: गोचर ग्रहों का फल : अष्टक वर्ग
एवं गोचर:
ज्योतिष सीखें : गोचर ग्रहों का फल : अष्टक वर्ग
एवं गोचर:
गोचर
गोचर शब्द "गम" धातु से बना है, जिसका अर्थ है "चलने वाला"।
"चर" शब्द का अर्थ है "गतिमय होना"। इस प्रकार "गोचर" का
अर्थ हुआ-"निरन्तर चलने वाला"।
ब्रह्माण में स्थित ग्रह अपनी-अपनी
धुरी पर अपनी गति से निरन्तर भ्रमण
करते रहते हैं। इस भ्रमण के दौरान वे एक राशि से
दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं। ग्रहों के इस प्रकार
राशि परिवर्तन करने के उपरांत दूसरी राशि में
उनकी स्थिति को ही "गोचर" कहा जाता
है। प्रत्येक ग्रह का जातक की जन्मराशि से विभिन्न
भावों "गोचर" भावानुसार शुभ-अशुभ फल देता है।
भ्रमण काल-
सूर्य,शुक्र,बुध का भ्रमण काल १ माह, चंद्र का सवा दो दिन, मंगल
का ५७ दिन, गुरू का १ वर्ष,राहु-केतु का डेढ़ वर्ष व शनि का भ्रमण
का ढ़ाई वर्ष होता है अर्थात ये ग्रह इतने समय में एक राशि में
रहते हैं तत्पश्चात ये अपनी राशि-परिवर्तन करते
हैं।
विभिन्न ग्रहों का "गोचर" अनुसार फल- १. सूर्य-
सूर्य जन्मकालीन राशि से ३,६,१० और ११ वें भाव में
शुभ फल देता है। शेष भावों में सूर्य का फल अशुभ देता है।
२. चंद्र-
चंद्र जन्मकालीन राशि से १,३,६,७,१०,व ११ भाव में
शुभ तथा ४, ८, १२ वें भाव में अशुभ फल देता है।
३. मंगल-
मंगल जन्मकालीन राशि से ३,६,११ भाव में शुभ फल
देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
४. बुध-
बुध जन्मकालीन राशि से २,४,६,८,१० और ११ वें भाव
में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
५. गुरू-
गुरू जन्मकालीन राशि से २,५,७,९ और ११ वें भाव में
शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
६. शुक्र-
शुक्र जन्मकालीन राशि से १,२,३,४,५,८,९,११ और १२
वें भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
७. शनि-
शनि जन्मकालीन राशि से ३,६,११ भाव में शुभ फल देता
है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
८. राहु-
राहु जन्मकालीन राशि से ३,६,११ वें भाव में शुभ फल
देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
९. केतु-
केतु जन्मकालीन राशि से १,२,३,४,५,७,९ और ११ वें
भाव में शुभ फल देता है। शेष भावों में अशुभ फल देता है।
प्रस्तुतकर्ता Hemant Richhariya
गोचर ग्रहों का फल –
ज्योतिष अमरेन्द्र गौर
गोचर ग्रहों का जातक पर फल
गोचर ग्रहों से यह मतलब होता है की वर्तमान में
आसमान में ग्रह किन राशियों में भ्रमण कर रहे है. गोचर ग्रहों
का अध्ययन जातक की चन्द्र राशि से किया जाता है .
गोचर ग्रहों का जातक के वर्तमान जीवन में सबसे
ज्यादा प्रभाव पड़ता है .यदि गोचर मे सूर्य जनम राशी
से इन भावो में हो तो इसका फल इस प्रकार होता है .
प्रथम भाव में – इस भाव में होने पर रक्त में कमी
की सम्भावना होती है . इसके अलावा
गुस्सा आता है पेट में रोग और कब्ज़ की
परेशानी आने लगती है . नेत्र रोग ,
हृदय रोग ,मानसिक अशांति ,थकान और सर्दी
गर्मी से पित का प्रकोप होने लगता है .इसके आलवा
फालतू का घूमना , बेकार का परिश्रम , कार्य में बाधा ,विलम्ब ,भोजन
का समय में न मिलना , धन की हानि , सम्मान में
कमी होने लगती है परिवार से दूरियां बनने
लगती है .
द्वितीय भाव में – इस भाव में सूर्य के आने से धन
की हानि ,उदासी ,सुख में कमी
, असफ़लत अ, धोका .नेत्र विकार , मित्रो से विरोध , सिरदर्द , व्यापार
में नुकसान होने लगता है .
तृतीय भाव में – इस भाव में सूर्य के फल अच्छे होते
है .यहाँ जब सूर्य होता है तो सभी प्रकार के लाभ
मिलते है . धन , पुत्र ,दोस्त और उच्चाधिकारियों से अधिक लाभ
मिलता है . जमीन का भी फायदा होता है .
आरोग्य और प्रसस्नता मिलती है . शत्रु हारते हैं .
समाज में सम्मान प्राप्त होता है .
चतुर्थ भाव – इस भाव में सूर्य के होने से ज़मीन
सम्बन्धी , माता से , यात्रा से और पत्नी से
समस्या आती है . रोग , मानसिक अशांति और मानहानि
के कष्ट आने लगते हैं .
पंचम भाव – इस भाव में भी सूर्य परेशान करता है
.पुत्र को परेशानी , उच्चाधिकारियों से हानि और रोग व्
शत्रु उभरने लगते है .
६ ठे भाव में – इस भाव में सूर्य शुभ होता है . इस भाव में सूर्य
के आने पर रोग ,शत्रु ,परेशानियां शोक आदि दूर भाग जाते हैं .
सप्तम भाव में – इस भाव में सूर्य यात्रा ,पेट रोग ,
दीनता , वैवाहिक जीवन के कष्ट देता है
स्त्री – पुत्र बीमारी से
परेशान हो जाते हैं .पेट व् सिरदर्द की समस्या आ
जाती है . धन व् मान में कमी आ
जाती है .
अष्टम भाव में – इस में सूर्य बवासीर ,
पत्नी से परेशानी , रोग भय , ज्वर , राज
भय , अपच की समस्या पैदा करता है .
नवम भाव में – इसमें दीनता ,रोग ,धन हानि , आपति ,
बाधा , झूंठा आरोप , मित्रो व् बन्धुओं से विरोध का सामना करन पड़ता
है .
दशम भाव में – इस भाव में सफलता , विजय , सिद्धि , पदोन्नति ,
मान , गौरव , धन , आरोग्य , अच्छे मित्र की प्राप्ति
होती है .
एकादश भाव में – इस भाव में विजय , स्थान लाभ , सत्कार , पूजा ,
वैभव ,रोगनाश ,पदोन्नति , वैभव पितृ लाभ . घर में मांगलिक कार्य
संपन्न होते हैं .
द्वादश भाव में – इस भाव में सूर्य शुभ होता है
.सदाचारी बनता है , सफलता दिलाता है अच्छे कार्यो के
लिए , लेकिन पेट , नेत्र रोग , और मित्र भी शत्रु बन
जाते हैं .
चन्द्र की गोचर भाव के फल
प्रथम भाव में – जब चन्द्र प्रथम भाव में होता है तो जातक को
सुख , समागम , आनंद व् निरोगता का लाभ होता है . उत्तम भोजन
,शयन सुख , शुभ वस्त्र की प्राप्ति होती
है .
द्वितीय भाव – इस भाव में जातक के सम्मान और धन
में बाधा आती है .मानसिक तनाव ,परिवार से अनबन ,
नेत्र विकार , भोजन में गड़बड़ी हो जाती
है . विद्या की हानि , पाप कर्मी और हर
काम में असफलता मिलने लगती है .
तृतीय भाव में – इस भाव में चन्द्र शुभ होता है .धन
, परिवार ,वस्त्र , निरोग , विजय की प्राप्ति
शत्रुजीत मन खुश रहता है , बंधु लाभ , भाग्य वृद्धि
,और हर तरह की सफलता मिलती है .
चतुर्थ भाव में – इस भाव में शंका , अविश्वास , चंचल मन , भोजन
और नींद में बाधा आती है
.स्त्री सुख में कमी , जनता से अपयश
मिलता है , छाती में विकार , जल से भय होता है .
पंचम भाव में – इस भाव में दीनता , रोग ,यात्रा में हानि ,
अशांत , जलोदर , कामुकता की अधिकता और मंत्रणा
शक्ति में न्यूनता आ जाती है .
सिक्स्थ भाव में – इस भाव में धन व् सुख लाभ मिलता है . शत्रु
पर जीत मिलती है .निरोय्गता ,यश आनंद ,
महिला से लाभ मिलता है .
