहे होंगे या नहीं? मेरा प्रधान हाथी जो कि सदा मद की वर्षा करने वाला और शूरवीर था, मेरे वैरियों के वश में होकर न जाने क्या दुख भोग रहा होगा? मेरे आज्ञाकारी नौकर जो मेरी कृपा से धन और भोजन पाने से सदैव सुखी रहते थे और मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वह अब निश्चय ही दुष्ट राजाओं का अनुसरण करते होगें तथा मेरे दुष्ट एवं दुरात्मा मंत्रियों द्वारा व्यर्थ ही धन को व्यय करने से संचित किया हुआ मेरा खजाना एक दिन अवश्य खाली हो जाएगा। इस प्रकार की बहुत सी बातें सोचता हुआ राजा निरन्तर दुखी रहने लगा।

एक दिन राजा सुरथ ने महर्षि मेधा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा, राजा ने उससे पूछा-भाई, तुम कौन हो? यहाँ तुम्हारे आने का क्या कारण है और तुम मुझे शोकग्रस्त अनमने से दिखाई देते हो इसका क्या कारण है? राजा के यह नम्र वचन सुन वैश्य ने महाराज सुरथ को प्रणाम करके कहा, वैश्य बोला- राजन! मेरा नाम समाधि है, मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हूँ, मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रादिकों ने लोभ से मेरा सब धन छीन लिया है और मुझे घर से निकाल दिया है। मैं इस तरह से दुखी होकर इस वन में चला आया हूँ और यहाँ रहता हुआ मैं इस बात को भी नहीं जानता कि अब घर में इस समय सब कुशल हैं या नहीं।

यहाँ मैं अपने परिवार का आचरण संबंधी कोई समाचार भी नहीं पा सकता कि वह घर में इस समय कुशलपूर्वक हैं या नहीं। मैं अपने पुत्रों के संबंध में यह भी नहीं जानता कि वह सदाचारी हैं या दुराचार में फँसे हुए हैं। राजा बोले-जिस धन के लोभी स्त्री, पुत्रों ने तुम्हेंं घर से निकाल दिया है, फिर भी तुम्हारा चित्त उनसे क्यों प्रेम करता है। वैश्य ने कहा-मेरे विषय में आपका ऎसा कहना ठीक है, किंतु मेरा मन इतना कठोर नहीं है। यद्यपि उन्होंने धन के लोभ में पड़कर पितृस्नेह को त्यागकर मुझे घर से निकाल दिया है, तो भी मेरे मन में उनके लिए कठोरता नहीं आती।

हे महामते! मेरा मन फिर भी उनमें क्यों फँस रहा है, इस बात को जानता हुआ भी मैं नहीं जान राह, मेरा चित्त उनके लिए दुखी है। मैं उनके लिए लंबी-लंबी साँसे ले रहा हूँ, उन लोगों में प्रेम नाम को नहीं है, फिर भी ऎसे नि:स्नेहियों के लिए मेरा हृदय कठोर नहीं होता । महर्षि मार्कण्डेयजी ने कहा-हे ब्रह्मन्! इसके पश्चात महाराज सुरथ और वह वैश्य दोनों महर्षि मेधा के समीप गये और उनके साथ यथायोग्य न्याय सम्भाषण करके दोनों ने वार्ता आरम्भ की। राजा बोले-हे भगवन! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, सो आप कृपा करके मुझे बताइए, मेरा मन अधीन नहीं है, इससे मैं बहुत दुखी हूँ, राज्य, धनादिक की चिंता अभी तक मुझे बनी हुई है और मेरी यह ममता अज्ञानियों की तरह बढ़ती ही जा रही है और यह समाधि नामक वैश्य भी अपने घर से अपमानित होकर आया है, इसके स्वजनों ने भी इसे त्याग दिया है, स्वजनों से त्यागा हुआ भी यह उनसे हार्दिक प्रेम रखता है, इस तरह हम दोनों ही दुखी हैं।

हे महाभाग! उन लोगों के अवगुणों को देखकर भी हम दोनों के मन में उनके लिए ममता-जनित आकर्षण उत्पन्न हो रहा है। हमारे ज्ञान रहते हुए भी ऎसा क्यों है? अज्ञानी मनुष्यों की तरह हम दोनों में यह मूर्खता क्यों है? महर्षि मेधा ने कहा – विषम मार्ग का ज्ञान सब जन्तुओं को है, सबों के लिए विषय पृथक-पृथक होते हैं, कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते और कुछ रात को, परन्तु कई जीव ऎसे हैं जो दिन तथा रात दोनों में देख सकते हैं। यह सत्य है कि मनुष्यों में ज्ञान प्रधान है किंतु केवल मनुष्य ही ज्ञानी नहीं होता, पशु पक्षी आदि भी ज्ञान रखते हैं। जैसे यह पशु पक्षी ज्ञानी हैं, वैसे ही मनुष्यों का ज्ञान है और जो ज्ञान मनुष्यों में वैसे ही पशु पक्षियों में है तथा अन्य बातें भी दोनों में एक जैसी पाई जाती है।

ज्ञान होने पर भी इन पक्षियों की ओर देखो कि अपने भूख से पीड़ित बच्चों की चोंच में कितने प्रेम से अन्न के दाने डालते हैं। हे राजन! ऎसा ही प्रेम मनुष्यों में अपनी संतान के प्रति भी पाया जाता है। लोभ के कारण अपने उपकार का बदला पाने के लिए मनुष्य पुत्रों की इच्छा करते हैं और इस प्रकार मोह के गढ्ढे में गिरा करते हैँ। भगवान श्रीहरि की जो माया है, उसी से यह संसार मोहित हो रहा है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं क्योंकि वह भगवान विष्णु की योगनिन्द्रा है, यह माया ही तो है जिसके कारण संसार मोह में जकड़ा हुआ है, यही महामाया भगवती देवी ज्ञानियों के चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती है और उसी के द्वारा सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति होती है।

यही भगवती देवी प्रसन्न होकर मनुष्य को मुक्ति प्रदान करती है। यही संसार के बन्धन का कारण है तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी स्वामिनी है। महाराज सुरथ ने पूछा-भगवन! वह देवी कौन सी है, जिसको आप महामाया कहते हैं? हे ब्रह्मन! वह कैसे उत्पन्न हुई और उसका कार्य क्या है? उसके चरित्र कौन-कौन से हैं। प्रभो! उसका जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो वह सब ही कृपाकर मुझसे कहिये, मैं आपसे सुनना चाहता हूँ। महर्षि मेधा बोले-राजन्! वह देवी तो नित्यस्वरुपा है, उसके द्वारा यह संसार रचा गया है। तब भी उसकी उत्पत्ति अनेक प्रकार से होती है। वह सब आप मुझसे सुनो, वह देवताओ का कार्य सिद्ध करने के लिए प्रकट होती है, उस समय वह उत्पन्न हुई कहलाती है।

संसार को जलमय करके जब भगवान विष्णु योगनिद्रा का आश्रय लेकर शेषशैय्या पर सो रहे थे तब मधु-कैटभ नाम के दो असुर उनके कानों के मैल से प्रकट हुए और वह श्रीब्रह्मा जी को मारने के लिए तैयार हो गये। श्रीब्रह्माजी ने जब उन दोनो को अपनी ओर आते देखा और यह भी देखा कि भगवान विष्णु योगनिद्रा का आश्रय लेकर सो रहे हैं तो वह उस समय श्रीभगवान को जगाने के लिये उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे। श्रीब्रह्मा जी ने कहा-हे देवी! तुम ही स्वाहा, तुम ही स्वधा और तुम ही वषटकार हो। स्वर भी तुम्हारा ही स्वरुप है, तुम ही जीवन देने वाली सुधा हो।

नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार इन तीनों में माताओं के रुप में तुम ही स्थित हो। इनके अतिरिक्त जो बिन्दपथ अर्धमात्रा है, जिसका कि विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जाता है, हे देवी! वह भी तुम ही हो। हे देवी! संध्या, सावित्री तथा परमजननी तुम ही हो। तुम इस विश्व को धारण करने वाली हो, तुमने ही इस जगत की रचना की है और तुम ही इस जगत का पालन करने वाली हो। तुम ही कल्प के अन्त में सबको भक्षण करने वाली हो। हे देवी! जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टि रूपा होती हो, पालन काल में स्थित रूपा हो और कल्प के अन्त में संहाररूप धारण कर लेती हो। तुम ही महाविद्या, महामाया, महामेधा, महारात्रि और मोहरात्रि हो। श्री ईश्वरी और बोधस्वरूपा बुद्धि भी तुम ही हो, लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम ही हो।

तुम खड्ग धारिणी, शूल धारिणी घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष को धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ यह भी तुम्हारे ही अस्त्र हैं। तुम सौम्य और सौम्यतर हो-यही नहीं बल्कि जितनी भी सौम्य तथा सुन्दर वस्तुएँ इस संसार में हैं, उन सबसे बढ़कर सुन्दर तुम हो। पर और अपर सबसे पर रहने वाली सुन्दर तुम ही हो। हे सर्वस्वरुपे देवी! जो भी सअसत पदार्थ हैं और उनमें जो शक्ति है, वह तुम ही हो। ऎसी अवस्था में भला तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है! इस संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले जो भगवान हैं, उनको भी जब तुमने निद्रा के वशीभूत कर दिया है तो फिर तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है? मुझे, भगवान विष्णु तथा भगवान शंकर को शरीर धारण कराने वाली तुम ही हो। तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें में है?

हे देवी! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों के कारण ही प्रशंसनीय हो। मधु और कैटभ जो भयंकर असुर है इन्हें मोह में डाल दो और श्रीहरि भगवान विष्णु को भी जल्दी जगा दो और उनमें इनको मार डालने की बुद्धि भी उत्पन्न कर दो। महर्षि मेधा बोले-हे राजन्! जब श्रीब्रह्माजी ने देवी से इस प्रकार स्तुति करके भगवान को जगाने तथा मधु और कैटभ को मारने के लिए कहा तो वह भगवान श्रीविष्णु के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्षस्थल से निकल ब्रह्माजी के सामने खड़ी हो गई। उनका ऎसा करना था कि भगवान श्रीहरि तुरन्त जाग उठे और दोनो असुरों को देखा, जो कि अत्यन्त बलवान तथा पराक्रमी थे और मारे क्रोध के जिनके नेत्र लाल हो रहे थे और जो ब्रह्माजी का वध करने के लिए तैयार थे, तब क्रुद्ध हो उन दोनो दुरात्मा असुरों के साथ भगवान श्रीहरि पूरे पाँच हजार वर्ष तक लड़ते रहे।

एक तो वह अत्यन्त बलवान तथा पराक्रमी थे दूसरे महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था। अत: वह श्री भगवान से कहने लगे-हम दोनो तुम्हारी वीरता से अत्यन्त प्रसन्न है, तुम हमसे कोई वर माँगो! भगवान ने कहा-यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो अब तुम मेरे हाथों से मर जाओ। बस इतना सा ही वर मैं तुमसे माँगता हूँ। यहाँ दूसरे वर से क्या प्रयोजन है। महर्षि मेधा बोले-इस तरह से जब वह धोखे में आ गये और अपने चारों ओर जल ही जल देखा तो भगवान श्रीहरि से कहने लगे-जहाँ पर जल न हो, सूखी जमीन हो, उसी जगह हमारा वध कीजिए। महर्षि मेधा कहते है, तथास्तु कहकर भगवान श्रीहरि ने उन दोनों को अपनी जाँघ पर लिटाकर उन दोनो के सिर काट डाले। इस तरह से यह देवी श्रीब्रह्माजी के स्तुति करने पर प्रकट हुई थी, अब तुम से उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सो सुनो।

 

दूसरा अध्याय – 

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(देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध)

महर्षि मेधा बोले-प्राचीन काल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षों तक घोर युद्ध हुआ था और देवराज इन्द्र देवताओं के नायक थे। इस युद्ध में देवताओं की सेना परास्त हो गई थी और इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओं को जीत महिषासुर इन्द्र बन बैठा था। युद्ध के पश्चात हारे हुए देवता प्रजापति श्रीब्रह्मा को साथ लेकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ पर कि भगवान शंकर विराजमान थे। देवताओं ने अपनी हार का सारा वृत्तान्त भगवान श्रीविष्णु और शंकरजी से कह सुनाया। वह कहने लगे-हे प्रभु! महिषासुर सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि, वायु, यम, वरुण तथा अन्य देवताओ के सब अधिकार छीनकर सबका अधिष्ठाता स्वयं बन बैठा है।

