शनिवार, 28 सितंबर 2019

नौ देवियाँ / नव देवी →नौ 


नौ देवियाँ / नव देवी →नौ दिन यानि हिन्दी माह चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की पड़वा यानि पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी मतलब नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं :

1. शैलपुत्री 2. ब्रह्मचारिणी 3. चंद्रघंटा  4. कूष्माण्डा 5. स्कन्दमाता 6. कात्यायनी 7. कालरात्रि 8. महागौरी 9. सिध्दीदात्री

इनका नौ जड़ी बूटी या ख़ास व्रत की चीजों से भी सम्बंध है, जिन्हे नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है :

1. कुट्टू (शैलान्न)
2. दूध-दही, (ब्रह्मचारिणी)
3. चौलाई (चंद्रघंटा)
4. पेठा (कूष्माण्डा)
5. श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
6. हरी तरकारी (कात्यायनी)
7. काली मिर्च व तुलसी (कालरात्रि)
8. साबूदाना (महागौरी)
9. आंवला(सिध्दीदात्री)

अष्टमी या नवमी → यह कुल परम्परा के अनुसार तय किया जाता है। भविष्योत्तर पुराण में और देवी भावगत के अनुसार, बेटों वाले परिवार में या पुत्र की चाहना वाले परिवार वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए। वैसे अष्टमी, नवमी और दशहरे के चार दिन बाद की चौदस, इन तीनों की महत्ता 'शाक्त-शास्त्रों' में कही गई है।लेकिन हमारे बेतिया या बिहार,नेपाल अथवा यूं कहें कि उत्तर भारत में दशमी को पारण करने का विधा्न ग्राह्य है!

नवरात्र आगमन पर क्यों हो रही है वर्षा-


(आगमन)
शशि सूर्ये गजारूढ़ा,शनि भौमे तुरङ्गमे।
गुरौ शुक्रे च दोलायां, बुधे नौका प्रकीर्तिता॥

अर्थ :
रविवार और सोमवार को भगवती हाथी पर आती हैं,
शनि और मंगल वार को घोड़े पर,
बृहस्पति और शुक्रवार को डोला पर,
बुधवार को नाव पर आती हैं।
 (फलम)

गजेश जलदा देवी क्षत्रभंग तुरंगमे।
नौकायां कार्यसिद्धिस्यात् दोलायों मरणधु्रवम्॥

अर्थात्: दुर्गा हाथी पर आने से अच्छी वर्षा होती है,
घोड़े पर आने से राजाओं में युद्ध होता है।
नाव पर आने से सब कार्यों में सिद्ध मिलती है और
यदि डोले पर आती है तो उस वर्ष में अनेक कारणों से बहुत लोगों की मृत्यु होती है।
 (गमन)

शशि सूर्य दिने यदि सा विजया महिषागमने रुज शोककरा,
शनि भौमदिने यदि सा विजया चरणायुध यानि करी विकला।
बुधशुक्र दिने यदि सा विजया गजवाहन गा शुभ वृष्टिकरा,
सुरराजगुरौ यदि सा विजया नरवाहन गा शुभ सौख्य करा॥

भगवती रविवार और सोमवार को महिषा (भैंसा)की सवारी से जाती है जिससे देश में रोग और शोक की वृद्धि होती है।
शनि और मंगल को चरानायुध /कुकुट( मुर्गा) जाती  हैं जिससे विकलता की वृद्धि होती है।
बुध और शुक्र दिन में भगवती हाथी पर जाती  हैं। इससे वृष्टि वृद्धि होती है।
 बृहस्पति वार को भगवती मनुष्य की सवारी से जाती हैं। जो सुख और सौख्य की वृद्धि करती है।
इस प्रकार भगवती का आना जाना शुभ और अशुभ फल सूचक हैं।
इस फल का प्रभाव यजमान पर ही नहीं, पूरे राष्ट्र पर पड़ता हैं।

आगमन : रविवार ( फल वृष्टि )
गमन  :मंगलवार (फल विकलता / परेशानी )

     


