मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

श्री मद् देवी भागवत महापुराण :--दसवां अध्याय 🏵️ आचार्य डा.अजय दीक्षित

🍁 जगत जननी नमस्तुभ्यं 🍁
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         श्री मद् देवी भागवत महापुराण:---दसवां अध्याय
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                    ।। आचार्य डा.अजय दीक्षित ।।
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                          ओम् गं गणपतये नमः

इस अध्याय में सती के यज्ञकुण्ड में प्रवेश का समाचार सुनकर भगवान शंकर का शोक से विह्वल होना, उनके तृतीय नेत्र की अग्नि से वीरभद्र का प्राकट्य, वीरभद्र द्वारा दक्ष का यज्ञ-विध्वंस कर उनका सिर काटना, ब्रह्माजी का भगवान शंकर से यज्ञ पूर्ण करने की प्रार्थना करना, भगवान शंकर की कृपा से दक्ष का जीवित होना, है ।

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श्रीमहादेव जी बोले – इसके बाद ब्रह्माजी के पुत्र मुनिश्रेष्ठ नारदजी ने वहाँ (कैलास पर) आकर देवाधिदेव त्रिलोचन शिवजी से अश्रुपूरित नेत्रों से कहा – देवदेव! आपको नमस्कार है. महेश्वर ! मैं नारद दक्षप्रजापति के घर से आया हूँ. आपने यह समाचार सुना है या नहीं कि आपकी प्राणप्रिया सती दक्षप्रजापति के यज्ञ में गयी हुई थीं. वहाँ आपकी निन्दा सुनकर उन्होंने क्रोधित होकर अपना देह त्याग दिया. दक्ष “सती”, “सती” ऎसा बार-बार आक्षेप करके पुन: करके पुन: यज्ञ करने में लग गए और देवगण आहुति ग्रहण करने लगे।।1-4।।

नारद के मुख से यह महान कष्टकारी बात सुनकर तीन नेत्रों वाले देवाधिदेव शिव ने शोकाकुल होकर बहुत तरह से विलाप किया. हा सती ! मुझे शोकसागर में छोड़कर तुम कहाँ चली गई हो? अब मैं तुम्हारे बिना कैसे जीवित रहूँगा? पिता के घर जाने के लिए मैंने तुम्हें अनेक तरह से रोका था, शिवे! क्या उसी से रुष्ट होकर तुम मेरा परित्याग करके चली गई! ।।5-7।।

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 महामुने ! इस प्रकार बहुत तरह से विलाप कर लाल-लाल नेत्रों तथा मुखवाले त्रिलोचन महादेव अत्यन्त कुपित हो उठे।।8।। भगवान रुद्र को कोपाविष्ट देखकर सभी प्राणी भयभीत हो गए, सारा जगत अत्यधिक विक्षुब्ध हो उठा और पृथ्वी डोलने लगी।।9।। 

उनके ऊर्ध्व नेत्र से अत्यन्त तेजस्वी अग्नि प्रादुर्भूत हुई और उस अग्नि से एक परम पुरुष उत्पन्न हुआ. विशाल विग्रह धारण करते हुए वह कालान्तक यमराज के समान प्रतीत हो रहा था और प्रज्वलित अग्नि के स्फुलिंगों की आभावाले तीन भयानक नेत्रों से युक्त था. वह अपने समस्त अंगों में विभूति धारण किए हुए था, अपने ललाट पर उसने अर्धचन्द्रमा को मुकुट की भाँति धारण कर रखा था और मध्यान्हकालीन करोड़ों सूर्यों की आभा तथा जटाजूट से उसका मस्तक सुशोभित हो रहा था।।10-12।।