सप्तम भाव में – इस भाव में वाहन की प्राप्ति
होती है. सम्मान , सत्कार ,धन , अच्छा भोजन ,
आराम काम सुख , छोटी लाभ प्रद यात्रायें , व्यापर में
लाभ और यश मिलता है .
अष्टम भाव में – इस भाव में जातक को भय , खांसी ,
अपच . छाती में रोग , स्वांस रोग , विवाद ,मानसिक
कलह , धन नाश और आकस्मिक परेशानी
आती है.
नवम भाव में – बंधन , मन की चंचलता , पेट रोग ,पुत्र
से मतभेद , व्यापार हानि , भाग्य में अवरोध , राज्य से हानि
होती है .
दशम भाव में – इस में सफलता मिलती है . हर काम
आसानी से होता है . धन , सम्मान , उच्चाधिकारियों से
लाभ मिलता है . घर का सुख मिलता है .पद लाभ मिलता है .
आज्ञा देने का सामर्थ्य आ जाता है .
एकादश भाव में – इस भाव में धन लाभ , धन संग्रह , मित्र
समागम , प्रसन्नता , व्यापार लाभ , पुत्र से लाभ ,
स्त्री सुख , तरल पदार्थ और स्त्री से
लाभ मिलता है .
द्वादस भाव में – इस भाव में धन हानि ,अपघात ,
शारीरिक हानियां होती है .
मंगल ग्रह का प्रभाव गोचर में इस प्रकार से होता है.प्रथम भाव
में जब मंगल आता है .तो रोग्दायक हो कर बवासीर
,रक्त विकार ,ज्वर , घाव , अग्नि से डर , ज़हर और अस्त्र से
हानि देता है.
द्वतीय भाव में –यहाँ पर मंगल से पित ,अग्नि ,चोर से
खतरा ,राज्य से हानि , कठोर वाणी के कारण हानि ,
कलह और शत्रु से परेशानियाँ आती है .
तृतीय भाव – इस भाव में मंगल के आ जाने से चोरो और
किशोरों के माध्यम से धन की प्राप्ति होती
है शत्रु डर जाते हैं . तर्क शक्ति प्रबल होती है.
धन , वस्त्र , धातु की प्राप्ति होती है .
प्रमुख पद मिलता है .
चतुर्थ भाव में – यहं पर पेट के रोग ,ज्वर , रक्त विकार , शत्रु
पनपते हैं .धन व् वस्तु की कमी होने
लगती है .गलत संगती से हानि होने
लगती है . भूमि विवाद , माँ को कष्ट , मन में भय ,
हिंसा के कारण हानि होने लगती है .
पंचम भाव – यहाँ पर मंगल के कारण शत्रु भय , रोग , क्रोध ,
पुत्र शोक , शत्रु शोक , पाप कर्म होने लगते हैं . पल पल
स्वास्थ्य गिरता रहता है .
छठा भाव – यहाँ पर मंगल शुभ होता है . शत्रु हार जाते हैं .
डर भाग जाता हैं . शांति मिलती है. धन – धातु के लाभ
से लोग जलते रह जाते हैं .
सप्तम भाव – इस भाव में स्त्री से कलह , रोग ,पेट
के रोग , नेत्र विकार होने लगते हैं .
अष्टम भाव में – यहाँ पर धन व् सम्मान में कमी और
रक्तश्राव की संभावना होती है .
नवम भाव – यहाँ पर धन व् धातु हानि , पीड़ा ,
दुर्बलता , धातु क्षय , धीमी
क्रियाशीलता हो जाती हैं.
दशम भाव – यहाँ पर मिलाजुला फल मिलता हैं,
एकादश भाव – यहाँ मंगल शुभ होकर धन प्राप्ति ,प्रमुख पद
दिलाता हैं.
द्वादश भाव – इस भाव में धन हानि , स्त्री से कलह
नेत्र वेदना होती है .
बुध का गोचर में प्रभाव –
प्रथम भाव में – इस भाव में चुगलखोरी अपशब्द ,
कठोर वाणी की आदत के कारण हानि
होती है .कलह बेकार की यात्रायें . और
अहितकारी वचन से हानियाँ होती हैं .
द्वीतीय भाव में – यहाँ पर बुध अपमान
दिलाने के बावजूद धन भी दिलाता है .
तृतीय भाव – यहाँ पर शत्रु और राज्य भय दिलाता है
. ये दुह्कर्म की ओर ले जाता है .यहाँ मित्र
की प्राप्ति भी करवाता है .
चतुर्थ भाव् – यहाँ पर बुध शुभ होकर धन दिलवाता है .अपने
स्वजनों की वृद्धि होती है .
पंचम भाव – इस भाव में मन बैचैन रहता है . पुत्र व्
स्त्री से कलह होती है .
छठा भाव – यहाँ पर बुध अच्छा फल देता हैं. सौभाग्य का उदय
होता है . शत्रु पराजित होते हैं . जातक उन्नतशील
होने लगता है . हर काम में जीत होने लगते हैं
सप्तम भाव – यहं पर स्त्री से कलह होने
लगती हैं .
अष्टम भाव – यहाँ पर बुध पुत्र व् धन लाभ देता है .प्रसन्नता
भी देता है .
नवम – यहाँ पर बुध हर काम में बाधा डालता हैं .
दशम भाव – यहाँ पर बुध लाभ प्रद हैं. शत्रुनाशक ,धन दायक
,स्त्री व् शयन सुख देता है .
एकादश भाव में – यहाँ भी बुध लाभ देता हैं . धन ,
पुत्र , सुख , मित्र ,वाहन , मृदु वाणी प्रदान करता है
.
द्वादश भाव- यहाँ पर रोग ,पराजय और अपमान देता है
गुरु का गोचर प्रभाव- प्रथम भाव में =======
इस भाव में धन नाश ,पदावनति , वृद्धि का नाश , विवाद ,स्थान
परिवर्तन दिलाता हैं .द्वितीय भाव में – यहाँ पर धन व्
विलासता भरा जीवन दिलाता है .
तृतीय भाव में – यहाँ पर काम में बाधा और स्थान
परिवर्तन करता है .
चतुर्थ भाव में – यहाँ पर कलह , चिंता पीड़ा दिलाता
है .
पंचम भाव – यहाँ पर गुरु शुभ होता है .पुत्र , वहां ,पशु सुख ,
घर ,स्त्री , सुंदर वस्त्र आभूषण , की
प्राप्ति करवाता हैं .
छथा भाव में – यहाँ पर दुःख और पत्नी से अनबन
होती है.
सप्तम भाव – सैय्या , रति सुख , धन , सुरुचि भोजन , उपहार ,
वहां .,वाणी , उत्तम वृद्धि करता हैं .
अष्टम भाव – यहाँ बंधन ,व्याधि , पीड़ा , ताप ,शोक ,
यात्रा कष्ट , मृत्युतुल्य परशानियाँ देता है .
नवम भाव में – कुशलता ,प्रमुख पद , पुत्र की
सफलता , धन व् भूमि लाभ , स्त्री की
प्राप्ति होती हंत .
दशम भाव में- स्थान परिवर्तन में हानि , रोग ,धन हानि
एकादश भाव – यहाँ सुभ होता हैं . धन ,आरोग्य और अच्छा
स्थान दिलवाता है .
द्वादश भाव में – यहाँ पर मार्ग भ्रम पैदा करता है .
मंगल ग्रह का प्रभाव गोचर में इस प्रकार से होता है.प्रथम भाव
में जब मंगल आता है .तो रोग्दायक हो कर बवासीर
,रक्त विकार ,ज्वर , घाव , अग्नि से डर , ज़हर और अस्त्र से
हानि देता है.
द्वतीय भाव में –यहाँ पर मंगल से पित ,अग्नि ,चोर से
खतरा ,राज्य से हानि , कठोर वाणी के कारण हानि ,
कलह और शत्रु से परेशानियाँ आती है .
तृतीय भाव – इस भाव में मंगल के आ जाने से चोरो और
किशोरों के माध्यम से धन की प्राप्ति होती
है शत्रु डर जाते हैं . तर्क शक्ति प्रबल होती है.
धन , वस्त्र , धातु की प्राप्ति होती है .
प्रमुख पद मिलता है .
चतुर्थ भाव में – यहं पर पेट के रोग ,ज्वर , रक्त विकार , शत्रु
पनपते हैं .धन व् वस्तु की कमी होने
लगती है .गलत संगती से हानि होने
लगती है . भूमि विवाद , माँ को कष्ट , मन में भय ,
हिंसा के कारण हानि होने लगती है .
