गुरुवार, 31 अगस्त 2017

सबसे बढ़कर गुरु

     श्री गुरु स्तोत्रम्

|| श्री महादेव्युवाच ||

गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा |
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे ||

श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है - इस बारे में वर्णन करें | 

|| श्री महादेव उवाच ||

जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम् |
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१||

श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१|| 

प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम् |
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||२||

प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||२|| 

वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम् |
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||३||

वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||३|| 

विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम् |
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||४||

भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||४||

प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम् |
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||५||

प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||५||

काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा |
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||६||

काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभी मातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||६|| 

मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम् |
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||७||

भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||७|| 

श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम् |
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||८||

भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||८||

गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा |
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||९||

गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||९||

गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्|
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१०||

हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन - ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१०|| 

तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः |
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||११||

तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||११|| 

एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम् |
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ||१२||

इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है | निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ||१२|| 

|| वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम् ||

||यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है ||

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

द्रोपदी के पांच पुत्रों की कथा

वास्तव में द्रौपदी के पांचों पुत्रों के जन्म से लेकर मृत्यु तक की कथा एक युग पूर्व ही लिखी जा चुकी थी। यह त्रेतायुग का समय था और इस समय सूर्य वंश के महाप्रतापी, महादानी, लोकप्रिय राजा हरिश्चंद्र का शासन था। राजा हरिश्चंद्र अपनी बात के पक्के माने जाते थे। एक समय शिकार खेलते समय उनके द्वारा अनजाने में ऋषि विश्वामित्र का ध्यान भंग हो गया।

राजा ने ऋषि को क्रोध त्यागने के लिए बहुत मनाया और उनके मांगने पर अपना राज्य ही उन्हें दे दिया। इसके बाद ऋषि दक्षिणा पर अड़ गए और लंबे तथा दिल दहलाने वाले घटनाक्रम के बाद यह स्पष्ट हुआ कि देवता और ऋषि मिलकर राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा ले रहे थे। इस तरह राजा को उनका राज्य वापस मिल गया और कहानी का सुखद अंत हुआ।

इसी कहानी के बीच में एक वर्णन आता है कि जब ऋषि हर तरह से राजा को प्रताडि़त कर रहे थे, तब प्रजा तो उनसे नाराज थी ही, देवता भी इस अत्याचार को सहन नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में जब एक बार ऋषि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र को मारने के लिए छड़ी उठा ली थी, तब पांच विश्व देव उनका यह अपमान सहन ना कर सके। वे साक्षात् प्रकट होकर ऋषि विश्वामित्र को बुरा-भला कहने लगे।

ऋषि विश्वामित्र स्वभाव से ही प्रचंड थे और उस समय तो वह देवताओं की इच्छा से राजा की परीक्षा ले रहे थे। वे विश्व देवों का उलाहना सहन ना कर सके और अपने कमंडल से जल लेकर उन पर फेंकते हुए श्राप दिया कि तुम सब मनुष्य रूप में जन्म लोगे और मनुष्य होकर ही तुम जानोगे कि मैं क्या कर रहा हूं और क्यों कर रहा हूं। उन्होंने यह भी कहा कि तुम सब केवल एक जीवन मनुष्य के रूप में काटोगे, उसके बाद वापस अपने विश्व देव रूप में आ जाओगे, पर मनुष्य होकर भी तुम्हें ना तो विवाह का सुख मिलेगा और ना ही संतान का।

कहा जाता है कि ऋषि के श्राप के फलस्वरूप ही द्वापर युग में पांचों विश्व देवों ने द्रौपदी के गर्भ से जन्म लिया। श्राप के कारण ही उन्हें लंबी आयु नहीं मिली और इतने शक्तिशाली पांच पिता और श्री कृष्ण जैसे महानायक का साथ मिलने के बावजूद वे सभी महाभारत युद्ध में मारे गए। युद्ध में अश्वत्थामा ने इन सबकी हत्या कर दी, बाद में ये सभी वापस देवलोक चले गए। ऋषि के श्राप के अनुसार ही इन पांचों को विवाह या संतान सुख नहीं मिला ।