देवाधिदेव महेश्वर महादेव को प्रणाम करके तथा तीन बार उनकी प्रदक्षिणा कर उसने दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहा – पिताजी ! मैं क्या करूँ? यदि आप मुझे आज्ञा प्रदान करें तो अभी आधे क्षण में इस चराचर ब्रह्माण्ड को नष्ट कर डालूँ. क्या इन्द्र आदि श्रेष्ठ देवताओं को उनके बाल पकड़कर आपके सामने ला दूँ? विभो ! यदि आप कहें तो यमराज को भी मार डालूँ. महेशान! यह मेरी प्रतिज्ञा है मैं आपसे यह सच-सच कह रहा हूँ. जिसके शमन के लिए आप मुझसे इस समय कहेंगे मैं उसका शमन कर दूँगा. चाहे वह सुरश्रेष्ठ इन्द्र ही क्यों ना हो. यदि वैकुण्ठनाथ विष्णु भी उसकी सहायता करने लगेंगे तो मैं आपकी आज्ञा से उन्हें भी कुण्ठित अस्त्रवाला कर दूँगा।।13-17½।।

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शिवजी बोले – तुम्हारा नाम वीरभद्र है और तुम प्रमथगणों के अधिपति हो. मेरी आज्ञा से दक्ष के नगर में जाकर तुम शीघ्र ही उनके यज्ञ को नष्ट कर डालो. वत्स ! मेरा परित्याग करके जो देवतागण वहाँ गए हैं और उस दक्ष की सहायता कर रहे हैं, मेरी आज्ञा से तुम उनका भी निग्रह करो. मेरी निन्दा करने में संलग्न दक्षप्रजापति का भी मुख काट डालो. पुत्र ! वहाँ शीघ्र जाओ, विलम्ब मत करो।।18-20½।।

वीरभद्र से ऎसा कहकर त्रिनेत्रधारी महादेव शिव ने लम्बी साँसें छोड़ी, उनसे हजारों शिवगण उत्पन्न हो गए. वे सब के सब भयंकर कर्म करने वाले तथा युद्धविद्या में पूर्ण पारंगत थे. वे अपने हाथों में गदा, खड्ग, मूसल, प्रास, त्रिशूल तथा पाषाण आदि अस्त्र लिए हुए थे।।21-22½।। 

उन गणों से घिरे हुए महामति वीरभद्र परमेश्वर शिव को प्रणाम कर तथा तीन बार उनकी प्रदक्षिणा करके वहाँ से चल पड़े।।23½।। 

तत्पश्चात वे सभी प्रमथगण सिंहनाद करते हुए क्षणभर में ही दक्षपुरी पहुँच गए, जहाँ उसका यज्ञ चल रहा था।।24½।।

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 इसके बाद क्रोधयुक्त वीरभद्र ने कोपाविष्ट प्रमथगणों से कहा – शीघ्र ही यज्ञ का नाश कर दो और देवताओं को भगा दो।।25½।।

 उसके बाद उन प्रमथगणों ने उस महायज्ञ का विध्वंस कर डाला. कुछ गणों ने यज्ञ के खम्भे उखाड़कर उन्हें दसों दिशाओं में फेंक दिया, किसी ने यज्ञकुण्ड की अग्नि बुझा दी तथा अन्य गण हव्य खाने लगे और क्रोध से लाल-लाल आँखों वाले कुछ गण देवताओं को खदेड़ने लगे।।26-27½।। 

इस प्रकार उन भयानक रूपवाले प्रमथगणों के द्वारा ध्वस्त किये गये यज्ञ को देखकर विष्णु ने वहाँ आकर प्रमथगणों से यह वचन कहा – तुम लोगों ने यज्ञ को क्यों नष्ट किया और देवताओं को क्यों भगा दिया? तुम लोग कौन हो? इन सभी बातों को बताओं, देर मत करो।।28-29½।। 

प्रमथों ने कहा – प्रभो! हम लोग देवाधिदेव शिव के द्वारा भेजे गए प्रमथगण हैं. हम शिव को अपमानित करने वाले इस महायज्ञ को नष्ट कर रहे हैं।।30½।।

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 इसी बीच प्रतापशाली वीरभद्र ने क्रोध में आकर प्रमथगणों से कहा – शिव के प्रति द्वेषभाव रखने वाला वह दुराचारी दक्ष कहाँ है? इन सभी को पकड़कर मेरे सामने ले आओ।।31-32।।

