||जीत को सकै अजय रघुराई ||
||माया के असि रची नहि जाई ||
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डा.अजय दीक्षित
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||राम ||
सर्पों की दो जुबानों का रहस्य:--
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गरूड जी अपनी माता को दासीभाव से मुक्त करने के लिए स्वर्गलोक अमृत लेने के लिए गये देवों को परास्त करके अमृत लेके चले तब उन्हें:---
आकाश में विष्णु भगवान के दर्शन हुए गरुड़ के मन में अमृत पीने का लोभ नहीं था यह जानकर अविनाशी भगवान उन पर बहुत प्रसन्न हुए और बोले गरुण मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं मनचाहा वर मांग लो गरुड़ ने कहा भगवान एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में रखिए दूसरे में अमृत पिए बिना ही अजर अमर हो जाऊं।
भगवान ने कहा तथास्तु गरुड़ ने कहा मैं भी आपको वर देना चाहता हूं मुझसे कुछ मांग लीजिए भगवान ने कहा तुम मेरे वाहन बन जाओ गरुण ने ऐसा ही होगा कहकर उनकी अनुमति से अमृत लेकर यात्रा की अब तक इंद्र की आंखें खुल चुकी थी उन्होंने गरूण को अमृत ले जाते देख क्रोध से भरकर बज्र चलाया ।
गरुड़ ने वज्राहत हो कर भी हंसते हुए कोमल वाणी से कहा इंद्र जिन की हड्डी से यह वज्र बना है उनके सम्मान के लिए मैं अपना एक पंख छोड़ देता हूं ।
तुम उसका भी अंत नहीं पा सकोगे वज्राघात से मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई है गरुड़ ने अपना एक पंख गिरा दिया उसे देख कर लोगों को बड़ा आनंद हुआ।
सब ने कहा जिसका यह पंखा है उस पक्षी का नाम सुपर्ण हो इंद्र ने चकित होकर मन-ही-मन कहा धन्य है यह पराक्रमी पक्षी ! उन्होंने कहा पक्षिराज मैं जानना चाहता हूं कि तुम में कितना बल है साथ ही तुम्हारी मित्रता भी चाहता हूं ।
गरुड़ ने कहा देवराज:--
आपकी इच्छा अनुसार हमारी मित्रता रहे बल के संबंध में क्या बताऊं अपने मुंह से अपने गुणों का बखान बल की प्रशंसा सत्पुरूषों की दृष्टि में अच्छी नहीं है ।
आप मुझे मित्र मानकर पूछ रहे हैं तो मैं मित्र के समान ही बतलाता हूं ।
कि पर्वत वन समुद्र और जल सहित सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहने वाले आप लोगों को अपने एक पंख पर उठाकर मैं बिना परिश्रम उड़ सकता हूं ।
इंद्र ने कहा आपकी बात सोलह आने सत्य है आप अब मेरी घनिष्ट मित्रता स्वीकार कीजिए यदि आपको अमृत की आवश्यकता ना हो तो मुझे दे दीजिए । आप यह ले जाकर जिन्हें देंगे वह हमें बहुत दुख देंगे ।
गरूड जी ने कहा देवराज अमृत को ले जाने का एक कारण है :--
मैं इसे किसी को पिलाना नहीं चाहता हूं मैं इसे जहां रखूं वहां से आप उठा लाइए इन्द्र ने संतुष्ट होकर कहा गरुड़ मुझसे मुंह मांगा वर ले लो !
गरूड को सर्पों की दुष्टता और उनके छल के कारण होने वाले माता के दुख का स्मरण हो आया उन्होंने वर मांगा :--
यह बलवान सर्प ही र्मेरे भोजन की सामग्री हों । देवराज इंद्र ने कहा तथास्तु !
इंद्र से विदा होकर गरूड सर्पों के स्थान पर आए वही उनकी माता भी थी । उन्होंने प्रसन्नता प्रकट करते हुए सर्पों से कहा यह लो मैं अमृत ले आया ,!