पंचम भाव – यहाँ पर मंगल के कारण शत्रु भय , रोग , क्रोध ,
पुत्र शोक , शत्रु शोक , पाप कर्म होने लगते हैं . पल पल
स्वास्थ्य गिरता रहता है .
छठा भाव – यहाँ पर मंगल शुभ होता है . शत्रु हार जाते हैं .
डर भाग जाता हैं . शांति मिलती है. धन – धातु के लाभ
से लोग जलते रह जाते हैं .
सप्तम भाव – इस भाव में स्त्री से कलह , रोग ,पेट
के रोग , नेत्र विकार होने लगते हैं .
अष्टम भाव में – यहाँ पर धन व् सम्मान में कमी और
रक्तश्राव की संभावना होती है .
नवम भाव – यहाँ पर धन व् धातु हानि , पीड़ा ,
दुर्बलता , धातु क्षय , धीमी
क्रियाशीलता हो जाती हैं.
दशम भाव – यहाँ पर मिलाजुला फल मिलता हैं,
एकादश भाव – यहाँ मंगल शुभ होकर धन प्राप्ति ,प्रमुख पद
दिलाता हैं.
द्वादश भाव – इस भाव में धन हानि , स्त्री से कलह
नेत्र वेदना होती है .
बुध का गोचर में प्रभाव –
प्रथम भाव में – इस भाव में चुगलखोरी अपशब्द ,
कठोर वाणी की आदत के कारण हानि
होती है .कलह बेकार की यात्रायें . और
अहितकारी वचन से हानियाँ होती हैं .
द्वीतीय भाव में – यहाँ पर बुध अपमान
दिलाने के बावजूद धन भी दिलाता है .
तृतीय भाव – यहाँ पर शत्रु और राज्य भय दिलाता है
. ये दुह्कर्म की ओर ले जाता है .यहाँ मित्र
की प्राप्ति भी करवाता है .
चतुर्थ भाव् – यहाँ पर बुध शुभ होकर धन दिलवाता है .अपने
स्वजनों की वृद्धि होती है .
पंचम भाव – इस भाव में मन बैचैन रहता है . पुत्र व्
स्त्री से कलह होती है .
छठा भाव – यहाँ पर बुध अच्छा फल देता हैं. सौभाग्य का उदय
होता है . शत्रु पराजित होते हैं . जातक उन्नतशील
होने लगता है . हर काम में जीत होने लगते हैं
सप्तम भाव – यहं पर स्त्री से कलह होने
लगती हैं .
अष्टम भाव – यहाँ पर बुध पुत्र व् धन लाभ देता है .प्रसन्नता
भी देता है .
नवम – यहाँ पर बुध हर काम में बाधा डालता हैं .
दशम भाव – यहाँ पर बुध लाभ प्रद हैं. शत्रुनाशक ,धन दायक
,स्त्री व् शयन सुख देता है .
एकादश भाव में – यहाँ भी बुध लाभ देता हैं . धन ,
पुत्र , सुख , मित्र ,वाहन , मृदु वाणी प्रदान करता है
.
द्वादश भाव- यहाँ पर रोग ,पराजय और अपमान देता है
गुरु का गोचर प्रभाव- प्रथम भाव में =======
इस भाव में धन नाश ,पदावनति , वृद्धि का नाश , विवाद ,स्थान
परिवर्तन दिलाता हैं .द्वितीय भाव में – यहाँ पर धन व्
विलासता भरा जीवन दिलाता है .
तृतीय भाव में – यहाँ पर काम में बाधा और स्थान
परिवर्तन करता है .
चतुर्थ भाव में – यहाँ पर कलह , चिंता पीड़ा दिलाता
है .
पंचम भाव – यहाँ पर गुरु शुभ होता है .पुत्र , वहां ,पशु सुख ,
घर ,स्त्री , सुंदर वस्त्र आभूषण , की
प्राप्ति करवाता हैं .
छथा भाव में – यहाँ पर दुःख और पत्नी से अनबन
होती है.
सप्तम भाव – सैय्या , रति सुख , धन , सुरुचि भोजन , उपहार ,
वहां .,वाणी , उत्तम वृद्धि करता हैं .
अष्टम भाव – यहाँ बंधन ,व्याधि , पीड़ा , ताप ,शोक ,
यात्रा कष्ट , मृत्युतुल्य परशानियाँ देता है .
नवम भाव में – कुशलता ,प्रमुख पद , पुत्र की
सफलता , धन व् भूमि लाभ , स्त्री की
प्राप्ति होती हंत .
दशम भाव में- स्थान परिवर्तन में हानि , रोग ,धन हानि
एकादश भाव – यहाँ सुभ होता हैं . धन ,आरोग्य और अच्छा
स्थान दिलवाता है .
द्वादश भाव में – यहाँ पर मार्ग भ्रम पैदा करता है .
गोचर शुक्र का प्रथम भाव में प्रभाव –जब शुक्र यहाँ पर अथोता
है तब सुख ,आनंद ,वस्त्र , फूलो से प्यार , विलासी
जीवन ,सुंदर स्थानों का भ्रमण ,सुगन्धित पदार्थ पसंद
आते है .विवाहिक जीवन के लाभ प्राप्त होते हैं .
द्वीतीय भाव में – यहाँ पर शुक्र संतान ,
धन , धान्य , राज्य से लाभ , स्त्री के प्रति आकर्षण
और परिवार के प्रति हितकारी काम करवाता हैं.
तृतीय भाव – इस जगह प्रभुता ,धन ,समागम ,सम्मान
,समृधि ,शास्त्र , वस्त्र का लाभ दिलवाता हैं .यहाँ पर नए स्थान
की प्राप्ति और शत्रु का नास करवाता हैं .
चतुर्थ भाव –इस भाव में मित्र लाभ और शक्ति की
प्राप्ति करवाता हैं .
पंचम भाव – इस भाव में गुरु से लाभ ,संतुष्ट जीवन ,
मित्र –पुत्र –धन की प्राप्ति करवाता है . इस भाव में
शुक्र होने से भाई का लाभ भी मिलता है.
छठा भाव –इस भाव में शुक्र रोग , ज्वर ,और असम्मान दिलवाता है
.
सप्तम भाव – इसमें सम्बन्धियों को नास्ता करवाता हैं .
अष्टम भाव – इस भाव में शुक्र भवन , परिवार सुख ,
स्त्री की प्राप्ति करवाता है .
नवम भाव- इसमें धर्म ,स्त्री ,धन की
प्राप्ति होती हैं .आभूषण व् वस्त्र की
प्राप्ति भी होती है .
दशम भाव – इसमें अपमान और कलह मिलती है.
एकादश भाव – इसमें मित्र ,धन ,अन्न ,प्रशाधन
सामग्री मिलती है .
द्वादश भाव – इसमें धन के मार्ग बनते हिया परन्तु वस्त्र लाभ
स्थायी नहीं होता हैं .
शनि की गोचर दशा
प्रथम भाव – इस भाव में अग्नि और विष का डर होता है. बंधुओ
से विवाद , वियोग , परदेश गमन , उदासी
,शरीर को हानि , धन हानि ,पुत्र को हानि , फालतू
घोमना आदि परेशानी आती है .
द्वितीय भाव – इस भाव में धन का नाश और रूप का
सुख नाश की ओर जाता हैं .
तृतीय भाव – इस भाव में शनि शुभ होता है .धन
,परवर ,नौकर ,वहां ,पशु ,भवन ,सुख ,ऐश्वर्य की
प्राप्ति होती है .सभी शत्रु हार मान जाते
हैं .
चतुर्थ भाव –इस भाव में मित्र ,धन ,पुत्र ,स्त्री से
वियोग करवाता हैं .मन में गलत विचार बनने लगते हैं .जो हानि देते
हैं .
पंचम भाव – इस भाव में शनि कलह करवाता है जिसके कारण
स्त्री और पुत्र से हानि होती हैं .
छठा भाव – ये शनि का लाभकारी स्थान हैं. शत्रु व् रोग
पराजित होते हैं .सांसारिक सुख मिलता है .
सप्तम भाव – कई यात्रायें करनी होती हैं
. स्त्री – पुत्र से विमुक्त होना पड़ता हैं .
अष्टम भाव – इसमें कलह व् दूरियां पनपती हैं.
नवम भाव – यहाँ पर शनि बैर , बंधन ,हानि और हृदय रोग देता
हैं .