   भागवत में इन्हें धर्म ऋषि तथा (दक्षकन्या) विश्वा के पुत्र बताया है और इनके नाम दक्ष, व्रतु, वसु, काम, सत्य, काल, रोचक, आद्रव, पुरुरवा तथा कुरज दिए हैं। इन सबों ने राजा मरुत के यज्ञ में सभासदों का काम किया था।

वर्तमान मन्वंतर में सात ही विश्वेदेव मान गए हैं और मार्कंडेय पुराण के अनुसार विश्वामित्र के तिरस्कार करने के कारण इन्हें द्रौपदी के गर्भ से उनके पाँच पुत्रों के रूप में जन्म लेना और अश्वत्थामा के हाथों मरना पड़ा था।   

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

हिजड़ों का व्याह

रावन से किन्नर करते हैं विवाह, जिसने महाभारत में मचा दिया था कोहराम

वर्तमान में कुछ क्षेत्रों में किन्नरों द्वारा इरावन की पूजा की जाती है। वर्ष में एक दिन ऐसा भी आता जब किन्नर रंग-बिरंगी साड़ियां पहन कर और अपने जूड़े को चमेली के फूलों से सजाकर इरावन से शादी करती है। हालांकि यह विवाह मात्र एक दिन के लिए होता है। अगले दिन इरावन देवता की मौत के साथ ही उनका वैवाहिक जीवन खत्म हो जाता है। मान्यता है कि इसी दिन इरावन की महाभारत के युद्ध में मौत हो गई थी।

इसकी याद में हजारों किन्नर तमिलनाडु के कूवागम गांव में एकत्रित होते हैं। जहां वे अपनी जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण दिन वार्षिक 'शादी' समारोह में शिरकत करते हैं। पौराणिक मान्यता अनुसार भगवान कृष्ण ने औरत का रूप धारण कर नाग राजकुमार इरावन से शादी की थी।


विल्लूपुरम जिले के इस गांव में इरावन की पूजा कूथांदवार के रूप में होती है। हजारों किन्नर इरावन की दुल्हन के रूप में शादी समारोह में शिरकत करती हैं और मंदिर के पुजारी ने उनकी गर्दन में कलावा बांधवाती हैं।

मान्यता अनुसार महाभारत युद्ध में एक समय ऐसा आता है जब पांडवों को अपनी जीत के लिए मां काली के चरणों में स्वेच्छिकरूप से किसी पुरुष की बलि हेतु एक राजकुमार की जरूरत पड़ती है। जब कोई भी राजकुमार आगे नहीं आता है तो इरावन खुद को इसके लिए प्रस्तुत कर देता है, लेकिन वह इसके साथ ही एक शर्त भी रख देता है कि वह अविवाहित नहीं मरेगा। इस शर्त के कारण यह संकट उत्पन्न हो जाता है कि यदि किसी राजा की बेटी या सामान्य स्त्री से उसका विवाह किया जाता है कि वह तुरंत ही विधवा हो जाएगा। ऐसे में कोई भी पिता इरावन से अपनी बेटी के विवाह के लिए तैयार नहीं होता है। तब भगवान कृष्ण स्वयं मोहिनी रूप में इरावन से विवाह करते हैं। इसके बाद इरावन अपने हाथों से अपना शीश मां काली के चरणों में अर्पित कर देता है। इरावन की मृत्यु के पश्चात कृष्ण उसी मोहिनी रूप में काफी देर तक उसकी मृत्यु का विलाप भी करते हैं। अब चुकी कृष्ण पुरुष होते हुए स्त्री रूप में इरावन से शादी रचाते हैं इसलिए किन्नर, जोकि स्त्री रूप में पुरुष माने जाते हैं, वह भी इरावन से एक रात की शादी रचाते हैं और उन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं। लेकिन यह कथा कितनी सच है यह कोई नहीं जानता, क्योंकि महाभारत में तो इरावन की मौत के राज कुछ और ही है।

