बृहस्पति की संतति का वर्णन
मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन! बृहस्पति जी की जो यशस्विनी पत्नी चान्द्रमसी (तारा) नाम से विख्यात थी, उसने पुत्ररूप में छ: पवित्र अग्नियों को तथा एक पुत्री को भी जन्म दिया। (दर्श-पौर्णमास आदि में) प्रधान आहुतियों को देते समय जिस अग्नि के लिये सर्वप्रथम घी की आहुति दी जाती है, वह महान व्रतधारी अग्नि ही बृहस्पति का ‘शंयु’ नाम से विख्यात (प्रथम) पुत्र है। चातुर्मास्य-सम्बन्धी यज्ञों में तथा अश्वमेध यज्ञ में जिसका पूजन होता है, जो सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाला और सर्वसमर्थ है तथा जो अनेक वर्ण की ज्वालाओं से प्रज्वलित होता है, वह अद्वितीय शक्तिशाली अग्नि ही शंयु है।
शंयु की पत्नी का नाम था सत्या। वह धर्म की पुत्री थी। उसके रूप और गुणों की कहीं तुलना नहीं थी। वह सदा सत्य के पालन में तत्पर रहती थी। उसके गर्भ से शंयु के एक अग्रिस्वरूप पुत्र तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाली तीन कन्याएं हुईं। यज्ञ में प्रथम आज्यभाग के द्वारा जिस अग्नि की पूजा की जाती है, वही शंयु का ज्येष्ठ पुत्र ‘भरद्वाज’ नामक अग्नि बताया जाता है। समस्त पौर्णमास यागों में स्रुवा से हविष्य के साथ घी उठाकर जिसके लिये ‘प्रथम आघार’ अर्पित किया जाता है, वह ‘भरत’ (ऊर्ज) नामक अग्नि शंयु का द्वितीय पुत्र है (इसका जन्म शंयु की दूसरी स्त्री के गर्भ से हुआ था। शंयु के तीन कन्याएं और हुईं, जिनका बड़ा भाई भरत ही पालन करता था। भरत (ऊर्ज) के ‘भरत’ नाम वाला ही एक पुत्र तथा ‘भरती’ नाम की कन्या हुई। सबका भरण-पोषण करने वाले प्रजापति भरत नामक अग्नि से ‘पावक’ की उत्पति हुई।
भरतश्रेष्ठ! वह अत्यन्त महनीय (पूज्य) होने के कारण ‘महान’ कहा गया है। शंयु के पहले पुत्र भरद्वाज की पत्नी का नाम ‘वीरा’ था, जिसने वीर नामक पुत्र को शरीर प्रदान किया। ब्राह्मणों ने सोम की ही भाँति वीर की भी आज्यभाग से पूजा बतायी है।[1]इनके लिये आहुति देते समय मन्त्र का उपांशु उच्चारण किया जाता है। सोम देवता के साथ इन्हीं को द्वितीय आज्यभाग प्राप्त होता है। इन्हें ‘रथप्रभु,’ ‘रथध्वान’ और ‘कुम्भरेता’ भी कहते हैं। वीर ने ‘सरयू’ नाम वाली पत्नी के गर्भ से ‘सिद्धि’ नामक पुत्र को जन्म दिया। सिद्धि ने अपनी प्रभा से सूर्य को भी आच्छादित कर लिया। सूर्य के आच्छादित हो जाने पर उसने अग्नि देवता सम्बन्धी यज्ञ का अनुष्ठान किया। आह्वान-मन्त्र (अग्निमग्न आवह इत्यादि) में इस सिद्धि नामक अग्नि की ही स्तुति की जाती है।
बृहस्पति के (दूसरे) पुत्र का नाम ‘निश्च्यवन’ है। ये यश, वर्चस् (तेज) और कान्ति से कभी च्युत नहीं होते हैं। निश्च्यवन अग्नि केवल पृथ्वी की स्तुति करते हैं।[2]वे निष्पाप, निर्मल, विशुद्ध तथा तेज:पुज्ज से प्रकाशित हैं। उनका पुत्र ‘सत्य‘ नामक अग्नि है; सत्य भी निष्पाप तथा कालधर्म के प्रवर्तक हैं। वे वेदना से पीड़ित होकर आर्तनाद करने वाले प्राणियों को उस कष्ट से निष्कृति (छुटकारा) दिलाते हैं, इसीलिये उन अग्नि का एक नाम निष्कृति भी है। वे ही प्राणियों द्वारा सेवित गृह और उद्यान आदि में शोभा की सृष्टि करते हैं।