दशम भाव – इस भाव में कार्य की प्राप्ति , रोज़गार ,
अर्थ हानि , विद्या व् यश में कमी आती
हैं
एकादश भाव – इसमें परस्त्री व् परधन
की प्राप्ति होई हैं .
द्वादश भाव – इसमें शोक व् शारीरिक
परेशानी आती हैं .
शनि की २,१,१२ भावो के गोचर को साढ़ेसाती
और ४ ,८ भावो के गोचर को ढ़ैया कहते हैं .
शुभ दशा में गोचर का फल अधिक शुब होता हैं .अशुभ गोचर का
फल परेशान करता हैं .इस उपाय द्वारा शांत करवाना चाहिए .अशुभ
दस काल मेशुब फल कम मिलता हैं .अशुभ फल ज्यादा होता हैं .
पूजा कैसे करें – जब सूर्य और मंगल असुभ हो तो लाल फूल ,
लाल चन्दन ,केसर , रोली , सुगन्धित पदार्थ से पूजा
करनी चाहिए . सूर्य को जलदान करना चाहिए .शुक्र
की पूजा सफ़ेद फूल, व् इत्र के द्वारा दुर्गा
जी की पूजा करनी चाहिए .
शनि की पूजा काले फूल ,नीले फूल व्
काली वस्तु का दान करके शनि देव की पूजा
करनी चाहिए . गुरु हेतु पीले फूल से
विष्णु देव की पूजा करनी चाहिए .बुध
हेतु दूर्वा घास को गाय को खिलाएं .
गोचर फल
सभी ग्रह चलायमान हैं.सभी ग्रहों
की अपनी रफ्तार है कोई ग्रह तेज
चलने वाला है तो कोई मंद गति से चलता है.ग्रहों की
इसी गति को गोचर कहते हैं .ग्रहों का गोचर
ज्योतिषशास्त्र में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता
है.ग्रहों के गोचर के आधार पर ही ज्योतिष विधि से
फल का विश्लेषण किया जाता है.प्रत्येक ग्रह जब जन्म राशि में
पहुंचता है अथवा जन्म राशि से दूसरे, तीसरे, चौथे,
पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवें,दशवें, ग्यारहवें या बारहवें स्थान
पर होता है तब अपने गुण और दोषों के अनुसार व्यक्ति पर
प्रभाव डालता है .गोचर में ग्रहों का यह प्रभाव गोचर का फल
कहलता है.शनि, राहु, केतु और गुरू
धीमी गति वाले ग्रह हैं अत: यह
व्यक्ति के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डालते हैं
इसलिए गोचर में इनके फल का विशेष महत्व होता है.अन्य
ग्रह की गति तेज होती है अत: वे
अधिक समय तक प्रभाव नहीं डालते हैं .
सूर्य का गोचर फल: गोचर में सूर्य जब तृतीय, षष्टम,
दशम और एकादश भाव में आता है तब यह शुभ
फलदायी होता है.इन भावों में सूर्य का गोचरफल
सुखदायी होता है.इन भावों में सूर्य के आने पर
स्वास्थ्य अनुकूल होता है.मित्रों से सहयोग, शत्रु का पराभव एवं
धन का लाभ होता है.इस स्थिति में संतान और जीवन
साथी से सुख मिलता है साथ ही
राजकीय क्षेत्र से भी शुभ परिणाम मिलते
हैं.सूर्य जब प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम,
अष्टम, नवम एवं द्वादश में पहुंचता है तो मानसिक अशांति,
अस्वस्थता, गृह कलह, मित्रों से अनबन रहती
है.इन भावों में सूर्य का गोचर राजकीय पक्ष
की भी हानि करता है.
चन्द्र का गोचर फल:
गोचर में चन्द्रमा जब प्रथम, तृतीय, षष्टम, सप्तम,
दशम एवं एकादश में आता है तब यह शुभ फलदेने वाला होता है
.इन भावों में चन्द्रमा के आने पर व्यक्ति को स्त्री
सुख, नवीन वस्त्र, उत्तम भोजन प्राप्त होता
है.चन्द्र का इन भावों में गोचर होने पर स्वास्थ्य भी
अच्छा रहता है.इन भावों को छोड़कर अन्य भावों में चन्द्रमा का
गोचर अशुभ फलदायी होता है.मानसिक क्लेश,
अस्वस्थता, स्त्री पीड़ा व कार्य बाधित
होते हैं.
मंगल का गोचर फल:
मंगल को अशुभ ग्रह कहा गया है लेकिन जब यह
तृतीय या षष्टम भाव से गोचर करता है तब शुभ फल
देता है .इन भावों में मंगल का गोचर पराक्रम को बढ़ाता है, व
शत्रुओं का पराभव करता है.यह धन लाभ, यश कीर्ति
व आन्नद देता है.इन दो भावों को छोड़कर अन्य भावो में मंगल
पीड़ा दायक होता है.तृतीय और षष्टम के
अलावा अन्य भावों में जब यह गोचर करता है तब बल
की हानि होती है, शत्रु प्रबल होंते
हैं.अस्वस्थता, नौकरी एवं कारोबार में बाधा एवं अशांति का
वातावरण बनता है.
बुध का गोचर फल:
गोचर वश जब बुध द्वितीय, चतुर्थ, षष्टम अथवा
एकादश में आता है तब बुध का गोचर फल व्यक्ति के लिए
सुखदायी होता है इस गोचर में बुध पठन पाठन में रूचि
जगाता है, अन्न-धन वस्त्र का लाभ देता है.कुटुम्ब जनों से मधुर
सम्बन्ध एवं नये नये लोगों से मित्रता करवाता है.अन्य भावों में बुध
का गोचर शुभफलदायी नहीं होता है.गोचर
में अशुभ बुध स्त्री से वियोग, कुटुम्बियों से अनबन,
स्वास्थ्य की हानि, आर्थिक नुकसान, कार्यों में बाधक
होता है.
बृहस्पति का गोचर फल:
बृहस्पति को शुभ ग्रह कहा गया है.यह देवताओं का गुरू है
और सात्विक एवं उत्तम फल देने वाला लेकिन गोचर में जब यह
द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम, एकादश भाव में आता है
तभी यह ग्रह व्यक्ति को शुभ फल देता है अन्य
भावों में बृहस्पति का गोचर अशुभ प्रभाव देता है .उपरोक्त भावों में
जब बृहस्पति गोचर करता है तब मान प्रतिष्ठा, धन, उन्नति,
राजकीय पक्ष से लाभ एवं सुख देता है.इन भावों में
बृहस्पति का गोचर शत्रुओं का पराभव करता है.कुटुम्बियों एवं मित्रों
का सहयोग एवं पदोन्नति भी शुभ बृहस्पति देता
है.उपरोक्त पांच भावों को छोड़कर अन्य भावों में जब बृहस्पति का
गोचर होता है तब व्यक्ति को मानसिक पीड़ा, शत्रुओं
से कष्ट, अस्वस्थता व धन की हानि
होती है.गोचर में अशुभ होने पर बृहस्पति सम्बन्धों
में कटुता, रोजी रोजगार मे उलझन और
गृहस्थी में बाधक बनता है.
शुक्र का गोचर में फल:
आकाश मंडल में शुक्र सबसे चमकीला ग्रह है जो
भोग विलास एवं सुख का कारक ग्रह माना जाता है.शुक्र जब
प्रथम, द्वितीय, पंचम, अष्टम, नवम एवं एकादश भाव
से गोचर करता है तब यह शुभ फलदायी होता है
.इन भावों में शुक्र का गोचर होने पर व्यक्ति को भौतिक एवं
शारीरिक सुख मिलता है.पत्नी एवं
स्त्री पक्ष से लाभ मिलता है.आरोग्य सुख एवं
अन्न-धन वस्त्र व आभूषण का लाभ देता है.हलांकि प्रथम भाव
में जब यह गोचर करता है तब अपने गुण के अनुसार यह
सभी प्रकार का लाभ देता है परंतु अत्यधिक भोग विलास
की ओर व्यक्ति को प्रेरित करता है.अन्य भावों में
शुक्र का गोचर अशुभ फलदायी होता है.गोचर में
अशुभकारी शुक्र होने पर यह स्वास्थ्य एवं धन
की हानि करता है.स्त्री से
पीड़ा, जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोग, शत्रु बाधा
रोजी रोजगार में कठिनाईयां गोचर में अशुभ शुक्र का फल
होता है.द्वादश भाव में जब शुक्र गोचर करता है तब अशुभ होते
हुए भी कुछ शुभ फल दे जाता है
शनि का गोचर फल:
शनि को अशुभ ग्रह कहा गया है.यह व्यक्ति को कष्ट और
परेशानी देता है लेकिन जब यह गोचर में षष्टम या
एकादश भाव में होता है तब शुभ फल देता है .नवम भाव में शनि
का गोचर मिला जुला फल देता है.अन्य भावों में शनि का गोचर
पीड़ादायक होता है.गोचर में शुभ शनि अन्न, धन और
सुख देता, गृह सुख की प्राप्ति एवं शत्रुओं का पराभव
भी शनि के गोचर में होता है.संतान से सुख एवं
उच्चाधिकारियों से सहयोग भी शनि का शुभ गोचर प्रदान
करता है.शनि का अशुभ गोचर मानसिक कष्ट, आर्थिक कष्ट,
रोजी-रोजगार एवं कारोबार में बाधा सहित स्वास्थ्य पर
भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है.
