शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

भुंइहार ब्राह्मण :--काश्यपगोत्र:-वंशावली

सम्वत्सर १८८४ में मदारपुर के जमींदार
भुंइहार ब्राह्मणों से और यवनों से घोर युद्ध
हुआ। सारे भुंइहार ब्राह्मण मारे गये ।

                   
केवल अनन्तराम बिप्र की गर्भवती स्त्री
बची। जिसके एक पुत्र हुआ । जिसका नाम गर्भू रखा  उसी से भुंइहार वंश आगे बढा ।
कश्यप गोत्रीय चिलौली के सुखमणि त्रिपाठी ने पालन पोषण किया। और व्याह कराके कुतमऊ गांव में बसा दिया। और कुतमउहा तिवारी काश्यप गोत्र की उपाधि दी । स्योना नाई ने गर्भू की मां को दुश्मनों से बचाया था। इस लिए इनके यहां स्मृति चिन्ह के रूप में आज भी :--मांगलिक कार्यों में  अस्तुरा और कटोरी की पूजा होती है ।
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काश्यप गोत्र भुंइहार ब्रह्मण तिवारियों का स्थान
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स्थान.                असामी.          विस्वा
कुतमऊ के         / गर्भू.             /    ७
मदारपुर के.     / गौरी.            /.     १०
"""""""""""'''''''.     / मोहन           /.        ९
""""""""""""''"""""/ परमसुख.       /        ९
"'""""""""""""""""'/ कमोरी          /.        ९
""""""""""""""""'/, रमनी.          /.       
विहारपुर के.    / गणेश.          /.      ८
कुलमऊ पुर के  / सीताराम      /.      ५
बडौरा के.         / शांति           /.       १०
तिलौरी के         / कर्ण.          /.          ५
गलाथे के          / जयराम.      ,/.        ७
तिवारी पुर के.  / तिवारी.        /          २
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काश्यप गोत्र भुंइहार ब्राह्मण दीक्षितों का स्थान:-+-----
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स्थान.                   असामी          विस्वा
भागीरथ के.          /परमाई.         /.   ३
क्युना के              /, रतने.          /       १०
क्युना मदारपुर के / गोपी.       /.       ५
:::::::कुतमऊ के.     / देवदत्त     /.      ६
:::::::::::::::::::::.       / थलई      /.        ४
::::::::::::::::;:;;;;;;    / रूपई          /.       ४
शिवली के.         / गिरधर.      /.       ४
विहारपुर के.      / गोपाल.      /.       २
बानपुर के.         / गंगा.         /.        १०
बिहारपुर के.     / चन्द.          /.         २
सिहुडा के        /खेमे.          /.             १
कोडरी के.       / खेमे.         /             २
गरहा के.          / खेमे.           /.      .  २
शाहाबाद के.     / खेमे.            /.      २
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काश्यप गोत्र भुंइहार ब्राह्मण दुबे:--------
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स्थान                       असामी        विस्वा
सगुनापुर के.           / चंदन.        /.     ४
चिनहारपुर के.       / त्रिभुवन.      /.     ३
गल्हैया के.            / ठकुरी.         /.      ४
खुडहा बिनवारी. के.  / लखनी.      /     २
मगरोयल के.           / बहादुर         /.     ७
विठूर के.             / जयपाल.        /. .    ४
लहुरी के.            / दुबे.               /      २
इक्षावरी के.        / दुबे.                /.     २
ठाठविलार के.     ,/ दुबे.              /.       २
सदनिहा के.        ,/सीरू.              /.      २
बिहार के.           / सीरू.                /.    २
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काश्यप गोत्र भुंइहार ब्राह्मण अग्निहोत्री;----------
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स्थान.                     असामी.        विस्वा
विनौर के.               / जगनु.           /.  ५
अमृतपुर के.           / भग्गा.            /.    ४
लखनऊ के.           / जुडावन.         /.   ४
कठेरूआ के.           /. शीतल.        /.    ४
कलहा के.                / खिरऊ          /. १०
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काश्यप गोत्र भुंइहार ब्राह्मण शुक्ल अवस्थी मिश्र:-----
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स्थान                   असामी.          विस्वा
घिघौली के.    / गोबर्धन शुक्ल      /.  ५
रिवाडी के.  /  सुन्दर शुक्ल.        /.     ४
मिगलानी के. ,/ साहब अवस्थी.   /.     ३
खुरभुवाआ के  / यज्ञ अवस्थी.     /.      ४
ख्युरा के.    / आशादत्ती अवस्थी.  /.    २
बबुआ के.   / हरी अवस्थी.        /.    १०
कृपानपुर के  / रामकृष्ण मिश्र.     /.   ५
नगरा के.   / देवकीनंदन मिश्र.     /.   ३
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।। इति भुंइहार ब्राह्मण काश्यप गोत्रम  ।।