उसने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। वह मनुष्यों की तरह पृथ्वी पर विचर रहे हैं। दैत्यों की सारी करतूत हमने आपको सुना दी है और आपकी शरण में इसलिए आए हैं कि आप उनके वध का कोई उपाय सोचें। देवताओं की बातें सुनकर भगवान श्रीविष्णु और शंकरजी को दैत्यों पर बड़ा गुस्सा आया। उनकी भौंहें तन गई और आँखें लाल हो गई। गुस्से में भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से बड़ा भारी तेज निकला और उसी प्रकार का तेज भगवान शंकर, ब्रह्मा और इन्द्र आदि दूसरे देवताओं के मुख से प्रकट हुआ। फिर वह सारा तेज एक में मिल गया और तेज का पुंज वह ऎसे दिखता था जैसे कि जाज्वल्यमान पर्वत हो।

देवताओं ने देखा कि उस पर्वत की ज्वाला चारों ओर फैली हुई थी और देवताओं के शरीर से प्रकट हुए तेज की किसी अन्य तेज से तुलना नहीं हो सकती थी। एक स्थान पर इकठ्ठा होने पर वह तेज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा। वह भगवान शंकर का तेज था, उससे देवी का मुख प्रकट हुआ। यमराज के तेज से उसके शिर के बाल बने, भगवान श्रीविष्णु के तेज से उसकी भुजाएँ बनीं, चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तन और इन्द्र के तेज से जंघा तथा पिंडली बनी और पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग बना, ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उनकी अँगुलियाँ पैदा हुईं।

वसुओं के तेज से हाथों की अँगुलियाँ एवं कुबेर के तेज से नासिका बनी, प्रजापति  के तेज से उसके दाँत और अग्नि के तेज से उसके नेत्र बने, सन्ध्या के तेज से उसकी भौंहें और वायु के तेज से उसके कान प्रकट हुए थे। इस प्रकार उस देवी का प्रादुर्भाव हुआ था।

महिषासुर से पराजित देवता उस देवी को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल में से एक त्रिशूल निकाल कर उस देवी को दिया और भगवान विष्णु ने अपने चक्र में से एक चक्र निकाल कर उस देवी को दिया, वरुण ने अपने चक्र में से एक चक्र निकाल कर उस देवी को दिया, वरुण ने देवी को शंख भेंट किया, अग्नि ने इसे शक्ति दी, वायु ने उसे धनुष और बाण दिए, सहस्त्र नेत्रों वाले श्रीदेवारज इन्द्र ने उसे अपने वज्र से उत्पन्न करके वज्र दिया और ऎरावत हाथी का एक घण्टा उतारकर देवी को भेंट किया, यमराज ने उसे कालदंंड में से एक दंड दिया, वरुण ने उसे पाश दिया।

प्रजापति ने उस देवी को स्फटिक की माला दी और ब्रह्माजी ने उसे कमण्दलु दिया, सूर्य ने देवी कके समस्त रोमों में अपनी किरणों का तेज भर दिया, काल ने उसे चमकती हुई ढाल और तलवार दी और उज्वल हार और दिव्य वस्त्र उसे भेंट किये और इनके साथ ही उसने दिव्य चूड़ामणि दी, दो कुंडल, कंकण, उज्जवल अर्धचन्द्र, बाँहों के लिए बाजूबंद, चरणों के लिए नुपुर, गले के लिए सुन्दर हँसली और अँगुलियों के लिए रत्नों की बनी हुई अँगूठियाँ उसे दी, विश्वकर्मा ने उनको फरसा दिया और उसके साथ ही कई प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिए और इसके अतिरिक्त उसने कभी न कुम्हलाने वाले सुन्दर कमलों की मालाएँ भेंट की, समुद्र ने सुन्दर कमल का फूल भेंट किया।

हिमालय ने सवारी के लिए सिंह और तरह-तरह के रत्न देवी को भेंट किए, यक्षराज कुबेर ने मधु से भरा हुआ पात्र और शेषनाग ने उन्हें बहुमूल्य मणियों से विभूषित नागहार भेंट किया। इसी तरह दूसरे देवताओं ने भी उसे आभूषण और अस्त्र देकर उसका सम्मान किया। इसके पश्चात देवी ने उच्च स्वर से गर्जना की। उसके इस भयंकर नाद से आकाश गूँज उठा। देवी का वह उच्च स्वर से किया हुआ सिंहनाद समा न सका, अकाश उनके सामने छोटा प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोर की प्रतिध्वनि हुई, जिससे समस्त विश्व में हलचल मच गई और समुद्र काँप उठे, पृथ्वी डोलने लगी और सबके सब पर्वत हिलने लगे।

देवताओं ने उस समय प्रसन्न हो सिंह वाहिनी जगत्मयी देवी से कहा-देवी! तुम्हारी जय हो। इसके साथ महर्षियों ने भक्ति भाव से विनम्र होकर उनकी स्तुति की। सम्पूर्ण त्रिलोकी को शोक मग्न देखकर दैत्यगण अपनी सेनाओं को साथ लेकर और हथियार आदि सजाकर उठ खड़े हुए, महिषासुर के क्रोध की कोई सीमा नहीं थी। उसने क्रोध में भरकर कहा-’यह सब क्या उत्पात है, फिर वह अपनी सेना के साथ उस ओर दौड़ा, जिस ओर से भयंकर नाद का शब्द सुनाई दिया था और आगे पहुँच कर उसने देवी को देखा, जो कि अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थी।

उसके चरणों के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी। माथे के मुकुट से आकाश में एक रेखा सी बन रही थी और उसके धनुष की टंकोर से सब लोग क्षुब्ध हो रहे थे, देवी अपनी सहस्त्रों भुजाओं को सम्पूर्ण दिशाओं में फैलाए खड़ी थी। इसके पश्चात उनका दैत्यों के साथ युद्ध छिड़ गया और कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सब की सब दिशाएँ उद्भाषित होने लगी। महिषासुर की सेना का सेनापति चिक्षुर नामक एक महान असुर था, वह आगे बढ़कर देवी के साथ युद्ध करने लगा और दूसरे दैत्यों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा और साठ हजार महारथियों को साथ लेकर उदग्र नामक महादैत्य आकर युद्ध करने लगा और महाहनु नामक असुर एक करोड़ रथियों को लेकर, असिलोमा नामक असुर पाँच करोड़ सैनिकों को साथ लेकर युद्ध करने लगा, वाष्कल नामक असुर साठ लाख असुरों के साथ युद्ध में आ डटा, विडाल नामक असुर एक करोड़ रथियों सहित लड़ने को तैयार था, इन सबके अतिरिक्त और भी हजारों असुर हाथी और घौड़े साथ लेकर लड़ने लगे और इन सबके पश्चात महिषासुर करोड़ों रथों, हाथियों और घोड़ो सहित वहाँ आकर देवी के साथ लड़ने लगा।

सभी असुर तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मुसल, खंड्गों, फरसों, पट्टियों के साथ रणभूमि में देवी के साथ युद्ध करने लगे। कई शक्तियाँ फेंकने लगे और कोई अन्य शस्त्रादि, इसके पश्चात सबके सब दैत्य अपनी-ापनी तलवारें हाथों में लेकर देवी की ओर दौड़े और उसे मार डालने का उद्योग करने लगे। मगर देवी ने क्रोध में भरकर खेल ही खेल में उनके सब अस्त्रों शस्त्रों को काट दिया। इसके पश्चात ऋषियों और देवताओं ने देवी ककी स्तुति आरम्भ कर दी और वह प्रसन्न होकर असुरों के शरीरों पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करती रही।

देवी का वाहन भी क्रोध में भरकर दैत्य सेना में इस प्रकार विचरने लगा जैसे कि वन में दावानल फैल रहा हो। युद्ध करती हुई देवी ने क्रोध में भर जितने श्वासों को छोड़ा, वह तुरन्त ही सैकड़ों हजारों गणों के रुप में परिवर्तित हो गए। फरसे, भिन्दिपाल, खड्ग तथा पट्टिश इत्यादि अस्त्रों के साथ दैत्यों से युद्ध करने लगे, देवी की शक्ति से बढ़े हुए वह गण दैत्यों का नाश करते हुए ढ़ोल, शंख व मृदंग आदि बजा रहे थे, तदनन्तर देवी ने त्रिशूल, गदा, शक्ति, खड्ग इत्यादि से सहस्त्रों असुरों को मार डाला, कितनों को घण्टे की भयंकर आवाज से ही यमलोक पहुँचा दिया, कितने ही असुरों को उसने पास में बाँधकर पृथ्वी पर धर घसीटा, कितनों को अपनी तलवार से टुकड़े-2 कर दिए और कितनों को गदा की चोट से धरती पर सुला दिया, कई दैत्य मूसल की मार से घायल होकर रक्त वमन करने लगे और कई शूल से छाती फट जाने के कारण पृथ्वी पर लेट गए और कितनों की बाण से कमर टूट गई।

देवताओं को पीड़ा देने वाले दैत्य कट-कटकर मरने लगे। कितनों की बाँहें अलग हो गई, कितनों की ग्रीवाएँ कट गई, कितनों के सिर कट कर दूर भूमि पर लुढ़क गए, कितनों के शरीर बीच में से कट गए और कितनों की जंह्जाएँ कट गई और वह पृथ्वी पर गिर पड़े। कितने ही सिरों व पैरों के कटने पर भी भूमि पर से उठ खड़े हुए और शस्त्र हाथ में लेकर देवी से लड़ने लगे और कई दैत्यगण भूमि में बाजों की ध्वनि के साथ नाच रहे थे, कई असुर जिनके सिर कट चुके थे, बिना सिर के धड़ से ही हाथ में शस्त्र लिये हुए लड़ रहे थे, दैत्य रह-रहकर ठहरों! ठहरो! कहते हुए देवी को युद्ध के लिए ललकार रहे थे।

जहाँ पर यह घोर संग्राम हुआ था वहाँ की भूमि रथ, हाथी, घोड़े और असुरों की लाशों से  भर गई थी और असुर सेना के बीच में रक्तपात होने के कारण रुधिर की नदियाँ बह रही थी और इस तरह देवी ने असुरों की विशाल सेना को क्षणभर में इस तरह से नष्ट कर डाला, जैसे तृण काष्ठ के बड़े समूह को अग्नि नष्ट कर डालती है और देवी का सिंह भी गर्दन के बालों को हिलाता हुआ और बड़ा शब्द करता हुआ असुरों के शरीरों से मानो उनके प्राणों को ढूँढ़ रहा था, वहाँ देवी के गणों ने जब दैत्यों के साथ युद्ध किय तो देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से उन पर पुष्प वर्षा की।

 

तीसरा अध्याय – 

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(सेनापतियों सहित महिषासुर का वध)

महर्षि मेध ने कहा-महिषासुर की सेना नष्ट होती देख कर, उस सेना का सेनापति चिक्षुर क्रोध में भर देवी के साथ युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। वह देवी पर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगा, मानो सुमेरु पर्वत पानी की धार बरसा रहा हो। इस प्रकार देवी ने अपने बाणों से उसके बाणों को काट डाला तथा उसके घोड़ो व सारथी को मार दिया, साथ ही उसके धनुष और उसकी अत्यंत ऊँची ध्वजा को भी काटकर नीचे गिरा दिया। उसका धनुष कट जाने के पश्चात उसके शरीर के अंगों को भी अपने बाणों से बींध दिया।

धनुष, घोड़ो और सारथी के नष्ट हो जाने पर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की तरफ आया, उसने अपनी तीक्ष्ण धार वाली तलवार से देवी के सिंह के मस्तक पर प्रहार किया और बड़े वेग से देवी की बायीं भुजा पर वार किया किन्तु देवी की बायीं भुजा को छूते ही उस दैत्य की तलवार टूटकर दो टुकड़े हो गई। इससे दैत्य ने क्रोध में भरकर शूल हाथ में लिया और उसे भद्रकाली देवी की ओर फेंका। देवी की ओर आता हुआ वह शूल आकाश से गिरते हुए सूर्य के समान प्रज्वलित हो उठा। उस शूल को अपनी ओर आते हुए देखकर देवी ने भी शूल छोड़ा और महा असुर के शूल के सौ टुकड़े कर दिए और साथ ही महा असुर के प्राण भी हर लिये, चिक्षुर के मरने पर देवताओं को दुख देने वाला चामर नामक दैत्य हाथी पर सवार होकर देवी से लड़ने के लिए आया और उसने आने के साथ ही शक्ति से प्रहार किया, किंतु देवी ने अपनी हुंकार से ही उसे तोड़कर पृथ्वी पर डाल दिया।

