🏵️🏵️जय श्री सीताराम जी 🏵️🏵️
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श्रीराम में मन्दोदरी को ब्रह्म-दर्शन
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श्री राम कथा के नारी पात्रों में मन्दोदरी का अत्यन्त विशिष्ट एवं गौरवपूर्ण स्थान है, यद्यपि वह सब के लिए दुखदायी रावण की पत्नी और मेघनाद जैसे देवशत्रु की माता थी, पर उसका स्वयं का व्यक्तित्व श्री राम के प्रति अत्यन्त आदरभाव से परिपूर्ण रहा। वह रावण की पत्नी के रूप में परम पतिव्रता, नीतिमती और पति का परमहित चाहने वाली थी, परन्तु साथ ही वह उसके अनैतिक कार्यों की विरोधी भी थी। वह श्री राम को एक आदर्श पुरुष के रूप में देखती थी, साथ ही उन्हें परमब्रह्म परमात्मा मानती थी। यद्यपि रावण के वध पर उसे स्वाभाविक शोक था, परन्तु श्री राम के प्रति उनके मन में कहीं भी द्वेषभाव नहीं था, अपितु उसने उनकी भक्तवत्सलता और रावण जैसे शत्रु को भी अपना परमधाम देने की प्रशंसा की थी। विभिन्न ग्रंथों में श्री राम के प्रति उसके निम्नलिखित कथन उसके हृदय की पवित्रता और भगवद्भक्ति को प्रमाणित करते हैं ----
'रामो न मानुष:' -- श्री राम जी कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं।
'मानुषं रूपमास्थाय विष्णु: सत्यपराक्रम:' -- सत्यपराक्रमी भगवान विष्णु ने समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से मनुष्य का रूप धारण किया है।
'रामो देववर: साक्षात्प्रधानपुरुषेश्वर:' -- देवाधिदेव भगवान श्रीराम साक्षात् प्रकृति और पुरुष के नियामक हैं।
'बिस्वरूप रघुवंसमनि' -- रघुकुल-शिरोमणि श्री राम विश्वरूप हैं।
'मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान' -- सारा विश्व उन्हीं का स्वरूप है। उन्हीं चराचररूप भगवान श्री रामचन्द्रजी ने मनुष्य रूप में अवतार लिया है।
'राघवो भक्तवत्सल:' -- श्री राघव भक्तवत्सल हैं।
ये कथन ही नहीं, अपितु मन्दोदरी के हृदय के उद्गार हैं। मयतनुजा निशाचरराज रावण की भार्या मन्दोदरी के श्री राम में ब्रह्मत्व-दर्शन को महर्षि वाल्मीकि जी, महामुनि वेदव्यास जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी तीनों ही युग-सन्तों ने उसे 'महाबुद्धिशालिनी', 'शुभलक्षणा' , नारिललामा' आदि विशेषणों से विभूषित किया है। राक्षसराज रावण स्वयं उसे देवी की तरह सम्मान देता था। यह विधि का विधान ही था कि वह दानवराज मय की पुत्री एवं राक्षसराज रावण की पत्नी थी। हेमा नामक अप्सरा से उसका जन्म हुआ था।
रावण पुलस्त्य का पौत्र था, उसके उच्च वंश को देखकर और पितामह ब्रह्माजी द्वारा वरदान की बात जानकर मय ने उसका रावण के साथ विवाह कर दिया था।
मन्दोदरी के चरित्र में किसी भी रामायण के रचयिता ने किसी तरह की राक्षसीय वृत्ति या विकार नहीं पाया है। जन्म से असुर होने पर भी उसमें आसुरी सम्पत्ति का लेश भी नहीं था। वृत्रासुर, प्रह्लाद एवं विभीषण भी असुरकुलों के ही थे, परन्तु वृत्ति से परम भागवत थे। यह सत्य मन्दोदरी पर भी लागू होता है।