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

शिव तांडव स्तोत्र:--सरल हिंदी भाषा में


रावण कृत शिव तांडव स्तोत्र का सरल हिंदी भाषा में डा.अजय दीक्षित “अजय” द्वारा पद्य रूपान्तर
                                  

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।। अथ शिव तांडव स्तोत्र प्रारम्भ ||
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दोहा:-
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शिव प्रेरित मम आत्मा परमेश्वर शिव जानि ।
शिवताण्डव दशवदनकृत भाषा कियो बखानि ।।
कवितामध्य बसि शारदा “अजय” शरण त्रिपुरारि।
बिगरे भूले वरन को दीजो सुबुध सुधारि ।।
(१)
जटा अरण्य रूप ते प्रवाह गंग को बहै।
गले लसै भुजंग माल तासु शोभा को कहै ।।
बजाय हस्त डामरू जो उग्र नृत्य को करै ।
सोई महेश अजय के क्लेश को सदा हरै ।।
(२)
जटान के समूह में जो देवि गंग राजहीं ।
सो तासु तोय की तरंग तुंग शुभ्र भ्राजहीं ।।
कोटि चन्द्र अग्नि ज्वाल जासु भाल में लसै ।
सोई महेश शोभा आनि चित्त अजय के बसै ।।
(३)
भवानि के अनूप नैन सैन हाव भाव में ।
सदा निमग्न ही रहै सो जासु चित्त चाव में ।।
कृपा कटाक्ष हेरिकै समस्त आपदा हरै ।
सोई महेश मो मनै प्रमोद आनि विस्तरैं ।।
(४)
जटान में फणीन की मणिप्रभा उदोत है ।
विलेप सो दिशा बधून के मुखाग्र होत है ।।
गयंद चर्म वस्त्र चारू जासु अंग में लसै ।
सोई महेश को स्वरूप अजय चित्त में बसै ।।
(५)
लिलार मध्य जासु के प्रचंड अग्नि झार है ।
भयो जहाँ मनोज सो बलिष्ठ मार छार है ।।
नवें जिन्हें सुरेन्द्र शीश गंग चन्द्र रेख है ।
सोई महेश देनहार सम्पदा अशेष हैं ।।
(६)
सहस्त्र लोचनादि दै जिसे समस्त देव हैं ।
सदैव पाद पद्म जासु धाय धाय के गहैं ।।
जटान जूट मध्य जासु वासुकी विहार है ।
सोई महेश श्री चिरायु भक्ती देनहार है ।।
(७)
महाकराल भाल माहि जासु के कृशान हैं ।
भयो जहाँ मनोज सो बलिष्ठ ऩाशमान हैं ।।
जो गौरि के कुचाग्र को विचित्र चित्रकार हैं ।
सोई महेश को स्वरूप प्राण को अधार हैं।।
(८)
पियो जो कालकूट कंठ कालिमा रली भली ।
कूहू निशार्थ की मनौ विचित्र मेघ मंडली ।।
कुरंग चर्म कांखि शीश गंग चन्द्र भाल है ।