शक्ति को टूटा हुआ देखकर दैत्य ने क्रोध से लाल होकर शूल को चलाया किन्तु देवी ने उसको भी काट दिया। इतने में देवी का सिंह उछल कर हाथी के मस्तक पर सवार हो गया और दैत्य के साथ बहुत ही तीव्र युद्ध करने लगा, फिर वह दोनों लड़ते हुए हाथी पर से पृथ्वी पर आ गिरे और दोनों बड़े क्रोध से लड़ने लगे, फिर सिंह बड़े जोर से आकाश की ओर उछला और जब पृथ्वी की ओर आया तो अपने पंजे से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया, क्रोध से भरी हुई देवी ने शिला और वृक्ष आदि की चोटों से उदग्र को भी मार दिया। कराल को दाँतों, मुक्कों और थप्पड़ो से चूर्ण कर डाला।

क्रुद्ध हुई देवी ने गदा के प्रहार से उद्धत दैत्य को मार गिराया, भिन्दिपाल से वाष्पकल को, बाणों से ताम्र तथा अन्धक को मौत के घाट उतार दिया, तीनों नेत्रों वाली परमेश्वरी ने त्रिशूल से उग्रास्य, उग्रवीर्य और महाहनु नामक राक्षसों को मार गिराया। उसने अपनी तलवार से विडाल नामक दैत्य का सिर काट डाला तथा अपने बाणों से दुर्धर और दुर्मुख राक्षसों को यमलोक को पहुँचा दिया। इस प्रकार जब महिषासुर ने देखा कि देवी ने मेरी सेना को नष्ट कर दिया है तो वह भैंसे का रूप धारण कर देवी के गणों को दु:ख देने लगा।

उन गणों में कितनों को उसने मुख के प्रहार से, कितनों को खुरों से, कितनों को पूँछ से, कितनों को सींगों से, बहुतों को दौड़ाने के वेग से, अनेकों को सिंहनाद से, कितनों को चक्कर देकर और कितनों को श्वास वायु के झोंको से पृथ्वी पर गिरा दिया। वह दैत्य इस प्रकार गणों की सेना को गिरा देवी के सिंह को मारने के लिए दौड़ा। इस पर देवी को बड़ा गुसा आया। उधर दैत्य भी क्रोध में भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा तथा सींगों से पर्वतों को उखाड़-2 कर धरती पर फेंकने लगा और मुख से शब्द करने लगा। महिषासुर के वेग से चक्कर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी, उसकी पूँछ से टकराकर समुद्र चारों ओर फैलने लगा, हिलते हुए सींगों के आघात से मेघ खण्ड-खण्ड हो गए और श्वास से आकाश में उड़ते हुए पर्वत फटने लगे। इस तरह क्रोध में भरे हुए राक्षस को देख चण्डिका को भी क्रोध आ गया और वह उसे मारने के लिए क्रोध में भर गई।

देवी ने पाश फेंक र दैत्य को बाँध लिया और उसने बँध जाने पर दैत्य का रूप त्याग दिया और सिंह का रूप बना लिया और ज्यों ही देवी उसका सिर काटने के लिए तैयार हुई कि उसने पुरुष का रूप बना लिया, जोकि हाथ में तलवार लिये हुए था। देवी ने तुरन्त ही अपने बाणों के साथ उस पुरुष को उसकी तलवार ढाल सहित बींध डाला, इसके पश्चात वह हाथी के रूप में दिखाई देने लगा और अपनी लम्बी सूंड से देवी के सिंह को खींचने लगा और गर्जने लगा।  देवी ने अपनी तलवार से उसकी सूंड काट डाली, तब राक्षस ने एक बार फिर भैंसे का रूप धारण कर लिया और पहले की तरह चर-अचर जीवों सहित समस्त त्रिलोकी को व्याकुल करने लगा, इसके पश्चात क्रोध में भरी हुई देवी बारम्बार उत्तम मधु का पान करने लगी और लाल-लाल नेत्र करके हँसने लगी।

उधर बलवीर्य तथा मद से क्रुद्ध हुआ दैत्य भी गरजने लगा, अपने सींगों से देवी पर पर्वतों को फेंकने लगा। देवी अपने वाणों से उसके फेंके हुए पर्वतों को चूर्ण करती हुई बोली-ओ मूढ़! जब तक मैं मधुपान कर रही हूँ, तब तू गरज ले और इसके पश्चात मेरे हाथों तेरी मृत्यु हो जाने पर देवता गरजेंगे। महर्षि मेधा ने कहा-यों कहकर देवी उछल कर उस दैत्य पर जा चढ़ी और उसको अपने पैर से दबाकर शूल से उसके गले पर आघात किया, देवी के पैर से दबने पर भी दैत्य अपने दूसरे रूप से अपने मुख से बाहर होने लगा। अभी वह आधा ही बाहर निकला था कि देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया, जब वह आधा निकला हुआ ही दैत्य युद्ध करने लगा तो देवी ने अपनी तलवार से उसका सिर काट दिया।

इसके पश्चात सारी राक्षस सेना हाहाकार करती हुई वहाँ से भाग खड़ी हुई और सब देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा ऋषियों महर्षियों सहित देवी की स्तुति करने लगे, गन्धर्वराज गान करने तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगी।

 

चौथा अध्याय – 

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(इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति)

महर्षि मेधा बोले-देवी ने जब पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर को मार गिराया और असुरों की सेना को मार दिया तब इन्द्रादि समस्त देवता अपने सिर तथा शरीर को झुकाकर भगवती की स्तुति करने लगे-जिस देवी ने अपनी शक्ति से यह जगत व्याप्त किया है और जो सम्पूर्ण देवताओं तथा महर्षियों की पूजनीय है, उस अम्बिका को हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, वह हम सब का कल्याण करे, जिस अतुल प्रभाव और बल का वर्णन भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्माजी भी नहीं कर सके, वही चंडिका देवी इस संपूर्ण जगत का पालन करे और अशुभ भय का नाश करे।

पुण्यात्माओं के घरों में तुम स्वयं लक्ष्मी रूप हो और पापियों के घरों में तुम अलक्ष्मी रूप हो और सत्कुल में उत्पन्न होने वालों के लिए तुम लज्जा रूप होकर उनके घरों में निवास करती हो, हम दुर्गा भगवती को नमस्कार करते हैं। हे देवी!इस विश्व का पालन करो, हे देवी! हम तुम्हारे अचिन्त्य रूप का किस प्रकार वर्णन करें। असुरों का नाश करने वाले भारी पराक्रम तथा समस्त देवताओं और दैत्यों के विषय में जो तुम्हारे पवित्र-चरित्र हैं उनका हम किस प्रकार वर्णन करें। हे देवी! त्रिगुणात्मिका होने पर भी तुम सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हो। हे देवी! भगवान विष्णु, शंकर आदि किसी भी देवता ने तुम्हारा पार नहीं पाया, तुम सबकी आश्रय हो, यह सम्पूर्ण जगत तुम्हारा ही अंश रूप है क्योंकि तुम सबकी आदि भूत प्रकृति हो।

हे देवी! तुम्हारे जिस नाम के उच्चारण से सम्पूर्ण यज्ञों में सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह ‘स्वाहा’ तुम ही हो। इसके अतिरिक्त तुम पितरों की तृप्ति का कारण हो, इसलिए सब आपको ‘स्वधा’ कहते हैं। हे देवी! वह विद्या जो मोक्ष को देने वाली है, जो अचिन्त्य महाज्ञान, स्वरूपा है, तत्वों के सार को वश में करने वाले, सम्पूर्ण दोषों को दूर करने वाले, मोक्ष की इच्छा वाले, मुनिजन जिसका अभ्यास करते हैं वह तुम ही हो, तुम वाणीरूप हो और दोष रहित ऋग तथा यजुर्वेदों की एवं उदगीत और सुन्दर पदों के पाठ वाले सामवेद की आश्रय रूप हो, तुम भगवती हो। इस विश्व की उत्पत्ति एवं पालन के लिए तुम वार्त्ता के रूप में प्रकट हुई हो और तुम सम्पूर्ण संसार की पीड़ा हरने वाली हो, हे देवी! जिससे सारे शास्त्रों को जाना जाता है, वह मेधाशक्ति तुम ही हो और दुर्गम भवसागर से पार करने वाली नौका भी तुम ही हो।

लक्ष्मी रूप से विष्णु भगवान के हृदय में निवास करने वाली और भगवान महादेव द्वारा सम्मानित गौरी देवी तुम ही हो, मन्द मुसकान वाले, निर्मल पूर्णचन्द बिम्ब के समान और उत्तम, सुवर्ण की मनोहर कांति से कमनीय तुम्हारे मुख को देखकर भी महिषासुर क्रोध में भर गया, यह बड़े आश्चर्य की बात है और हे देवी! तुम्हारा यही मुख जब क्रोध से भर गया तो उदयकाल के चन्द्रमा की भाँति लाल हो गया और तनी हुई भौंहों के कारण विकराल रूप हो गया, उसे देखकर भी महिषासुर के शीघ्र प्राण नहीं निकल गये, यह बड़े आश्चर्य की बात है। आपके कुपित मुख के दर्शन करके भला कौन जीवित रह सकता है, हे देवी! तुम हमारे कल्याण के लिए प्रसन्न होओ! आपके प्रसन्न होने से इस जगत का अभ्युदय होता है और जब आप क्रुद्ध हो जाती हैं तो कितने ही कुलों का सर्वनाश हो जाता है। यह हमने अभी-अभी जाना है कि जब तुमने महिषासुर की बहुत बड़ी सेना को देखते-2 मार दिया है।

हे देवी! सदा अभ्युदय (प्रताप) देने वाली तुम जिस पर प्रसन्न हो जाती हो, वही देश में सम्मानित होते हैं, उनके धन यश की वृद्धि होती है। उनका धर्म कभी शिथिल नहीं होता है और उनके यहाँ अधिक पुत्र-पुत्रियाँ और नौकर होते हैं। हे देवी! तुम्हारी कृपा से ही धर्मात्मा पुरुष प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक यज्ञ करता है और धर्मानुकूल आचरण करता है और उसके प्रभाव से स्वर्गलोक में जाता है क्योंकि तुम तीनों लोकों में मनवाँछित फल देने वाली हो। हे माँ दुर्गे! तुम स्मरण करने पर सम्पूर्ण जीवों के भय नष्ट कर देती हो और स्थिर चित्त वालों के द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें और अत्यन्त मंगल देती हो। हे दारिद्रदुख नाशिनी देवी! तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है, तुम्हारा चित्त सदा दूसरों के उपकार में लगा रहता है।

हे देवी! तुम शत्रुओं को इसलिए मारती हो कि उनके मारने से दूसरों को सुख मिलता है। वह चाहे नरक में जाने के लिए चिरकाल तक पाप करते रहे हों, किन्तु तुम्हारे साथ युद्ध करके सीधे स्वर्ग को जायें, इसीलिए तुम उनका वध करती हो, हे देवी! क्या तुम दृश्टिपात मात्र से समस्त असुरो को भस्म नहीं कर सकती? अवश्य ही कर सकती हो! किन्तु तुम्हारा शत्रुओं को शस्त्रों के द्वारा मारना इसलिए है कि शस्त्रों के द्वारा मरकर वे स्वर्ग को जावें। इस तरह से हे देवी! उन शत्रुओं के प्रति भी तुम्हारा विचार उत्तम है।

हे देवी! तुम्हारे उग्र खड्ग की चमक से और त्रिशूल की नोंक की कांति की किरणों से असुरों की आँखें फूट नहीं गई। उसका कारण यह था कि वे किरणों से शोभायमान तुम्हारे चन्द्रमा के समान आनन्द प्रदान करने वाले सुन्दर मुख को देख रहे थे। हे देवी! तुम्हारा शील बुरे वृतान्त को दूर करने वाला है और सबसे अधिक तुम्हारा रूप है, जो न तो कभी चिन्तन में आ सकता है और न जिसकी दूसरों से कभी तुलना ही हो सकती है। तुम्हारा बल व पराक्रम शत्रुओं का नाश करने वाला है। इस तरह तुमने शत्रुओं पर भी दया प्रकट की है। हे देवी! तुम्हारे बल की किसके साथ बराबरी की जा सकती है तथा शत्रुओं को भय देने वाला इतना सुन्दर रूप भी और किस का है?