राहु एवं केतु का गोचर फल:
राहु और केतु छाया ग्रह हैं जिन्हें शनि के समान
ही अशुभकारी ग्रह माना गया
है.ज्योतिषशास्त्र के अनुसार गोचर में राहु केतु उसी
ग्रह का गोचर फल देते हैं जिस ग्रह के घर में जन्म के समय
इनकी स्थिति होती है.तृतीय,
षष्टम एवं एकादश भाव में इनका गोचर शुभ फलदायी
होता है जो धन, सुख एवं
अष्टक वर्ग एवं गोचर
साधारणतया जन्मकालीन चंद्रमा से ग्रहों
की गोचर स्थिति देखकर फलित की विधि है
जैसे गोचरगत शनि जब चंद्रमा से तीसरे, छठे एवं
ग्यारहवें स्थान पर होंगे तो शनि जातक को शुभफल देंगे परंतु
प्रश्न यह उठता है कि शनि एक राशि में अढ़ाई वर्ष रहते हैं तो
क्या पूरे अढ़ाई वर्ष शुभफल देंगेक् साथ ही यदि वह
भाव जिसमें वह राशि स्थित है बलहीन है तो
भी भाव संबंधी फलों की
गुणवत्ता वही होगी जैसी
तब कि जिस भाव से शनि गोचर कर रहे हैं, बली हैक्
अथवा इस प्रकार कहें कि यदि संबंधित भाव में शुभ बिन्दुओं
की संख्या कुछ भी हो बीस या
चालीसक् तो क्या फल की शुभता
वही होगीक् इन्हीं कारणों के
कारण जो सामान्य रूप से गोचरफल पंचांग आदि में दिया रहता है,
महान् विद्वानों के मत के अनुसार उसको गौण ही समझा
जायेे। सूक्ष्म विचार के लिए अन्य विधियों में अष्टक वर्ग विधि सबसे
श्रेष्ठ है। इस लेख में यह बताने का प्रयत्न किया जायेगा कि
गोचरफल की न्यूनाधिक गणना किस प्रकार से
की जायेक् पहले चर्चा कि जा चुकी है कि
सात ग्रह व आठवाँ लग्न, इन सभी द्वारा शुभ-अशुभ
बिन्दु देने की प्रणाली है। यदि सातों ग्रह
व लग्न सभी एक-एक शुभ बिन्दु किसी
भाव को प्रदान करते हैं तो कुल मिलाकर अधिकतम आठ शुभ बिन्दु
किसी भाव को प्राप्त हो सकते हैं अर्थात् कोई अशुभ
बिन्दु (अशुभ बिन्दु को कभी-कभी रेखा से
भी दर्शाते हैं) नहीं अत:
विचारणीय भाव संबंधी अधिकतम शुभफल
प्राप्त होगा। यदि सात शुभ बिन्दु हैं तो शुभफल अधिकतम आठ का
सातवां भाग होगा। इसी प्रकार क्रम से अनुपात के
अनुसार शुभता को एक फल प्राçप्त के स्केल पर नाप सकते हैं व
कितना प्राप्त होगा इसकी गणना कर सकते हैं। एक
अन्य विधि फलित की है कि जन्मकालीन
चंद्रमा या लग्न से गोचर का ग्रह उपचय स्थान में (3, 6, 10,
11वे) हो अथवा मित्र ग्रह हो अथवा स्वराशि में हो, उच्च का
हो एवं उसमें चार से अधिक शुभ रेखायें हों तो शुभफल में और
भी अधिकता आती है। इसके
विपरीत यदि गोचर का विचाराधीन ग्रह
चंद्रमा से या जन्मकालीन लग्न से उपचय स्थान (3,
6, 10, 11वें को छो़डकर सभी अन्य आठ स्थान) में
हो तो उस राशि में शुभ बिन्दुओं की अधिकता
भी हो तो भी अशुभ फल ही
मिलता है। यदि उपचय स्थान में होकर ग्रह शत्रु
क्षेत्री, नीच का अथवा अस्तंगत होवे व
शुभ बिन्दु भी कम हों तो अशुभ फल की
प्रबलता रहेगी। यह ग्रहों का गोचर हुआ जिसका
विचार जन्मकालीन चंद्रमा अथवा
जन्मकालीन लग्न से करना होता है। अब चंद्रमा के
स्वयं के गोचर का विचार करें। चंद्रमा यदि उपचय स्थान में हों
(अपनी जन्मकालीन स्थिति से) शुभ रेखा
अधिक भी परंतु चंद्रमा स्वयं कमजोर हो (यहां गोचर
में) तो फल अशुभ ही हो। लेकिन इस विधि में गोचर
ग्रह का विचार ग्रह के राशि में विचरण के आधार पर करते हैं।
प्रथम गोचर विधि में जो प्रश्न उठा था कि यदि शनि जैसे ग्रह का
गोचर अध्ययन करना हो जो एक राशि में अढ़ाई वर्ष रहते हैं तो
क्या इस ग्रह के फल शुभ या अशुभ अढ़ाई वर्ष रहेंगेक् यह
प्रश्न इस विधि में उभरकर सामने आता है। अब अष्टक वर्ग
आधार पर तीसरी विधि की चर्चा
करते हैं। प्रत्येक राशि 300 की होती
है। प्रत्येक राशि को आठ भागों में बांटते हैं। प्रत्येक भाग को
"कक्ष्या" कहते हैं। जातक-पारिजात में दिए गए इस सिद्धात के
अनुसार प्रत्येक कक्ष्या का स्वामी ग्रह होता है।
जैसे सबसे बाहरी कक्ष्या का स्वामी
ग्रह शनि, फिर क्रम में बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध,
चंद्रमा व लग्न - इस प्रकार आठ कक्ष्याओं के आठ
स्वामी ग्रह हुए। यदि देखें तो इनका क्रम ग्रहों के
सामान्य भू-मण्डल में परिक्रमा पथ पर आधारित है।
पृथ्वी से सबसे दूर शनि फिर बृहस्पति आदि-आदि
हैं। पृथ्वी को कक्ष्या पद्धति में जातक से दर्शाया है
क्योंकि पृथ्वी पर प़डने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जा
रहा है। इस गोचर फलित की विधि का नाम
प्रस्ताराष्टक विधि है। आगे बढ़ने से पहले प्रस्ताराष्टक वर्ग
बनाने की विधि की चर्चा करते हैं। राशि व
ग्रहों का एक संयुक्त चार्ट बनाते हैं। बांयें से दांयें बारह कोष्टक
बनाते हैं, व आठ कोष्ठक ऊपर से नीचे। प्रत्येक
कोष्ठक बांयें से दांयें एक राशि का द्योतक है व ऊपर से
नीचे वाला एक ग्रह का। आठवाँ कोष्ठक लग्न का है।
सही मायने में यह बृहस्पति का अष्टक वर्ग है
बस ग्रह रखने का क्रम बदल गया है। यहां पर ग्रहों का क्रम
(कक्ष्या) ग्रहों के वास्तविक परिभ्रमण के आधार पर रखा गया
है। पृथ्वी से सबसे दूर व उसके बाद
पृथ्वी से दूरी के क्रम में। जैसा कि ऊपर