 इस प्रकार आदेश पाकर प्रमथगण क्रोधित होकर दसों दिशाओं में दौड़ पड़े. वे क्रोधाभिभूत होकर सभी देवताओं को पकड़-पकड़कर रौंदने लगे. कुछ गणों ने सूर्य को पकड़कर उनके दाँतों को चूर-चूर कर दिया और किसी गण ने अग्निदेव को बलपूर्वक पकड़कर उनकी जीभ काट ली. किसी ने भय के मारे भागते हुए मृगरूपधारी यज्ञपुरुष का सिर काट लिया और किसी ने देवी सरस्वती की नाक काट ली ।

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किसी गण ने अर्यमा की दोनों भुजाएँ काट डालीं तो दूसरे गण ने अंगिरा ऋषि का ओष्ठ ही काट लिया. किसी गण ने यम, नैऋत तथा वरुणदेव को बाँध लिया।।33-36।। 

ब्राह्मणों को देखकर उन्हें विनयपूर्वक प्रणाम करके प्रमथगणों ने कहा – विप्रगण! आप लोग भय का त्याग कर दीजिए और यहाँ से चले जाइए. उसे सुनते ही सभी ब्राह्मण यज्ञ में प्राप्त वस्त्र, अलंकार आदि लेकर अपने-अपने घर चले गए।।37-38।। 

परम बुद्धिमान इन्द्र ने मोर का रूप धारण कर लिया और उड़कर पर्वत पर जा करके वे छिपकर यह सब कौतुक देखने लगे।।39।। 

इस प्रकार प्रमथगणों के द्वारा भगा दिए गए, श्रेष्ठ देवताओं को देखकर नारायण विष्णु मौन होकर मन-ही-मन सोचने लगे – यह मूर्खबुद्धि दक्ष शिव से विद्वेष करते हुए यज्ञ कर रहा है. तब यदि उसे वैसा फल नहीं मिलता तो वेदवचन ही निरर्थक हो जाता. शिव के प्रति दक्ष का विद्वेष होने से नि:संदेह मेरे प्रति भी उसका द्वेषभाव ही हुआ, क्योंकि मैं ही शिव हूँ और शिव ही विष्णु हैं. इस प्रकार हम दोनों में कोई भेद नहीं है।।40-42।। 

मैं दक्ष के द्वारा इस विष्णुरूप से विशेषरूप से प्रार्थित हुआ और महादेव के रूप में निन्दित भी मैं ही हुआ हूँ. इसका भी दो प्रकार का भाव है. यह कर्म तथा मन से दो तरह का भाव रखता है. अत: मैं भी अब वही करूँगा. मैं विष्णुरूप से रक्षक और शिवरूप से संहारक बनूँगा. इस प्रकार स्नेहमिश्रित युद्ध करके और फिर उसमें पराजित होकर स्वयं रूद्ररूप से उस दक्ष का शमन भी करूँगा, इसमें संदेह नहीं है. इसके बाद मैं देवताओं को साथ लेकर यज्ञ पूर्ण करूँगा, यही विष्णु की आराधना का फल कहा गया है।।43-46½।। 

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इस प्रकार मन में निश्चय करके शंख, चक्र तथा गदा धारण करने वाले भगवान विष्णु ने प्रमथगणों को रोक दिया और वे सिंहनाद करने लगे।।47½।।

 इसके बाद वीरभद्र ने क्रोधित होकर सनातन विष्णु से कहा – विष्णो! आप ही यज्ञापति हैं – ऎसा श्रुतियाँ कहती हैं. इस महायज्ञ में शिव की निन्दा करने वाला वह दुराचारी दक्ष कहाँ है? उसे आप स्वयं लाकर मेरे हवाले कर दीजिए, नहीं तो आप मेरे साथ युद्ध कीजिए. प्राय: विशिष्ट शिवभक्तों में आप अग्रणी हैं और आप ही शिव के प्रति द्वेषभाव रखनेवालों के हित के लिए तत्पर भी दिखाई दे रहे हैं।।48-50½।।