इरावन अर्जुन का पुत्र था। इसका जन्म विशेषकाल परिस्थिति में हुआ था। दरअसल, एक बार अर्जुन ने युधिष्ठिर और द्रौपदी को एकांत में देखकर वैवाहिक नियम भंग कर दिया था जिसके चलते उन्होंने स्वेच्छापूर्वक एक वर्ष के लिए तीर्थ भ्रमण स्वीकार कर इंद्रप्रस्थ छोड़ दिया। एक दिन वे हरिद्वार में स्नान कर रहे थे कि तभी नागराज कौरव्‍य की पुत्री नागकन्या उलूपी ने उन्हें देखा और वह उन पर मोहित हो गई। ऐसे में वह उन्हें खींचकर अपने नागलोक में ले गई और उसके अनुरोध करने पर अर्जुन को उससे विवाह करना पड़ा। अर्जुन ने नागराज के घर में ही वह रात्रि व्‍यतीत की। फिर सूर्योदय होने पर उलूपी के साथ अर्जुन नागलोक से ऊपर को उठे और फिर से हरिद्वार (गंगाद्वार) में गंगा के तट पर आ पहुंचे। उलूपी उन्‍हे वहां छोड़कर पुन: अपने घर को लौट गई। जाते समय उसने अर्जुन को यह वर दिया कि आप जल में सर्वत्र अजेय होंगे और सभी जलचर आपके वश में रहेंगे। अर्जुन और नागकन्या उलूपी के मिलन से अर्जुन को एक वीरवार पुत्र मिला जिसका नाम इरावान रखा गया। भीष्म पर्व के 90वें अध्याय में संजय धृतराष्ट्र को इरावान का परिचय देते हुए बताते हैं कि इरावान नागराज कौरव्य की पुत्री उलूपी के गर्भ से अर्जुन द्वारा उत्पन्न किया गया था। नागराज की वह पुत्री उलूपी संतानहीन थी। उसके मनोनीत पति को गरूड़ ने मार डाला था, जिससे वह अत्यंत दीन एवं दयनीय हो रही थी। ऐरावतवंशी कौरव्य नाग ने उसे अर्जुन को अर्पित किया और अर्जुन ने उस नागकन्या को भार्या रूप में ग्रहण किया था। इस प्रकार अर्जुन पुत्र उत्पन्न हुआ था। इरावान सदा मातृकुल में रहा। वह नागलोक में ही माता उलूपी द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया गया और सब प्रकार से वहीं उसकी रक्षा की गयी थी। इरावान भी अपने पिता अर्जुन की भांति रूपवान, बलवान, गुणवान और सत्य पराक्रमीथा महाभारत के वन पर्व के अध्याय 36 के अनुसार 12 वर्षीय वनवास के समय युधिष्ठिर के पास वेदव्यासजी आए और उन्होंने युधिष्ठिर को इंद्र से मिलाने वाली प्रतिस्मृति नामक योगविद्या प्रदान की। उन्होंने युधिष्ठिर से अपने अनुज अर्जुन को यह विद्या देने और अर्जुन को दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिए देवलोक भेजने को कहा। अर्जुन ने युधिष्ठिर से यह विद्या प्राप्त कर हिमालय और गंधमादन पर्वत को लांघकर हिमालय के पृष्ठभाग में स्थित इंद्रकील पर्वत पर पहुँचकर इंद्र के दर्शन किए। इसी अवधि में अर्जुन ने भगवान् शंकर का तप कर उनसे पाशुपातास्त्र प्राप्त किया। तदनंतर दिक्पाल वरुण, कुबेर, यम और इंद्र वहाँ पधारे। वरुण, कुबेर और यम ने अर्जुन को अपने दिव्यास्त्र प्रदान किए। तदनंतर अर्जुन इंद्रलोक गए। भीष्म पर्व के 90वें अध्याय के अनुसार इरावान ने जब सुना कि मेरे पिता अर्जुन इस समय इंद्रलोक गए हुए है, तब वह भी शीघ्र ही इंद्रलोक जा पहुंचा। उस वीर ने अपने पिता के पास पहुंचकर उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक हाथ जोड़ महामना अर्जुन के समक्ष अपना परिचय देते हुए बोला- 'प्रभो! मैं आपका ही पुत्र इरावान हूं।' यह जानकर अर्जुन ने प्रेमपूर्वक अपने पुत्र को अपना सब कार्य बताते हुए कहा- 