     नवरात्र के दौरान सभी दिन एक कन्या का पूजन होता है, जबकि अष्टमी और नवमी पर नौ कन्याओं का पूजन किया जाता है।


2. दो वर्ष की कन्या का पूजन करने से घर में दुख और दरिद्रता दूर हो जाती है।

3.तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति का रूप मानी गई हैं। त्रिमूर्ति के पूजन से घर में धन-धान्‍य की भरमार रहती है, वहीं परिवार में सुख और समृद्धि जरूर रहती है।

4.चार साल की कन्या को कल्याणी माना गया है। इनकी पूजा से परिवार का कल्याण होता है, वहीं पांच वर्ष की कन्या रोहिणी होती हैं। रोहिणी का पूजन करने से व्यक्ति रोगमुक्त रहता है।

5. छह साल की कन्या को कालिका रूप माना गया है। कालिका रूप से विजय, विद्या और राजयोग मिलता है। 7 साल की कन्या चंडिका होती है। चंडिका रूप को पूजने से घर में ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

6. 8 वर्ष की कन्याएं शाम्‍भवी कहलाती हैं। इनको पूजने से सारे विवाद में विजयी मिलती है। 9साल की की कन्याएं दुर्गा का रूप होती हैं। इनका पूजन करने से शत्रुओं का नाश हो जाता है और असाध्य कार्य भी पूरे हो जाते हैं।

7. दस साल की कन्या सुभद्रा कहलाती हैं। सुभद्रा अपने भक्तों के सारे मनोरथ पूरा करती हैं।

कन्या का सम्मान सिर्फ 9 दिन नहीं जीवनभर करें। नवरात्र के दौरान भारत में कन्याओं को देवी का रूप मानकर पूजा जाता है। लेकिन, कुछ लोग नवरात्र के बाद यह सबकुछ भूल जाते हैं। बहूत-सी जगह कन्याएं शोषण का शिकार होती हैं और उनका अपमान हो रहा है।





शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

ऋषियों ने दिया शिव जी को श्राप:---सुरभी गौ द्वारा धर्म का अवतार

ऋषियों ने दिया शिव जी को श्राप:---सुरभी गौ द्वारा धर्म का अवतार
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एक बार वाराहकल्प में आदि गौ सुरभी ने दूध देना बंद कर दिया। उस समय तीनों लोकों में दूध का अभाव हो गया जिससे समस्त देवता चिन्तित हो गए। तब सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। ब्रह्माजी की आज्ञा से इन्द्र ने आदि गौ सुरभी की स्तुति की–

नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नम:।
गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके।।
नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नम:।
नम: कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नम:।।
कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परे।
श्रीदायै धनदायै बुद्धिदायै नमो नम:।।
शुभदायै प्रसन्नायै गोप्रदायै नमो नम:।
यशोदायै कीर्तिदायै धर्मदायै नमो नम:।। (देवीभागवत ९।४९।२४-२७)

अर्थात्–देवी एवं महादेवी सुरभी को नमस्कार है। जगदम्बिके ! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो, तुम्हे नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हे बारम्बार नमस्कार है। श्रीकृष्णप्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है। जो सबके लिए कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और वृद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। यश और कीर्ति प्रदान करने वाली धर्मज्ञा देवी को बार-बार नमस्कार है।

इस स्तुति से आदि गौ सुरभि प्रसन्न हो गईं। फिर तो सारा विश्व दूध से परिपूर्ण हो गया। दूध से घृत बना और घृत से यज्ञ होने लगे जिससे देवता भी प्रसन्न हो गए।

ललकते सुर भी सुरभी हेतु,
यही है धर्म-शक्ति का केतु।
नन्दिनी-कामधेनु का रूप,
घूमते जिनके पीछे भूप।। (पं. जगमोहननाथ अवस्थी)

