🌸🌸जय श्री सीताराम जी 🌸🌸
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मूल प्रकृति से श्री राधा और श्री लक्ष्मी का प्राकट्य
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श्री कृष्ण की चिन्मय शक्ति मूल प्रकृति, उनकी कृपा से गर्भस्थिति का अनुभव करने लगी।सौ मन्वन्तर तक ब्रह्म तेज से उसका शरीर देदीप्यमान रहा । श्री कृष्ण के प्राणों पर उस देवी का अधिकार था ।श्री कृष्ण प्राणों से भी बढ़कर उससे प्यार करते थे । वह सदा उनके साथ रहती थी। श्री कृष्ण का वक्षःस्थल ही उसका स्थान था । सौ मन्वन्तर का समय व्यतीत हो जाने पर उसने एक सुवर्ण के समान प्रकाशमान बालक उत्पन्न किया । उसमें विश्व को धारण करने की समुचित योग्यता थी; किन्तु उसे देखकर उस देवी का हृदय दुख से संतप्त हो उठा। उसने उस बालक को ब्रह्माण्ड-गोलक के अथाह जल में छोड़ दिया ।
इसने बच्चे को त्याग दिया --- यह देखकर देवेश्वर श्री कृष्ण ने तुरंत उस देवी से कहा --- 'अरी कोपशीले ! तूने यह जो बच्चे का त्याग कर दिया है, यह बड़ा घृणित कर्म है । इसके फलस्वरूप तू आज से संतानहीना हो जा। यह बिल्कुल निश्चित है ।यही नहीं, किन्तु तेरे अंश से जो जो दिव्य स्त्रियाँ उत्पन्न होंगी, वे सभी तेरे समान ही नूतन तारुण्य से सम्पन्न रहने पर भी संतान का मुख नहीं देख सकेंगी।'
इतने में उस देवी की जीभ के अग्र भाग से सहसा एक परम मनोहर कन्या प्रकट हो गयी। उसके शरीर का वर्ण शुक्ल था। वह श्वेत वर्ण का ही वस्त्र धारण किए हुए थी। उसके दोनों हाथ वीणा और पुस्तक से सुशोभित थे। सम्पूर्ण शास्त्रों की वह अधिष्ठात्री देवी रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी।
तदनन्तर कुछ समय व्यतीत हो जाने के पश्चात वह मूल प्रकृति देवी दो रूपों में प्रकट हुयी। आधे वाम अंग से 'कमला' का प्रादुर्भाव हुआ और दाहिने से 'राधिका' का।उसी समय श्री कृष्ण भी दो रूप हो गये । आधे दाहिने अंग से स्वयं 'द्विभुज' विराजमान रहे और वायें अंग से 'चार भुजा वाले विष्णु ' का आविर्भाव हो गया ।तब श्री कृष्ण ने सरस्वती से कहा --- 'देवी ! तुम इन विष्णु की प्रिया बन जाओ।मानिनी राधा यहाँ रहेंगी।तुम्हारा परम कल्याण होगा।इसी प्रकार संतुष्ट हो कर श्री कृष्ण ने लक्ष्मी को नारायण की सेवा में उपस्थित होने की आज्ञा प्रदान की।फिर तो जगत की व्यवस्था में तत्पर रहने वाले श्री विष्णु उन सरस्वती और लक्ष्मी देवियों के साथ वैकुण्ठ पधारे।मूल प्रकृतिरूपी राधा के अंश से प्रकट होने के कारण वे देवियाँ भी संतान प्रसव करनेमें असमर्थ रहीं ।
डॉ . अजय दीक्षित
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Dr. AjaiDixit@gmail.Com
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