'शक्तिशाली पुत्र! युद्ध के अवसर पर तुम हम लोगों को सहायता देना।' तब बहुत अच्छा कहकर इरावान चला गया और महाभारत का युद्ध आरंभ होने पर अपने पिता अर्जुन के पास आ गया। अगले पन्ने पर इस तरह वीरगति को प्राप्त हुआ इरावन.. महाभारत के भीष्म पर्व के 83वें अध्‍याय के अनुसार महाभारत के युद्ध के सातवें दिन इरावान का अवंती के राजकुमार विंद और अनुविंद से अत्यंत भयंकर युद्ध हुआ। इरावान ने दोनों भाइयों से एक साथ युद्ध करते हुए अपने पराक्रम से दोनों को पराजित कर दिया और फिर कौरव सेना का संहार आरंभ कर दिया। भीष्म पर्व के 91वें अध्याय के अनुसार आठवें दिन जब सुबलपुत्र शकुनि और कृतवर्मा ने पांडवों की सेना पर आक्रमण किया, तब अनेक सुंदर घोड़े और बहुत बड़ी सेना द्वारा सब ओर से घिरे हुए शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन के बलवान पुत्र इरावान ने हर्ष में भरकर रणभूमि में कौरवों की सेना पर आक्रमण कर प्रत्युत्तर दिया। इरावान द्वारा किए गए इस अत्यंत भयानक युद्ध में कौरवों की घुड़सवार सेना नष्ट हो गयी। तब शकुनि के छहों पुत्रों ने इरावान को चारों ओर घेर लिया। इरावान ने अकेले ही लंबे समय तक इन छहों से वीरतापूर्वक युद्ध कर उन सबका वध कर डाला। यह देख दुर्योधन भयभीत हो उठा और वह भागा हुआ राक्षस ऋष्यश्रृंग के पुत्र अलम्बुष के पास गया, जो पूर्वकाल में किए गए बकासुर वध के कारण भीमसेन का शत्रु बन बैठा था। ऐसे में अल्बुष ने इरावस से युद्ध किया। इरावान और अलम्बुष का अनेक प्रकार से माया-युद्ध हुआ। अलम्बुष राक्षस का जो जो अंग कटता, वह पुनः नए सिरे से उत्पन्न हो जाता था। युद्धस्थल में अपने शत्रु को प्रबल हुआ देख उस राक्षस ने अत्यंत भयंकर एवं विशाल रूप धारण करके अर्जुन के वीर एवं यशस्वी पुत्र इरावान को बंदी बनाने का प्रयत्न आरंभ किया। उस दुरात्मा राक्षस की माया देखकर क्रोध में भरे हुए इरावान ने भी माया का प्रयोग आरंभ किया। उसी समय नागकन्या पुत्र इरावान के मातृकुल के नागों का समूह उसकी सहायता के लिए वहां आ पहुंचा। रणभूमि में बहुतेरे नागों से घिरे हुए इरावान ने विशाल शरीर वाले शेषनाग की भांति बहुत बड़ा रूप धारण कर लिया। तब उसने बहुत से नागों द्वारा राक्षस को आच्छादित कर दिया। तब उस राक्षसराज अलम्बुष ने कुछ सोच-विचार कर गरूड़ का रूप धारण कर लिया और समस्त नागों को भक्षण करना आरंभ किया। जब उस राक्षस ने इरावान के मातृकुल के सब नागों को भक्षण कर लिया, तब मोहित हुए इरावान को तलवार से मार डाला। इरावान के कमल और चंद्रमा के समान कांतिमान तथा कुंडल एवं मुकुट से मंडित मस्तक को काटकर राक्षस ने धरती पर गिरा दिया। इरावान को युद्धभूमि में मारा गया देख भीमसेन का पुत्र राक्षस घटोत्कच बड़े जोर से सिंहनाद करने लगा। उसने भीषण रूप धारण कर प्रज्वलित त्रिशूल हाथ में लेकर भांति-भांति के अस्त्र-शस्त्रों से संपन्न बड़े-बड़े राक्षसों के साथ आकर कौरव सेना का संहार आरंभ कर दिया। उसने दुर्योधन और द्रोणाचार्य से भीषण युद्ध किया। घटोत्कच और भीमसेन ने भयानक युद्ध किया और क्रुद्ध भीमसेन ने उसी दिन धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध कर इरावान की मृत्यु का प्रतिशोध ले लिया।

