पोस्ट --( 538 )-- श्री मद देवी भागवत पुराण -- एक झलक में --( २३ )--भगवान के विविध अवतार
( श्री दुर्गा शप्तशती एकादश अध्याय श्लोक 23/ 24 /25 / 26 )
मेधे सरस्वति वरे भूति बाभर्वि तामसि । नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोअस्तु ते ।।
सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्व शक्ति समन्विते । भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोअस्तु ते ।।
एत्त्ते वदनं सोम्यं लोचनत्रय भूषितम् । पातु न: सर्व भीतिभ्य: कात्यायनी नमोअस्तु ते ।।
ज्वाला कराल मृत्यु गृमशेषा सुरसूदनम् । त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोअस्तु ते ।।
मेघा ,सरस्वती , वरा ( श्रेष्ठा ) भूति ( ऐश्र्वर्य रूपा ) बाभृवी ( भूरे रंग की अर्थात पार्वती ) तामसी ( महाकाली ) नियता ( संयम परायणा ) तथा ईशा ( सबकी अधीश्वरी ) --रूपिणी नारायणि ! तुम्हे नमस्कार है।।
सर्वस्वरूपा ,सर्वेश्वरी ,तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न ,दिव्य रूपा देवि ! सब भयो से हमारी रक्षा करो ; तुम्हे नमस्कार है ।।
कात्यायिनि ! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख , सब प्रकार के भयो से हमारी रक्षा करे ! तुम्हे नमस्कार है ।।
भद्रकाली ! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होने वाला , अत्यंत भयंकर और समस्त असुरों का संहार करने वाला तुम्हारा त्रिशूल ,भय से हमे बचाये , तुम्हे नमस्कार है ।।
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राजा जनमेजय ने श्री व्यास जी से पूछा -" भृगु जी के श्राप को सत्य सिद्ध करने के लिए श्री विष्णु जी ने कब और किस प्रकार अवतार ग्रहण किये -
श्री व्यास जी बोले - सारी त्रिलोकी "भगवती प्रकृति " के वशीभूत है ,वे इच्छानुसार जगत को नचाया करती है -परम् पुरुष परमात्मा को प्रसन्न रखने के लिए देवी प्रकृति अखिल विश्व की श्रष्टि में लगी रहती है - अविनाशी आदिपुरुष परमात्मा , परा प्रकृति जो उनसे अभिन्न है , की शक्ति से जगत का निर्माण ,पालन और संहार करते है और उन प्रकृति देवी के आदेशानुसार ही भगवान के बहुत से अवतार हुआ करते है -
नृपवर ! चाक्षुष मन्वन्तर में भगवान श्री हरी का " धर्मावतार " हुआ था जिनके पुत्र तपस्वी नर और नारायण थे *** फिर एक बार जब श्री अत्रि और उनकी पत्नी अनसूया ने तप करके तीनो देवताओ को पुत्र रूप में पाने का वरदान पाया था तब श्री विष्णु भगवान ने उनके यहां " दत्तात्रेय "" के रूप में अवतार लिया था और श्री ब्रम्हा जी , ""मुनि चंद्रमा "" के नाम से व शंकर जी , ""दुर्वासा"" रूप में अत्रि के यहां अवतरित हुए थे -*******- चौथे चतुर्युग में भगवान ने नृसिंहावतार धारण करके हिरण्याकश्यप का वध किया था ****** एक त्रेतायुग में भगवान ने कश्यप पुत्र " वामन भगवान "के रूप में अवतार लेकर दैत्यराज बलि को पृथ्वी से हटाकर पाताल भेजा था ***** एक बार श्री हरि ने परशूराम के रूप में अवतार लिया था ---*** त्रेतायुग में भगवान का '" रामावतार" हुआ था ** ** फिर द्वापर में भगवान ने "श्री कृष्ण " के रूप में अवतार लिया था , इस समय तपस्वी नर ही अर्जुन हुए थे और श्री नारायण ही श्री कृष्ण रूप में आये थे