हृदय में कृपा और युद्ध में निष्ठुरता यह दोनों बातें तीनों लोकों में केवल तुम्हीं में देखने में आई है। हे माता! युद्ध भूमि में शत्रुओं को मारकर तुमने उन्हें स्वर्ग लोक में पहुँचाया है। इस तरह तीनों लोकों की तुमने रक्षा की है तथा उन उन्मत्त असुरों से जो हमें भय था उसको भी तुमने दूर किया है, तुमको हमारा नमस्कार है। हे देवी! तुम शूल तथा खड्ग से हमारी रक्षा करो तथा घण्टे की ध्वनि और धनुष की टंकोर से भी हमारी रक्षा करो। हे चण्डिके! आप अपने शूल को घुमाकर पूर्व, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण दिशा में हमारी रक्षा करो। तीनों लोकों में जो तुम्हारे सौम्य रूप हैं तथा घोर रुप हैं, उनसे हमारी रक्षा करो तथा इस पृथ्वी की रक्षा करो। हे अम्बिके! आपके कर-पल्लवों में जो खड्ग, शूल और गदा आदि शस्त्र शोभा पा रहे हैं, उनसे हमारी रक्षा करो।

महर्षि बोले कि इस प्रकार जब सब देवताओं ने जगत माता भगवती की स्तुति की और नन्दवन के पुष्पों तथा गन्ध अनुलेपों द्वारा उनका पूजन किया और फिर सबने मिलकर जब सुगंधित व दिव्य धूपों द्वारा उनको सुगन्धि निवेदन की, तब देवी ने प्रसन्न होकर कहा-हे देवताओं! तुम सब मुझसे मनवाँछित वर माँगो। देवता बोले-हे भगवती! तुमने हमारा सब कुछ कार्य कर दिया अब हमारे लिए कुछ भी माँगना बाकी नहीं रहा क्योंकि तुमने हमारे शत्रु महिषासुर को मार डाला है। हे महेश्वरि! तुम इस पर भी यदि हमें कोई वर देना चाहती हो तो बस इतना वर दो कि जब-जब हम आपका स्मरण करें, तब-तब आप हमारी विपत्तियों को हरण करने के लिए हमें दर्शन दिया करो। हे अम्बिके! जो कोई भी तुम्हारी स्तुति करे, तुम उनको वित्त समृद्धि और वैभव देने के साथ ही उनके धन और स्त्री आदि सम्पत्ति बढ़ावे और सदा हम पर प्रसन्न रहें।

महर्षि बोले-हे राजन्! देवताओं ने जब जगत के लिए तथा अपने लिये इस प्रकार प्रश्न किया तो बस “तथास्तु” कहकर देवी अन्तर्धान हो गई। हे भूप! जिस प्रकार तीनों लोकों का हित चाहने वाली यह भगवती देवताओं के शरीर से उत्पन्न हुई थी, वह सारा वृतान्त मैने तुझसे कह दिया है और इसके पश्चात दुष्ट असुरों तथा शुम्भ निशुम्भ का वध करने और सब लोकों की रक्षा करने के लिए जिस प्रकार गौरी, देवी के शरीर से उत्पन्न हुई थी वह सारा व्रतान्त मैं यथावत वर्णन करता हूँ।

 

पाँचवाँ अध्याय – 

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(देवताओं द्वारा देवी की स्तुति)

महर्षि मेधा ने कहा-पूर्वकाल में शुम्भ निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के मद से इन्द्र का त्रिलोकी का राज्य और यज्ञों के भाग छीन लिये और वह दोनों इसी प्रकार सूर्य, चन्द्रमा, धर्मराज और वरुण के अधिकार भी छीन कर स्वयं ही उनका उपयोग करने लगे। वायु और अग्नि का कार्य भी वही करने लगे और इसके पश्चात उन्होंने जिन देवताओं का राज्य छीना था, उनको अपने-अपने स्थान से निकाल दिया। इस तरह से अधिकार छिने हुए दैत्यों तथा दैत्यों द्वारा निकाले हुए देवता अपराजिता देवी का स्मरण करने लगे कि देवी ने हमको वर दिया था कि मैं तुम्हारी सम्पूर्ण विपत्तियों को नष्ट कर के रक्षा करूँगी।

ऎसा विचार कर सब देवता हिमालय पर गये और भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे। देवताओं ने कहा-देवी को नमस्कार है, शिव को नमस्कार है। प्रकृति और भद्रा को नमस्कार है। हम लोग रौद्र, नित्या और गौरी को नमस्कार करते हैं। ज्योत्सनामयी, चन्द्ररूपिणी व सुख रूपा देवी को निरन्तर नमस्कार है, शरणागतों का कल्याण करने वाली, वृद्धि और सिद्धिरूपा देवी को हम बार-2 नमस्कार करते हैं और नैरऋति, राजाओं की लक्ष्मी तथा सर्वाणी को नमस्कार है, दुर्गा को, दुर्ग स्थलों को पार करने वाली दुर्गपारा को, सारा, सर्वकारिणी, ख्याति कृष्ण और घूम्रदेवी को सदैव नमस्कार है। अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा को हम नमस्कार करते हैं। उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है।

जगत की आधारभूत कृति देवी को बार-बार नमस्कार करते हैं। जिस देवी को प्राणीमात्र विष्णुमाया कहते हैं उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में चेतना कहलाती है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में क्षुधा रुप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में छाया रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में तृष्णा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में शांति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में जातिरुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में लज्जा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में श्रद्धा रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जजो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में कान्ति रूप से स्थित है, जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में वृत्ति रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में स्मृति रूप से विराजमान है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में दयारूप से स्थित है व, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि रूप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में मातृरुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में भ्रान्ति रुप से स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी सम्पूर्ण प्राणियों में नित्य व्याप्त रहती है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, जो देवी चैतन्य रूप से इस सम्पूर्ण संसार को व्याप्त कर के स्थित है उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है, उसको नमस्कार है।

पूर्वकाल में देवताओं ने अपने अभीष्ट फल पाने के लिए जिसकी स्तुति की है और देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिसका सेवन किया है वह कल्याण की साधनाभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मंगल करे तथा सारी विपत्तियों को नष्ट कर डाले, असुरों के सताये हुए हम सम्पूर्ण देवता उस परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्ति पूर्वक स्मरण किए जाने पर तुरन्त ही सब विपत्तियों को नष्ट कर देती है वह जगदम्बा इस समय भी हमारा मंगल कर के हमारी समस्त विपत्तियों को दूर करें।

महर्षि मेधा ने कहा-हे राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे तो उसी समय पार्वती देवी गंगा में स्नान करने के लिए आई, तब उनके शरीर से प्रकट होकर शिवादेवी बोली-शुम्भ दैत्य के द्वारा स्वर्ग से निकले हुए और निशुम्भ से हारे हुए यह देवता मेरी स्तुति कर रहे हैं। पार्वती के शरीर से अम्बिका निकली थी, इसलिए उसको सम्पूर्ण लोक में कौशिकी कहते हैं। कौशिकी के प्रकट होने के पश्चात पार्वती देवी के शरीर का रंग काला हो गया और वह हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

फिर शुम्भ और निशुम्भ के दूत चण्डमुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप वाली अम्बिका देवी को देखा। फिर वह शुम्भ के पास जाकर बोले-महाराज! एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री हिमालय को प्रकाशित कर रही है, वैसा रंग रूप आज तक हमने किसी स्त्री में नहीं देखा, हे असुरेश्वर! आप यह पता लगाएँ कि वह कौन है और उसको ग्रहण कर ले। वह स्त्री स्त्रियों में रत्न है, वह अपनी कान्ति से दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई वहाँ स्थित है, इसलिए आपका उसको देखना उचित है।

हे प्रभो! तीनों लोकों के हाथी, घोड़े और मणि इत्यादि जितने रत्न हैं वह सब इस समय आपके घर में शोभायमान हैं। हाथियों में रत्न रूप ऎरावत हाथी और उच्चैश्रवा नामक घोड़ा तो आप इन्द्र से ले आये हैं, हंसों द्वारा जुता हुआ विमान जो कि ब्रह्माजी के पास था, अब भी आपके पास है और यह महापद्म नामक खजाना आपने कुबेर से छीना है, समुद्र ने आपको सदा खिले हुए फूलों की किंजल्किनी नामक माला दी है, वरुण का कंचन की वर्षा करने वाला छत्र आपके पास है, रथों में श्रेष्ठ प्रजापति का रथ भी आपके पास ही है, हे दैत्येन्द्र! मृत्यु से उत्क्रांतिका नामक शक्ति भी आपने छीन ली है और वरुण का पाश भी आपके भ्राता निशुम्भ के अधिकार में है और जो अग्नि में न जल सकें, ऎसे दो वस्त्र भी अग्निदेव ने आपको दिये हैं।

हे दैत्यराज! इस प्रकार सारी रत्नरूपी वस्तुएँ आप संग्रह कर चुके हैं तो फिर आप यह कल्याणकारी स्त्रियों में रत्नरूप अनुपम स्त्री आप क्यों नहीं ग्रहण करते? महर्षि मेधा बोले-चण्ड मुण्ड का यह वचन सुनकर शुम्भ ने विचारा कि सुग्रीव को अपना दूत बना कर देवी के पास भेजा जाये।

प्रथम उसको सब कुछ समझा दिया और कहा कि वहाँ जाकर तुम उसको अच्छी तरह से समझाना और ऎसा उपाय करना जिससे वह प्रसन्न होकर तुरन्त मेरे पास चली आये, भली प्रकार समझाकर कहना। दूत सुग्रीव, पर्वत के उस रमणीय भाग में पहुँचा जहाँ देवी रहती थी। दूत ने कहा-हे देवी! दैत्यों का राजा शुम्भ जो इस समय तीनों लोकों का स्वामी है, मैं उसका दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ। सम्पूर्ण देवता उसकी आज्ञा एक स्वर से मानते हैं। अब जो कुछ उसने कहला भेजा है, वह सुनो। उसने कहा है, इस समय सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे वश में है और सम्पूर्ण यज्ञो के भाग को पृथक-पृथक मैं ही लेता हूँ और तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं वह सब मेरे पास हैं, देवराज इन्द्र का वाहन ऎरावत मेरे पास है जो मैंने छीन लिया है, उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा जो क्षीरसागर मंथन करने से प्रकट हुआ था उसे देवताओं ने मुझे समर्पित किया है।

हे सुन्दरी! इनके अतिरिक्त और भी जो रत्न भूषण पदार्थ देवताओं के पास थे वह सब मेरे पास हैं। हे देवी! मैं तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानता हूँ क्योंकि रत्नों का उपभोग करने वाला मैं ही हूँ। हे चंचल कटा़ओं वाली सुन्दरी! अब यह मैं तुझ पर छोड़ता हूँ कि तू मेरे या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाये। यदि तू मुझे वरेगीतो तुझे अतुल महान ऎश्वर्य की प्राप्ति होगी, अत: तुम अपनी बुद्धि से यह विचार कर मेरे पास चली आओ। महर्षि मेधा ने कहा-दूत के ऎसा कहने पर सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने वाली भगवती दुर्गा मन ही मन मुस्कुराई और इस प्रकार कहने लगी। देवी ने कहा-हे दूत! तू जो कुछ कह रहा है वह सत्य है और इसमें किंचित्मात्र भी झूठ नहीं है शुम्भ इस समय तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी की तरह पराक्रमी है किन्तु इसके संबंध में मैं जो प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ उसे मैं कैसे झुठला सकती हूँ? अत: तू, मैंने जो प्रतिज्ञा की है उसे सुन।

जो मुझे युद्ध में जीत लेगा और मेरे अभिमान को खण्डित करेगा तथा बल में मेरे समान होगा, वही मेरा स्वामी होगा। इसलिए शुम्भ अथवा निशुम्भ यहाँ आवे और युद्ध में जीतकर मुझसे विवाह कर ले, इसमें भला देर की क्या आवश्यकता है! दूत ने कहा-हे देवी! तुम अभिमान में भरी हुई हो, मेरे सामने तुम ऎसी बात न करो। इस त्रिलोकी में मुझे तो ऎसा कोई दिखाई नहीं देता जो कि शुम्भ और निशुम्भ के सामने ठहर सके। हे देवी! जब अन्य देवताओं में से कोई शुम्भ व निशुम्भ के समान युद्ध में ठहर नहीं सकता तो तुम जैसी स्त्री उनके सामने रणभूमि में ठहर सकेगी?

