ऋषियों ने दिया शिव जी को श्राप:---सुरभी गौ द्वारा धर्म का अवतार
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एक बार वाराहकल्प में आदि गौ सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय तीनों लोकों में दूध का अभाव हो गया जिससे समस्त देवता चिन्तित हो गए। तब सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। ब्रह्माजी की आज्ञा से इन्द्र ने आदि गौ सुरभी की स्तुति की–
नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नम:।
गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके।।
नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नम:।
नम: कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नम:।।
कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परे।
श्रीदायै धनदायै बुद्धिदायै नमो नम:।।
शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नम:।
यशोदायै कीर्तिदायै धर्मदायै नमो नम:।। (देवीभागवत ९।४९।२४-२७)
अर्थात्–देवी एवं महादेवी सुरभी को नमस्कार है। जगदम्बिके ! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो, तुम्हे नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हे बारम्बार नमस्कार है। श्रीकृष्णप्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिए कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है।
इस स्तुति से आदि गौ सुरभि प्रसन्न हो गईं। फिर तो सारा विश्व दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ होने लगे जिससे देवता भी प्रसन्न हो गए।
ललकते सुर भी सुरभी हेतु,
यही है धर्म-शक्ति का केतु।
नन्दिनी-कामधेनु का रूप,
घूमते जिनके पीछे भूप।। (पं. जगमोहननाथ अवस्थी)
एक बार भगवान शंकर से ऋषियों का कुछ अपराध हो गया। ऋषियों ने उन्हें घोर शाप दे डाला। महेश्वर गोलोक में सुरभी की शरण में गए और उन्होंने स्तुति करते हुए कहा–’मां सुरभी ! तुम सृष्टि, स्थिति, विनाश करने वाली, रस से भूतल को आप्यायित करने वाली, विश्व-हेतु और सबको बल-पोषण प्रदान करने वाली, रुद्रों की मां, आदित्यों की बहन, वसुओं की पुत्री और घृतरूप अमृत का खजाना हो। यज्ञभाग वहन करने वाली शक्ति ‘स्वाहा’ और पितरों के लिए पिण्डोदक वहन करने वाली ‘स्वधा’ भी तुम्ही हो। ब्राह्मणों के शाप से मेरा शरीर दग्ध (जला) हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो।’
इस प्रकार स्तुति करके शंकरजी सुरभी की देह में प्रवेश कर गए और सुरभी ने उन्हें अपने गर्भ में धारण कर लिया। शिवजी के न होने से त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। सभी देवता उन्हें ढूंढ़ते हुए गोलोक पहुंचे वहां उन्हें परम तेजस्वी ‘नीलवृषभ’ दिखाई दिया। भगवान शंकर ही इस वृषभ के रूप में सुरभी से अवतीर्ण हुए थे। तब सभी ऋषियों व देवताओं ने नीलवृषभरुपी शंकरजी की स्तुति करते हुए वर दिया कि मृत प्राणी के एकादशाह के दिन नीलवृषभ को गायों के समूह में छोड़ दिया जाएगा तो वह जगत का कल्याण करता रहेगा। भगवान प्रजापति ने महादेवजी को एक वृषभ प्रदान किया जिसे शंकरजी ने अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी वृषभ के चिह्न से सुशोभित किया। इसीलिए उनका नाम वृषभध्वज पड़ा। फिर देवताओं ने महादेवजी को पशुओं का स्वामी (पशुपति) बना दिया। गौओं के बीच में उनका नाम वृषभांक रखा गया।