चर्चा कर चुके हैं कि एक राशि को आठ भाग मेे बांट लेते हैं तो
प्रत्येक ग्रह का भाग 30/8 अर्थात् 3045" हुआ अर्थात् मेष
में शनि की कक्ष्या, राशि में 0-3045" तक हुई।
दूसरी कक्ष्या बृहस्पति की है जो
3045" से 7030" तक होगी आदि-आदि। अब यह
देखना है कि बृहस्पति का गोचरफल जातक को कैसा होगाक् जून
2009 में बृहस्पति कुंभ राशि की पहली
कक्ष्या में गोचर कर रहे हैं। यहाँ पर राशि स्वामी
शनि प्रदत्त एक शुभ बिन्दु है अत: बृहस्पति का गोचर
उपर्युक्त जातक को शुभफल देगा। इसी प्रकार
बृहस्पति की कक्ष्या में कुंभ राशि को शुभ बिन्दु प्राप्त
है अत: बृहस्पति के गोचर की शुभता का क्रम
बृहस्पति को 3045" से 7030" कुंभ में गोचर करते समय
जारी रहेगा। 7030" से 11015" तक मंगल
की कक्ष्या है वहां भी मंगल द्वारा
प्रदत्त एक शुभ बिन्दु है अत: कुंभ में 10030" अंश तक
गोचरगत बृहस्पति शुभफल देंगे। फिर चतुर्थ कक्ष्या में सूर्य द्वारा
कोई शुभ बिन्दु कुंभ राशि को प्रदान नहीं किया गया है
अत: शुभता का क्रम अचानक रूक जाएगा व गति विपरीत
होती सी नजर आएगी पर
इसके साथ पांचवीं कक्ष्या में फिर शुक्र द्वारा प्रदत्त
शुभ बिन्दु है उसके उपरान्त बुध द्वारा शुभ बिन्दु है अत:
बृहस्पति के 11015" से 140 तक गोचर करते समय शुभ बिन्दु
हैं अत: बृहस्पति के 11015" से 140 तक गोचर करते समय
शुभफल की गति धीमी
होगी जो 140 पार करते-करते पुन: गति पक़ड
लेगी। इसको यूं समझें कि कोई वाहन सामान्य गति से
स़डक पर जा रहा है, सामने अवरोध आने पर स्पीड
कम करनी प़डती है या रूकना
भी प़डता है व उस अवरोध को पार कर पुन:
स्पीड पक़ड लेते हैं। यहां यह बात भी
ध्यान देने की है कि कुछ प्रतीक्षा करने
से या तो गतिरोध हट जाता है, हम धैर्य से प्रतीक्षा
करते हैं अथवा हम गतिरोध के दांयें-बांयें से ध्यान व
समझदारी से निकल जाते हैं। वास्तव में
यही स्थिति ग्रह के साथ है या तो हम
सहनशीलता से धैर्य रखें, बुरा वक्त निकल जायेगा या
फिर दायें-बांये से निकल जायें अर्थात् ग्रह का उपचार दान, जप आदि
कर बाधाओं को पार कर जायें। अन्य ग्रहों का भी गोचर
का विचार इसी विधि से करते हैं कौन ग्रह किस विषय
का कारक है या किस भाव का स्वामी है उस भाव
संबंधी विषयों के बारे में फलित करने हेतु ग्रह का
चयन करते हैं। विचारणीय ग्रह के पथ में जो ग्रह
शुभ बिन्दु प्रदान करते हैं व शुभ बिन्दु प्रदान करने वाले ग्रह से
संबंधित विषय का (अर्थात् शुभ बिन्दु देने वाले ग्रह किस संबंध
अथवा वस्तु को दर्शाते हैं) जातक को लाभ देने में सहायक होंगे।
जैसे उपरोक्त उदाहरण में बृहस्पति कुंभ में गोचर करते समय शनि
की कक्ष्या से गुजर रहे हैं, शनि ने यहां शुभ बिन्दु
प्रदान किया है अत: इस समय बृहस्पति के गोचर को शुभफल
प्रदान करने में नौकर-चाकर, निम्न जाति/श्रेणी के लोग,
लोहे की वस्तुएं आदि जातक को लाभ देंगी।
कुछ विद्वान राशि के स्थान पर भाव के आठ भाग कर कक्ष्या स्थापित
करने की बात कहते हैं। यदि भाव का आधार ले तो भाव
आरंभ संधि से भाव मध्य तक चार भाग व भाव-मध्य से भाव अंत
तक चार भाग कर विचार करना होता है परंतु वर्तमान में व्यावहारिक
रूप से राशि को आधार मानकर गणना करना ज्यादा उपयुक्त माना जाता
है। ऎसी भी स्थिति हो
सकती हैं कि जब गोचर में कई ग्रह एक
ही कक्ष्या में आ जाएं व उस कक्ष्या को शुभ बिन्दु
प्राप्त हो। इस स्थिति में शुभ फल उतना ही उत्तम
होगा जितने ग्रह ज्यादा होंगे। अष्टक वर्ग में जब ग्रह
गोचरवश ऎसी कक्ष्या से गुजर रहा है जहां शुभ
बिन्दु हैं तो शुभफल, गोचर में चलने वाले ग्रह के कारकत्व के
अनुसार होगा। दूसरे यह फल ग्रह के जीव मूल-धातु
के अनुसार होगा। यह फल लग्न से (मूल कुण्डली
से) गिनकर उस भाव के विषयों से संबंधित होगा जहां से ग्रह
गुजर रहा है। आगे गोचर वाले ग्रह के शुभफल की
गुणवत्ता इस पर भी आधारित होगी कि
विचारणीय गोचरगत ग्रह कुण्डली
की मूल स्थिति से कक्ष्या वाले ग्रह से किस भाव में
गुजर रहा है जैसे यदि कक्ष्या ग्रह की मूल स्थिति
से अशुभ स्थान (6, 8वें आदि) से गुजरें तो शुभफल
की कमी होगी परंतु यदि शुभ
स्थान जैसे पंचम-नवम से गुजरे तो फल की वृद्धि
होगी। इसके साथ-साथ उस भाव से भी
शुभ फल संबंधित होगा जो कि शुभ बिन्दु देने वाले ग्रह से (मूल
जन्मपत्रिका में) गोचर वाले ग्रह का बनता है। जैसे उदाहरण
कुण्डली में बृहस्पति, कुंभ राशि से गोचर कर रहे हैं
व यह शनि की कक्ष्या है अत: फल बृहस्पति,
शनि, कुंभ से संबंधित होगा। कुंभ पूर्णता का प्रतीक है
व शनि, बृहस्पति धर्म, आध्यात्म, तप, संसार से अलग विषयों के
प्रतीक भी हैं। अत: आध्यात्मिक विषयों
में, सत्संग में समय लगेगा जो पूर्णता देने वाला होगा। बृहस्पति
जीव के कारक हंै व शनि स्थायित्व के अत: अचल
संपत्ति के सौन्दर्यकरण का लाभप्रद अवसर होगा। इस प्रकार
तारतम्य से फलित करें लाभ मिलता है.इन भावों के अतिरिक्त जब
अन्य भावों से राहु केतु गोचर करता है तब यह हानिप्रद होता
है.
क्या केवल गोचर से ही फलित कहा जा सकता है?