एक बार भगवान शंकर से ऋषियों का कुछ अपराध हो गया। ऋषियों ने उन्हें घोर शाप दे डाला। महेश्वर गोलोक में सुरभी की शरण में गए और उन्होंने स्तुति करते हुए कहा–’मां सुरभी ! तुम सृष्टि, स्थिति, विनाश करने वाली, रस से भूतल को आप्यायित करने वाली, विश्व-हेतु और सबको बल-पोषण प्रदान करने वाली, रुद्रों की मां, आदित्यों की बहन, वसुओं की पुत्री और घृतरूप अमृत का खजाना हो। यज्ञभाग वहन करने वाली शक्ति ‘स्वाहा’ और पितरों के लिए पिण्डोदक वहन करने वाली ‘स्वधा’ भी तुम्ही हो। ब्राह्मणों के शाप से मेरा शरीर दग्ध (जला) हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो।’

इस प्रकार स्तुति करके शंकरजी सुरभी की देह में प्रवेश कर गए और सुरभी ने उन्हें अपने गर्भ में धारण कर लिया। शिवजी के न होने से त्रिलोकी में हाहाकार मच गया। सभी देवता उन्हें ढूंढ़ते हुए गोलोक पहुंचे वहां उन्हें परम तेजस्वी ‘नीलवृषभ’ दिखाई दिया। भगवान शंकर ही इस वृषभ के रूप में सुरभी से अवतीर्ण हुए थे। तब सभी ऋषियों व देवताओं ने नीलवृषभरुपी शंकरजी की स्तुति करते हुए वर दिया कि मृत प्राणी के एकादशाह के दिन नीलवृषभ को गायों के समूह में छोड़ दिया जाएगा तो वह जगत का कल्याण करता रहेगा। भगवान प्रजापति ने महादेवजी को एक वृषभ प्रदान किया जिसे शंकरजी ने अपना वाहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी वृषभ के चिह्न से सुशोभित किया। इसीलिए उनका नाम वृषभध्वज पड़ा। फिर देवताओं ने महादेवजी को पशुओं का स्वामी (पशुपति) बना दिया। गौओं के बीच में उनका नाम वृषभांक रखा गया।

धर्म का जन्म गाय से है; क्योंकि धर्म वृषभरूप है और गाय के पुत्र को ही वृषभ कहा जाता है। नीलवृषभ के रूप में स्वयं धर्म प्रकट हुए हैं।

भगवान श्रीकृष्ण और उनकी गो-सेवा
गोकुलेश गोविन्द प्रभु, त्रिभुवन के प्रतिपाल।
गो-गोवर्धन-हेतु हरि, आपु बने गोपाल।।
द्वापर में दुइ काज-हित, लियौ प्रभुहि अवतार।
इक गो-सेवा, दूसरौ भूतल कौं उद्धार।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘सांवरा’)

श्रीकृष्णावतार में भगवान श्रीकृष्ण ‘गोपाल’ और ‘गोविन्द’ नाम धारणकर गायों के सेवक व रक्षक बन कर अवतरित हुए।

भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यजीवन गो-सेवा में बीता इसीलिए उनका नाम ‘गोपाल’ पड़ा। पूतना के वध के बाद गोपियां श्रीकृष्ण के अंगों पर गोमूत्र, गोरज व गोमय लगा कर शुद्धि करती हैं क्योंकि उन्होंने पूतना के मृत शरीर को छुआ था और गाय की पूंछ को श्रीकृष्ण के चारों ओर घुमाकर उनकी नजर उतारती हैं। तीनों लोकों के कष्ट हरने वाले श्रीकृष्ण के अनिष्ट हरण का काम गाय करती है। जब-जब श्रीकृष्ण पर कोई संकट आया; नन्दबाबा और यशोदामाता ब्राह्मणों को स्वर्ण, वस्त्र व पुष्पमाला से सजी गायों का दान करते थे। यह है गोमाता की महिमा और श्रीकृष्ण के जीवन में उनका महत्व। वे व्रजराजकिशोर व्रज के वनोपवनों में, गिरिराज की मनोरम घाटियों में तथा कालिन्दी के कमनीय कूलों पर नंगे चरणों गोपसमूहों के साथ गौओं के पीछे-पीछे घूमा करते थे। नंदबाबा के घर सैंकड़ों ग्वालबाल सेवक थे पर श्रीकृष्ण गायों को दुहने का काम भी स्वयं करना चाहते थे–