नारी होने के नाते मन्दोदरी की अपनी मर्यादाएं थीं। राजमहल की चहारदीवारी उसकी सीमाएं थीं। अनुनय-विनय उसके अस्त्र-शस्त्र थे। पति हित उसका प्रथम कर्तव्य था। वह पूर्णतया 'पतिहिते रता' सुनारि थी। फिर भी जब-जब रावण कुमार्ग पर जाने को होता, वह अनुनय-विनय से उसे सावधान करती रहती थी। वह विभीषण की तरह राम-शरणागत नहीं हुई। पत्नी होने के नाते शायद उसकी अपनी लक्ष्मण-रेखा थी, परन्तु भगवान तो भावना के भूखे हैं (भाव बस्य भगवान) । इस सन्दर्भ में मन्दोदरी कहीं भी किसी रूप में कम पड़ती दृष्टिगोचर नहीं होती। श्री राम की प्रभुता बताकर वह रावण को समझाते हुए कहती है -- हे नाथ! सुनिए, सीता को लौटाये विना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता---
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।।
नाच-गान के अखाड़े में रावण के साथ बैठी मन्दोदरी के कर्णफूल जब श्री रामचन्द्र जी के एक ही बाण ने काट गिराये, तो उसी क्षण मन्दोदरी को श्री राम में ब्रह्म के दर्शन हो जाते हैं। वह रावण से हाथ जोड़कर प्रार्थना करती है, 'हे प्रियतम! अपना यह हठ छोड़ दीजिए कि श्री राम मनुष्य हैं। मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिए कि रघुकुल के शिरोमणि श्री रामचन्द्र जी विश्वरूप हैं, वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं।' श्री राम के परब्रह्मरूप का वर्णन करते हुए वह कहती है ---
बिस्वरूप रघुबंस मनि
करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर
अंग अंग प्रति जासु।।
अहंकार सिव बुद्धि अज
मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर
रूप राम भगवान।।
रावण ने मन्दोदरी के बचनों को हँसकर टाल दिया। इससे विदुषी मन्दोदरी को यह विश्वास हो गया कि पति कालवश है।
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श्री राम में मन्दोदरी को ब्रह्म-दर्शन
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अंगद ने रावण के गर्व को चूर करके सभा में जब यह सुनाया कि वह रणभूमि में रावण को खेला-खेलाकर मारेगा तो रावण उदास होकर महल में चला गया। चिन्तित रावण को मन्दोदरी इतिहास के कटु सत्यों की याद दिलाकर उनसे शिक्षा लेने की सम्मति देती है, हे स्वामी? आप इस कुमति का परित्याग कर दो कि श्री रघुपति मनुष्य हैं, वे चराचर के स्वामी और अतुलनीय बलवान हैं --
पति रघुपतिहि मनुज जनि मानहु।
अग जग नाथ अतुलबल जानहु।।
आपकी और श्री राम जी की कोई बराबरी नहीं है। श्री राम जी के लघु भ्राता ने एक छोटी सी रेखा खींची थी, आप तो उसको भी नहीं लाँघ सके। फिर उनसे युद्ध कैसे जीतोगे? रणबांकुरे हनुमान एवं अंगद जैसे उनके अनुचर हैं, जो खेल-खेल में ही समुद्र लांँघ जाते हैं। हनुमान ने आपकी अशोक वाटिका क्षत-विक्षत कर दी। आपके महाबली बेटे अक्षयकुमार को मार डाला। सारी लंका जला डाली, फिर भी आप उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके।
याद कीजिए सीता-स्वयंवर, जिसमें आप भी अपना बल आजमाने गये थे। वहाँ इन्हीं श्री राम जी ने शिव जी का धनुष तोड़कर सीता जी को ब्याहा था, उस समय आपने इन्हें संग्राम में क्यों नहीं जीता?