धर्म का जन्म गाय से है; क्योंकि धर्म वृषभरूप है और गाय के पुत्र को ही वृषभ कहा जाता है। नीलवृषभ के रूप में स्वयं धर्म प्रकट हुए हैं।
भगवान श्रीकृष्ण और उनकी गो-सेवा
गोकुलेश गोविन्द प्रभु, त्रिभुवन के प्रतिपाल।
गो-गोवर्धन-हेतु हरि, आपु बने गोपाल।।
द्वापर में दुइ काज-हित, लियौ प्रभुहि अवतार।
इक गो-सेवा, दूसरौ भूतल कौं उद्धार।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘सांवरा’)
श्रीकृष्णावतार में भगवान श्रीकृष्ण ‘गोपाल’ और ‘गोविन्द’ नाम धारणकर गायों के सेवक व रक्षक बन कर अवतरित हुए।
भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यजीवन गो-सेवा में बीता इसीलिए उनका नाम ‘गोपाल’ पड़ा। पूतना के वध के बाद गोपियां श्रीकृष्ण के अंगों पर गोमूत्र, गोरज व गोमय लगा कर शुद्धि करती हैं क्योंकि उन्होंने पूतना के मृत शरीर को छुआ था और गाय की पूंछ को श्रीकृष्ण के चारों ओर घुमाकर उनकी नजर उतारती हैं। तीनों लोकों के कष्ट हरने वाले श्रीकृष्ण के अनिष्ट हरण का काम गाय करती है। जब-जब श्रीकृष्ण पर कोई संकट आया; नन्दबाबा और यशोदामाता ब्राह्मणों को स्वर्ण, वस्त्र व पुष्पमाला से सजी गायों का दान करते थे। यह है गोमाता की महिमा और श्रीकृष्ण के जीवन में उनका महत्व। वे व्रजराजकिशोर व्रज के वनोपवनों में, गिरिराज की मनोरम घाटियों में तथा कालिन्दी के कमनीय कूलों पर नंगे चरणों गोपसमूहों के साथ गौओं के पीछे-पीछे घूमा करते थे। नंदबाबा के घर सैंकड़ों ग्वालबाल सेवक थे पर श्रीकृष्ण गायों को दुहने का काम भी स्वयं करना चाहते थे–
तनक कनक की दोहनी दे री मैया।
तात दुहन सिखवन कह्यौ मोहि धौरी गैया।।
सूरदासजी ने यशोदामाता और लाड़ले कान्हा के आपसी संवादों से गो-महिमा और श्रीकृष्ण की गो-भक्ति का कितना मधुर वर्णन किया है–
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृंदाबन के भांति-भांति फल अपने कर मैं खेहौं।।
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखो अपनी भांति।
तनक-तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैह्वै राति।।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं सांझ।
तुम्हरौ कमल-बदन कुम्हिलैहैं, रेंगत घामहिं मांझ।।
तेरी सौं मोहिं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत, परयौ आपनी टेक।।
कन्हैया ने आज माता से गाय चराने के लिए जाने की जिद की और कहने लगे कि भूख लगने पर वे वन में तरह-तरह के फलों के वृक्षों से फल तोड़कर खा लेंगें। पर माँ का हृदय इतने छोटे और सुकुमार बालक के सुबह से शाम तक वन में रहने की बात से डर गया और वे कन्हैया को कहने लगीं कि तुम इतने छोटे-छोटे पैरों से सुबह से शाम तक वन में कैसे चलोगे, लौटते समय तुम्हें रात हो जाएगी। तुम्हारा कमल के समान सुकुमार शरीर कड़ी धूप में कुम्हला जाएगा परन्तु कन्हैया के पास तो मां के हर सवाल का जवाब है। वे मां की सौगन्ध खाकर कहते हैं कि न तो मुझे धूप (गर्मी) ही लगती है और न ही भूख और वे मां का कहना न मानकर गोचारण की अपनी हठ पर अड़े रहे।