तत्पश्चात विष्णु ने मुस्कुराकर कहा – मैं तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा. मुझे युद्ध में पराजित कर दक्ष को ले जाओ, मैं भी तुम्हारा पराक्रम देखता हूँ।।51½।। 

इतना कहकर विष्णु ने धनुष उठाया और चारों ओर बाणों का जाल-सा फैला दिया. उन बाणों से क्षणभर में ही प्रमथगणों के सभी अंग क्षत-विक्षत हो गए. सैकड़ों गण रक्त का वमन करने लगे और हजारों बेहोश हो गए।।52-53।। 

उसके बाद उस वीरभद्र ने भी विष्णु को लक्ष्य करके गदा चलायी. उनके शरीर का स्पर्श करते ही उस गदा के सैकड़ों खण्ड हो गए. तब विष्णु ने भी रोष में आकर वीरभद्र की ओर गदा चलायी. महामुने ! वह गदा भी उसके पास आते ही उसी तरह सौ टुकड़ों में हो गयी. तदनन्तर क्रोध से दीप्त नेत्रों वाले अनन्तात्मा विष्णु ने क्षण भर में ही लौहमयी एक दूसरी गदा उठा ली. तत्पश्चात खट्वांग लेकर वीरभद्र ने उन गदाधर विष्णु के बाहुदण्ड पर प्रहार करके उनकी गदा भूमि पर गिरा दी. 

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इससे अत्यन्त कुपित विष्णु ने अपने तेज से प्रज्वलित महाभयंकर सुदर्शन चक्र को उस वीरभद्र के ऊपर चला दिया. मुने! उसे देखकर वीरभद्र ने भी मन में भगवान शिव का स्मरण किया. उससे वीरभद्र के कण्ठ तक पहुँचा हुआ वह चक्र माला की भाँति सुशोभित होने लगा।।54-59।। 

तत्पश्चात युद्ध में भगवान विष्णु ने क्रुद्ध होकर सैकड़ों सूर्यों की भाँति कान्तिवाला खड्ग ले लिया और वे वीरभद्र को मारने के लिए दौड़े. तब विशाल भुजाओं वाले प्रतापी वीरभद्र ने उसी क्षण अपने हुंकार मात्र से खड्ग तथा उन विष्णु – दोनों को स्तम्भित कर दिया. उसके बाद क्रोधोन्मत्त वह वीरभद्र स्तंभित हुए उन विष्णु को मारने के लिए शूल तथा मुद्गर उठाकर उनकी ओर झपटा।।60-62।।

 उसी बीच यह आकाशवाणी हुई – “वीरभद्र! रुक जाओ! युद्ध में इस तरह से क्रोध को प्राप्त होकर क्या तुम अपने को भूल गये हो. जो विष्णु हैं, वे ही महादेव हैं और जो शिव हैं वे ही स्वयं विष्णु हैं. इन दोनों में कभी कहीं कोई भी अन्तर नहीं है”।।63-64।। 

यह सुनकर महामति वीरभद्र ने शिवस्वरुप विष्णु को नमस्कार कर “दक्ष के केश पकड़कर” यह वचन कहा – प्रजापते! तुमने जिस मुख से परम पुरुष देवेश्वर शिव की निन्दा की है, अब मैं उसी मुख पर प्रहार करता हूँ।।65-66।।

 ऎसा कहकर क्रोध से अत्यन्त लाल नेत्रों वाले वीरभद्र ने दक्ष के मुख पर बार-बार प्रहार करके अपने नख के अग्रभाग से उसे काट डाला. साथ ही जो लोग महादेव जी की निन्दा सुनकर हर्षित हुए थे, प्रमथाधिपति वीरभद्र ने उनकी भी जीभ तथा कान काट डाले।।67-68।। 

इस प्रकार यज्ञ के विनष्ट हो जाने पर ब्रह्माजी कैलास पर्वत पर गये और भगवान शिव को प्रणाम करके यज्ञविधान के लोप की बात कहने लगे।।69।। 