राजा जनमेजय द्वारा श्री हरि के "श्री कृष्णावतार" के बारे में पूछने पर , श्री व्यास जी बोले --एक बार वसुंधरा पृथ्वी , दुष्टों के भार से परेशान होकर , गाय का रूप रखकर आंसू बहाती हुए देवलोक में इंद्र के पास गयी और बोली ,-- दुष्ट राजाओ का भार मेरे लिये असह होता जा रहा है -- मगध में महा पापी जरासंध -- चेदिदेश में पापी शिशुपाल --काशीराज -- शत्तिशाली रुक्मी -- महाबली कंस , नरकासुर ,शाल्व , दुरात्मा केशी -- धेनुकासुर -- बकासुर आदि शुभ कर्मो से दूर रहने वाले , अत्यंत पापी और दुराचारी है , मेरे ऊपर महात विपत्ति आ गयी है मैं क्या करूं --देवराज इंद्र के साथ पृथ्वी , श्री ब्रम्हा जी के पास और फिर सभी लोग भगवान विष्णु के पास गए और कातर स्वर में उनकी स्तुति की
श्री विष्णु जी बोले कि मैं तथा साथ ही , ब्रम्हा ,शंकर ,इंद्र ,अग्नि यम् त्वष्टा , सूर्य और वरुण सभी परतंत्र है --समपूण् जगत योगमाया के आधीन है ,हम लोग उन्ही की शक्ति से उनके सहकारी के रूप में कार्य करते है ।
श्री विष्णु भगवान के सुझाव पर पृथ्वी और समस्त देवता ---,सदा सभी मे विराजमान रहने वाली योगमाया भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने लगे -- स्मरण करते ही दयालु माँ भगवती साक्षात सामने प्रकट हो गयी --देवताओ ने करूण स्वर में उनकी स्तुति की और और दुष्टों को मारकर सबकी रक्षा करने और पृथ्वी का भार उतारने की प्रार्थना की -- देवी जी बोली **
" मैं अंशावतार धारण करके दुष्टों का वध करूंगी -- कश्यप जी अपनी पत्नी के साथ वसुदेव और देवकी के रूप में पृथ्वी पर जन्म ले चुके है -- अविनाशी विष्णु जी भी भृगु मुनि के श्रापवश वसुदेव और देवकी के पुत्र रूप में अवतरित होंगे --उस समय वे कारागार में जन्म लेंगे मैं उन्हें गोकुल ले जाने की व्यवस्था कर दूंगी -- महाभाग शेष को देवकी के उदर से खींचकर ( संकर्षण ) करके रोहिणी के उदर में मैं स्थापित करूंगी --मेरी शक्ति का सहयोग पाकर दोनो लोग ( बलराम जी और श्री कृष्ण जी ) दुष्टों को दलन करने में लग जाएंगे --मैं गोकुल में यशोदा के उदर से जन्म लूंगी --
अतः आप सभी देवता भगवान विष्णु की सहायता करने के लिए अपनी पत्नियों के साथ मथुरा व गोकुल में जन्म धारण करें""
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पोस्ट --( 540 ) - श्री मद देवी भागवत पुराण -- एक झलक में --( 25 )- भगवान श्री कृष्ण का संक्षेप में चरित्र --
श्री दुर्गा शप्तशती एकादश अध्याय श्लोक 29 / 30 -------
रोगान शेषानपहंसि तुष्टा - रुष्टा तु कामान् सकलान भीष्टान् ;
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां - त्वमाश्रिता हृयाश्रयतां पृयान्ति ।।
एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य -धर्मद्विषां देवि महासुराणाम् ।
रुपैरनेकैर्बहुधाआत्ममूर्ति - कृत्वाम्बिके तत्पृकरोति कान्या ।।