गुरुवार, 17 अगस्त 2017

जानिए क्यों रह गयी नर्मदा क्वारी ?

जानिए क्यों रह गयी नर्मदा क्वारी ?
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नर्मदा नदी से मेरा क्या रिश्ता है मैं नहीं जानता लेकिन जब भी कहीं उनसे संबंधित कोई पौराणिक कथा सुनने या पढ़ने को मिलती है तो खुद को रोक नहीं पाता हूं। बचपन में नानी सुनाया करती थी चिरकुंवारी नर्मदा की कथा, तब ही एक गहरा लगाव उसके प्रति होता चला गया। लोकगाथा के रूप में वही कथा बार-बार अलग-अलग रूपों में सामने आती रही और मैं हर बार खुद को नर्मदा नदी के और करीब पाता  गया।

कहते हैं नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए।

नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं। सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है।

  नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी। विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला(यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है।

प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी और मंडप छोड़कर उलटी दिशा में चली गई। शोण भद्र को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह भी नर्मदा के पीछे भागा यह गुहार लगाते हुए' लौट आओ नर्मदा'... लेकिन नर्मदा को नहीं लौटना था सो वह नहीं लौटी।

अब आप कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि सचमुच नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की दो प्रमुख नदियों गंगा और गोदावरी से विपरीत दिशा में बहती है यानी पूर्व से पश्चिम की ओर। कहते हैं आज भी नर्मदा एक बिंदू विशेष से शोण भद्र से अलग होती दिखाई पड़ती है।

कथा की फलश्रुति यह भी है कि नर्मदा को इसीलिए चिरकुंवारी नदी कहा गया है और ग्रहों के किसी विशेष मेल पर स्वयं गंगा नदी भी यहां स्नान करने आती है। इस नदी को गंगा से भी पवित्र माना गया है।

मत्स्यपुराण में नर्मदा की महिमा इस तरह वर्णित है ‘कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और कुरुक्षेत्र में सरस्वती। परन्तु गांव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है। यमुना का जल एक सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी दिन और नर्मदा का जल उसी क्षण पवित्र कर देता है।’ एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान इस तरह है।

इस कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। नद यानी नदी का पुरुष रूप। (ब्रह्मपुत्र भी नदी नहीं 'नद' ही कहा जाता है।)

बहरहाल यह कथा बताती है कि राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे।

राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ।  नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी।

विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला को सुझी ठिठोली। उसने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने।

सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की ‍नियत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने।

वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई।

अब इस कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है।

रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के पूर्वी भाग में आज भी प्रचलित है।

कई हजारों वर्ष पहले की बात है। नर्मदा जी नदी बनकर जन्मीं। सोनभद्र नद बनकर जन्मा। दोनों के घर पास थे। दोनों अमरकंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते। चिढ़ते-चिढ़ाते। हंसते-रुठते। दोनों का बचपन खत्म हुआ। दोनों किशोर हुए। लगाव और बढ़ने लगा। गुफाओं, पहाड़‍ियों में ऋषि-मुनि व संतों ने डेरे डाले। चारों ओर यज्ञ-पूजन होने लगा।

पूरे पर्वत में हवन की पवित्र समिधाओं से वातावरण सुगंधित होने लगा। इसी पावन माहौल में दोनों जवान हुए। उन दोनों ने कसमें खाई। जीवन भर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने की। एक-दूसरे को धोखा नहीं देने की।

एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र ने सामने नर्मदा की सखी जुहिला नदी आ धमकी। सोलह श्रृंगार किए हुए, वन का सौन्दर्य लिए वह भी नवयुवती थी। उसने अपनी अदाओं से सोनभद्र को भी मोह लिया। सोनभद्र अपनी बाल सखी नर्मदा को भूल गया। जुहिला को भी अपनी सखी के प्यार पर डोरे डालते लाज ना आई। नर्मदा ने बहुत कोशिश की सोनभद्र को समझाने की। लेकिन सोनभद्र तो जैसे जुहिला के लिए बावरा हो गया था।