गोचर फलित का एक प्रभावशाली अंग होते हुए
भी यह सब कुछ नहीं। हमारे महर्षियों
ने यह स्पष्ट कहा है कि जो कुछ कुण्डली में
नहीं वह गोचर नहीं दे सकता। गोचर में
ग्रह चाहे कितना ही अच्छा योग बनाते हो यदि वह
योग कुण्डली में नहीं तो वह गोचर
नहीं दे सकता। उदाहरण गोचर तो दशा व अन्तर दशा
के अधीन भी कार्य करता है। यदि दशा व
अन्तर दशा ऐसे ग्रहों की चल रही हो
तो जातक जो जातक के लिये अशुभ हो परन्तु गोचर शुभ हो तो गोचर
का शुभ फल जातक को नहीं मिलता। क्योंकि गोचर में
यह देखा जाता है कि जन्म कुण्डली की
ग्रह स्थिति से वर्तमान गोचर कुण्डली में ग्रह स्थिति
अच्छी या बुरी कैसी स्थिति में
है। जो ग्रह जन्म कुण्डली में उत्तम स्थान में पड़ा
हो वह गोचर में शुभ स्थान पर आते ही शुभ फल
देगा। जो ग्रह जन्म कुण्डली में अशुभ हो वह यदि
गोचर में शुभ भी होगा तो भी शुभ फल
नहीं देगा। गोचर ग्रह जन्म के ग्रहों से जिस समय
अंशात्मक या आसन्न योग करते हैं उस समय ही
उनका ठीक फल प्रकट होता है। मान लो शुक्र वृष में
18 अंश पर है। गोचर में शुक्र जब वृष 18अंश से योग बनायेगा।
तब ही शुक्र का अच्छा या बुरा फल प्रकट होगा। इस
प्रकार गोचर ग्रह जन्म के ग्रह के अधीन हुआ।
यदि गोचर का ग्रह अशुभ भाव में हो जन्म कुण्डली
में वह ग्रह उच्च, स्वक्षेत्री हो तो गोचर में वह
ग्रह अशुभ फल नहीं देता। अर्थात् गोचर के नियमों
के आधार पर हम कह सकते हैं कि गोचर का फल जन्म
कुण्डली के ग्रह स्थिति पर निर्भर करता है। यदि
गोचर के अन्य नियमों का अध्ययन करे तो हम पायेंगे कि गोचर दशा
व अन्तर दशा के भी अधीन है। मूलतः
गोचर विचार जन्मकुडली और गोचर
कुण्डली दोनों पर निर्भर है। गोचर विचार करते समय
ग्रहों की स्थिति का विचार सूर्य, चन्द्र एवं लग्न से
करना चाहिए। यदि इनमें से जो सर्वाधिक बली हो तो
उससे करना चाहिए। तीनों से ग्रहस्थिति का विचार करके
व दशादि विचार कर समन्वय युक्त फल कहना चाहिए।
बुजुर्गों की सेवा… देव गुरु जीवन में शुभ
फल देते है :- पंडित कौशल Posted by kalsutra
दोस्तों आप सभी को एक बहुत ही सरल
उपाय बता रहा हूँ ज्योतिष में गुरु को पितामह की उपाधि
दी गई है ,और जिनके कुंडली में गुरु
अशुभ हो वो सिर्फ धर्म स्थान और बुजुर्गों की सेवा
करे गुरु कभी अशुभ फल नहीं देगा ,
ज्योतिष में बृहस्पति धनु और मीन राशी के
स्वामी है और कर्क राशी में शुभ और
मकर राशी में अशुभ फल देते है , गुरु के सूर्य, मंगल,
चंद्र मित्र व शुक्र, बुध शत्रु तथा शनि, राहु, केतु सम हैं।
कुण्डली में बृहस्पति से पंचम, सप्तम और नवम भावों
पर इसकी पूर्ण दृष्टि होती है , देव गुरु
बृहस्पति कर्क, धनु, मीन राशियों तथा केंद्र 1,4,7,10
या त्रिकोण 5,9 भावों में स्थित होने पर शुभ फल देने वाला और
योगकारक कहा गया है .बृहस्पति का राशि फल :- जन्म
कुंडली में गुरु का मेषादि राशियों में स्थित होने का फल इस
प्रकार है :- मेष में – गुरु हो तो जातक तर्क वितर्क करने वाला ,
किसी से न दबने वाला ,सात्विक,धनी,कार्य
क्षेत्र में विख्यात,क्षमाशील ,पुत्रवान,बलवान,
प्रतिभाशाली,तेजस्वी,अधिक शत्रु वाला,बहु
व्ययी ,दंडनायक व तीक्ष्ण स्वभाव का
होता है | वृष में गुरु हो तो जातक वस्त्र अलंकार
प्रेमी ,विशाल देह वाला ,देव –ब्राह्मण –गौ भक्त,
प्रचारक ,सौभाग्यशाली,अपनी
स्त्री में ही आसक्त ,सुन्दर कृषि व गौ
धन युक्त, वैद्यक क्रिया में कुशल ,मनोहर वाणी-बुद्धि
व गुणों से युक्त ,विनम्र तथा नीतिकुशल होता है मिथुन
में गुरु हो तो जातक ,विज्ञान विशारद ,बुद्धिमान,सुनय
नी,वक्ता,सरल,निपुण,धर्मात्मा ,मान्य ,गुरुजनों व बंधुओं
से सत्कृत होता है | कर्क में गुरु हो तो जातक विद्वान,सुरूप देह
युक्त ,ज्ञानवान ,धार्मिक, सत्य स्वभाव वाला,यशस्वी
,अन्न संग्रही ,कोषाध्यक्ष,स्थिर पुत्र वाला,संसार में
पूज्य ,विशिष्ट कर्मा तथा मित्रों में आसक्त होता है | सिंह में गुरु
हो तो जातक स्थिर शत्रुता वाला ,धीर ,विद्वान,शिष्ट
परिजनों से युक्त,राजा या उसके तुल्य,पुरुषार्थी,सभा में
लक्ष्य ,क्रोध से समस्त शत्रुओं को जीतने वाला ,सुदृढ़
शरीर का ,वन-पर्वत आदि के भ्रमण में रूचि रखने वाला
होता है | कन्या में गुरु हो तो जातक मेधावी, धार्मिक
,कार्यकुशल ,गंध –पुष्प-वस्त्र प्रेमी ,कार्यों में स्थिर,
शास्त्रज्ञान व शिल्प कार्य से धनी दानी
,सुशील चतुर ,अनेक भाषाओं का ज्ञाता तथा
धनी होता है | तुला मे गुरु हो तो जातक
मेधावी ,पुत्रवान,विदेश भ्रमण से धनी
विनीत ,आभूषण प्रिय ,नृत्य व नाटक से धन संग्रह
करने वाला ,सुन्दर ,अपने सह व्यापारियों में बड़ा,पंडित,देव अतिथि का
पूजन करने वाला होता है | वृश्चिक में गुरु हो तो जातक अधिक
शास्त्रों में चतुर , क्षमाशील, नृपति, ग्रंथों का भाष्य
करने वाला ,निपुण ,देव मंदिर व नगर में कार्य करने वाला ,
सद्स्त्रीवान,अल्प पुत्र वाला ,रोग से पीड़ित
,अधिक श्रम करने वाला ,क्रोधी, धर्म में पाखण्ड करने
वाला व निंद्य आचरण वाला होता है | धनु में गुरु हो तो जातक
आचार्य ,स्थिर धनी ,दाता , मित्रों का शुभ करने वाला
,परोपकारी ,शास्त्र में तत्पर ,मंत्री या
सचिव ,अनेक देशों का भ्रमण करने वाला तथा तीर्थ
सेवन में रूचि रखने वाला होता है |मकर में गुरु हो तो जातक अल्प
बलि ,अधिक मेहनत करने वाला ,क्लेश धारक,नीच
आचरण करने वाला ,मूर्ख ,निर्धन , दूसरों की
नौकरी करने वाला , दया –धर्म –प्रेम –पवित्रता –स्व
बन्धु व मंगल से रहित ,दुर्बल देह वाला
,डरपोक,प्रवासी,व विषाद युक्त होता है | कुम्भ में गुरु
हो तो जातक चुगलखोर ,असाधु ,निंद्य कार्यों में तत्पर
,नीच जन सेवी
,पापी,लोभी ,रोगी ,अपने वचनों
के दोष से अपने धन का नाशक ,बुद्धिहीन व गुरु
की स्त्री में आसक्त होता है |
मीन में गुरु हो तो जातक वेदार्थ शास्त्र वेत्ता ,मित्र व
सज्जनों द्वारा पूजनीय ,राज मंत्री ,प्रशंसा
प्राप्त करने वाला ,धनी ,निडर ,गर्वीला,
स्थिर कार्यारम्भ करने वाला ,शांतिप्रिय ,विख्यात ,नीति व
व्यवहार को जानने वाला होता है | (गुरु पर किसी
अन्य ग्रह कि युति या दृष्टि के प्रभाव से उपरोक्त राशि फल में
परिवर्तन भी संभव है| ) गुरु का सामान्य दशा फल
जन्म कुंडली में गुरु स्व ,मित्र ,उच्च राशि -नवांश का
,शुभ भावाधिपति ,षड्बली ,शुभ युक्त -दृष्ट हो तो गुरु
की शुभ दशा में,यश प्राप्ति,वाणी में प्रभाव
व अधिकार, बुध्धि कि प्रखरता,विद्या लाभ,परीक्षाओं में
सफलता,सुख-सौभाग्य ,राज कृपा ,मनोरथ सिध्धि ,दान पुण्य –
तीर्थ भ्रमण आदि धार्मिक कार्यों में रूचि ,प्रभुत्व
प्राप्ति, विवाह ,संतान सुख , स्वर्ण आभूषण की