जिन शुम्भ आदि असुरों के सामने इन्द्र आदि देवता नहीं ठहर सके तो फिर तुम अकेली स्त्री उनके सामने कैसे ठहर सकेगी? अत: तुम मेरा कहना मानकर उनके पास चली जाओ नहीं तो जब वह तुम्हें केश पकड़कर घसीटते हुए ले जाएंगे तो तुम्हारा गौरव नष्ट हो जाएगा इसलिए मेरी बात मान लो। देवी ने कहा-जो कुछ तुमने कहा ठीक है। शुम्भ और निशुम्भ बड़े बलवान है लेकिन मैं क्या कर सकती हूँ क्योंकि मैं बिना विचारे प्रतिज्ञा कर चुकी हूँ इसलिए तुम जाओ और मैंने जो कुछ भी कहा है वह सब आदरपूर्वक असुरेन्द्र से कह दो, इसके पश्चात जो वह उचित समझे करें।

 

छठा अध्याय – 

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(धूम्रलोचन वध)

महर्षि मेधा ने कहा-देवी की बात सुनकर दूत क्रोध में भरा हुआ वहाँ से असुरेन्द्र के पास पहुँचा और सारा वृतान्त उसे कह सुनाया। दूत की बात सुन असुरेन्द्र के क्रोध का पारावर न रहा और उसने अपने सेनापति धूम्रलोचन से कहा-धूम्रलोचन! तुम अपनी सेना सहित शीघ्र वहाँ जाओ और उस दुष्टा के केशों को पकड़कर उसे घसीटते हुए यहाँ ले आओ। यदि उसकी रक्षा के लिए कोई दूसरा खड़ा हो, चाहे वह देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व ही क्यों न हो, उसको तुम अवश्य मार डालना। महर्षि मेधा ने कहा-शुम्भ के इस प्रकार आज्ञा देने पर धूम्रलोचन साठ हजार राक्षसों की सेना को साथ लेकर वहाँ पहुँचा और देवी को देख ललकार कर कहने लगा-’अरी तू अभी शुम्भ और निशुम्भ के पास चल! यदि तू प्रसन्नता पूर्वक मेरे साथ न चलेगी तो मैं तेरे केशों को पकड़ घसीटता हुआ तुझे ले चलूँगा।’ देवी बोली-’असुरेन्द्र का भेजा हुआ तेरे जैसा बलवान यदि बलपूर्वक मुझे ले जावेगा तो ऎसी दशा में मैं तुम्हारा कर ही क्या सकती हूँ?’

महर्षि मेधा ने कहा-ऎसा कहने पर धूम्रलोचन उसकी ओर लपका, किन्तु देवी ने उसे अपनी हुंकार से ही भस्म कर डाला। यह देखकर असुर सेना क्रुद्ध होकर देवी की ओर बढ़ी, परन्तु अम्बिका ने उन पर तीखें बाणों, शक्तियों तथा फरसों की वर्षा आरम्भ कर दी, इतने में देवी का वाहन भी अपनी ग्रीवा के बालों को झटकता हुआ और बड़ा भारी शब्द करता हुआ असुर सेना में कूद पड़ा, उसने कई असुर अपने पंजों से, कई अपने जबड़ों से और कई को धरती पर पटककर अपनी दाढ़ों से घायल कर के मार डाला, उसने कई असुरों के अपने नख से पेट फाड़ डाले और कई असुरों का तो केवल थप्पड़ मारकर सिर धड़ से अलग कर दिया।

कई असुरों की भुजाएँ और सिर तोड़ डाले और गर्दन के बालों को हिलाते हुए उसने कई असुरों को पकड़कर उनके पेट फाड़कर उनका रक्त पी डाला। इस प्रकार देवी के उस महा बलवान सिंह ने क्षणभर में असुर सेना को समाप्त कर दिया। शुम्भ ने जब यह सुना कि देवी ने धूम्रलोचन असुर को मार डाला है और उसके सिंह ने सारी सेना का संहार कर डाला है तब उसको बड़ा क्रोध आया। उसके मारे क्रोध के ओंठ फड़कने लगे और उसने चण्ड तथा मुण्ड नामक महा असुरों को आज्ञा दी-हे चण्ड! हे मुण्ड! तुम अपने साथ एक बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ और उस देवी के बाल पकड़कर उसे बाँधकर तुरन्त यहाँ ले आओ। यदि उसको यहाँ लाने में किसी प्रकार का सन्देह हो तो अपनी सेना सहित उससे लड़ते हुए उसको मार डालो और जब वह दुष्टा और उसका सिंह दोनो मारे जावें, तब भी उसको बाँधकर यहाँ ले आना।

 

सातवाँ अध्याय :-------

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(चण्ड और मुण्ड का वध)

महर्षि मेधा ने कहा-दैत्यराज की आज्ञा पाकर चण्ड और मुण्ड चतुरंगिनी सेना को साथ लेकर हथियार उठाये हुए देवी से लड़ने के लिए चल दिये। हिमालय पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने मुस्कुराती हुई देवी जो सिंह पर बैठी हुई थी देखा, जब असुर उनको पकड़ने के लिए तलवारें लेकर उनकी ओर बढ़े तब अम्बिका को उन पर बड़ा क्रोध आया और मारे क्रोध के उनका मुख काला पड़ गया, उनकी भृकुटियाँ चढ़ गई और उनके ललाट में से अत्यंत भयंकर तथा अत्यंत विस्तृत मुख वाली, लाल आँखों वाली काली प्रकट हुई जो कि अपने हाथों में तलवार और पाश लिये हुए थी, वह विचित्र खड्ग धारण किये हुए थी तथा चीते के चर्म की साड़ी एवं नरमुण्डों की माला पहन रखी थी। उसका माँस सूखा हुआ था और शरीर केवल हड्डियों का ढाँचा था और जो भयंकर शब्द से दिशाओं को पूर्ण कर रही थी, वह असुर सेना पर टूट पड़ी और दैत्यों का भक्षण करने लगी।

वह पार्श्व रक्षकों, अंकुशधारी महावतों, हाथियों पर सवार योद्धाओं और घण्टा सहित हाथियों को एक हाथ से पकड़-2 कर अपने मुँह में डाल रही थी और इसी प्रकार वह घोड़ों, रथों, सारथियों व रथों में बैठे हुए सैनिकों को मुँह में डालकर भयानक रूप से चबा रही थी, किसी के केश पकड़कर, किसी को पैरों से दबाकर और किसी दैत्य को छाती से मसलकर मार रही थी, वह दैत्य के छोड़े हुए बड़े-2 अस्त्र-शस्त्रों को मुँह में पकड़कर और क्रोध में भर उनको दाँतों में पीस रही थी, उसने कई बड़े-2 असुर भक्षण कर डाले, कितनों को रौंद डाला और कितनी उसकी मार के मारे भाग गये, कितनों को उसने तलवार से मार डाला, कितनों को अपने दाँतों से समाप्त कर दिया और इस प्रकार से देवी ने क्षण भर में सम्पूर्ण दैत्य सेना को नष्ट कर दिया।

यह देख महा पराक्रमी चण्ड काली देवी की ओर पलका और मुण्ड ने भी देवी पर अपने भयानक बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी और अपने हजारों चक्र उस पर छोड़े, उस समय वह चमकते हुए बाण व चक्र देवी के मुख में प्रविष्ट हुए इस प्रकार दिख रहे थे जैसे मानो बहुत से सूर्य मेघों की घटा में प्रविष्ट हो रहे हों, इसके पश्चात भयंकर शब्द के साथ काली ने अत्यन्त जोश में भरकर विकट अट्टहास किया। उसका भयंकर मुख देखा नहीं जाता था, उसके मुख से श्वेत दाँतों की पंक्ति चमक रही थी, फिर उसने तलवार हाथ में लेकर “हूँ” शब्द कहकर चण्ड के ऊपर आक्रमण किया और उसके केश पकड़कर उसका सिर काटकर अलग कर दिया, चण्ड को मरा हुआ देखकर मुण्ड देवी की ओर लपखा परन्तु देवी ने क्रोध में भरे उसे भी अपनी तलवार से यमलोक पहुँचा दिया।

चण्ड और मुण्ड को मरा हुआ देखकर उसकी बाकी बची हुई सेना वहाँ से भाग गई। इसके पश्चात काली चण्ड और मुण्ड के कटे हुए सिरों को लेकर चण्डिका के पास गई और प्रचण्ड अट्टहास के साथ कहने लगी-हे देवी! चण्ड और मुण्ड दो महा दैत्यों को मारकर तुम्हें भेंट कर दिया है, अब शुम्भ और निशुम्भ का तुमको स्वयं वध करना है।

महर्षि मेधा ने कहा-वहाँ लाये हुए चण्ड और मुण्ड के सिरों को देखकर कल्याणकायी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा-हे देवी! तुम चूँकि चण्ड और मुण्ड को मेरे पास लेकर आई हो, अत: संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।

 

आठवाँ अध्याय – 

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(रक्तबीज वध)

महर्षि मेधा ने कहा-चण्ड और मुण्ड नामक असुरों के मारे जाने से और बहुत सी सेना के नष्ट हो जाने से असुरों के राजा, प्रतापी शम्भु ने क्रोध युक्त होकर अपनी सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिये तैयार होने की आज्ञा दी। उसने कहा-अब उदायुध नामक छियासी असुर सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिये जायें और कम्बू नामक चौरासी सेनापति भी युद्ध के लिये जाएँ और कोटि वीर्य नामक पचास सेनापति और धौम्रकुल नाम के सौ सेनापति प्रस्थान करें, कालक, दौहृद, मौर्य और कालकेय यह दैत्य भी मेरी आज्ञा से सजकर युद्ध के लिए कूच करें, भयानक शासन करने वाला असुरों का स्वामी शुम्भ इस प्रकार आज्ञा देकर बहुत बड़ी सेना के साथ युद्ध के लिए चला। उसकी सेना को अपनी ओर आता देखकर चण्डिका ने अपनी धनुष की टंकोर से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुँजा दिया।

हे राजन्! इसके पश्चात देवी के सिंह ने दहाड़ना  आरम्भ कर दिअय और अम्बिका के घंटे के शब्दों ने उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया, धनुष की टंकोर, शेर की दहाड़ और घण्टे के शब्द से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गूँज उठा और इसके साथ ही देवी ने अपने मुख को और भी भयानक बना लिया। ऎसे भयंकर शब्द को सुनकर राक्षसी सेना ने देवी तथा सिंह को चारों ओर से घेर लिया। हे राजन्! उस समय दैत्यों के नाश के लिए और देवताओं के हित के लिए ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ जो अत्यंत पराक्रम और बल से सम्पन्न थी, उनके शरीर से निकल कर उसी रूप में चण्डिका देवी के पास गई। जिस देवता का जैसा रूप था, जैसे आभूषण थे और जैसा वाहन था, वैसा ही रूप, आभूषण और वाहन लेकर उन देवताओं की शक्तियाँ दैत्यों से युद्ध करने के लिए आई।

हंस युक्त विमान में बैठकर और रुद्राक्ष की माला तथा कमण्डलु धारण कर के ब्रह्माजी की शक्ति आई, वृषभ पर सवार होकर, हाथ में त्रिशूल लेकर, महानाग का कंकण पहन कर और चन्द्ररेखा से भूषित होकर भगवान शंकर की शक्ति माहेश्वरी आई और मोर पर आरूढ़ होकर, हाथ में शक्ति लिये दैत्यों से युद्ध करने के लिये कार्तिकेय जी की शक्ति उन्हीं का रूप धारण करके आई। भगवान विष्णु की शक्ति गरुड़ पर सवार होकर शंख, चक्र, श्रांग गदा, धनुष तथा खंड्ग हाथ में लिये हुए आई। श्रीहरि की शक्ति वाराही, वाराह का शरीर धारण करके आई और नृसिंह के समान शरीर धारण करके उनकी शक्ति नारसिंही भी आई, उसकी गर्दन के झटकों से आकाश के तारे टूट पड़ते थे और इसी प्रकार देवराज इन्द्र की शक्ति ऎंन्द्री भी ऎरावत के ऊपर सवार होकर आई, पश्चात इन देव शक्तियों से घिरे हुए भगवान शंकर ने चंडिका से कहा-मेरी प्रसन्नता के लिये तुम शीघ्र ही इन असुरों को मारो।

इसके पश्चात देवी के शरीर में से अत्यन्त उग्र रूप वाली और सैकड़ों गीदड़ियों के समान आवाज करने वाली चण्डिका शक्ति प्रकट हुई, उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटा वाले भगवान श्रीशंकर जी से कहा-हे प्रभो! आप मेरी ओर से दूत बनकर शुम्भ और निशुम्भ के पास जाइए और उन अत्यन्त गर्वीले दैत्यों से कहिये तथा उनके अतिरिक्त और भी जो दैत्य वहाँ युद्ध के लिए उपस्थित हों, उनसे भी कहिये-जो तुम्हें अपने जीवित रहने की इच्छा हो तो त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दे दो, देवताओं को उनका यज्ञ भाग मिलना आरम्भ हो जाये और तुम पाताल को लौट जाओ, किन्तु यदि बल के गर्व से तुम्हारी लड़ने की इच्छा हो तो फिर आ जाओ, तुम्हारे माँस से मेरी योगिनियाँ तृप्त होंगी, चूँकि उस देवी ने भगवान शंकर को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह संसार में शिवदूती के नाम से विख्यात हुई।