ब्रह्माजी ने महादेव जी से कहा – आप ऎसा क्यों कर रहे हैं? जगन्माता ब्रह्मस्वरूपिणी सती तो सनातन हैं. उनका देहग्रहण और जन्म लेना तो भ्रान्तिपूर्ण और विडम्बना मात्र है. वे तो जगद्व्यापिनी महामाया हैं. उन्होंने ही दक्ष को मोहित करने के लिए यज्ञकुण्ड के पास छायासती को स्थापित कर दिया था. दक्षप्रजापति को मोहित करने के उद्देश्य से वही छाया यज्ञाग्नि में प्रवेश कर गयी और परा प्रकृति भगवती स्वयं आकाश में विराजमान हो गयीं. क्या उस रहस्य को आप नहीं जानते हैं? फिर ऎसा क्यों कर रहे हैं?।।70-73।।

देवदेवेश ! आइये और अपने शरणागतों पर कृपा कीजिए. आप तो विधि का संरक्षण करने वाले हैं, अत: विधि का लोप मत कीजिए. हम लोगों के साथ वहाँ यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात परमेशानी सती की विधिवत प्रार्थना करके आप उन्हें पुन: अवश्य ही देखेंगे. महादेव ! अब आप दक्षप्रजापति के घर चलिए. भगवन् ! मुझ पर अनुग्रह कीजिए, आपको अन्यथा नहीं करना चाहिए।।74-76।। 

उनकी यह बात सुनकर शिवजी दक्षप्रजापति के घर गये. वहाँ शिव को आया देखकर वीरभद्र ने उन्हें प्रणाम किया।।77।। उसके बाद भगवान शिव की प्रार्थना कर के ब्रह्माजी ने उनसे पुन: आदरपूर्वक कहा – महेशान! अब आप आज्ञा दीजिए, जिससे यज्ञ पुन: आरंभ हो सके।।78।।

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तब शिवजी ने उत्सुक वीरभद्र को आज्ञा दी – वीरभद्र ! क्रोध छोड़ो और यज्ञ की सारी व्यवस्था फिर से कर दो।।79।।

 महादेव से आज्ञा प्राप्त करके वीरभद्र ने उसी क्षण पूर्व की भाँति यज्ञ को व्यवस्थित कर दिया और सभी देवताओं को बन्धनमुक्त कर दिया।।80।। 

उसके बाद ब्रह्माजी ने देवाधिदेव त्रिलोचन शिव से फिर कहा – परमेश्वर ! अब दक्ष को जीवित करने के लिए आज्ञा प्रदान कीजिए।।81।। 

उन ब्रह्मा की वह बात सुनते ही भगवान शंकर ने कहा – वीरभद्र ! महाबाहु ! दक्ष को अब अवश्य ही जीवित कर दो।।82।। 

देवाधिदेव शंकर का वचन सुनकर बुद्धिमान उस वीरभद्र ने एक बकरे का सिर जोड़कर दक्षप्रजापति को जीवित कर दिया।।83।।

 जो लोग ईश्वर की निन्दा करते हैं, वे निश्चय ही गूँगे पशु हैं. मुने ! ऎसा विचार करके वीरभद्र ने दक्ष को बकरे का सिर जोड़ा था।।84।।

 ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर सभी देवादि भयमुक्त होकर पुन: आ गये. दक्षप्रजापति ने महेश्वर को आहुति देकर यज्ञ का समापन किया।।85।।

 उसके बाद ब्रह्मा तथा विष्णु ने दक्षप्रजापति से कहा – अनेक स्तुतियों के द्वारा आदरपूर्वक शिव की आराधना कीजिए. बहुत दिनों तक देवेश्वर शिव की निन्दा करके आपने जो पाप अर्जित किया है, उससे मुक्ति की इच्छा रखते हुए आप सनातन भगवान शिव की स्तुति कीजिए. ये भगवान शिव स्वभाव से ही आशुतोष हैं और शिव नाम लेने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं. आपके प्रति इनकी अप्रसन्नता तब नहीं रहेगी।।86-88।।