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सत्य के पुत्र का नाम ‘स्वन’ है, जिनसे पीड़ित होकर लोग वेदना से स्वयं कराह उठते हैं। इसलिये उनका यह नाम पड़ा है। वे रोगकारक अग्नि हैं। (बृहस्पति के तीसरे पुत्र का नाम ‘विश्वजित’ है) वे सम्पूर्ण विश्व की बुद्धि को अपने वश में करके स्थित हैं, इसीलिये अध्यात्मशास्त्र के विद्वानों ने उन्हें ‘विश्वजित्’ अग्नि कहा है। भरतनन्दन! जो समस्त प्राणियों के उदर में स्थित हो उनके खाये हुए पदार्थों को पचाते हैं, वे सम्पूर्ण लोकों में ‘विश्वभुक’ नाम से प्रसिद्ध अग्नि बृहस्पति के (चौथे) पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं। ये विश्वभुक अग्नि ब्रह्मचारी, जितात्मा तथा सदा प्रचुर व्रतों का पालन करने वाले हैं। ब्राह्मण लोग पाकयज्ञों में इन्हीं की पूजा करते हैं। पवित्र गोमती नदी इनकी प्रिय पत्नी हुई। धर्माचरण करने वाले द्विज लोग विश्वभुक अग्नि में ही सम्पूर्ण कर्मों का अनुष्ठान करते हैं। जो अत्यन्त भयंकर वडवानलरूप से समुद्र का जल सोखते रहते हैं, वे ही शरीर के भीतर ऊर्ध्वगति-‘उदान’ नाम से प्रसिद्ध हैं। ऊपर की ओर गतिशील होने से ही उनका नाम ‘ऊर्ध्वभाक’ है। वे प्राणवायु के आश्रित एवं त्रिकालदर्शी हैं। (उन्हें बृहस्पति का पांचवां पुत्र माना गया है। प्रत्येक गृह्यकर्म में जिस अग्नि के लिये सदा घी की ऐसी धारा दी जाती है, जिसका प्रवाह उत्तराभिमुख हो और इस प्रकार दी हुई वह घृत की आहुति अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि करती है। इसीलिये उस उत्कृष्ट अग्नि का नाम 'स्विष्टकृत' है (उसे बृहस्पति का छठा पुत्र समझना चाहिये। जिस समय अग्निस्वरूप बृहस्पति का क्रोध प्रशान्त प्राणियों पर प्रकट हुआ, उस समय उनके शरीर से जो पसीना निकला, वही उनकी पुत्री के रूप में परिणत हो गया। वह पुत्री अधिक क्रोध वाली थी। वह ‘स्वाहा’ नाम से प्रसिद्ध हुई। वह दारुण एवं क्रूर कन्या सम्पूर्ण भूतों में निवास करती है। स्वर्ग में भी कहीं तुलना न होने के कारण जिसके समान रूपवान् दूसरा कोई नहीं है, उस स्वाहा पुत्र को देवताओं ने ‘काम’ नामक अग्नि कहा है। जो हृदय में क्रोध धारण किये धनुष और माला से विभूषित हो रथ पर बैठकर हर्ष और उत्साह के साथ युद्ध में शत्रुओं का नाश करते हैं, उसका नाम है ‘अमोघ’ अग्नि। महाभाग! ब्राह्मण लोग त्रिविध उक्थ मन्त्रों द्वारा जिसकी स्तुति करते हैं, जिसने महावाणी (परा) का आविष्कार किया है तथा ज्ञानी पुरुष जिसे आश्वासन देने वाला समझते हैं; उस अग्नि का नाम 'उक्थ' है।
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- पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति तथा उसकी संतति का वर्णन
मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! कश्यपपुत्र काश्यप, वसिष्ठपुत्र वासिष्ठ, प्राणपुत्र प्राणक, अंगिराके पुत्र च्यवन तथा त्रिवर्चा- ये पांच अग्नि हैं। इन्होंने पुत्र की प्राप्ति के लिये बहुत वर्षों तक तीव्र तपस्या की। उनकी तपस्या का उद्देश्य यह था कि हम ब्रह्मा जी के समान यशस्वी और धर्मिष्ठ पुत्र प्राप्त करें। पूर्वोक्त पांच अग्निस्वरूप ऋषियों ने महाव्याहृतिसंज्ञक पांच मन्त्रों द्वारा[1] परमात्मा का ध्यान किया, तब उनके समक्ष अत्यन्त तेजोमय, पांच वर्णों से विभूषित एक पुरुष प्रकट हुआ, जो ज्वालाओं से प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित होता था। वह सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करने में समर्थ था। उसका मस्तक प्रज्वलित अग्नि के समान जगमगा रहा था, दोनों भुजाएं प्रभाकर की प्रभा के समान थी, दोनों आंखें तथा त्वचा–सुवर्ण के समान देदीप्यमान हो रही थीं और उस पुरुष की पिण्डलियां काले रंग की दिखायी देती थीं।