भगवान शंकर से देवी का सन्देश पाकर उन दैत्यों के क्रोध का कोई आर-पार न रहा और वह जिस स्थान पर देवी विराजमान थी वहाँ पहुँचे, और जाने के साथ ही उस पर बाणों और शक्तियों की वर्षा करने लगे। देवी ने उनके फेंके हुए बाणों, शक्तियों, त्रिशूल और फरसों को अपने वाणों से काट डाला और काली देवी उस देवी के साथ आगे खड़ी होकर शत्रुओं को त्रिशूल से विदीर्ण करने लगी और खटवांग से कुचलने लगी, ब्राह्मणी जिस तरफ दौड़ती थी, उसी तरफ अपने कमण्डलु का जल छिड़क कर दैत्यों के वीर्य व बल को नष्ट कर देती थी और इसी प्रकार माहेश्वरी त्रिशूल से, वैष्णवी चक्र से और अत्यन्त कोपवाली कौमारी शक्ति द्वारा असुरों को मार रही थी और ऎन्द्री के बाजू के प्रहार से सैकड़ों दैत्य रक्त की नदियाँ बहाते हुये पृथ्वी पर सो गये।

वाराही ने कितने ही राक्षसों को अपनी थूथन द्वारा मृत्यु के घाट उतार दिया, दाढ़ो के अग्रभाग से कितने ही राक्षसों की छाती को चीर डाला और चक्र की चोट से कितनों ही को विदीर्ण करके धरती पर डाल दिया। बड़े-2 राक्षसों को नारसिंही अपने नखों से विदीर्ण करकेव भक्षण कर रही थी और सिंहनाद से चारों दिशाओं को गुंजाती हुई रणभूमि में विचर रही थी, शिवदूती के प्रचण्ड अट्टहास से कितने ही दैत्य भयभीत होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और उनके गिरते ही वह उनको भक्षण कर गई।

इस तरह क्रोध में भरे हुए मातृगणों द्वारा नाना प्रकार के उपायों से बड़े-बड़े असुरों को मरते हुए देखकर राक्षसी सेना भाग खड़ी हुई और उनको इस प्रकार भागता देखकर रक्तबीज नामक महा पराक्रमी राक्षस क्रोध में भरकर युद्ध के लिये आगे बढ़ा। उसके शरीर से रक्त की बूँदे पृथ्वी पर जैसे ही गिरती थी तुरंत वैसे ही शरीर वाला तथा वैसा ही बलवान दैत्य पृथ्वी से उत्पन्न हो जाता था। रक्तबीज गदा हाथ में लेकर ऎन्द्री के साथ युद्ध करने लगा, जब ऎन्द्रीशक्ति ने अपने वज्र से उसको मारा तो घायल होने के कारण उसके शरीर से बहुत सा रक्त बहने लगा और उसकी प्रत्येक बूँद से उसके समान ही बलवान तथा महा पराक्रमी अनेकों दैत्य भयंकर रूप से प्रकट हो गये, वह सबके सब दैत्य बीज के समान ही बलवान तेज वाले थे, वह भी भयंकर अस्त्र-शस्त्र लेकर देवियों के साथ लड़ने लगे। जब ऎन्द्री के वज्र प्रहार से उसके मस्तक पर चोट लगी और रक्त बहने लगा तो उसमें से हजारों ही पुरूष उत्पन्न हो गये।

वैष्णवी ने चक्र से और ऎन्द्री ने गदा से रक्तबीज को चोट पहुँचाई और वैष्णवी के चक्र से घायल होने पर उसके शरीर से जो रक्त बहा, उससे हजारों महा असुर उत्पन्न हुए, जिनके द्वारा यह जगत व्याप्त हो गया, कौमारी ने शक्ति से, वाराही ने खड्ग से और माहेश्वरी ने त्रिशूल से उसको घायल किया। इस प्रकार क्रोध में भरकर उस महादैत्य ने सब मातृ शक्तियों पर पृथक-पृथक गदा से प्रहार किया, और माताओं ने शक्ति तथा शूल इत्यादि से उसको बार-बार घायल किया, उससे सैकडो़ माहदैत्य उत्पन हुए और इस प्रकार उस रक्रबीज के रुधिर से उत्पन्न हुए असुरों से सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो गया जिससे देवताओं को भय हुआ, देवताओं को भयभीत देखकर चंडिका ने काली से कहा-हे चामुण्डे! अपने मुख को बड़ा करो और मेरे शस्त्रघात से उत्पन्न हुए रक्त बिन्दुओं तथा रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महा असुरों को तुम अपने इस मुख से भक्षण करती जाओ। इस प्रकार रक्त बिन्दुओं से उत्पन्न हुए महादैत्यों को भक्षण करती हुई तुम रण भूमि में विचरो। इस प्रकार रक्त क्षीण होने से यह दैत्य नष्ट हो जाएगा, तुम्हारे भक्षण करने के कारण अन्य दैत्य नहीं होगे।

काली से इस प्रकार कहकर चण्डिका देवी ने रक्तबीज पर अपने त्रिशूल से प्रहार किया और काली देवी ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया, तब उसने गदा से चण्डिका पर प्रहार किया, प्रहार से चंडिका को तनिक भी कष्ट न हुआ, किंतु रक्तबीज के शरीर से बहुत सा रक्त बहने लगा, लेकिन उसके गिरने के साथ ही काली ने उसको अपने मुख में ले लिया। काली के मुख में उस रक्त से जो असुर उत्पन्न हुए, उनको उसने भक्षण कर लिया और रक्त को पीती गई, तदनन्तर देवी ने रक्तबीज को जिसका कि खून काली ने पिया था, चण्डिका ने उस दैत्य को बज्र, बाण, खड्ग तथा ऋष्टि इत्यादि से मार डाला। हे राजन्! अनेक प्रकार के शस्त्रों से मारा हुआ और खून से वंचित वह महादैत्य रक्तबीज पृथ्वी पर गिर पड़ा। हे राजन्! उसके गिरने से देवता अत्यन्त प्रसन्न हुए और माताएँ उन असुरों का रक्त पीने के पश्चात उद्धत होकर नृत्य करने लगी।

 

नवाँ अध्याय –

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(निशुम्भ वध)

राजा ने कहा-हे ऋषिराज! आपने रक्तबीज के वध से संबंध रखने वाला वृतान्त मुझे सुनाया। अब मैं रक्तबीज के मरने के पश्चात क्रोध में भरे हुए शुम्भ व निशुम्भ ने जो कर्म किया, वह सुनना चाहता हूँ। महर्षि मेधा ने कहा-रक्तबीज के मारे जाने पर शुम्भ और निशुम्भ को बड़ा क्रोध आया और अपनी बहुत बड़ी सेना का इस प्रकार सर्वनाश होते देखकर निशुम्भ देवी पर आक्रमण करने के लिए दौड़ा, उसके साथ बहुत से बड़े-बड़े असुर देवी को मारने के वास्ते दौड़े और महापराक्रमी शुम्भ अपनी सेना सहित चण्डिका को मारने के लिए बढ़ा, फिर शुम्भ और निशुम्भ का देवी से घोर युद्ध होने लगा और वह दोनो असुर इस प्रकार देवी पर बाण फेंकने लगे जैसे मेघों से वर्षा हो रही हो, उन दोनो के चलाए हुए बाणों को देवी ने अपने बाणों से काट डाला और अपने शस्त्रों की वर्षा से उन दोनो दैत्यों को चोट पहुँचाई, निशुम्भ ने तीक्ष्ण तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवी के सिंह पर आक्रमण किया, अपने वाहन को चोट पहुँची देखकर देवी ने अपने क्षुरप्र नामक बाण से निशुम्भ की तलवार व ढाल दोनो को ही काट डाला।

तलवार और ढाल कट जाने पर निशुम्भ ने देवी पर शक्ति से प्रहार किया। देवी ने अपने चक्र से उसके दो टुकड़े कर दिए। फिर क्या था दैत्य मारे क्रोध के जल भुन गया और उसने देवी को मारने के लिए उसकी ओर शूल फेंका, किन्तु देवी ने अपने मुक्के से उसको चूर-चूर कर डाला, फिर उसने देवी पर गदा से प्रहार किया, देवी ने त्रिशूल से गदा को भस्म कर डाला, इसके पश्चात वह फरसा हाथ में लेकर देवी की ओर लपका। देवी ने अपने तीखे वाणों से उसे धरती पर सुला दिया। अपने पराक्रमी भाई निशुम्भ के इस प्रकार से मरने पर शुम्भ क्रोध में भरकर देवी को मारने के लिये दौड़ा। वह रथ में बैठा हुआ उत्तम आयुधों से सुशोभित अपनी आठ बड़ी-बड़ी भुजाओं से सारे आकाश को ढके हुए था। शुम्भ को आते देख कर देवी ने अपना शंख बजाया और धनुष की टंकोर का भी अत्यन्त दुस्सह शब्द किया, साथ ही अपने घण्टे के शब्द से जो कि सम्पूर्ण दैत्य सेना के तेज को नष्ट करने वाला था सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त कर दिया।

इसके पश्चात देवी के सिंह ने भी अपनी दहाड़ से जिसे सुन बड़े-बड़े बलवानों ला मद चूर-चूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओं को पूरित कर दिया, फिर आकाश में उछलकर काली ने अपने दाँतों तथा हाथों को पृथ्वी पर पटका, उसके ऎसा करने से ऎसा शब्द हुआ, जिससे कि उससे पहले के सारे शब्द शान्त हो गये, इसके पश्चात शिवदूती ने असुरों के लिए भय उत्पन्न करने वाला अट्टहास किया जिसे सुनकर दैत्य थर्रा उठे और शुम्भ को बड़ा क्रोध हुआ, फिर अम्बिका ने उसे अरे दुष्ट! खड़ा रह!!, खड़ा रह!!! कहा तो आकाश से सभी देवता ‘जय हो, जय हो’बोल उठे। शुम्भ ने वहाँ आकर ज्वालाओं से युक्त एक अत्यन्त भयंकर शक्ति छोड़ी जिसे आते देखकर देवी ने अपनी महोल्का नामक शक्ति से काट डाला।

हे राजन्! फिर शुम्भ के सिंहनाद से तीनों लोक व्याप्त हो गये और उसकी प्रतिध्वनि से ऎसा घोर शब्द हुआ, जिसने इससे पहले के सब शब्दों को जीत लिया। शुम्भ के छोड़े बाणों को देवी ने और देवी के छोड़े बाणों को शुम्भ ने अपने बाणों से काट सैकड़ो और हजारों टुकड़ो में परिवर्तित कर दिया। इसके पश्चात जब चण्डीका ने क्रोध में भर शुम्भ को त्रिशूल से मारा तो वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, जब उसकी मूर्छा दुर हुई तो वह धनुष लेकर आया और अपने बाणों से उसने देवी काली तथा सिंह को घायल कर दिया, फिर उस राक्षस ने दस हजार भुजाएँ धारण करके चक्रादि आयुधों से देवी को आच्छादित कर दिया, तब भगवती दुर्गा ने कुपित होकर अपने बाणों से उन चक्रों तथा बाणों को काट डाला, यह देखकर निशुम्भ हाथ में गदा लेकर चण्डिका को मारने के लिए दौडा, उसके आते ही देवी ने तीक्ष्ण धार वाले ख्ड्ग से उसकी गदा को काट डाला।

उसने फिर त्रिशूल हाथ में ले लिया, देवताओं को दुखी करने वाले निशुम्भ त्रिशूल हाथ में लिए हुए आता देखकर चण्डिका ने अपने शूल से उसकी छाती पर प्रहार किया और उसकी छाती को चीर डाला, शूल विदीर्ण हो जाने पर उसकी छाती में से एक उस जैसा ही महा पराक्रमी दैत्य ठहर जा! ठहर जा!! कहता हुआ निकला। उसको देखकर देवी ने बड़े जोर से ठहाका लगाया। अभी वह निकलने भी न पाया था किन उसका सिर अपनी तलवार से काट डाला। सिर के कटने के साथ ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनन्तर सिंह दहाड़-दहाड़ कर असुरों का भक्षण करने लगा और काली शिवदूती भी राक्षसों का रक्त पीने लगी। कौमारी की शक्ति से कितने ही महादैत्य नष्ट हो गए। ब्रह्माजी के कमण्डल के जल से कितने ही असुर समाप्त हो गये।

कई दैत्य माहेश्वरी के त्रिशूल से विदीर्ण होकर पृथ्वी पर गिर पड़े और बाराही के प्रहारों से छिन्न-भिन्न होकर धराशायी हो गये। वैष्णवी ने भी अपने चक्र से बड़े-बड़े महा पराक्रमियों का कचमूर निकालकर उन्हें यमलोक भेज दिया और ऎन्द्री से कितने ही महाबली राक्षस टुकड़े-2 हो गये। कई दैत्य मारे गए, कई भाग गए, कितने ही काली शिवदूती और सिंह ने भक्षण कर लिए।