मोरमुकुटी, वनमाली, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण यमुना में अपने हाथों से मल-मल कर गायों को स्नान कराते, अपने पीताम्बर से ही गायों का शरीर पौंछते, सहलाते और बछड़ों को गोद में लेकर उनका मुख पुचकारते और पुष्पगुच्छ, गुंजा आदि से उनका श्रृंगार करते। तृण एकत्रकर स्वयं अपने हाथों से उन्हें खिलाते। गायों के पीछे वन-वन वे नित्य नंगे पांव कुश, कंकड़, कण्टक सहते हुए उन्हें चराने जाते थे। गाय तो उनकी आराध्य हैं और आराध्य का अनुगमन पादत्राण (जूते) पहनकर तो होता नहीं।
परमब्रह्म श्रीकृष्ण गायों को चराने के लिए जाते समय अपने हाथ में कोई छड़ी आदि नहीं रखते थे; केवल वंशी लिए हुए ही गायें चराने जाते थे। वे गायों के पीछे-पीछे ही जाते हैं और गायों के पीछे-पीछे ही लौटते हैं, गायों को मुरली सुनाते हैं। सुबह गोसमूह को साष्टांग प्रणिपात (प्रणाम) करते और सायंकाल ‘पांडुरंग’ बन जाते (गायों के खुरों से उड़ी धूल से उनका मुख पीला हो जाता था)। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आते और आश्चर्यचकित रह जाते कि जो परमब्रह्म श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योगियों के समाधि लगाने पर भी ध्यान में नहीं आते, वे ही श्रीकृष्ण गायों के पीछे-पीछे नंगे पांव वनों में हाथ में वंशी लिए घूम रहे हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य की बात भला और क्या होगी?
जब वन से गायों के समूह को लेकर लौटते तो उस समय उनकी छवि की शोभा को देखने के लिए यूथ-की-यूथ व्रजांगनाएं मार्ग के दोनों ओर खड़ीं रहतीं और आपस में कहतीं–सखी ! तनिक श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी तो देख। मोहन गायें चराकर आ रहे हैं। उनके मस्तक पर नारंगी पगड़ी है जिस पर मयूरपिच्छ का मुकुट लगा है, मुख पर काली-काली अलकें बिखरी हुई हैं जिनमें चम्पा की कलियां सजाई गयीं हैं, उनके नुकीले अरुनारे (आंखों की लालिमायुक्त कोर), चंचल नेत्र हैं, टेढ़ी भौंहें, लाल-लाल अधरों पर खेलती मधुर मुसकान और अनार के दानों जैसी दंतपक्ति, वक्ष:स्थल पर वनमाला और गाय के खुर से उड़कर मुख पर लगी धूल सुहावनी लग रही है। गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्याम श्रीकृष्ण रसमयी वंशी बजाते हुए चल रहे हैं और सखामंडली उनकी गुणावली गाती चल रही है। गेरु आदि से चित्रित सुन्दर नट के समान वेष में ये नवलकिशोर मस्त गजराज की तरह चलते हुए आ रहे हैं। चलते समय उनकी कमर में करधनी के किंकणी और चरणों के नुपुरों के साथ गायों के गले में बंधी घण्टियों की मधुर ध्वनि–ये सब मिलकर कानों में मानो अमृत घोल रहे हों। इस सांवले, सुकुमार की चितवन में, चन्द्रिका में, मुरली में ऐसी कौन-सी मोहिनी है जो इनको देखते ही सुर, नर, मुनि, खग-मृग सब मोहित हो जाते हैं। हमारा मन भी कभी घर में नहीं लगता–‘जब तैं दृष्टि परे मनमोहन, गृह मेरौ मन न लगौ री। अष्टछाप के कवि नन्ददासजी के शब्दों में–
गोरज राजत साँवरें अंग।
देख सखी बन ते ब्रज आवत गोबिंद गोधन संग।।
भगवान श्रीकृष्ण को केवल गायों से ही नहीं अपितु गोरस (दूध, दही, मक्खन, आदि) से भी अद्भुत प्रेम था, उस प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण गोरस की चोरी भी करते थे। श्रीकृष्ण द्वारा ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुष्टिक, चाणूर, कुवलयापीड हाथी और कंस का वध गोरस के अद्भुत चमत्कार के प्रमाण हैं और इसी गोदुग्ध का पानकर भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य गीतारूपी अमृत संसार को दिया।