सोई महेश अजय पै सदैव ही दयाल है ।।
(९)
अनूप ग्रीव मध्य कालकूट कालिमा लसै ।
प्रफुल्ल नीलकंज की प्रभा विलोकि कै त्रसै ।।
हनी पुरारि नैन सैन मैन अंत कै गजै ।
सोई महेश को स्वरूप सदाही अजय भजै ।।
(१०)
अनूप रूप मंगला कला निधान वृक्ष हैं।
दिव्य मंजरीन ते रस प्रवाह स्वक्ष हैं ।।
सो चाखि तासु माधुरी जो भौंर लौं सदा भ्रमैं ।
सोई महेश के चरित्र माहि है अजय रमैं ।।
(११)
प्रकाशमान जासु के प्रचंड अग्नि भाल है ।
जटान मध्य फुंकरै महाकराल व्याल है ।।
मृदंग जासु नृत्यु में धिमिं धिमिं धिमिं बजै ।
सोई महेश गौरीनाथ की सदैव होय जय ।।
।। ऊँ पूर्ण शिवं धीमहि ।।
(१२)
पखान सेज पुष्प की समान जानिहौं कबै ।
अमूल्य रत्न लोह एक से प्रमानिहौं कबै ।।
जहांन के समस्त राग द्वेष भानिहौं कबै ।
महेश के पदारविंद चित्त आनिहौं कबै ।।
(१३)
सुबास स्वक्ष गंग नीर तीर ठानिहौं कबै ।
विरक्त ह्वै जहांन की दुरास भानिहौं कबै ।।
शिवेति मंत्र गौरियुक्त को बखानिहौं कबै ।
महेश के पदारविंद चित्त आनिहौं कबै ।।
(१४)
विभूति स्वैद के समेत अंग शोभा है रली ।
परागयुक्त मल्लिका प्रसून की प्रभा दली ।।
अनूप मंगल स्वरूप तेज बेसुमार है ।
सोई महेश श्री विनोद भक्ती देनहार है ।।
(१५ )
विवाह मध्य शैल की सुता जब बनी बनी ।
समस्त सिद्धिदा भई अनूप मंगल ध्वनी ।
सप्रेम कामिनीनि कीन्ह जासु को उचार है ।
सोई महेश मंत्र जै अखण्ड देनहार है ं ।।
(१६)
उमा महेश को गुणानवाद गान जो करै ।
सप्रेम गंगनीर तीर ध्यान चित्त में धरै ।।
समस्त रिद्धि सिद्धि सो भँडार तासु को भरै ।
अजय सो बिना प्रयास भव सिन्धु को तरै ।।
(१७)
पूजा बसान समये दशवक्त्र गीतं
य: शम्भू पूजन मिदं पठति प्रदोषे।।
तस्य स्थिरां रथ गजेन्द्र तुरंग युक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भु: ।।
।। ऊँ नम: शिवाय ।।
इति श्री हिंदी पद्यानुवाद सहितं शिव ताण्डव स्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।
प्रयोग:—-प्रति दिन शिवताण्डव स्तोत्र का पाँच बार पाठ करके पाँच बेलपत्र तथा पाँच श्वेतार्क पुष्प शिव जी को अर्पित करें । अपनी मनोकामना शिव जी से कहैं ।
|| डा.अजय दीक्षित ||