 

दसवाँ अध्याय – 

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(शुम्भ वध)

महर्षि मेधा ने कहा-हे राजन्! अपने प्यारे भाई को मरा हुआ तथा सेना को नष्ट हुई देखकर क्रोध में भरकर दैत्यराज शुम्भ कहने लगा-दुष्ट दुर्गे! तू अहंकार से गर्व मत कर क्योंकि तू दूसरों के बल पर लड़ रही है। देवी ने कहा-हे दुष्ट! देख मैं तो अकेली ही हूँ। इस संसार में मेरे सिवा दूसरा कौन है? यह सब मेरी शक्तियाँ हैं। देख, यह सब की सब मुझ में प्रविष्ट हो रही हैं। इसके पश्चात ब्राह्मणी आदि सब देवियाँ उस देवी के शरीर में लीन हो गई और देवी अकेली रह गई तब देवी ने कहा-मैं अपनी ऎश्वर्य शक्ति से अनेक रूपों में यहाँ उपस्थित हुई थी। उन सब रूपों को मैंने समेट लिया है अब अकेली ही यहाँ खड़ी हूँ, तुम भी यहीं ठहरो। महर्षि मेधा ने कहा-तब देवताओं तथा राक्षसों के देखते-2 देवी तथा शुम्भ में भयंकर युद्ध होने लगा। अम्बिका देवी ने सैकड़ों अस्त्र-शस्त्र छोड़े, उधर दैत्यराज ने भी भयंकर अस्त्रों का प्रहार आरम्भ कर दिया। देवी के छोड़े हुए सैकड़ो अस्त्रों को दैत्य ने अपने अस्त्रों द्वारा काट डाला, इसी प्रकार शुम्भ ने जो अस्त्र छोड़े उनको देवी ने अपनी भयंकर हुँकार के द्वारा ही काट डाला।

दैत्य ने जब सैकड़ो बाण छोड़कर देवी को ढक दिया तो क्रोध में भरकर देवी ने अपने बाणों से उसका धनुष नष्ट कर डाला। धनुष कट जाने पर दैत्येन्द्र ने शक्ति चलाई लेकिन देवी ने उसे भी काट कर फेंक दिया फिर दैत्येन्द्र चमकती हुई ढाल लेकर देवी की ओर दौड़ा किन्तु जब वह देवी के समीप पहुँचा तो देवी ने अपने तीक्ष्ण वाणों से उसकी चमकने वाली ढाल को भी काट डाला फिर दैत्येन्द्र का घोड़ा मर गया, रथ टूट गया, सारथी मारा गया तब वह भयंकर मुद्गर लेकर देवी पर आक्रमण करने के लिए चला किन्तु देवी ने अपने तीक्ष्ण बाणों से उसके मुद्गर को भी काट दिया। इस पर दैत्य ने क्रोध में भरकर देवी की छाती में बड़े जोर से एक मुक्का मारा, दैत्य ने जब देवी को मुक्का मारा तो देवी ने भी उसकी छाती में जोर से एक थप्पड़ मारा, थप्पड़ खाकर पहले तो दैत्य पृथ्वी पर गिर पड़ा किन्तु तुरन्त ही वह उठ खड़ा हुआ फिर वह देवी को पकड़ कर आकाश की ओर उछला और वहाँ जाकर दोनों में युद्ध होने लगा, वह युद्ध ऋषियों और देवताओं को आश्चर्य में डालने वाला था।

देवी आकाश में दैत्य के साथ बहुत देर तक युद्ध करती रही फिर देवी ने उसे आकाश में घुमाकर पृथ्वी पर गिरा दिया। दुष्टात्मा दैत्य पुन: उठकर देवी को मारने के लिए दौड़ा तब उसको अपनी ओर आता हुआ देखकर देवी ने उसकी छाती विदीर्ण कर के उसको पृथ्वी पर पटक दिया। देवी के त्रिशूल से घायल होने पर उस दैत्य के प्राण पखेरू उड़ गए और उसके मरने पर समुद्र, द्वीप, पर्वत और पृथ्वी सब काँपने लग गये। तदनन्तर उस दुष्टात्मा के मरने से सम्पूर्ण जगत प्रसन्न व स्वस्थ हो गया तथा आकाश निर्मल हो गया। पहले जो उत्पात सूचक मेघ और उल्कापात होते थे वह सब शान्त हो गये। उसके मारे जाने पर नदियाँ अपने ठीक मार्ग से बहने लगी। सम्पूर्ण देवताओं का हृदय हर्ष से भर गया और गन्धर्वियाँ सुन्दर गान गाने लगी। गन्धर्व बाजे बजाने लगे और अप्सराएँ नाचने लगी, पपवित्र वायु बहने लगी, सूर्य की कांति स्वच्छ हो गई, यज्ञशालाओं की बुझी हुई अग्नि अपने आप प्रज्वलित हो उठी तथा चारों दिशाओं में शांति फैल गई।

 

ग्यारहवाँ अध्याय –

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(देवताओं का देवी की स्तुति करना और देवी का देवताओं को वरदान देना)

महर्षि मेधा कहते हैं-दैत्य के मारे जाने पर इन्द्रादि देवता अग्नि को आगे कर के कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे, उस समय अभीष्ट की प्राप्ति के कारण उनके मुख खिले हुए थे। देवताओं ने कहा-हे शरणागतों के दुख दूर करने वाली देवी! तुम प्रसन्न होओ, हे सम्पूर्ण जगत की माता!तुम प्रसन्न होओ। विन्ध्येश्वरी! तुम विश्व की रक्षा करो क्योंकि तुम इस चर और अचर की ईश्वरी हो। हे देवी!  सम्पूर्ण जगत की आधार रूप हो क्योंकि तुम पृथ्वी रूप में भी स्थित हो और अत्यन्त पराक्रम वाली देवी हो, तुम विष्णु की शक्ति हो और विश्व की बीज परममाया हो और तुमने ही इस सम्पूर्ण जगत को मोहित कर रखा है। तुम्हारे प्रसन्न होने पर ही यह पृथ्वी मोक्ष को प्राप्त होती है।

हे देवी! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरुप हैं। इस जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं वह सब तुम्हारी ही मूर्त्तियाँ हैं। एक मात्र तुमने ही इस जगत को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति किस प्रकार हो सकती है क्योंकि तुम परमबुद्धि रूप हो और सम्पूर्ण प्राणिरूप स्वर्ग और मुक्ति देने वाली हो। अत: इसी रूप में तुम्हारी स्तुति की गई है। तुम्हारी स्तुति के लिए इससे बढ़कर और क्या युक्तियाँ हो सकती हैं, सम्पूर्ण जनों के हृदय में बुद्धिरुप होकर निवास करने वाली, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हे नारायणी देवी! तुमको नमस्कार है। कलाकाष्ठा आदि रुप से अवस्थाओं को परिवर्तन की ओर ले जाने वाली तथा प्राणियों का अन्त करने वाली नारायणी तुमको नमस्कार है।

हे नारायणी! सम्पूर्ण मंगलो के मंगलरुप वाली! हे शिवे, हे सम्पूर्ण प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली! हे शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली गौरी! तुमको नमस्कार है, सृष्टि, स्थिति तथा संहारव की शक्तिभूता, सनातनी देवी< गुणों का आधार तथा सर्व सुखमयी नारायणी तुमको नमस्कार है! हे शरण में आये हुए शरणागतों दीन दुखियों की रक्षा में तत्पर, सम्पूर्ण पीड़ाओं को हरने वाली हे नारायणी! तुमको नमस्कार है। हे नारायणी! तुम ब्रह्माणी का रूप धारण करके हंसों से जुते हुए विमान पर बैठती हो तथा कुश से अभिमंत्रित जल छिड़कती रहती हो, तुम्हें नमस्कार है, माहेश्वरी रूप से त्रिशूल, चन्द्रमा और सर्पों को धारण करने वाली हे महा वृषभ वाहन वाली नारायणी! तुम्हें नमस्कार है।

मोरों तथा मुक्कुटों से घिरी रहने वाली, महाशक्ति को धारण करने वालीहे कौमारी रूपधारिणी! निष्पाप नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। हे शंख, चक्र, गद फर श्रांग धनुष रूप आयुधों को धारण करने वाली वैष्णवी शक्ति रूपा नारायणी! तुम हम पर प्रसन्न होओ, तुम्हें नमस्कार है। हे दाँतों पर पृथ्वी धारण करने वाली वाराह रूपिणी कल्याणमयी नारायणी! तुम्हे नमस्कार है। हे उग्र नृसिंह रुप से दैत्यों को मारने वाली, त्रिभुवन की रक्षा में संलग्न रहने वाली नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। हे मस्तक पर किरीट और हाथ में महावज्र धारण करने वाली, सहस्त्र नेत्रों के कारण उज्जवल, वृत्रासुर के प्राण हरने वाली ऎन्द्रीशक्ति, हे नारायणी! तुम्हें नमस्कार है, हे शिवदूती स्वरुप से दैत्यों के महामद को नष्ट करने वाली, हे घोररुप वाली! हे महाशब्द वाली! हे नारायणी! तुम्हें नमस्कार है।

दाढ़ो के कारण विकराल मुख वाली, मुण्डमाला से विभूषित मुण्डमर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। हे लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा, महारात्रि तथा महाविद्यारूपा नारायणी! तुमको नमस्कार है। हे मेधा, सरस्वती, सर्वोत्कृष्ट, ऎश्वर्य रूपिणी, पार्वती, महाकाली, नियन्ता तथा ईशरूपिणी नारायणी! तुम्हें नमस्कार है। हे सर्वस्वरूप सर्वेश्वरी, सर्वशक्तियुक्त देवी! हमारी भय से रक्षा करो, तुम्हे नमस्कार है। हे कात्यायनी! तीनों नेत्रों से भूषित यह तेरा सौम्यमुख सब तरह के डरों से हमारी रक्षा करे, तुम्हें नमसकर है। हे भद्रकाली! ज्वालाओं के समान भयंकर, अति उग्र एवं सम्पूर्ण असुरों को नष्ट करने वाला तुम्हारा त्रिशूल हमें भयों से बचावे, तुमको नमस्कार है। हे देवी! जो अपने शब्द से इस जगत को पूरित कर के दैत्यों के तेज को नष्ट करता है वह आपका घण्टा इस प्रकार हमारी रक्षा करे जैसे कि माता अपने पुत्रों की रक्षा कार्ती है। हे चण्डिके! असुरों के रक्त और चर्बी से चर्चित जो आपकी तलवार है, वह हमारा मंगल करे! हम तुमको नमस्कार करते हैं।

हे देवी! तुम जब प्रसन्न होती हो तो सम्पूर्ण रोगों को नष्ट कर देती हो और जब रूष्ट हो जाती हो तो सम्पूर्ण वांछित कामनाओं को नष्ट कर देती हो और जो मनुष्य तुम्हारी शरण में जाते हैं उन पर कभी विपत्ति नहीं आती। बल्कि तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को आश्रय देने योग्य हो जाते हैं। अनेक रूपों से बहुत प्रकार की मूर्तियों को धारण कर के इन धर्मद्रोही असुरों का तुमने संहार किया है, वह तुम्हारे सिवा कौन कर सकता था? चतुर्दश विद्याएँ, षटशास्त्र और चारों वेद तुम्हारे ही प्रकाश से प्रकाशित हैं, उनमें तुम्हारा ही वर्णन है और जहाँ राक्षस, विषैले सर्प शत्रुगण हैं वहाँ और समुद्र के बीच में भी तुम साथ रहकर इस विश्व की रक्षा करती हो।

हे विश्वेश्वरि! तुम विश्व का पालन करने वाली विश्वरूपा हो इसलिए सम्पूर्ण जगत को धारण करती हो. इसीलिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भी वन्दनीया हो। जो भक्तिपूर्वक तुमको नमस्कार करते हैं, वह विश्व को आश्रय देने वाले बन जाते हैं. हे देवी! तुम प्रसन्न होओ और असुरों को मारकर जिस प्रकार हमारी रक्षा की है, ऎसे ही हमारे शत्रुओं से सदा हमारी रक्षा करती रहो। सम्पूर्ण जगत के पाप नष्ट कर दो और पापों तथा उनके फल स्वरूप होने वाली महामारी आदि बड़े-2 उपद्रवों को शीघ्र ही दूर कर दो। विश्व की पीड़ा को हरने वाली देवी! शरण में पड़े हुओं पर प्रसन्न होओ। त्रिलोक निवासियों की पूजनीय परमेश्वरी हम लोगों को वरदान दो।