देवि ! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो । जो लोग तुम्हारी शरण मे जा चुके हैं ,उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं । तुम्हारी शरण मे गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं ।।
देवि ! अम्बिके ! तुमने स्वरूप को अनेक भागो में विभक्त करके नाना प्रकार के रूपो से जो इस समय इन धर्म द्रोही महादैत्यो का संहार किया है , वह सब दूसरी कौन कर सकती थी ?।।
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श्री व्यास जी ने कहा -- महादेवी के आदेशानुसार देवता प्रभु को अवतार जनित कार्यो में सहयोग देने के लिए प्रथ्वी पर अवतरित हुए --- कश्यप वसुदेव हुए ;; देवकी अदिति के अंश से प्रगट हुयी ;; बलदेव जी शेषनाग के अंश से ;; भगवान श्री कृष्ण ऋषि नारायण के अंश से ;; और अर्जुन नर के अंश से प्रगट हुए --धर्म के अंश से युधीष्ठिर ;; वायू के अंश से भीमसेन ;; अश्वनीकुमारों के अंश से नकुल और सहदेव ;; कर्ण सूर्य के अंश से ;; विदुर जी धर्म के अंश से ;; द्रोणाचार्य बृहस्पति के अंश से प्रगट हुए ;; समुद्र के अंश से शांतनु :: और गंगा जी उनकी पत्नी भीष्म की माँ बनी ;; देवक गंधर्वराज के अंश से ;;भीष्म वसू के अंश से ;;राजा विराट मरुद्गणों के अंश से ;; दुर्योधन कलि के अंश से ;; शकुनि द्वापर के अंश से ;;द्रष्टद्युम्न अग्नि तथा शिखंडी राक्षस के अंश से ;;प्रद्युम्न सनत्कुमार के अंश से ,;; द्रुपद वरुण के अंश से थे । स्वयम भगवती लक्ष्मी द्रोपदी बन कर पधारी थी ;;द्रोपदी के पांचो पुत्र विश्वदेव के अंश से ;; कुंती सिद्धि के ;;माद्री धृति के -;; गांधारी मति के अंश से ;; और भगवान कृष्ण की पत्नियां स्वर्ग की दिव्य रमणिया अप्सराएं थी ।
शिशुपाल हिरण्याकश्यप के अंश से ;; जरासंध विप्रचित्त के अंश से ;;राजा शल्य प्रह्लाद के अंश से ;;और कालनेमि ही कंस हुआ -- वाराह और किशोर नामक अत्यंत भयंकर दैत्य चारूड और मुष्टिक पहलवान हुए --दैत्यराज दानवीर बलि की पुत्री पूतना बनी और उसका भाई बकासुर बना ;; यम्, रुद्र काम और क्रोध के सम्मिलित अंश से अशवत्थामा प्रगट हुआ ।
इस प्रकार जैसे रामावतार में देवताओ ने भगवान को सहयोग देने के लिए वानर रूप रक्खा था उसी प्रकार श्री कृष्णावतार में प्रभु की लीलाओं में देवता , आदि भगवती के आदेश से सहयोगी बने
महापापी कंस ने जब वसुदेव के 6 पुत्रों को मार डाला और सातवां गर्भ योगमाया ने संकर्षित करके उनकी गोकुल में रह रही दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित किया जिससे श्री बलराम जी का जन्म हुआ -- अब आठवें पुत्र के होने का समय जानकर चिंतित कंस ने कारागार में कैद वसुदेव देवकी पर पहरा बढ़ा दिया --