शूर्पणखा की दशा आप देख ही चुके हैं। अकेले श्री रामचन्द्र जी ने आप जैसे ही बलवान खर-दूषण को मार डाला। मारीच से आपने इनकी किशोरावस्था का बल-विक्रम सुन ही लिया है। विराध और कबन्ध को भी इन्होंने ही मारा था। आपके सामने ही इन्होंने खेल-खेल में ही विशाल समुद्र को बांध दिया। ऐसे नारायण को आप पुन:-पुन: साधारण मनुष्य कहते हैं। सच है, संसार में कभी किसी भी प्राणी की मृत्यु अकारण नहीं होती है। लगता है, सीता आपकी मृत्यु की कारण बन गई है। काल--विवश आपकी मति भ्रष्ट हो गई है। काल किसी को लाठी लेकर नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है।
हे नाथ! जिसका काल निकट आ जाता है, उसे आपकी ही तरह भ्रम हो जाता है।
हे प्रियतम! जो हुआ सो हुआ। अभी भी समय है, करुणावरुणालय श्री रघुनाथ जी को भज कर भूल की समाप्ति कर लीजिए। उनसे वैर त्यागकर उनका भजन करके निर्मल यश प्राप्त कीजिए ---
कृपासिंधु रघुनाथ भजि
नाथ बिमल जसु लेहु।।
काल--कुण्ठित रावण कहाँ मानने वाला था? वह विकट घड़ी आ ही गई जिसकी काली परछाई का आभास मन्दोदरी को पहले ही हो चुका था। रावण के कटे सिर मन्दोदरी के सामने आकर गिरते हैं। रावण-वध पर जैसा विलाप मन्दोदरी ने किया, इतिहास में ऐसा तत्त्व-ज्ञान-मय विलाप पति के शव पर शायद ही किसी पत्नी ने किया हो। दोष वह वध करने वाले श्री राम जी पर नहीं, बल्कि वध होने वाले अपने पति के कुकृत्यों को देती है।
सर्वप्रथम मन्दोदरी मृत पति को उपालम्भ देती है और कहती है, राजन् ! आपने बहुत ही धर्मपरायणा, पतिव्रता कुल ललनाओं को विधवा बनाया और उनका अपमान किया था। यह फल आपको मिलने वाला ही था। महाराज! पतिव्रताओं के आँसू इस पृथ्वी पर व्यर्थ नहीं गिरते। यह कहावत आपके ऊपर ठीक-ठीक घटी है ---
'पतिव्रतानां नाकस्मात् पतन्त्यश्रूणि भूतले।'
परंतु पतिपरायणा मन्दोदरी पति का अतुल्य प्रताप बखान करना कैसे भूल सकती है? हे नाथ! तुम्हारी प्रभुता जगत प्रसिद्ध थी। विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। तुम्हारे बल से पृथ्वी कांपती रहती थी। सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का तेज तुम्हारे सामने फीका लगता था। शेष और कच्छप तुम्हारा भार सहन करने में कष्ट महसूस करते थे। लोकपाल तुमको डरकर प्रणाम करते थे। यहाँ तक कि काल और यमराज को भी तुमने अपने भुजबल से जीत लिया था। तुम तो मृत्यु की भी मृत्यु थे। इंद्रजीत जैसे तुम्हारे बेटे एवं अनेक कुटुम्बियों के बल प्रताप का तो कहना ही क्या?
आज उसी दिग्विदयी दशानन के शव को गीदड़ और गिद्ध खा रहे हैं। कुल में तुम्हारे लिए कोई रोने वाला भी नहीं बचा, राम विमुख के लिए यह अनुचित भी नहीं है--
'राम विमुख यह अनुचित नाहीं।'
स्वामिन्! कालविवश होने से आपने किसी का कहना नहीं माना और चराचर के स्वामी परमात्मा को मनुष्य करके जाना --
काल बिबस पति कहा न माना।
अग जग नाथ मनुज करि जाना।।
महाभागवत मन्दोदरी पूर्णतया राम मय हो जाती है, वह स्तुति करती है---
जान्यो मनुज करि दनुज कानन
दहन पावक। हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर
पिय भजेहु नहिं करुनामयं।।
आजन्म जे परद्रोह रत
पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम
नमामि ब्रह्म निरामयं।।
प्रभु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हुई राजमहल को जाती है, विलाप करती हुई नहीं, बल्कि श्री राम के गुणगान करती हुई ---
अहह नाथ रघुनाथ सम
कृपा सिंधु नहिं आन।
जोगि बृंद दुर्लभ गति
तोहि दीन्हि भगवान।।
इस प्रकार मन्दोदरी ने प्रभु श्रीराम को परब्रह्म परमात्मा और श्री सीता जी को जगज्जननी जगदम्बा ही माना था। श्री राम कथा के समस्त पात्रों में उसका चरित्र अत्यन्त विशिष्ट है। शत्रुपत्नी होते हुए भी उसने धर्म, नीति एवं न्यायपथ का सदा अनुसरण किया और पति को भी उसी मार्ग पर ले जाने का निरन्तर प्रयास किया।
--🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴🔴जय सियाराम जय जय हनुमान
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