देवी ने कहा-हे देवताओं! मैं तुमको वर देने को तैयार हूँ। आपकी जेसी इच्छा हो, वैसा वर माँग लो मैं तुमको दूँगी। देवताओं ने कहा-हे सर्वेश्वरी! त्रिलोकी के निवासियों की समस्त पीड़ाओं को तुम इसी प्रकार हरती रहो और हमारे शत्रुओं को इसी प्रकार नष्ट करती रहो। देवी ने कहा-वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें युग में दो और महा असुर शुम्भ और निशुम्भ उत्पन्न होगें। उस समय मैं नन्द गोप के घर से यशोदा के गर्भ से उत्पन्न होकर विन्ध्याचल पर्वत पर शुम्भ और निशुम्भ का संहार करूँगी, फिर अत्यन्त भयंकर रूप से पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर मैं वैप्रचित्ति नामक दानवों का नाश करूँगी। उन भयंकर महा असुरों को भक्षण करते समय मेरे दाँत अनार पुष्प के समान लाल होगें, इसके पश्चात स्वर्ग में देवता और पृथ्वी पर मनुष्य मेरी स्तुति करते हुये मुझे रक्तदन्तिका कहेगें फिर जब सौ वर्षों तक वर्षा न होगी तो मैं ऋषियों के स्तुति करने पर आयोनिज नाम से प्रकट होऊँगी और अपने सौ नेत्रों से ऋषियों की ओर देखूँगी।

अत: मनुष्य शताक्षी नाम से मेरा कीर्तन करेगें। उसी समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न हुए प्राणों की रक्षा करने वाले शाकों द्वारा सब प्राणियो का पालन करूँगी और तब इस पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से विख्यात होऊँगी और इसी अवतार में मैं दुर्ग नामक महा असुर का वध करूँगी और इससे मैं दुर्गा देवी के नाम से प्रसिद्ध होऊँगी। इसके पश्चात जब मैं भयानक रूप धारण कर के हिमालय निवासी ऋषियों महर्षियों की रक्षा करूँगी तब भीमा देवी के नाम से मेरी ख्याति होगी और जब फिर अरुण नामक असुर तीनों लोकों को पीड़ित करेगा तब मैं असंख्य भ्रमरों का रूप धारण कर के उस महा दैत्य का वध करूँगी तब स्वर्ग में देवता और मृत्युलोक में मनुष्य मेरी स्तुति करते हुए मुझे भ्रामरी नाम से पुकारेगें। इस प्रकार जब-जब पृथ्वी राक्षसों से पीड़ित होगी तब-तब मैं अवतरित होकर शत्रुओं का नाश करूँगी।

 

बारहवाँ अध्याय – 

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(देवी के चरित्रों के पाठ का माहात्म्य)

देवी बोली-हे देवताओं! जो पुरुष इन स्तोत्रों द्वारा एकाग्रचित्त होकर मेरी स्तुति करेगा उसके सम्पूर्ण कष्टों को नि:संदेह हर लूँगी। मधुकैटभ के नाश, महिषासुर के वध और शुम्भ तथा निशुम्भ के वध की जो मनुष्य कथा कहेगें, मेरे महात्म्य को अष्टमी, चतुर्दशी व नवमी के दिन एकाग्रचित्त से भक्तिपूर्वक सुनेगें, उनको कभी कोई पाप न रहेगा, पाप से उत्पन्न हुई विपत्ति भी उनको न सताएगी, उनके घर में दरिद्रता न होगी और न उनको प्रियजनों का बिछोह हौ होगा, उनको किसी प्रकार का भय न होगा। इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को भक्तिपूर्वक मेरे इस कल्याणकारक माहात्म्य को सदा पढ़ना और सुनना चाहिए। मेरा यह माहात्म्य महामारी से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण उपद्रवों को एवं तीन प्रकार के उत्पातों को शान्त कर देता है। जिस घर व मंदिर में या जिस स्थान पर मेरा यह स्तोत्र विधि पूर्वक पढ़ा जाता है, उस स्थान का मैं कभी भी त्याग नहीं करती और वहाँ सदा ही मेरा निवास रहता है।

बलिदान, पूजा, होम तथा महोत्सवों में मेरा यह चरित्र उच्चारण करना तथा सुनना चाहिए। ऎसा हवन या पूजन मनुष्य जानकर या बिना जाने करे, मैं उसे तुरन्त ग्रहण कर लेती हूँ और शरद काल में प्रत्येक वर्ष जो महापूजा की जाती है उनमें मनुष्य भक्तिपूर्वक मेरा यह माहात्म्य सुनकर सब विपत्तियों से छूट जाता है और धन, धान्य तथा पुत्रादि से सम्पन्न हो जाता है और मेरे इस माहात्म्य व कथाओं इत्यादि को सुनकर मनुष्य निर्भय हो जाता है और माहात्म्य के श्रवण करने वालों के शत्रु नष्ट हो जाते हैं तथा कल्याण की प्राप्ति है और उनका कुल आनन्दित हो जाता है, सब कष्ट शांत हो जाते हैं तथा भयंकर स्वप्न दिखाई देना तथा घरेलू दु:ख इत्यादि सब मिट जाते हैं। बालग्रहों में ग्रसित बालकों के लिए यह मेरा माहात्म्य परम शान्ति देने वाला है। मनुष्यों में फूट पड़ने पर यह भली भाँति मित्रता करवाने वाला है।

मेरा यह माहात्म्य मनुष्यों को मेरी जैसी सामर्थ्य की प्राप्ति करवाने वाला है। पशु, पुष्प, अर्ध्य, धूप, गन्ध, दीपक इत्यादि सामग्रियो द्वारा पूजन करने से, ब्राह्मण को भोजन करा के हवन कर के प्रतिदिन अभिषेक कर के नाना प्रकार के भोगों को अर्पण कर के और प्रत्येक वर्ष दान इत्यादि कर के जो मेरी आराधना की जाती है और उससे मैं जैसी प्रसन्न हो जाति हूँ, वैसी प्रसन्न मैं इस चरित्र के सुनने से हो जाती हूँ। यह माहात्म्य श्रवण करने पर पापों को हर लेता है तथा आरोग्य प्रदान करता है, मेरे प्रादुर्भाव का कीर्तन दुष्ट प्राणियों से रक्षा करने वाला है, युद्ध में दुष्ट दैत्यों का संहार करने वाला है। इसके सुनने से मनुष्य को शत्रुओं का भय नहीं रहता।

हे देवताओं! तुमने जो मेरी स्तुति की है अथवा ब्रह्माजी ने जो मेरी स्तुति की है, वह मनुष्यों को कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करने वाली है। वन में सूने मार्ग में अथवा दावानल से घिर जाने पर, वन में चोरों से घिरा हुआ या शत्रुओं द्वारा पकड़ा हुआ, जंगल में सिंहों से, व्याघ्रों से या जंगली हाथियों द्वारा पीचा किया हुआ, राजा के क्रुद्ध हो जाने पर मारे जाने के भय से, समुद्र में नाव के डगमगाने पर भयंकर युद्ध में फँसा होने पर, किसी भी प्रकार की पीडा से पीड़ित, घोर बाधाओं से दुखी हुआ मनुष्य, मेरे इस चरित्र को स्मरण करने से संकट से मुक्त हो जाता है।

मेरे प्रभाव से सिंह, चोर या शत्रु इत्यादि दूर भाग जाते हैं और पास नहीं आते। महर्षि ने कहा-प्रचण्ड पराक्रम वाली भगवती चण्डिका यों कहने के पश्चात सब देवताओं के देखते ही देखते अन्तर्धान हो गई और सम्पूर्ण देवता अपने शत्रुओं के मारे जाने पर पहले की तरह यज्ञ भाग का उपभोग करने लगे और उनको अपने अधिकार फिर से प्राप्त हो गये तथा युद्ध में देवताओं के शत्रुओं शुम्भ व निशुम्भ के देवी के हाथों मारे जाने पर बाकी बचे हुए रक्षस पाताल को चले गये। हे राजन्! इस प्रकार भगवती अम्बिका नित्य होती हुई भी बार-बार प्रकट होकर इस जगत का पालन करती है, इसको मोहित करती है, जन्म देती है और प्रार्थना करने पर समृद्धि प्रदान करती है।

हे राजन्! भगवती ही महाप्रलय के समय महामारी का रुप धारण करती है और वही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है और वही भगवती समय-समय पर महाकाली तथा महामारी का रूप बनाती है और स्वयं अजन्मा होती हुई भी सृष्टि के रूप में प्रकट होती है, वह सनातनी देवी प्राणियों का पालन करती है और वही मनुष्य के अभ्युदय के समय घर में लक्ष्मी का रूप बनाकर स्थित हो जाती है तथा अभाव के समय दरिद्रता बनकर विनाश का कारण बन जाती है। पुष्प, धूप और गन्ध आदि से पूजन करके उसकी स्तुति करने से वह धन एवं पुत्र देती है और धर्म में शुभ बुद्धि प्रदान करती है।

 

तेरहवाँ अध्याय 

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(राजा सुरथ और वैश्य को देवी का वरदान)

महर्षि मेधा ने कहा-हे राजन्! इस प्रकार देवी के उत्तम माहात्म्य का वर्णन मैने तुमको सुनाया। जगत को धारण करने वाली इस देवी का ऎसा ही प्रभाव है, वही देवी ज्ञान को देने वाली है और भगवान विष्णु की इस माया के प्रभाव से तुम और यह वैश्य तथा अन्य विवेकीजन मोहित होते हैं और भविष्य में मोहित होगें। हे राजन्! तुम इसी परमेश्वरी की शरण में जाओ। यही भगवती आराधना करने पर मनुष्य को भोग, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करती है। मार्कण्डेयजी ने कहा-महर्षि मेधा की यह बात सुनकर राजा सुरथ ने उन उग्र व्रत वाले ऋषि को प्रणाम किया और राज्य के छिन जाने के कारण उसके मन में अत्यन्त ग्लानि हुई और वह राजा तथा वैश्य तपस्या के लिये वन को चले गये और नदी के तट पर आसन लगाकर भगवती के दर्शनों के लिये तपस्या करने लगे।

दोनों ने नदी के तट पर देवी की मूर्ति बनाई और पुष्प, धूप, दीप तथा हवन द्वारा उसका पूजन करने लगे। पहले उन्होंने आहार को कम कर दिया। फिर बिलकुल निराहार रहकर भगवती में मन लगाकर एकाग्रतापूर्वक उसकी आराधना करने लगे। वह दोनों अपने शरीर के रक्त से देवी को बलि देते हुए तीन वर्ष तक लगातार भगवती की आराधना करते रहे। तीन वर्ष के पश्चात जगत का पालन करने वाली चण्डिका ने उनको प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा, देवी बोली-हे राजन्! तथा अपने कुल को प्रसन्न करने वाले वैश्य! तुम जिस वर की इच्छा रखते हो वह मुझसे माँगो, वह वर मैं तुमको दूँगी क्योंकि मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।

मार्कण्डेय जी कहते हैं-यह सुन राजा ने अगले जन्म में नष्ट न होने वाला अखण्ड राज्य और इस जन्म में बलपूर्वक अपने शत्रुओं को नष्ट करने के पश्चात अपना पुन: राज्य प्राप्त करने के लिये भगवती से वरदान माँगा और वैश्य ने भी जिसका चित्त संसार की ओर से विरक्त हो चुका था, भगवती से अपनी ममता तथा अहंकार रूप आसक्ति को नष्ट कर देने वाले ज्ञान को देने के लिए कहा। देवी ने कहा-हे राजन्! तुम शीघ्र ही अपने शत्रुओं को मारकर पुन: अपना राज्य प्राप्त कर लोगे, तुम्हारा राज्य स्थिर रहने वाला होगा फिर मृत्यु के पश्चात आप सूर्यदेव के अंश से जन्म लेकर सावर्णिक मनु के नाम से इस पृथ्वी पर ख्याति को प्राप्त होगें।

हे वैश्य! कुल में श्रेष्ठ आपने जो मुझसे वर माँगा है वह आपको देती हूँ, आपको मोक्ष को देने वाले ज्ञान की प्राप्ति होगी। मार्कण्डेय जी कहते हैं-इस प्रकार उन दोनों को मनोवांछित वर प्रदान कर तथा उनसे अपनी स्तुति सुनकर भगवती अन्तर्धान हो गई और इस प्रकार क्षत्रियों में श्रेष्ठ वह राजा सुरथ भगवान सूर्यदेव से जन्म लेकर इस पृथ्वी पर सावर्णिक मनु के नाम से विख्यात हुए।  

श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ के बाद “सिद्धकुंजिका स्तोत्र” का पाठ अवश्य करना चाहिए, इससे सभी मनोरथ पूरे होते हैं.