 उन दोनों की यह बात सुनकर दक्ष ने शाश्वत परमेश्वर महादेव को प्रणाम किया और उनका स्तवन करना आरम्भ किया।।89।।

दक्ष बोले – आपको तत्त्वत: न तो विष्णु, न ब्रह्मा और न मुख्य योगीगण ही जान पाते हैं. अत: दुर्बुद्धि मैं आपके उस दुर्गम्य स्वरूप को जानने में कैसे समर्थ होता? आप ही सबके बुद्धितत्व हैं. आपकी इच्छा के अधीन ही ये सभी लोक हैं. तब आपकी इच्छा के वशीभूत मेरे द्वारा आपकी निन्दा करने से मेरा कैसा अपराध हुआ?।।90।। 

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आप शुद्ध परम परात्पर तत्त्व हैं तथा ब्रह्मा आदि देवताओं के द्वारा पूजित हैं. मैं आपके महान चरित्र तथा स्वरुप का वर्णन कैसे करूँ? मैं आपकी शरण में आया हुआ दास हूँ. आपका चरणयुगल छोड़कर मेरे लिए दूसरा अवलम्ब ही क्या है? शम्भो ! आप मेरे उस अपराध को क्षमा कीजिए और अपने कृपागुणों से पापरूपी सागर से मेरा उद्धार कीजिए।।91।।

 पशुपते ! आप भगवान परमेश्वर हैं. इस जगत में जो भी निर्बल अथवा महान लोग हैं, वे सब आपके ही रूप हैं, क्योंकि आप विश्वरुप हैं. उस आप परमेश्वर के विद्यमान रहते मेरे द्वारा की गयी निन्दा से उत्पन्न पाप भला कैसे रह सकता है? विश्वेश्वर ! कृपापूर्वक मुझ शरणागत तथा दीन की रक्षा कीजिए।।92।।

आपके चरण कमल पराग को अपने सिर पर धारण करके ही ब्रह्मा तथा विष्णु समस्त देवताओं के द्वारा वन्दित चरण वाले हो पाए हैं. इस सभा में आये हुए आप सुरेश्वर को जो मैं अपने नेत्र से देख पा रहा हूँ, वह तो मेरे पूर्वजों का अतुलनीय भाग्य है।।93।। 

इस जगत में सभी देहधारियों में कुबुद्धि तथा सुबुद्धि के रूप में आप ही हैं. आप ही सबकी निन्दा तथा वन्दन के पात्र हैं, अत: मेरा कोई अपराध नहीं है।।94।। 

दक्ष के इस प्रकार प्रार्थना करने पर आशुतोष दयासिन्धु भगवान शिव ने अपने दोनों हाथों से उन्हें खींचकर उठा लिया।।95।।

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शिव के अंग के स्पर्शमात्र से ही दक्षप्रजापति कृतकृत्य हो गये और अपने को जीवन्मुक्त के समान तथा महान भाग्यशाली समझने लगे।।96।।

 मन, वाणी तथा शरीर से परम भक्ति से संपन्न होकर दक्षप्रजापति ने अनेकविध उपहारों द्वारा शंकर का अभुत सत्कार किया।।97।। 

उसके बाद ब्रह्माजी ने महादेव जी से पुन: भक्तिपूर्वक कहा – परमेश्वर ! एकमात्र आप भगवान सदाशिव ही भक्तों पर अनुकम्पा करने वाले हैं, क्योंकि आपने अनुग्रहपूर्वक मेरी प्रार्थना सुनकर दक्षप्रजापति की रक्षा की. आपको छोड़कर यदि देवतागण कहीं भी यज्ञ में जाएँगे तो वे उसी क्षण निश्चय ही पूर्वोक्त दशा को प्राप्त होंगे. जो नराधम यज्ञ में आपके बिना अन्य देवताओं का यजन करेंगे, उनका यज्ञकार्य नष्ट हो जाएगा और वे महापाप के भागी होंगे।।98-101।।

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।।इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में “दक्षयज्ञविध्वंसवर्णन” नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।  

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁जय सियाराम जय जय हनुमान

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आचार्य डा.अजय दीक्षित

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