परंतु पीने में जल्दी मत करो मैं इसे कुश के ऊपर रख देता हूं। स्नान करके पवित्र हो लो फिर इसे पीना अब तुम लोगों के कथनानुसार मेरी माता दासीपन से छूट गई क्योंकि मैंने तुम्हारी बात पूरी कर दी है ।
सर्पों ने स्वीकार कर लिया जब सर्प गण प्रसन्नता से भर कर स्नान करने के लिए गए तब इंद्र अमृत कलश उठाकर स्वर्ग में ले आएं मंगल कृत्यों से लौटकर सर्पों ने देखा तो अमृत उस स्थान पर नहीं था उन्होंने समझ लिया कि हमने विनिता को दासी बनाने के लिए जो कपट किया था उसी का यह फल है ।
फिर यह समझकर कि यहाँ अमृत रक्खा गया था इस लिए सम्भव हैं इसमें अमृत का कुछ अंश लगा हो, सर्पों ने कुशों को चाटना शरू किया। ऐसा करते ही उनकी जीभ के दो- दो टुकडे हो गये ।
तभी से सर्पों के दो जीभें हो गईं ।
अमृत का स्पर्श होने से कुश पवित्र माना जाने लगा ।
|| राम ||
डा.अजय दीक्षित
DrAjaidixit@Gmail.com
||माया के असि रची नहि जाई ||
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डा.अजय दीक्षित
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||राम ||
सर्पों की दो जुबानों का रहस्य:--
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गरूड जी अपनी माता को दासीभाव से मुक्त करने के लिए स्वर्गलोक अमृत लेने के लिए गये देवों को परास्त करके अमृत लेके चले तब उन्हें:---
आकाश में विष्णु भगवान के दर्शन हुए गरुड़ के मन में अमृत पीने का लोभ नहीं था यह जानकर अविनाशी भगवान उन पर बहुत प्रसन्न हुए और बोले गरुण मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं मनचाहा वर मांग लो गरुड़ ने कहा भगवान एक तो आप मुझे अपनी ध्वजा में रखिए दूसरे में अमृत पिए बिना ही अजर अमर हो जाऊं।
भगवान ने कहा तथास्तु गरुड़ ने कहा मैं भी आपको वर देना चाहता हूं मुझसे कुछ मांग लीजिए भगवान ने कहा तुम मेरे वाहन बन जाओ गरुण ने ऐसा ही होगा कहकर उनकी अनुमति से अमृत लेकर यात्रा की अब तक इंद्र की आंखें खुल चुकी थी उन्होंने गरूण को अमृत ले जाते देख क्रोध से भरकर बज्र चलाया ।
गरुड़ ने वज्राहत हो कर भी हंसते हुए कोमल वाणी से कहा इंद्र जिन की हड्डी से यह वज्र बना है उनके सम्मान के लिए मैं अपना एक पंख छोड़ देता हूं ।
तुम उसका भी अंत नहीं पा सकोगे वज्राघात से मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई है गरुड़ ने अपना एक पंख गिरा दिया उसे देख कर लोगों को बड़ा आनंद हुआ।
सब ने कहा जिसका यह पंखा है उस पक्षी का नाम सुपर्ण हो इंद्र ने चकित होकर मन-ही-मन कहा धन्य है यह पराक्रमी पक्षी ! उन्होंने कहा पक्षिराज मैं जानना चाहता हूं कि तुम में कितना बल है साथ ही तुम्हारी मित्रता भी चाहता हूं ।
गरुड़ ने कहा देवराज:--
आपकी इच्छा अनुसार हमारी मित्रता रहे बल के संबंध में क्या बताऊं अपने मुंह से अपने गुणों का बखान बल की प्रशंसा सत्पुरूषों की दृष्टि में अच्छी नहीं है ।
आप मुझे मित्र मानकर पूछ रहे हैं तो मैं मित्र के समान ही बतलाता हूं ।
कि पर्वत वन समुद्र और जल सहित सारी पृथ्वी को तथा इसके ऊपर रहने वाले आप लोगों को अपने एक पंख पर उठाकर मैं बिना परिश्रम उड़ सकता हूं ।
इंद्र ने कहा आपकी बात सोलह आने सत्य है आप अब मेरी घनिष्ट मित्रता स्वीकार कीजिए यदि आपको अमृत की आवश्यकता ना हो तो मुझे दे दीजिए । आप यह ले जाकर जिन्हें देंगे वह हमें बहुत दुख देंगे ।
गरूड जी ने कहा देवराज अमृत को ले जाने का एक कारण है :--
मैं इसे किसी को पिलाना नहीं चाहता हूं मैं इसे जहां रखूं वहां से आप उठा लाइए इन्द्र ने संतुष्ट होकर कहा गरुड़ मुझसे मुंह मांगा वर ले लो !
गरूड को सर्पों की दुष्टता और उनके छल के कारण होने वाले माता के दुख का स्मरण हो आया उन्होंने वर मांगा :--
यह बलवान सर्प ही र्मेरे भोजन की सामग्री हों । देवराज इंद्र ने कहा तथास्तु !
इंद्र से विदा होकर गरूड सर्पों के स्थान पर आए वही उनकी माता भी थी । उन्होंने प्रसन्नता प्रकट करते हुए सर्पों से कहा यह लो मैं अमृत ले आया ,!
परंतु पीने में जल्दी मत करो मैं इसे कुश के ऊपर रख देता हूं। स्नान करके पवित्र हो लो फिर इसे पीना अब तुम लोगों के कथनानुसार मेरी माता दासीपन से छूट गई क्योंकि मैंने तुम्हारी बात पूरी कर दी है ।
सर्पों ने स्वीकार कर लिया जब सर्प गण प्रसन्नता से भर कर स्नान करने के लिए गए तब इंद्र अमृत कलश उठाकर स्वर्ग में ले आएं मंगल कृत्यों से लौटकर सर्पों ने देखा तो अमृत उस स्थान पर नहीं था उन्होंने समझ लिया कि हमने विनिता को दासी बनाने के लिए जो कपट किया था उसी का यह फल है ।
फिर यह समझकर कि यहाँ अमृत रक्खा गया था इस लिए सम्भव हैं इसमें अमृत का कुछ अंश लगा हो, सर्पों ने कुशों को चाटना शरू किया। ऐसा करते ही उनकी जीभ के दो- दो टुकडे हो गये ।
तभी से सर्पों के दो जीभें हो गईं ।
अमृत का स्पर्श होने से कुश पवित्र माना जाने लगा ।
|| राम ||
डा.अजय दीक्षित
DrAjaidixit@Gmail.com
जय जय सियाराम ! बहुत महत्वपूर्ण जानकारी मिली ! नमन
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