तनक कनक की दोहनी दे री मैया।
तात दुहन सिखवन कह्यौ मोहि धौरी गैया।।

सूरदासजी ने यशोदामाता और लाड़ले कान्हा के आपसी संवादों से गो-महिमा और श्रीकृष्ण की गो-भक्ति का कितना मधुर वर्णन किया है–

आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृंदाबन के भांति-भांति फल अपने कर मैं खेहौं।।
ऐसी बात कहौ जनि बारे, देखो अपनी भांति।
तनक-तनक पग चलिहौ कैसैं, आवत ह्वैह्वै राति।।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत हैं सांझ।
तुम्हरौ कमल-बदन कुम्हिलैहैं, रेंगत घामहिं मांझ।।
तेरी सौं मोहिं घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यौ न मानत, परयौ आपनी टेक।।

कन्हैया ने आज माता से गाय चराने के लिए जाने की जिद की और कहने लगे कि भूख लगने पर वे वन में तरह-तरह के फलों के वृक्षों से फल तोड़कर खा लेंगें। पर माँ का हृदय इतने छोटे और सुकुमार बालक के सुबह से शाम तक वन में रहने की बात से डर गया और वे कन्हैया को कहने लगीं कि तुम इतने छोटे-छोटे पैरों से सुबह से शाम तक वन में कैसे चलोगे, लौटते समय तुम्हें रात हो जाएगी। तुम्हारा कमल के समान सुकुमार शरीर कड़ी धूप में कुम्हला जाएगा परन्तु कन्हैया के पास तो मां के हर सवाल का जवाब है। वे मां की सौगन्ध खाकर कहते हैं कि न तो मुझे धूप (गर्मी) ही लगती है और न ही भूख और वे मां का कहना न मानकर गोचारण की अपनी हठ पर अड़े रहे।

मोरमुकुटी, वनमाली, पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण यमुना में अपने हाथों से मल-मल कर गायों को स्नान कराते, अपने पीताम्बर से ही गायों का शरीर पौंछते, सहलाते और बछड़ों को गोद में लेकर उनका मुख पुचकारते और पुष्पगुच्छ, गुंजा आदि से उनका श्रृंगार करते। तृण एकत्रकर स्वयं अपने हाथों से उन्हें खिलाते। गायों के पीछे वन-वन वे नित्य नंगे पांव कुश, कंकड़, कण्टक सहते हुए उन्हें चराने जाते थे। गाय तो उनकी आराध्य हैं और आराध्य का अनुगमन पादत्राण (जूते) पहनकर तो होता नहीं।

परमब्रह्म श्रीकृष्ण गायों को चराने के लिए जाते समय अपने हाथ में कोई छड़ी आदि नहीं रखते थे; केवल वंशी लिए हुए ही गायें चराने जाते थे। वे गायों के पीछे-पीछे ही जाते हैं और गायों के पीछे-पीछे ही लौटते हैं, गायों को मुरली सुनाते हैं। सुबह गोसमूह को साष्टांग प्रणिपात (प्रणाम) करते और सायंकाल ‘पांडुरंग’ बन जाते (गायों के खुरों से उड़ी धूल से उनका मुख पीला हो जाता था)। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवी-देवता अपने लोकों को छोड़कर व्रज में चले आते और आश्चर्यचकित रह जाते कि जो परमब्रह्म श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योगियों के समाधि लगाने पर भी ध्यान में नहीं आते, वे ही श्रीकृष्ण गायों के पीछे-पीछे नंगे पांव वनों में हाथ में वंशी लिए घूम रहे हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य की बात भला और क्या होगी?