भगवान श्रीकृष्ण ने गोमाता की रक्षा के लिए क्या-क्या नहीं किया? उन्हें दावानल से बचाया, ब्रह्माजी से छुड़ाकर लाए, गायों के लिए ही कालियह्रद को शुद्ध किया। कालियह्रद का जल पीने से जो गायें मृत्यु को प्राप्त हुईं, उन्हें श्रीकृष्ण ने जीवनदान दिया। इन्द्र के कोप से गायों और व्रजवासियों की रक्षा के लिए गिरिराज गोवर्धन को कनिष्ठिका अंगुली पर उठाया। तब देवराज इन्द्र ने ऐरावत हाथी की सूंड़ के द्वारा लाए गए आकाशगंगा के जल से तथा कामधेनु ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और कहा कि ‘जिस प्रकार देवों के राजा देवेन्द्र हैं, उसी प्रकार आप हमारे राजा ‘गोविन्द’ हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने ही ‘गोधन की सौं’ शपथ प्रचलित कराई। वंशी की ध्वनि से प्रत्येक गाय को नाम ले-लेकर पुकारते थे और वंशी की टेर सुनकर चाहे वे गायें कितनी भी दूर क्यों न हों, दौड़कर उनके पास पहुंच जातीं और चारों ओर से उन्हें घेरकर खड़ी हो जाती हैं–
गोविन्द गिरि चढ़ गाय बुलावत।
गायँ बुलाईं धूमर-धौरी टेरत वेणु बजाय।।
जब श्रीकृष्ण सांदीपनिमुनि के आश्रम में विद्याध्ययन के लिए गए वहां भी उन्होंने गो-सेवा की। उनकी द्वारकालीला में तो स्पष्ट वर्णन है कि 13,084 ऐसी गायों का दान प्रतिदिन द्वारकाधीश श्रीकृष्ण करते थे जो पहले-पहल ब्यायी हुई, दुधार, बछड़ों वाली, सीधी, शान्त होती थीं और जिनके सींग स्वर्णमण्डित, खुर रजतमण्डित, पूंछ में मोती की माला और जवाहरात से पिरोई हुयी रेशमी झूल होती थी। इतना गोदान नित्य करते थे तो भगवान श्रीकृष्ण के पास कितनी गौएं होंगी? इस प्रकार कृष्णावतार में गाय ही प्रधान है।
भक्त बिल्वमंगल ने श्रीकृष्णकर्णामृत ग्रन्थ में कहा है–हे प्रभो ! तुम व्रज की कीच में तो विहार करते हो, पर ब्राह्मणों के यज्ञ में पहुंचने में आपको लज्जा आती है। गायों के व बछड़ों के हुंकार करने पर उनकी हुंकारवाली भाषा को आप समझ लेते हो, बस दौड़े हुए आप उनके पास चले जाते हो और उनको गले से लगा लेते हो। पर जब बड़े-बड़े ज्ञानी स्तुति करते हैं तब आप चुप खड़े रह जाते हो। हे कृष्ण! मैं जान गया, आप और किसी तत्त्व का आदर नहीं करते, तुम तो केवल प्रेम का आदर करते हो। जिसके हृदय में प्रेम है, उसी से तुम रीझ जाते हो।
अष्टछाप के एक अन्य कवि छीतस्वामी ने गोविंद के गो-प्रेम का बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है–
आगे गाय पाछे गाय, इत गाय उत गाय,
गोबिंद कों गायन में बसिबोई भावै।
गायन के संग धावै, गायन में सचु पावै,
गायन की खुररेनु अंग लपटावै।।
गायन सों ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत कर गिरि लै उठावै।
छीतस्वामी गिरधारी बिट्ठलेस बपुधारी
ग्वारिया को भेस धरें गायन में आवै।।
आचार्य डा.अजय दीक्षित
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*जय श्री राम⛳⛳*
*वन्दे मातरम⛳⛳*
*भारत माता की जय⛳⛳*
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