प्राप्ति ,सत्संग सात्विक गुणों की वृद्धि,मिष्टान भोजन
की प्राप्ति ,व्यापार में लाभ ,स्वाध्याय में रूचि,पद प्राप्ति
व पदोन्नति होती है | अध्यापन ,न्याय सेवा ,बैंकिंग
,प्रबंधन व धार्मिक प्रवचनों से सम्बंधित क्षेत्रों में सफलता
मिलती है |राजनीतिक व प्रशासनिक पद
की प्राप्ति होती है |ईशान दिशा से लाभ
होता है | शहद ,तगर ,जटामांसी ,मोम ,
घी व पीले रंग के पदार्थों के व्यापार में लाभ
होता है | जिस भाव का स्वामी गुरु होता है उस भाव
से विचारित कार्यों व पदार्थों में सफलता व लाभ होता है | यदि गुरु
अस्त ,नीच शत्रु राशि नवांश का ,षड्बल
विहीन ,अशुभभावाधिपति पाप युक्त दृष्ट हो तो गुरु दशा
में शरीर में सूजन ,शोक ,कर्ण रोग ,गठिया ,राजा से भय
,स्थान हानि ,अपवित्रता ,विद्या प्राप्ति में बाधा ,स्मरणशक्ति में
कमी ,गुरु जनों व ब्राह्मणों से द्वेष ,गुरु के कारकत्व
वाले पदार्थों से हानि ,संतान प्राप्ति में बाधा या कष्ट ,मान हानि ,संचित
धन की हानि होती है | जिस भाव का
स्वामी गुरु होता है उस भाव से विचारित कार्यों व पदार्थों
में असफलता व हानि होती है | गोचर में बृहस्पति
जन्म या नाम राशि से 2,5,7,9, व 11 वें स्थान पर गुरु शुभ फल
देता है |शेष स्थानों पर गुरु का भ्रमण अशुभ कारक होता है |
जन्मकालीन चन्द्र से प्रथम स्थान पर गुरु का गोचर
मान हानि ,व्यवसाय में बाधा,राजभय ,मानसिक व्यथा ,कार्यों में
विलम्ब,सुख में कमी तथा भारी व्यय से
आर्थिक स्थिति को कमजोर करता है | दूसरे स्थान पर गुरु का गोचर
धन लाभ ,परिवार में सुख समृद्धि, विवाह ,संतान प्राप्ति , शत्रु को
हानि ,दान व परोपकार में रूचि ,चल संपत्ति में वृद्धि करता है |
तीसरे स्थान पर गुरु का गोचर शरीर
पीड़ा ,सम्बन्धियों से झगडा ,राज्य से भय ,मित्र का
अनिष्ट ,यात्रा में हानि तथा व्यवसाय में बाधा देता है | चौथे स्थान पर
गुरु का गोचर मानसिक अशांति ,शत्रु से कष्ट, जमीन
जायदाद की हानि ,माता को कष्ट तथा स्थान परिवर्तन
करता है | पांचवें स्थान पर गुरु का गोचर शिक्षा में सफलता ,संतान
सुख ,पद लाभ ,पदोन्नति ,हर काम में सफलता ,सट्टे या शेयर
मार्किट में लाभ प्रदान करता है | छ्टे स्थान पर गुरु का गोचर रोग
,राज्य से विरोध,संतान से कष्ट ,दुर्घटना का भय तथा विवाद से हानि
करता है | सातवें स्थान पर गुरु के गोचर से विवाह एवम दाम्पत्य
सुख की प्राप्ति , आरोग्यता , दान पुण्य व
तीर्थ यात्रा में रूचि ,व्यवसाय व्यापार में लाभ तथा यात्रा में
लाभ होता है | आठवें स्थान पर गुरु के गोचर से रोग,बंधन ,चोर या
राज्य से कष्ट ,धन हानि ,संतान को कष्ट तथा कफ विकार होता है
| नवें स्थान पर गुरु के गोचर से भाग्य वृद्धि ,धार्मिक यात्रा ,संतान
सुख ,यश मान की प्राप्ति ,सफलता .आर्थिक लाभ तथा
आध्यात्मिक विचारों का श्रवण होता है | दसवें स्थान पर गुरु के
गोचर से मान हानि ,दीनता ,व्यवसाय में बाधा व धन हानि
होती है | ग्यारहवें स्थान पर गुरु के गोचर से धन व
प्रतिष्ठा की वृद्धि ,विवाह,संतान सुख ,पद लाभ व
पदोन्नति ,व्यापार में लाभ ,वाहन सुख ,भोग विलास के साधनों
की वृद्धि व सभी कार्यों में सफलता
मिलती है | बारहवें स्थान पर गुरु के गोचर से आर्थिक
हानि ,व्यय में वृद्धि ,अस्वस्थता ,संतान कष्ट , मिथ्या आरोप लगने
का भय होता है | ( गोचर में गुरु के उच्च ,स्व मित्र,शत्रु
नीच आदि राशियों में स्थित होने पर , अन्य ग्रहों से
युति ,दृष्टि के प्रभाव से , अष्टकवर्ग फल से या वेध स्थान पर
शुभाशुभ ग्रह होने पर उपरोक्त गोचर फल में परिवर्तन संभव है
| कुंडली में गुरु के अशुभ के लक्षण : - सिर पर
चोटी के स्थान से बाल उड़ जाते हैं। गले में व्यक्ति माला
पहनने की आदत डाल लेता है। सोना खो जाए या
चोरी हो जाए। बिना कारण शिक्षा रुक जाए। व्यक्ति के
संबंध में व्यर्थ की अफवाहें उड़ाई जाती
हैं। आंखों में तकलीफ होना, मकान और
मशीनों की खराबी, अनावश्यक
दुश्मन पैदा होना, धोखा होना, सांप के सपने। सांस या फेफड़े
की बीमारी, गले में दर्द। 2, 5,
9, 12वें भाव में बृहस्पति के शत्रु ग्रह हों या शत्रु ग्रह
उसके साथ हों तो बृहस्पति मंदा होता है। जनम
कुंडली में गुरु अस्त ,नीच या शत्रु राशि का
,छटे -आठवें -बारहवें भाव में स्थित हो ,पाप ग्रहों से युत या
दृष्ट, षड्बल विहीन हो तो ऊँचाई से पतन ,
शरीर में चर्बी की वृद्धि ,कफ
विकार ,मूर्च्छा ,हर्निया,कान के रोग ,स्मृति विकार , जिगर के रोग
,मानसिक तनाव , रक्त धमनी से सम्बंधित रोग करता है
|शुभ के लक्षण:- व्यक्ति कभी झूठ
नहीं बोलता। उनकी सच्चाई के लिए वह
प्रसिद्ध होता है। आंखों में चमक और चेहरे पर तेज होता है।
अपने ज्ञान के बल पर दुनिया को झुकाने की ताकत
रखने वाले ऐसे व्यक्ति के प्रशंसक और हितैषी बहुत
होते हैं। यदि बृहस्पति उसकी उच्च राशि के अलावा
2, 5, 9, 12 में हो तो शुभ। बृहस्पति शान्ति के उपाय
जन्मकालीन गुरु निर्बल होने के कारण अशुभ फल देने
वाला हो तो निम्नलिखित उपाय करने से बलवान हो कर शुभ फल
दायक हो जाता है | रत्न धारण – पीत रंग का पुखराज
सोने या चांदी की अंगूठी
मेंपुनर्वसु ,विशाखा ,पूर्व भाद्रपद नक्षत्रों में जड़वा कर गुरुवार को
सूर्योदय के बाद पुरुष दायें हाथ की तथा
स्त्री बाएं हाथ की तर्जनी
अंगुली में धारण करें | धारण करने से पहले
ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सःगुरुवे नमः मन्त्र के १०८
उच्चारण से इस में ग्रह प्रतिष्ठा करके धूप,दीप ,
पीले पुष्प, हल्दी ,अक्षत आदि से
पूजन कर लें |पुखराज की सामर्थ्य न हो तो उपरत्न
सुनैला या पीला जरकन भी धारण कर सकते
हैं | केले की जड़ गुरु पुष्य योग में धारण करें | दान
व्रत ,जाप – गुरूवार के नमक रहित व्रत रखें , ॐ ग्रां
ग्रीं ग्रौं सःगुरुवे नमः मन्त्र का १९००० की
संख्या में जाप करें | गुरूवार को घी, हल्दी,
चने की दाल ,बेसन पपीता
,पीत रंग का वस्त्र ,स्वर्ण, इत्यादि का दान करें |
फलदार पेड़ सार्वजनिक स्थल पर लगाने से या ब्राह्मण
विद्यार्थी को भोजन करा कर दक्षिणा देने से
भी बृहस्पति प्रसन्न हो कर शुभ फल देते हैं |
इनकी शान्ति के लिये वैदिक मन्त्र- ‘ॐ
बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि
चित्रम्॥’,पौराणिक मन्त्र :- ‘देवानां च ऋषीणां च गुरुं
कांचनसंनिभम्। बुद्धिभूतं
त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्॥’,बीज मन्त्र :-
बीज मन्त्र-’ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स:
गुरवे नम:।
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