जब वन से गायों के समूह को लेकर लौटते तो उस समय उनकी छवि की शोभा को देखने के लिए यूथ-की-यूथ व्रजांगनाएं मार्ग के दोनों ओर खड़ीं रहतीं और आपस में कहतीं–सखी ! तनिक श्यामसुन्दर की रूपमाधुरी तो देख। मोहन गायें चराकर आ रहे हैं। उनके मस्तक पर नारंगी पगड़ी है जिस पर मयूरपिच्छ का मुकुट लगा है, मुख पर काली-काली अलकें बिखरी हुई हैं जिनमें चम्पा की कलियां सजाई गयीं हैं, उनके नुकीले अरुनारे (आंखों की लालिमायुक्त कोर), चंचल नेत्र हैं, टेढ़ी भौंहें, लाल-लाल अधरों पर खेलती मधुर मुसकान और अनार के दानों जैसी दंतपक्ति, वक्ष:स्थल पर वनमाला और गाय के खुर से उड़कर मुख पर लगी धूल सुहावनी लग रही है। गोपबालकों की मंडली के बीच मेघ के समान श्याम श्रीकृष्ण रसमयी वंशी बजाते हुए चल रहे हैं और सखामंडली उनकी गुणावली गाती चल रही है। गेरु आदि से चित्रित सुन्दर नट के समान वेष में ये नवलकिशोर मस्त गजराज की तरह चलते हुए आ रहे हैं। चलते समय उनकी कमर में करधनी के किंकणी और चरणों के नुपुरों के साथ गायों के गले में बंधी घण्टियों की मधुर ध्वनि–ये सब मिलकर कानों में मानो अमृत घोल रहे हों। इस सांवले, सुकुमार की चितवन में, चन्द्रिका में, मुरली में ऐसी कौन-सी मोहिनी है जो इनको देखते ही सुर, नर, मुनि, खग-मृग सब मोहित हो जाते हैं। हमारा मन भी कभी घर में नहीं लगता–‘जब तैं दृष्टि परे मनमोहन, गृह मेरौ मन न लगौ री। अष्टछाप के कवि नन्ददासजी के शब्दों में–

गोरज राजत साँवरें अंग।
देख सखी बन ते ब्रज आवत गोबिंद गोधन संग।।

भगवान श्रीकृष्ण को केवल गायों से ही नहीं अपितु गोरस (दूध, दही, मक्खन, आदि) से भी अद्भुत प्रेम था, उस प्रेम के कारण ही श्रीकृष्ण गोरस की चोरी भी करते थे। श्रीकृष्ण द्वारा ग्यारह वर्ष की अवस्था में मुष्टिक, चाणूर, कुवलयापीड हाथी और कंस का वध गोरस के अद्भुत चमत्कार के प्रमाण हैं और इसी गोदुग्ध का पानकर भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्य गीतारूपी अमृत संसार को दिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने गोमाता की रक्षा के लिए क्या-क्या नहीं किया? उन्हें दावानल से बचाया, ब्रह्माजी से छुड़ाकर लाए, गायों के लिए ही कालियह्रद को शुद्ध किया। कालियह्रद का जल पीने से जो गायें मृत्यु को प्राप्त हुईं, उन्हें श्रीकृष्ण ने जीवनदान दिया। इन्द्र के कोप से गायों और व्रजवासियों की रक्षा के लिए गिरिराज गोवर्धन को कनिष्ठिका अंगुली पर उठाया। तब देवराज इन्द्र ने ऐरावत हाथी की सूंड़ के द्वारा लाए गए आकाशगंगा के जल से तथा कामधेनु ने अपने दूध से उनका अभिषेक किया और कहा कि ‘जिस प्रकार देवों के राजा देवेन्द्र हैं, उसी प्रकार आप हमारे राजा ‘गोविन्द’ हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने ही ‘गोधन की सौं’ शपथ प्रचलित कराई। वंशी की ध्वनि से प्रत्येक गाय को नाम ले-लेकर पुकारते थे और वंशी की टेर सुनकर चाहे वे गायें कितनी भी दूर क्यों न हों, दौड़कर उनके पास पहुंच जातीं और चारों ओर से उन्हें घेरकर खड़ी हो जाती हैं–