उपर्युक्त पांच मुनिजनों ने अपनी तपस्या के प्रभाव से उस पांच वर्ण वाले पुरुष को प्रकट किया था, इसलिये उस देवोपम पुरुष का नाम 'पांचजन्य' हो गया। वह उन पांचों ऋषियों के वंश का प्रवर्तक हुआ। फिर महातपस्वी पांचजन्य ने अपने पितरों का वंश चलाने के लिये दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या करके भयंकर दक्षिणाग्नि को उत्पन्न किया। उन्होंने मस्तक से बृहत तथा मुख से रथन्तर साम को प्रकट किया। ये दोनों वेगपूर्वक आयु आदि को हर लेते हैं, इसलिये 'तरसाहर' कहलाते हैं। फिर उन्होंने नाभि से रुद्र को, बल से इन्द्र का तथा प्राण से वायु और अग्नि को उत्पन्न किया। दोनों भुजाओं से प्राकृत और वैकृत भेद वाले दोनों अनुदात्तों को मन और ज्ञानेनिद्रयों के समस्त (छहों) देवताओं को तथा पांच महाभूतों को उत्पन्न किया। इन सबकी सृष्टि करने के पश्चात उन्होंने पांचों पितरों के लिये पांच पुत्र और उत्पन्न किये। जिनके नाम इस प्रकार हैं- वासिष्ठ बृहद्रथ के अंश से प्रणिधि, काश्यप के अंश से महत्तर, आंगिरस च्यवन के अंश से भानु तथा वर्च के अंश से सौभर नामक पुत्र की उत्पति हुई।
प्राण के अंश से अनुदात्त की उत्पति हुई। इस प्रकार पचीस पुत्रों के नाम बताये गये। तत्पचात ‘तप’ नामधारी 'पांचजन्य ने यज्ञ में विघ्न डालने वाले अन्य पंद्रह उत्तर देवों (विनायकों) की सृष्टि की। उनका विवरण इस प्रकार है- सुभीम, अतिभीम, भीम, भीमबलऔर अबल -इन पांच विनायकों की उत्पति उन्होंने पहले की, जो देवताओं के यज्ञ का विनाश करने वाले हैं। इनके बाद पांचजन्य ने सुमित्र, मित्रवान, मित्रज्ञ, मित्रवर्धन और मित्रधर्मा-इन पांच देवरूपी विनायकों को उत्पन्न किया। तदनन्तर पांचजन्य ने सुरप्रवीर, वीर, सुरेश, सुवर्चा तथा सुरनिहन्ता इन पांचों को प्रकट किया। इस प्रकार ये पंद्रह देवोपम प्रभावशाली विनायक पृथक-पृथक पांच-पांच व्यक्तियों के तीन दलों में विभक्त हैं। इस पृथ्वी पर ही रहकर स्वर्गलोक से भी यज्ञकर्ता पुरुषों की यज्ञ-सामग्री का अपहरण कर लेते हैं। ये विनायकगण अग्नियों के लिये अभीष्ट महान हविष्य का अपहरण तो करते ही हैं, उसे नष्ट भी कर डालते हैं। अग्निगणों के साथ लाग-डांट रखने के कारण ही ये हविष्य का अपहरण और विध्वंस करते हैं।
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इसीलिये यज्ञनिपुण विद्वानों ने यज्ञशाला की बाह्य वेदी पर इन विनायकों के लिये देयभाग रख देने का नियम चालू किया है; क्योंकि जहाँ अग्नि की स्थापना हुई हो, उस स्थान के निकट ये विनायक नहीं जाते हैं।
मन्त्र द्वारा संस्कार करने के पश्चात् प्रज्वलित अग्निदेव जिस समय आहुति ग्रहण करते हुए यज्ञका सम्पादन करते हैं, उस समय वे अपने दोनों पंखों (पार्श्ववर्ती शिखाओं) द्वारा उन विनायकों को कष्ट पहुँचाते हैं, (इसीलिये वे उनके पास नहीं फटकते)। मन्त्रों द्वारा शान्त कर देने पर वे विनायक यज्ञ-सम्बन्धी हविष्य का अपहरण नहीं कर पाते हैं।