विश्वरूप तथा वृत्रासुर कथा

।। ऊं नम: शिवाय ।।

    विश्वरूप वध तथा वृत्रासुर जन्म कथा
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           विश्वरूप के तीन सिर थे।वे एक मुँह से सोमरस तथा दूसरे से सुरा पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे।उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिए वे यज्ञ के समय प्रत्यक्ष रूप में ऊँचे स्वर से बोलकर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति देते थे ।साथ ही वे छिप छिप कर असुरों को भी आहुति दिया करते थे ।उनकी माता असुर कुल की थीं, इसीलिए वे मातृस्नेह के वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरों को भाग पहुँचाया करते थे । 
          देवराज इन्द्र ने देखा कि इस प्रकार वे देवताओं का अपराध और धर्म की ओट में कपट कर रहे हैं ।इससे इन्द्र डर गये और क्रोध में भरकर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उनके तीनों सिर काट लिए ।विश्वरूप का सोमरस पीने वाला सिर पपीहा,  सुरापान करने वाला गौरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया । इन्द्र चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुयी हत्या को दूर कर सकते थे; परंतु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा,  वरं हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्ष तक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया ।तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिए उन्होंने अपनी ब्रह्महत्या को चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया। 
           पृथ्वी ने बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समय पर अपने आप भर जायेगा, इन्द्र की ब्रह्महत्या का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया । वही  ब्रह्महत्या पृथ्वी में कहीं कहीं ऊसर के रूप में दिखाई पड़ती है ।दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया । उन्हें यह वरदान मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जाने पर फिर जम जायेगा। उनमें अब भी गोंद के रूप में ब्रह्महत्या दिखाई पड़ती है । 
          स्त्रियों ने यह वरदान पाकर कि वे सर्वदा पुरुष का सहवास कर सकें, ब्रह्महत्या का तीसरा चतुर्थांश स्वीकार किया । उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने में रज के रूप में दिखाई पड़ती है । जल ने यह वरदान पाकर कि खर्च करते रहने पर भी निर्झर आदि के रूप में तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी,  ब्रह्महत्या का चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया ।फेन,  बुदबुद आदि के रूप में वही ब्रह्महत्या दिखाई पड़ती है । अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण करते हैं ।
          विश्वरूप की मृत्यु के बाद उनके पिता त्वष्टा 'हे इन्द्रशत्रो ! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र-से-शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो '--- इस मन्त्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिए हवन करने लगे । यज्ञ समाप्त होने पर दक्षिणाग्नि से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ । वह ऐसा जान पड़ता था,  मानो लोकों का नाश करने के लिए प्रलयकालीन काल ही प्रकट हुआ हो।वह प्रतिदिन अपने शरीर के सब ओर बाण के बराबर बढ़ जाया करता था ।  जले हुए पहाड़ के समान काला और बड़े डील डौल का था।उसके शरीर में संध्याकालीन बादलों के समान दीप्ति निकलती रहती थी।उसके सिर के बाल तथा दाढ़ी मूँछ तपे हुए ताँवे के समान लाल तथा नेत्र दोपहर के समान प्रचण्ड थे ।चमकते हुए त्रिशूल को लेकर जब वह नाचने,  चिल्लाने और कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी।जब उसका कन्दरा के समान मुख खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाश को पी जायेगा,  जीभ से सारे नक्षत्रों को चाट जायगा और अपनी विशाल एवं विकराल दाढ़ों से तीनों लोकों को निगल जायगा ।उसके भयावने रूप को देखकर सब लोग डर गये और  इधर उधर भागने लगे ।
          त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। इसी से उस पापी और अत्यंत क्रूर पुरुष का नाम वृत्रासुर पड़ा।

                  डा.अजय दीक्षित

Dr Ajai Dixit@gmail.Com

नाभाग की कथा

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     नाभाग की कथा:---
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           मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग।जब वह कई वर्ष ब्रह्मचर्य का पालन कर लौटा, तब बड़े भाइयों ने उसे हिस्से में केवल पिता को दिया ।सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपस में बाँट ली थी।उसने अपने पिता से कहा -- पिता जी ! मेरे बड़े भाइयों ने हिस्से में मेरे लिए आपको ही दिया है ।
          पिता ने कहा -- बेटा! तुम उनकी बात न मानो।देखो,  ये आंगिरस गोत्र ब्राह्मण बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं ।परंतु वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्म में भूल कर बैठते हैं ।तुम उनके पास जाकर उन्हें वैश्वदेव सम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञ से बचा हुआ सारा धन तुम्हें दे देंगे।
          उसने अपने पिता के आज्ञानुसार वैसा ही किया ।उन ब्राह्मणों ने भी यज्ञ का बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये।
          जब नाभाग धन लेने लगा, तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरुष आया।उसने कहा --- 'इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा हुआ  है, वह सब धन मेरा है '।
          नाभाग ने कहा ---' ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है, इसलिए यह मेरा है '।इस पर उस पुरुष ने कहा ---'हमारे विवाद के विषय में तुम्हारे पिता से ही प्रश्न किया जाय '।तब नाभाग ने जाकर पिता से पूछा । पिता ने कहा -- 'एक बार दक्षप्रजापति के यज्ञ में ऋषि लोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमि में जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्रदेव का हिस्सा है ।इसलिए यह धन तो महादेव जी को ही मिलना चाहिए '।नाभाग ने जाकर उन काले रंग के पुरुष रुद्र भगवान को प्रणाम किया और कहा कि 'प्रभो ! यज्ञभूमि की सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है । भगवन्! मुझसे अपराध हुआ, मैं  सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ ।तब भगवान रुद्र ने कहा --- 'तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है ।तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो।अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्म तत्व का ज्ञान देता हूँ ।
         यहाँ यज्ञ में बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।इतना कहकर भगवान रुद्र अन्तर्धान हो गये ।
          जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्त से इस आख्यान का स्मरण करता है, वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है,  साथ ही अपने स्वरूप को भी जान लेता है ।