गोविन्द गिरि चढ़ गाय बुलावत।
गायँ बुलाईं धूमर-धौरी टेरत वेणु बजाय।।

जब श्रीकृष्ण सांदीपनिमुनि के आश्रम में विद्याध्ययन के लिए गए वहां भी उन्होंने गो-सेवा की। उनकी द्वारकालीला में तो स्पष्ट वर्णन है कि 13,084 ऐसी गायों का दान प्रतिदिन द्वारकाधीश श्रीकृष्ण करते थे जो पहले-पहल ब्यायी हुई, दुधार, बछड़ों वाली, सीधी, शान्त होती थीं और जिनके सींग स्वर्णमण्डित, खुर रजतमण्डित, पूंछ में मोती की माला और जवाहरात से पिरोई हुयी रेशमी झूल होती थी। इतना गोदान नित्य करते थे तो भगवान श्रीकृष्ण के पास कितनी गौएं होंगी? इस प्रकार कृष्णावतार में गाय ही प्रधान है।

भक्त बिल्वमंगल ने श्रीकृष्णकर्णामृत ग्रन्थ में कहा है–हे प्रभो ! तुम व्रज की कीच में तो विहार करते हो, पर ब्राह्मणों के यज्ञ में पहुंचने में आपको लज्जा आती है। गायों के व बछड़ों के हुंकार करने पर उनकी हुंकारवाली भाषा को आप समझ लेते हो, बस दौड़े हुए आप उनके पास चले जाते हो और उनको गले से लगा लेते हो। पर जब बड़े-बड़े ज्ञानी स्तुति करते हैं तब आप चुप खड़े रह जाते हो। हे कृष्ण! मैं जान गया, आप और किसी तत्त्व का आदर नहीं करते, तुम तो केवल प्रेम का आदर करते हो। जिसके हृदय में प्रेम है, उसी से तुम रीझ जाते हो।

अष्टछाप के एक अन्य कवि छीतस्वामी ने गोविंद के गो-प्रेम का बहुत ही सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है–

आगे गाय पाछे गाय, इत गाय उत गाय,
गोबिंद कों गायन में बसिबोई भावै।
गायन के संग धावै, गायन में सचु पावै,
गायन की खुररेनु अंग लपटावै।।
गायन सों ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो,
गायन के हेत कर गिरि लै उठावै।
छीतस्वामी गिरधारी बिट्ठलेस बपुधारी
ग्वारिया को भेस धरें गायन में आवै।।

                     आचार्य डा.अजय दीक्षित
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*जय श्री राम⛳⛳*
*वन्दे मातरम⛳⛳*
*भारत माता की जय⛳⛳*

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शनिवार, 21 सितंबर 2019

ब्राह्मण **अभिशाप या वरदान**

**ब्राह्मण **अभिशाप या वरदान**
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ब्राह्मणों को गाली देना, कोसना, उन्हें कर्मकांडी, पाखंडी, लालची, भ्रष्ट, ढोंगी जैसे विशेषणों के द्वारा अपमानित करना आजकल ट्रेंड में है। कुछ लोग ब्राह्मणों को सबक सिखाना चाहते हैं, कुछ उनसे तलवे चटवाना चाहते हैं, कुछ स्वघोषित तरीके से उनके दामाद बन जाना चाहते हैं, कुछ उन्हें मंदिरों से बाहर कर देना चाहते हैं.. वगैरह-वगैरह।

कुछ कथित रूप से पिछड़े लोगों को लगता है, कि ब्राह्मणों की वजह से ही वो 'पिछड़े' रह गये, दलितों की अपनी दलीलें हैं, कभी-कभी अन्य जातियों के लोगों के श्रीमुख से भी इस तरह की बातें सुनने को मिल जाती हैं। आमतौर से ये धारणा बनाई जा रही है, कि ब्राह्मणों की वजह से समाज पिछड़ा रह गया, लोग अशिक्षित रह गये, समाज जातियों में बंट गया, देश में अंधविश्वासों को बढ़ावा मिला.. वगैरह-वगैरह।

आज, ऐसे सभी माननीयों को हृदय से धन्यवाद देते हुए, मैं आपको जवाब दे रहा हूं... और याद रहे- ये एक ब्राह्मण का जवाब है... इस वैधानिक चेतावनी के साथ, कि मैं किसी प्रकार की जातीय श्रेष्ठता में विश्वास नहीं रखता। यह बात समझनी चाहिए, कि अच्छे-बुरे लोग हर जाती और धर्म में होते हैं. किसी एक जाती, या धर्म को इसके लिए बुरा-भला कहना समझदारी नहीं है.