नर्मदा ने किसी ऐसे ही असहनीय क्षण में निर्णय लिया कि ऐसे धोखेबाज के साथ से अच्छा है इसे छोड़कर चल देना। कहते हैं तभी से नर्मदा ने अपनी दिशा बदल ली। सोनभद्र और जुहिला ने नर्मदा को जाते देखा। सोनभद्र को दुख हुआ। बचपन की सखी उसे छोड़कर जा रही थी। उसने पुकारा 'न...र...म...दा...रूक जाओ, लौट आओ नर्मदा।

लेकिन नर्मदा जी ने हमेशा कुंवारी रहने का प्रण कर लिया। युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई। रास्ते में घनघोर पहाड़ियां आईं। हरे-भरे जंगल आए। पर वह रास्ता बनाती चली गईं। कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं। मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुंचीं। कहते हैं आज भी नर्मदा की परिक्रमा में कहीं-कहीं नर्मदा का करूण विलाप सुनाई पड़ता है।

नर्मदा ने बंगाल सागर की यात्रा छोड़ी और अरब सागर की ओर दौड़ीं। भौगोलिक तथ्य देखिए कि हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिलती हैं लेकिन गुस्से के कारण नर्मदा अरब सागर में समा गई।

नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है और वे कह उठते हैं नमामि देवी नर्मदे.... !
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मंगलवार, 8 अगस्त 2017