                      डा.अजय दीक्षित

Dr Ajai Dixit@gmail.Com

महराज दिलीप की गो सेवा


🎄🎄जय श्री राम 🎄🎄
महाराज दिलीप की गो सेवा 
🔺🔺🔺🔺🔺🔺🔺

महाराज दिलीप और इन्द्र में मित्रता थी।एक बार राजा दिलीप स्वर्ग गये, लौटते समय मार्ग में कामधेनु मिली, किन्तु शीघ्रता के कारण दिलीप ने उसे देखा नहीं, न प्रणाम किया ।इससे रुष्ट हो कामधेनु ने शाप दिया --- 'मेरी संतान की कृपा के विना यह पुत्र हीन ही रहेगा ।'
           दिलीप को शाप का पता नहीं था ।किन्तु पुत्र न होने से वे स्वयं तथा प्रजा के लोग दुखी थे।वे महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर पहुँचे।महर्षि ने उन्हें नन्दिनी की सेवा करने का आदेश दिया ।
          महाराज ने आज्ञा स्वीकार कर ली।महारानी प्रातःकाल उस गौ की भलीभाँति पूजा करती थीं।वे गाय के साथ वन में जाते, हरी घास खिलाते, मक्खी-मच्छर उड़ाते और उसके शरीर पर हाथ फेरते।गौ के  बैठने पर बैठते, जल पीने के बाद जल पीते थे ।रात्रि में घी का दीपक जलाकर गौ के  समीप भूमि पर ही सोते थे ।एक दिन नन्दिनी तृण चरती हुई दूर निकल गयी।सहसा उन्हें गौ का चीत्कार सुनायी दिया ।उन्होंने जाकर देखा कि एक सिंह गौ को पंजों में दबाये बैठा है ।दिलीप ने धनुष उठाया और सिंह को मारने के लिए बाण निकालना चाहा किन्तु वह हाथ भाथे में ही चिपक गया ।
            इसी समय सिंह मनुष्य भाषा में बोला ----राजन्  ! व्यर्थ उद्योग मत करो।मैं साधारण पशु नहीं, भगवती पार्वती का कृपा पात्र हूँ ।मैं इस देवदारु वृक्ष की रक्षा करता हूँ ।जो पशु यहाँ आ जाते हैं, वे मेरे आहार होते हैं ।'
          महाराज दिलीप ने कहा --- माता के सेवक होने के कारण आप वन्दनीय हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।आप मेरे गुरु की इस गौ को छोड़ दें और बदले में मेरे शरीर को आहार बना लें ।
          सिंह ने कहा ---'आप नरेश हैं, आप एक के बदले सहस्त्रों गायें अपने गुरु को दे सकते हैं ।
          राजा ने कहा ----भगवन् ! मुझे शरीर का मोह नहीं ।मेरी रक्षा में दी हुई गौ मेरे रहते मारी जाय तो मेरे जीवन को धिक्कार है ।
          सिंह ने राजा को बहुत समझाया परंतु जब उन्होंने अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब वह बोला---'अच्छी बात  ! मुझे तो आहार चाहिए ।
          दिलीप का भाथे में चिपका हाथ छूट गया ।वे मस्तक झुका कर भूमि पर बैठ गये ।परंतु उन पर सिंह कूदे, इसके बदले आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी ।नन्दिनी का स्वर सुनायी पड़ा ---'पुत्र ! उठो।मैने तुम्हारी परीक्षा केलिए यह दृश्य उपस्थित किया था ।पत्ते के दोने में मेरा दूध दुहकर पी लो।तुम्हें तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा ।'
           दिलीप उठे।वहाँ सिंह कहीं था ही नहीं ।वे हाथ जोड़कर बोले ---'देवि ! आपके दूध पर पहले बछड़े का अधिकार है और फिर गुरुदेव का।उसके बाद मैं आपका दूध पी सकता हूँ ।
           दिलीप की बात सुनकर नन्दिनी और भी प्रसन्न हुई।आश्रम लौटने पर महर्षि वसिष्ठ भी सब बातें सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए ।गो सेवा के फल से उन्हें पराक्रमी पुत्र प्राप्त हुआ ।
जय गौ माता ।