इस पृथ्वी पर जब अग्निहोत्र होने लगता है, उस समय तप (पांचजन्य) के ही पुत्र बृहदुक्थ इस भूतल पर स्थित हो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा पूजित होते हैं। तप के पुत्र जो रथन्तर नामक अग्नि कहे जाते हैं, उनको दी हुई हवि मित्रविन्द देवता का भाग है, ऐसा यजुर्वेदी विद्वान् मानते हैं।
महायशस्वी तप (पांचजन्य) अपने इन सभी पुत्रों के सहित अत्यन्त प्रसन्न हो आनन्दमग्न रहते हैं।
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जय सियाराम जय जय हनुमान
- सह नामक अग्नि का जल में प्रवेश और अथर्वा अंगिरा द्वारा पुन: उनका प्राकट्य
मार्कण्डेय जी कहते हैं- राजन्! जल में निवास के कारण प्रसिद्ध हुए ‘सह’ नामक अग्नि के एक परम प्रिय पत्नी थी, जिसका नाम था मुदिता। उसके गर्भ से भूलोक और भुवलोक के स्वामी सह ने ‘अद्भुत’ नामक उत्कृष्ट अग्नि को उत्पन्न किया। ब्राह्मण लोगों में वंश परम्परा के क्रम से सभी यह मानते और कहते हैं कि ‘अद्भुत’नामक अग्नि सम्पूर्ण भूतों के अधिपति हैं। वे ही सबके आत्मा और भुवन-भर्ता हैं। वे ही इस जगत् के सम्पूर्ण महाभूतों के पति हैं। उनमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य सुशोभित हैं। वे महातेजस्वी अग्नि देव सदा सर्वत्र विचरण करते हैं। जो अग्नि गृहपति नाम से सदा यज्ञ में पूजित होते हैं तथा हवन किये गये हविष्य को देवताओं के पास पहुँचाते हैं, वे अद्भुत अग्नि ही इस जगत् को पवित्र करने वाले हैं।
जो ‘आप’ नाम वाले सह के पुत्र हैं, जो महाभाग, सत्वभोक्ता, भुलोक के पालक और भुवलोक के स्वामी हैं, वे अद्भुत नामक महान् अग्नि बुद्धितत्व के अधिपति बताये जाते हैं। उन्हीं ‘अद्भुत’ या ग्रहपति के एक अग्निस्वरूप पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम ‘भरत’ है। ये मरे हुए प्राणियों के शव का दाह करते हैं। भरत का अग्निष्टोम यज्ञ में नित्य निवास है, इसलिये उन्हें ‘नियत’ भी कहते हैं। नियत का संकल्प उत्तम है। प्रथम अग्नि ‘सह’ बड़े प्रभावशाली हैं। एक समय देवतालोग उनको ढूंढं रहे थे। उनके साथ अपने पौत्र नियत को भी आता देख (उससे छू जाने के) भय से वे समुद्र के भीतर घुस गये। तब देवता लोग सब दिशाओं में उनकी खोज करते हुए वहाँ भी पहुँचने लगे। एक दिन अथर्वा(अंगिरा) को देखकर अग्नि ने उनसे कहा- ‘वीर! तुम देवताओं के पास उनका हविष्य पहुँचाओ। मैं अत्यन्त दुर्बल हो गया हूँ। अब केवल तुम्हीं अग्निपद पर प्रतिष्ठित हो जाओ और मेरा यह प्रिय कार्य सम्पन्न करो।'
इस प्रकार अथर्वा को भेजकर अग्नि देव दूसरे स्थान में चले गये। किंतु मत्स्यों ने अथर्वा से उनकी स्थिति कहाँ है, यह बता दिया। इससे कुपित होकर अग्नि ने उन्हें शाप देते हुए कहा- ‘तुम लोग नाना प्रकार के जीवों के भक्ष्य बनोगे’। तदनन्तर अग्नि ने अथर्वा से फिर वही बात कही। उस समय देवताओं के कहने से अथर्वा मुनि ने सह नामक अग्नि देव से अत्यन्त अनुनय-विनय की; परंतु उन्होंने न तो हविष्य ढोने का भार लेने की इच्छा की और न वे अपने उस जीर्ण शरीर का ही भार सह सके। अन्ततोगत्वा उन्होंने शरीर त्याग दिया। उस समय अपने शरीर को त्यागकर वे धरती में समा गये। भूमि का स्पर्श करके उन्होंने पृथक-पृथक बहुत-से धातुओं की सृष्टि की। ‘सह’ नामक अग्नि ने अपने पीब तथा रक्त से गन्धक एवं तैजस धातुओं को उत्पन्न किया। उनकी हड्डियों से देवदारु के वृक्ष प्रकट हुए। कफ से स्फटिक तथा पित्त से मरकत मणि का प्रादुर्भाव हुआ और उनका यकृत (जिगर) ही काले रंग का लोहा बनकर प्रकट हुआ। काष्ठ, पाषाण और लोहा-इन तीनों से ही प्रजाजनों की शोभा होती है। उनके नख मेघसमूह का रूप धारण करते हैं। नाड़ियां मूंगा बनकर प्रकट हुई हैं।