संस्कृत भाषा की महानता एवं उपयोगिता*

 *संस्कृत भाषा की महानता एवं उपयोगिता*
डा.अजय दीक्षित
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#संस्कृत में #1700 धातुएं, #70 प्रत्यय और #80 उपसर्ग हैं, इनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी #संख्या #27 लाख 20 हजार होती है। यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है। #संस्कृत #इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज की सबसे #प्राचीन भाषा है और सबसे वैज्ञानिक भाषा भी है। इसके सकारात्मक तरंगों के कारण ही ज्यादातर श्लोक संस्कृत में हैं। भारत में संस्कृत से लोगों का जुड़ाव खत्म हो रहा है लेकिन विदेशों में इसके प्रति रुझाान बढ़ रहा है।
ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है। गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है । ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते हैं और शब्दों से भाषा का निर्माण होता है। आज अनेकों भाषायें प्रचलित हैं । किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी। साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओं का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओं का अस्तित्व था। अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है। किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यों द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओं मे भाषागत दोष दिखते हैं । ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता,स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। क्योंकि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातों को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी। किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल में, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था।
 तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा?
शब्दों का आधार ध्वनि है, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है शब्द भी थे। किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे, अर्थात उनका ज्ञान नहीं था ।
उदाहरणार्थ कुछ लोग कहते है कि अग्नि का आविष्कार फलाने समय में हुआ।
तो क्या उससे पहले अग्नि न थी महानुभावों? अग्नि तो धरती के जन्म से ही है किन्तु उसका ज्ञान निश्चित समय पर हुआ। इसी प्रकार शब्द व ध्वनि थे किन्तु उनका ज्ञान न था । तब उन प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दो के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आकलन किया । उन्होने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से ,कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है। तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध,स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना । सूर्य के एक ओर से 9 रश्मिया निकलती हैं और सूर्य के चारो ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने और इन 36 रश्मियो के पृथ्वी के आठ वसुओ से टकराने से 72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती हैं । जिनसे संस्कृत के 72 व्यंजन बने। इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल #108 ध्वनियों पर #संस्कृत की #वर्णमाला आधारित है। ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है। इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्ही ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया। अतः #प्राचीनतम #आर्य भाषा जो ब्रह्मांडीय संगीत थी उसका नाम “#संस्कृत” पड़ा। संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात श्वासों से निर्मित अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत , जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर-संप्रक से अभिव्यक्त हुयी।
कालांतर में पाणिनी ने नियमित व्याकरण के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया। #पाणिनीय व्याकरण ही #संस्कृत का #प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ #व्याकरण है। दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त , पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न , पूर्णवैज्ञानिक देववाणी संस्कृत – मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि , बुद्धि व आत्मबलप्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है। अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई त्रुटि नहीं है। इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठभेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषाविदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्णवैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।
संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषाविद संस्थाओं ने भी इस भाषा को एकमात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुये इसका अध्ययन आरंभ कराया है और भविष्य में भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है। अतः अंग्रेजी बोलने में बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अंग्रेजी में गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत में दोष गिनाते हैं उन्हें कुँए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय में विश्व के सभी विद्वानों का मत जानना चाहिए।
नासा को हमने खड़ा नहीं किया है अपनी तारीफ करवाने के लिए…नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व क्या है पढ़ लो ।
काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे खरपतवार पैदा हो रहे हैं जिन्हें अमृतमयी वाणी संस्कृत में दोष व विदेशी भाषाओं में गुण ही गुण नजर आते हैं वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं ।
अतः जब हम अपने बच्चों को कई विषय पढ़ा सकते हैं तो संस्कृत पढ़ाने में संकोच नहीं करना चाहिए। देश विदेश में हुये कई शोधो के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओं व विषयों को समझने में काफी सरलता होती है , साथ ही यह सत्वगुण में वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है। अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।
आज दुनिया भर में लगभग #6900 भाषाओं का प्रयोग किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इन भाषाओं की जननी कौन है?
नहीं?
कोई बात नहीं आज हम आपको दुनिया की सबसे #पुरानी भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।
दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है :- #संस्कृत भाषा ।
आइये जाने संस्कृत भाषा का महत्व :
संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील – उर्जीकृत करता है :-
मूलाधार चक्र – स्वर ‘अ’ एवं क वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।
        स्वर ‘इ’ तथा च वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत  करता है।
        स्वर  ‘ऋ’ तथा ट वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।
       स्वर  ‘लृ’ तथा त वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।
        स्वर ‘उ’ तथा प वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।
    ईषत्  स्पृष्ट  वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता  है।
     ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से
सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।
इस प्रकार देवनागरी लिपि के  प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है। वस्तुतः संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करे। प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिये कहा गया है कि व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरूपयोग एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है। शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है। 