इतिहास की कुछ बातें आप को याद दिलाना आवश्यक है :
वो कौटिल्य जिसने संपूर्ण मगध साम्राज्य को संकटों से मुक्ति दिलाई, देश में जनहितैषी सरकार की स्थापना कराई, भारत की सीमाओं को ईरान तक पहुंचा दिया और कालजयी ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' की रचना की (जिसे आज पूरी दुनिया पढ़ रही है) वो कौटिल्य ब्राह्मण थे।

आदि शंकराचार्य, जिन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज को एकता के सूत्र में बांधने के प्रयास किये, 8वीं सदी में ही पूरे देश का भ्रमण किया, विभिन्न विचारधाराओं वाले तत्कालीन विद्वानों-मनीषियों से शास्त्रार्थ कर उन्हें हराया, देश के चार कोनों में चार मठों की स्थापना कर हर हिंदू के लिए चार धाम की यात्रा का विधान किया, जिससे आप इस देश को समझ सकें। वो शंकराचार्य ब्राह्मण थे।

आज कर्नाटक के जिन लिंगायतों को कांग्रेसी हिंदूओं से अलग करना चाहतें हैं, उनके गुरु और लिंगायत के संस्थापक- बसव- भी ब्राह्मण थे।

भारत में सामाजिक-वैचारिक उत्थान, विभिन्न जातियों की समानता, छुआछूत-भेदभाव के खिलाफ समाज को एक करने वाले भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रामानंद, (जो केवल कबीर के ही नहीं बल्कि संत रैदास के भी गुरु थे) ब्राह्मण थे। आज दिल्ली में जिस भव्य अक्षरधाम मंदिर के दर्शन करके दलितों समेत सभी जातियों के लोग खुद को धन्य मानते हैं, उस मंदिर की स्थापना करने वाला स्वामीनारायण संप्रदाय है जिसके जनक घनश्याम पांडेय भी ब्राह्मण थे।

वक्त के अलग-अलग कालखंड में हिंदू समाज में व्याप्त हो चुकी बुराईयों को दूर करने के लिए 'आर्य समाज' व 'ब्रह्म समाज' के रूप में जो दो बड़े आंदोलन देश में खड़े हुए, इन दोनों के ही जनक क्रमश: स्वामी दयानंद सरस्वती व राजा राममोहन राय (जिन्होंने हमें सती प्रथा से मुक्ति दिलाई) ब्राह्मण थे। भारत में विधवा विवाह की शुरुआत कराने वाले ईश्वरचंद्र विद्यासागर भी ब्राह्मण थे। इन सभी संतों ने जाति-पांति, छुआछूत, भेदभाव के खिलाफ समाज को जागरुक करने में अपना जीवन खपा दिया- लेकिन समाज नहीं सुधरा।

क्षत्रिय वंश के राजा श्रीराम की महिमा को 'रामचरित मानस' के जरिये घर-घर में पहुंचाने वाले तुलसीदास और ब्रज क्षेत्र में यदुवंशी राजा श्रीकृष्ण की भक्ति की लहर पैदा करने वाले वल्लभाचार्य भी ब्राह्मण थे। ये भी याद रखिये- मंदिरों में ब्राह्मणों का वर्चस्व था, जैसा कि आप लोग कहते हैं, फिर भी भारत में भगवान परशुराम (ब्राह्मण) के मंदिर सामान्यत: नहीं मिलते। ये है ब्राह्मणों की भावना।

विदेशी आधिपत्य के खिलाफ सबसे पहले विद्रोह का बिगुल बजाने संन्यासियों में से अधिकांश लोग ब्राह्मण थे। अंग्रेजों की तोपों के सामने सीना तानने वाले मंगल पांडेय, रानी लक्ष्मीबाई, अंग्रेज अफसरों के लिए दहशत का पर्याय बन चुके चंद्रशेखर आजाद, फांसी के फंदे पर झूलने वाले राजगुरु - ये सभी ब्राह्मण थे।