राजन्! सह अग्नि के शरीर से अन्य नाना प्रकार के धातु उत्पन्न हुए। इस प्रकार शरीर त्यागकर वे बड़ी भारी तपस्या में लग गये। जब भृगु और अंगिरा आदि ऋषियों ने पुन: उनको तपस्या से उपरत कर दिया, तब वे तपस्या से पुष्ट हुए तेजस्वी अग्नि देव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे। महर्षि अंगिरा को सामने देख वे अग्नि भय के मारे पुन: महासागर के भीतर प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार अग्नि के अदृश्य हो जाने पर सारा संसार भयभीत हो अथर्वा-अंगिरा की शरण में आया तथा देवताओं ने इन अथर्वा की पूजा की। अथर्वा ने सब प्राणियों के देखते-देखते समुद्र को मथ डाला और अग्नि देव का दर्शन करके स्वयं ही सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की। इस प्रकार पूर्वकाल में अदृश्य हुए अग्नि को भगवान अंगिरा ने फिर बुलाया। जिससे प्रकट होकर वे सदा सम्पूर्ण प्राणियों का हविष्य वहन करते हैं।
उस समुद्र के भीतर नाना स्थानों में विचरण एवं भ्रमण करते हुए सह अग्नि ने इसी प्रकार विविध भाँति के बहुत-से वेदोक्त अग्निदेवों तथा उनके स्थानों को उत्पन्न किया। सिंधुनद, पंचनद, देविका, सरस्वती, गंगा, शतकुम्भा, सरयू, गण्डकी, चर्मण्वती, मही, मेध्या, मेधातिथि, ताम्रवती, वेत्रवती, कौशिकी, तमसा, नर्मदा, गोदावरी, वेणा, उपवेणा, भीमा, वडवा, भारती, सुप्रयोगा, कावेरी, मुर्मुरा, तुंगवेणा, कृष्णवेणा, कपिला तथा शोणभद्र- ये सब नदियां और नद हैं, जो अग्नियों के उत्पत्ति स्थान कहे गये हैं। अद्भुत की जो प्रियतमा पत्नी है, उसके गर्भ से उनके ‘विभूरसि’ नामक पुत्र हुआ। अग्नियों की जितनी संख्या बतायी गयी है, सोमयागों की भी उतनी ही है। वे सब अग्नि ब्रह्माजी के मानसिक संकल्प से अन्नि के वंश में उनकी संतानरूप से उत्पन्न हुए हैं। अत्रि को जब प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने उन अग्नियों को ही अपने हृदय में धारण किया। फिर उन ब्रह्मर्षि के शरीर से विभिन्न अग्नियों का प्रादुर्भाव हुआ।
राजन्! इस प्रकार मैंने इन अप्रमेय, अन्धकार निवारक तथा दीप्तिमान् महामना अग्नियों की जिस क्रम से उत्पत्ति हुई है, उसका तुमसे वर्णन किया। वेदों में ‘अद्भुत’ नामक अग्नि के माहात्म्य का जैसा वर्णन है, वैसा ही सब अग्नियों का समझना चाहिये: क्योंकि इन सब में एक ही अग्नितत्व विद्यमान है। ये प्रथम भगवान अग्नि, जिन्हें अंगिरा भी कहते हैं, एक ही हैं, ऐसा जानना चाहिये। जैसे ज्योतिष्टोम यज्ञ उद्भिद् आदि अनेक रूपों में प्रकट हुआ है, उसी प्रकार एक ही अग्नितत्व प्रजापति के शरीर से विविध रूपों में उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार मेरे द्वारा अग्नि देव के महान् वंश का प्रतिपादन किया गया। वे भगवान अग्नि विविध वेदमन्त्रों द्वारा पूजित होकर देहधारियों के दिये हुए हविष्य को देवताओं के पास पहुँचाते हैं।
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