💥💥जय श्री सीताराम जी 💥💥
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🌷🌷दुखों का जनक--लोभ🌷🌷
लोभ का अर्थ है लालच, लिप्सा और लालसा। यह एक ऐसी प्रबल मानवीय इच्छा है, जिसकी पूर्ति हो जाने के बावजूद उसे कभी तृप्ति अथवा संतुष्टि नहीं मिलती। व्यक्ति को ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों उसका लोभ भी बढ़ता जाता है। इसलिए लोभ को कई बार 'पाप का बाप' भी कह दिया जाता है ---
लालच लिप्सा लालसा आकांक्षा अरु चाह।
परधन लुण्ठन वृत्ति में करता लोभ तबाह।।
करता लोभ तबाह कभी संतोष न देता।
लौकिक संग पारलौकिक के सुख हर लेता।।
अतः बन्धुओं शास्त्रविहित स्वीकारें यह सब।
करें स्वजीवन धन्य, त्यागकर लिप्सा लालच।।
लोभ की पूर्ति कभी नहीं होती, इसलिए लोभ के साथ क्षोभ सदा बना रहता है। लोभ हमारे मनोभावों पर अमरबेल की तरह छा जाता है। व्यक्ति हर पल लालसा की अग्नि में दहकता रहता है।
इस संसार में लोभ से तुच्छ, असार और विनाशकारी तत्त्व और कोई नहीं है। श्री रामचरितमानस में संत श्री तुलसीदास जी ने भक्त विभीषण के मुखारविंद से यह कहलाया कि भले ही कोई व्यक्ति गुणों का सागर क्यों न हो, किंतु यदि उसमें लेशमात्र भी लोभ है तो उसे भला व्यक्ति कभी नहीं कहा जा सकता---
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।
इस सन्दर्भ में एक बोधकथा है। एक नगर में एक वेश्या रहती थी। उसी के घर के सामने एक मकान में एक विद्वान ब्राह्मण भी रहा करता था। वेश्या के नीच कर्म को जानकर ब्राह्मण उससे घृणा करने लगा। जब कभी वह उस वेश्या को देखता तो अपना मुंह दूसरी ओर फेर लेता। वेश्या इस बात को जानती थी कि ब्राह्मण उससे नफरत करता है, परन्तु फिर भी वेश्या के मन में ब्राह्मण के प्रति कोई दुर्भाव नहीं था। एक बार अपने जन्मदिन के अवसर पर वेश्या ने हवन कराने का निश्चय किया। उसने ब्राह्मण से इस कार्य को करने हेतु अनुरोध किया, लेकिन ब्राह्मण ने इनकार कर दिया। फिर वेश्या ने अपने किसी परिचित के माध्यम से ब्राह्मण से सम्पर्क किया और दक्षिणा के रूप में स्वर्ण का कंगन भेंट करने का लालच दिया।
ब्राह्मण ने काफी मनुहार के बाद वेश्या के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। हवन कार्य समाप्त होने के बाद वेश्या ने खीर-हलवे का प्रसाद ब्राह्मण को परोसा, परंतु उसने कोई बहाना बनाकर खाने से इनकार कर दिया। वेश्या के द्वारा काफी अनुनय-विनय करने के बाद ब्राह्मण ने प्रसाद ग्रहण किया; क्योंकि उसे डर था कि कहीं प्रसाद न लेने पर दक्षिणा से भी वंचित न रह जाऊँ।
तब वेश्या ने ब्राह्मण देवता से एक प्रश्न किया कि आदमी पाप क्यों करता है? ब्राह्मण देवता समझ गये कि यह प्रश्न उनसे क्यों किया जा रहा है। उन्होंने कहा --- देवी! लोभ पाप की जड़ है। यह मनुष्य की बुद्धि और विवेक को हर लेता है, जिससे वह पाप कर बैठता है। लोभ के कारण तुम अपना शरीर बेच रही हो और लोभ के कारण ही आज मैंने अपना ईमान बेचा है।
सुन्दरकाण्ड में मानसकार ने काम, क्रोध और मद के साथ-ही-साथ लोभ को भी नरक के मार्ग के रूप में अभिहित किया है ---
काम क्रोध मद लोभ सब
नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि
भजहु भजहिं जेहि संत।।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में काम, क्रोध और लोभ को विनाशकारी नरक के द्वार की संज्ञा दी है। अतः इन तीनों को त्यागना ही उचित है। यथा ---
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में एक स्थान पर कहा है कि काम, क्रोध और लोभ तीनों दुष्ट उत्पात मचाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। इसलिए इनसे मुक्ति तभी मिल सकती है, जब हम सब प्रकार की वासनाओं से रहित हो जायँ --
तात तीनि अति प्रवल खल
काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन
करहिं निमिष महुं छोभ।।
कलियुग में लोभ ने एक महामारी का रूप ले लिया है, जिससे भृष्टाचार की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। आज विश्व में भ्रष्टाचार ने जो बिकराल रूप धारण कर रखा है, वह सब लोभ के कारण ही है। जब कि हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उनका पेट भर जाय। इससे अधिक सम्पत्ति को जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दंड मिलना चाहिए ---
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
आधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।
लोभी मनुष्य की कामना कभी पूरी नहीं होती। लोभ की स्थिति तो यह है कि जैसे लकड़ी अपने ही भीतर से प्रकट हुई आग के द्वारा जलकर नष्ट हो जाती है,उसी प्रकार जिसका मन वश में नहीं हुआ, वह पुरुष अपने साथ ही पैदा हुई लोभवृत्ति के कारण नाश को प्राप्त हो जाता है---
यथैध: स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।
तथा कृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति।।
इसके लिए आवश्यक है कि हमें जितना प्रभु से मिला है, उसमें संतोष करें। जितना मिला है, उसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करें और जो नहीं मिला है, उसके लिए कभी आहत न हों, कभी शिकायत न करें। जो इस भावदशा में जीता है, वही वास्तविक धनवान है। संत कबीर दास जी ने बड़ी सुंदर बात कही है ---
गोधन गजधन बाजिधन
और रतनधन खान।
जब आवे संतोष धन,
सब धन धूरि समान।।
(कल्याण - 86/5)
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