                      डा.अजय दीक्षित

Dr Ajai Dixit@Gmail.Com

धेनुकाशुर के पूर्व जन।म की कथा


❤💚जय श्री कृष्ण 💚❤
भगवान श्री कृष्ण द्वारा मारे गये धेनुकासुर के पूर्व जन्म की कथा ।
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                    डा.अजय दीक्षित
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           एक समय की बात है ।राजा बलि का पुत्र साहसिक देवताओं को परास्त कर गन्धमादन की ओर प्रस्थित हुआ ।उसके साथ बहुत बड़ी सेना थी ।इसी समय स्वर्ग की अप्सरा तिलोत्तमा उधर से निकली ।उसने साहसिक को देखा और साहसिक ने उसको।दोनों आकर्षित हो गये ।
          तिलोत्तमा ने अपने सौन्दर्य से साहसिक को मोहित कर दिया ।वे दोनों एकांत में यथेच्छ विहार करने लगे ।वहीं ऋषि दुर्वासा श्री कृष्ण के चरणों का चिंतन कर रहे थे ।वे दोनों उस समय कामवश चेतनाशून्य थे ।उन्होंने अत्यंत निकट बैठे मुनि को नहीं देखा ।शोर सुनकर सहसा मुनि का ध्यान भंग हो गया ।उन्होंने उन दोनों की कुत्सित चेष्टाएँ देख क्रोध  में भरकर कहा ।
          दुर्वासा बोले ---ओ गदहे के समान निरलज्ज नराधम।उठ ! भक्त बलि का पुत्र होकर तू पशुवत् आचरण कर रहा है ।पशुओं के सिवा सभी मैथुन कर्म में लज्जा करतेहैं ।विशेषतः गदहे लज्जा से हीन होते हैं; अतः अब तू गदहे की योनि में जा।तिलोत्तमे ! तू भी उठ।दैत्य के प्रति ऐसी आसक्ति; तो अब तू दानव योनि में जन्म ग्रहण कर।
          ऐसा कहकर दुर्वासा मुनि चुप हो गये ।फिर वे दोनों लज्जित और  भयभीत होकर मुनि की स्तुति करने लगे ।
          साहसिक बोला --मुने ! आप ब्रह्मा, विष्णु और साक्षात् महेश्वर हैं ।भगवन् !मेरे अपराध को क्षमा करें ।कृपा करें ।यों कहकर वह फूट फूट कर रोते हुए उनके चरणों में गिर पड़ा।
          तिलोत्तमा बोली ---हे नाथ ! हे दीनबन्धो ! मुझ पर कृपा कीजिए ।कामुक प्राणी में लज्जा और चेतना नहीं रह जाती है ।ऐसा कहकर वह रोती हुई दुर्वासा की शरण में गयी।
           उन दोनों की व्याकुलता देखकर मुनि को दया आ गयी।
           दुर्वासा बोले --- दानव ! तू विष्णु भक्त बलि का पुत्र है।पिता का स्वभाव पुत्र में अवश्य रहता है ।जैसे कालिय के सिर पर अंकित श्री कृष्ण का चरण चिन्ह सभी सर्पों के मस्तक पर रहता है ।वत्स ! एक बार गदहे की योनि में जन्म लेकर तू मोक्ष को प्राप्त हो जा।अब तू वृन्दावन के तालवन में जा।वहाँ श्री कृष्ण के चक्र से प्राणों का परित्याग करके तू शीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर लेगा।तिलोत्तमे ! तू वाणासुर की पुत्री होगी; फिर श्री कृष्ण --पौत्र अनिरुद्ध का आलिंगन पाकर शुद्ध हो जायगी ।
           यह कहकर दुर्वासा मुनि चुप हो गये ।तत्पश्चात् वे दोनों भी उन मुनिश्रेष्ठ को प्रणाम करके यथा स्थान चले गये ।इस प्रकार साहसिक गर्दभ योनि में जन्म लेकर धेनुकासुर हुआ और तिलोत्तमा बाणासुर की पुत्री उषा होकर अनिरुद्ध की पत्नी हुई।