उदाहरणार्थ जब ‘राम’ शब्द का उच्चारण किया जाता है है तो हमारा अनाहत चक्र जिसे ह्रदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है। ‘कृष्ण’ का उच्चारण मणिपूरक चक्र – नाभि चक्र को सक्रिय करता है। ‘सोह्म’ का उच्चारण दोनों ‘अनाहत’ एवं ‘मणिपूरक’ चक्रों को सक्रिय करता है।
वैदिक मंत्रो को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है। प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है। इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है। उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है। शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है। संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।
भारतीय #शास्त्रीय #संगीत के #सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए हैं । प्रत्येक का उच्चारण सम्बंधित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है। शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण / गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करे। प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है। इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।
संस्कृत केवल #स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है। ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है। जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।
संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ? यह विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है। चार महत्वपूर्ण विशेषताएँ:- 1. अनुस्वार (अं ) और विसर्ग (अ:): संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं -यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि। नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं-यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भवरे की तरह गुंजन करना होता है और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा । जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- " राम फल खाता है"इसको संस्कृत में बोला जायेगा- " राम: फलं खादति"=राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है। संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना होता है ।
2.शब्द-रूप:-संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं- यथा:- रम् (मूल धातु)-राम: रामौ रामा:;रामं रामौ रामान् ;रामेण रामाभ्यां रामै:; रामाय रामाभ्यां रामेभ्य: ;रामत् रामाभ्यां रामेभ्य:; रामस्य रामयो: रामाणां; रामे रामयो: रामेषु ;हे राम ! हेरामौ ! हे रामा : ।ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है। सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं -आत्मा (पुरुष), (अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार, (ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण, (कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्, (तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द,( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश।
3.द्विवचन:-संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है। जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।
4. सन्धि:-संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।"इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- 1 इत्यहं जानामि। 2 अहमिति जानामि। 3 जानाम्यहमिति । 4 जानामीत्यहम्। इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है। इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।
#अमरभाषा है संस्कृत
संस्कृत भाषा का व्याकरण अत्यंत #परिमार्जित एवं #वैज्ञानिक है।
#संस्कृत के एक #वैज्ञानिक भाषा होने का पता उसके किसी वस्तु को संबोधन करने वाले शब्दों से भी पता चलता है। इसका हर शब्द उस वस्तु के बारे में, जिसका नाम रखा गया है, के सामान्य लक्षण और गुण को प्रकट करता है। ऐसा अन्य भाषाओं में बहुत कम है। पदार्थों के नामकरण ऋषियों ने वेदों से किया है और वेदों में यौगिक शब्द हैं और हर शब्द गुण आधारित हैं ।
इस कारण #संस्कृत में #वस्तुओं के नाम उसका #गुण आदि प्रकट करते हैं। जैसे हृदय शब्द। हृदय को अंगेजी में हार्ट कहते हैं और संस्कृत में हृदय कहते हैं।
अंग्रेजी वाला शब्द इसके लक्षण प्रकट नहीं कर रहा, लेकिन संस्कृत शब्द इसके लक्षण को प्रकट कर इसे परिभाषित करता है। बृहदारण्यकोपनिषद 5.3.1 में हृदय शब्द का अक्षरार्थ इस प्रकार किया है- तदेतत् र्त्यक्षर हृदयमिति, हृ इत्येकमक्षरमभिहरित, द इत्येकमक्षर ददाति, य इत्येकमक्षरमिति।
अर्थात हृदय शब्द हृ, हरणे द दाने तथा इण् गतौ इन तीन धातुओं से निष्पन्न होता है। हृ से हरित अर्थात शिराओं से अशुद्ध रक्त लेता है, द से ददाति अर्थात शुद्ध करने के लिए फेफड़ों को देता है और य से याति अर्थात सारे शरीर में रक्त को गति प्रदान करता है। इस सिद्धांत की खोज हार्वे ने 1922 में की थी, जिसे हृदय शब्द स्वयं लाखों वर्षों से उजागर कर रहा था ।
संस्कृत में #संज्ञा, #सर्वनाम,# विशेषण और #क्रिया के कई तरह से शब्द रूप बनाए जाते, जो उन्हें व्याकरणीय अर्थ प्रदान करते हैं। अधिकांश शब्द-रूप मूल शब्द के अंत में प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं। इस तरह यह कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी-अंतःश्लिष्टयोगात्मक भाषा है। संस्कृत के व्याकरण को महापुरुषों ने वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया है। संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है। देवनागरी लिपि वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है, इसलिए इसमें हरेक चिन्ह के लिए एक और केवल एक ही ध्वनि है।
#देवनागरी में 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं। #संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि #संस्कारित भाषा भी है, अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। #संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद नहीं, बल्कि #महर्षि पाणिनि, #महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता #महर्षि पतंजलि हैं।
विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का प्रायः एक ही रूप होता है, जबकि #संस्कृत में #प्रत्येक शब्द के #27 रूप होते हैं। सभी भाषाओं में एकवचन और बहुवचन होते हैं, जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। संस्कृत भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है संधि। संस्कृत में जब दो अक्षर निकट आते हैं, तो वहां संधि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। इसे कम्प्यूटर अर्थात कृत्रिम बुद्धि के लिए सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है। शोध से ऐसा पाया गया है कि #संस्कृत पढ़ने से #स्मरण शक्ति बढ़ती है। 
संस्कृत ही एक मात्र साधन हैं, जो क्रमशः अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाते हैं।  इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएं ग्रहण करने में सहायता मिलती है। वैदिक ग्रंथों की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी #संस्कृत भाषा में #साहित्य की रचना कम से कम #छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है। संस्कृत केवल एक भाषा मात्र नहीं है, अपितु एक विचार भी है। #संस्कृत एक #भाषा मात्र नहीं, बल्कि एक #संस्कृति है और #संस्कार भी है। #संस्कृत में विश्व का #कल्याण है, #शांति है, #सहयोग है और #वसुधैव कुटुंबकम की भावना भी है