यथा समय भाद्र पद मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में अर्ध रात्रि में प्रभु चतुर्भज रूप में अवतरित हुए , देवताओ ने स्तुति की फिर वे माँ देवकी की प्रार्थना पर बाल रूप में हो गए - फिर आकाशवाणी के अनुसार वसुदेव प्रभु को लेकर गोकुल में नन्दराज के यहां गए -- वहां योगमाया यशोदा की पुत्री के रूप में अवतरित हो चुकी थी , योगमाया के असर से सभी योगनिद्रा में थे -- एक दासी का भी रूप रखकर योगमाया ने अपने बालिका रूप को लाकर वसुदेव जी को दिया और प्रभु को ले जाकर यशोदा के पास लिटा दिया -- नवजात पुत्री के रूप में योगमाया को लेकर वसुदेव फिर मथुरा में कारागार में आ गए -- कारागार के जो ताले पहले वसुदेव जी के जाते समय खुल गए थे वे योगमाया को लेकर वापस आते ही फिर बन्द हो गए और सोये हुए पहरेदार फिर जग गए
बच्चे के जन्म व रोने का समाचार पाकर कंस कारागार में आया और वसुदेव के मना करने के बावजूद उनसे उस पुत्री को छीन कर मारने के लिए उसके पैर पकड़कर एक शिला पर पटकना चाहा वैसे ही वह योगमाया रूपी पुत्री उसके हाथों से छूट कर आसमान में पंहुचकर कंस से बोली --"" अरे पापी ! मुझे मारने से तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा --तेरा प्रबल शत्रु उत्पन्न हो चुका है - किसी प्रकार भय से उसका दमन नहीं किया जा सकता है --तुम नराधम को वह अवश्य मार डालेगा ""-- यह कहकर वह कल्याण स्वरूपिणी देवी स्वच्छंदता पूर्वक आकाश में विराजमान हो गयी
फिर घबराए हुए कंस ने पूतना , बकासुर ,धेनुकासुर ,वत्सासुर केशी प्रलंब और बक जैसे तमाम असुरों को बुलाकर उन्हें गोकुल में नन्दराज के बालक श्री कृष्ण को मारने भेजा परंतु सभी श्री कृष्ण और बलराम के हाथों मारे गए - केशी के मारे जाने का समाचार सुनकर कंस के मन मे अत्यंत उदासी छा गयी और तब उसने धनुष यज्ञ देखने के बहाने श्री कृष्ण और बलराम को मथुरा बुलाकर उनका वहां वध करने की योजना बनायी --अक्रूर को कंस ने महान् तेजस्वी श्री कृष्ण और बलराम को बुलाकर लाने की आज्ञा दी -कंस का अनुशाशन मानकर वे वृन्दाबन जाकर दोनो को बुला लाये --
वहां आकर दोनो भाइयो ने धनुष तोड़ दिया फिर रजक ,कुवलियापीड हाथी , चारूड और मुष्टिक के प्राण हर लिए --भगवान श्री कृष्ण ने लीलापूर्वक कंस की चोटी पकड़ कर उसे सिंहासन से नीचे फेंक कर उसे सदा के लिए जमीन पर सुला दिया फिर फिर अपने माता पिता को कारागार से छुड़ाकर उनके दुख दूर किये और नाना ( कंस के पिता उगृसेन ) को राज गद्दी पर बैठाया -
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****प्रभु के आते ही जन्म जन्म की बेड़ियों से मुक्ति और उनकी जगह
माया को लाते ही फिर बन्धन**** यह एक शाश्वत नियम है
भगवान श्री कृष्ण के अवतरित होते ही वसुदेव और देवकी की हथकड़ियों का खुलना ,जेल के सभी तालो का खुलना , पहदारो का सो जाना और वसुदेव के योगमाया पुत्री को लेकर आते ही फिर किवाड़ों का बन्द होकर तालो का लगना - पहरेदारों का जागना - यह प्रत्यक्ष उदाहरण है कि
प्रभु के आते ही सब सांसारिक बन्धनों के ताले खुल जाते है और माया की बेड़ियों टूट जाती है और प्रभु को अन्यत्र पंहुचाकर माया को उनकी जगह लेकर आते ही फिर बेड़ियों जकड़ जाती हैं , माया के साथ मुक्ति कभी सम्भव ही नहीं है
कंस के हाथों से देवी का छूट कर आकाश में जाना-- प्रकट करता है प्रभु के बिना माया को अपने पास रोकना असम्भव है माया तो प्रभु की चेरी है
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