🍎🍎जय श्री कृष्ण 🍎🍎

Dr Ajai Dixit@ Gmail.Com

दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार

🎄🎄जय श्री सीताराम जी 🎄🎄

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दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार 

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         शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रक के मारे जाने पर उनकी मित्रता का ऋण चुकाने के लिए मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्ध भूमि में आ धमका।वह क्रोध के मारे आग बबूला हो रहा था । शस्त्र के नाम पर उसके हाथ में एक मात्र गदा थी।परंतु लोगों ने देखा कि वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरों की धमक से पृथ्वी हिल रही है । भगवान श्री कृष्ण ने जब उसे आते देखा,  तब झटपट हाथ में गदा लेकर वे रथ से कूद पड़े। फिर जैसे समुद्र के तट की भूमि उसके ज्वार--भाटे को आगे बढ़ने से रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया । घमंड के नशे में चूर करुषनरेश दन्तवक्त्र ने गदा तानकर भगवान श्री कृष्ण से कहा -- 'बड़े सौभाग्य और आनंद की  बात है कि आज तुम मेरी आँखों के सामने पड़ गये । कृष्ण ! तुम मेरे मामा के लड़के हो, इसलिए तुम्हें मारना तो नहीं चाहिए; परंतु एक तो तुमने मेरे मित्रों को मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिए मतिमन्द ! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदा  से चूर-चूर कर डालूँगा।

         मूर्ख ! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीर में रहने वाला कोई रोग हो। मैं अपने मित्रों से बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझ पर ऋण है । अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋण से उऋण हो सकता हूँ । जैसे महावत अंकुश से हाथी को घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्र ने अपनी कड़वी बातों से श्री कृष्ण को चोट पहुँचाने की चेष्टा की और फिर वह उनके सिर पर बड़े वेग से गदा मारकर सिंह के समान गरज उठा।रणभूमि में गदा की चोट खाकर भगवान श्री कृष्ण टस से मस न हुए । उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सम्हालकर उससे दन्तवक्त्र के वक्षःस्थल पर प्रहार किया । गदा की चोट से दन्तवक्त्र का कलेजा फट गया । वह मुँह से खून उगलने लगा।उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरती पर गिर पड़ा। 

         जैसा कि शिशुपाल की मृत्यु के समय हुआ था, सब प्राणियों के सामने ही दन्तवक्त्र के मृत शरीर से एक अत्यंत सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीति से भगवान श्री कृष्ण में समा गयी।

        दन्तवक्त्र के भाई का नाम था विदूरथ।वह अपने भाई की मृत्यु से अत्यंत शोकाकुल हो गया । अब वह क्रोध के मारे लंबी लंबी साँस लेता हुआ हाथ में ढाल तलवार लेकर भगवान श्री कृष्ण को मार डालने की इच्छा से आया। जब भगवान श्री कृष्ण ने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से किरीट और कुण्डल सहित उसका सिर धड़ से अलग कर दिया । 

          इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिए अशक्य था, मारकर द्वारकापुरी में प्रवेश किया ।

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मूल प्रकृति से श्री राधा और श्री लक्ष्मी का जन्म

🌸🌸जय श्री सीताराम जी 🌸🌸

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मूल प्रकृति से श्री राधा और श्री लक्ष्मी का प्राकट्य

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         श्री कृष्ण की चिन्मय शक्ति मूल प्रकृति,  उनकी कृपा से गर्भस्थिति का अनुभव करने लगी।सौ मन्वन्तर तक ब्रह्म तेज से उसका शरीर देदीप्यमान रहा । श्री कृष्ण के प्राणों पर उस देवी का अधिकार था ।श्री कृष्ण प्राणों से भी बढ़कर उससे प्यार करते थे । वह सदा उनके साथ रहती थी। श्री कृष्ण का वक्षःस्थल ही उसका स्थान था । सौ मन्वन्तर का समय व्यतीत हो जाने पर उसने एक सुवर्ण के समान प्रकाशमान बालक उत्पन्न किया । उसमें विश्व को धारण करने की समुचित योग्यता थी; किन्तु उसे देखकर उस देवी का हृदय दुख से संतप्त हो उठा। उसने उस बालक को ब्रह्माण्ड-गोलक के अथाह जल में छोड़ दिया ।

          इसने बच्चे को त्याग दिया --- यह देखकर देवेश्वर श्री कृष्ण ने तुरंत उस देवी से कहा --- 'अरी कोपशीले ! तूने यह जो बच्चे का त्याग कर दिया है,  यह बड़ा घृणित कर्म है । इसके फलस्वरूप तू आज से संतानहीना हो जा। यह बिल्कुल निश्चित है ।यही नहीं, किन्तु तेरे अंश से जो जो दिव्य स्त्रियाँ उत्पन्न होंगी,  वे सभी तेरे समान ही नूतन तारुण्य से सम्पन्न रहने पर भी संतान का मुख नहीं देख सकेंगी।'

          इतने में उस देवी की जीभ के अग्र भाग से सहसा एक परम मनोहर कन्या प्रकट हो गयी। उसके शरीर का वर्ण शुक्ल था। वह श्वेत वर्ण का ही वस्त्र धारण किए हुए थी। उसके दोनों हाथ वीणा और पुस्तक से सुशोभित थे। सम्पूर्ण शास्त्रों की वह अधिष्ठात्री देवी रत्नमय आभूषणों से विभूषित थी।

          तदनन्तर कुछ समय व्यतीत हो जाने के पश्चात वह मूल प्रकृति देवी दो रूपों में प्रकट हुयी। आधे वाम अंग से 'कमला' का प्रादुर्भाव हुआ और दाहिने से 'राधिका' का।उसी समय श्री कृष्ण भी दो रूप हो गये । आधे दाहिने अंग से स्वयं 'द्विभुज' विराजमान रहे  और वायें अंग से 'चार भुजा वाले विष्णु ' का आविर्भाव हो गया ।तब श्री कृष्ण ने सरस्वती से कहा --- 'देवी ! तुम इन विष्णु की प्रिया बन जाओ।मानिनी राधा यहाँ रहेंगी।तुम्हारा  परम कल्याण होगा।इसी प्रकार संतुष्ट हो कर श्री कृष्ण ने लक्ष्मी को नारायण की सेवा में उपस्थित होने की आज्ञा प्रदान की।फिर तो जगत की व्यवस्था में तत्पर रहने वाले श्री विष्णु उन सरस्वती और लक्ष्मी देवियों के साथ वैकुण्ठ पधारे।मूल प्रकृतिरूपी राधा के अंश से प्रकट होने के कारण वे देवियाँ भी संतान प्रसव करनेमें असमर्थ रहीं ।

           डॉ .  अजय दीक्षित

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