वंदेमातरम जैसी कालजयी रचना से पूरे देश में देशभक्ति का ज्वार पैदा करने वाले बंकिमचंद्र चटर्जी, जन-गण-मन के रचयिता रविंद्र नाथ टैगोर ब्राह्मण, देश के पहले आईएएस (तत्कालीन ICS) सत्येंद्रनाथ टौगोर भी ब्राह्मण। स्वतंत्रता आंदोलन के नायक गोपालकृष्ण गोखले (गांधी जी के गुरु), बाल गंगाधर तिलक, राजगोपालाचारी ब्राह्मण। भारत के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों में अटल बिहारी वाजपेयी भी ब्राह्मण।

नेहरु सरकार से त्यागपत्र देने वाले पहले मंत्री जिन्होंने पद की बजाय जनहित के लिए संघर्ष का रास्ता चुना और कश्मीर के सवाल पर अपने प्राणों की आहुति दी - वो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी ब्राह्मण। बीजेपी के सबसे बड़े सिद्धांतकार पंडित दीनदयाल उपाध्याय, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी- ये सभी ब्राह्मण।

हिंदू समाज की एकता, जातिविहीन समाज की स्थापना और सांस्कृतिक गौरव की पुनर्स्थापना के लिए खड़ा हुआ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- की नींव एक गरीब ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखने वाले पूज्य डॉ. हेडगेवार जी ने डाली थी। उन्होंने अपने खून का कतरा-कतरा हिंदूओं को ताकत देने और उन्हें एकसूत्र में पिरोने में खपा दिया, केवल ब्राह्मणों की चिंता नहीं की। संघ के दूसरे सरसंघचालक- डॉ. गोलवलकर- जिन्होंने संपूर्ण हिंदू समाज को ताकत देने के लिए सारा जीवन समर्पित कर दिया- वो भी ब्राह्मण।

यही नहीं, देश में पहली कम्यूनिस्ट सरकार केरल में बनाने वाले नंबूदरीपाद समेत मार्क्सवादी आंदोलन के कई प्रमुख रणनीतिकार ब्राह्मण ही थे। समकालीन नेताओं की बात करें तो तमिलनाडु में जयललिता ब्राह्मण थीं,

मायावती, जिन्होंने 'तिलक-तराजू और तलावर, इनको मारो जूते चार' जैसा अपमानजनक नारा बार-बार लगवाया, उन पर जब लखनऊ के गेस्ट हाउस में सपा के गुंडों ने जानलेवा हमला किया, उन्हें मारा-पीटा, उनके कपड़े फाड़े, और शायद उनकी हत्या करने वाले थे, उस समय जान पर खेलकर उन गुंडों से लड़ने वाले और मायावती को सुरक्षित वहां से निकालने वाले स्वर्गीय ब्रह्मदत्त द्विवेदी भी ब्राह्मण थे।

जिस लता मंगेशकर की आवाज को ये देश सम्मोहित होकर सुनता रहा और जिस सचिन तेंदुलकर के हर शॉट पर प्रत्येक जाति का युवा ताली बजाकर खुश होता रहा - ये दोनों ही ब्राह्मण।

फिर भी, जिन्हें लगता है कि ब्राह्मण केवल मंदिर में घंटा बजाना जानता है- वो ये भी जान लें कि भारत के इतिहास का सबसे महान घुड़सवार योद्धा और सेनानायक- जो 20 साल के अपने राजनीतिक जीवन में कभी कोई युद्ध नहीं हारा, जिसने मुस्लिम शासकों के आंतक से कराहते देश में भगवा पताकाओं को चारों दिशाओं में लहरा दिया और जिसे बाजीराव-मस्तानी फिल्म में देखकर आपने भी तालियां ठोंकी होंगी, - वो बाजीराव बल्लाल भी ब्राह्मण था।

तो ब्राह्मणों को कोसने वाले इतिहास को ठीक से पढ़ लो.. शायद तुमसे भी पहले तुम्हारे हक के लिए अगर कोई लड़ा, अगर किसी ने संघर्ष किया, अगर किसी ने बलिदान दिया- तो वो ब्राह्मण ही था.