अधिकार ।
श्रुतिः स्मृति उभे नेत्रे विप्राणां प्रकीर्तिते ।
एकेन विकलः काणः द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ॥
(हारीत संहिता)
श्रुति व स्मृति का ज्ञान ही ब्राह्मण के दो नेत्र हैं, इनमें से यदि एक का भी ज्ञान नहीं है तो वह काना है और यदि दोनों के ही बोध से रहित है तो वह अन्धा है ।किन्तु भागवत धर्म वह मार्ग है जहाँ अन्धा भी स्खलन, पतन के भय से सर्वथा मुक्त होकर दौड़ सकता है ।
योगेश्वर श्री कवि जी के वचन –
ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥
(भा. ११/२/३४)
भोले-भाले अज्ञानी जन भी सुगमता से भगवत्प्राप्ति कर सकें, इसके लिये स्वयं श्री भगवान् ने अपने मुख से जो मार्ग बताया है, वही “भागवत धर्म” है । यह भागवत धर्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तो है ही, गोपनीय होने से स्वयं श्री भगवान् के मुख से ही प्रकट हुआ है, अन्यथा वर्णाश्रम धर्मों की भाँति मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर आदि स्मृतिकारों से भी प्रकट कराया जा सकता था ।
यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥
(भा. ११/२/३५)
सबसे प्रथम बात भागवत धर्म मनुष्य मात्र का धर्म है । यह इस धर्म की महत्ता है कि बड़े-बड़े विघ्न भी भागवतधर्मावलम्बी को चलायमान नहीं कर सकते हैं । यह वो सुगम राजपथ है, जिस पर अन्धाव्यक्ति भी स्खलन-पतन के भय से मुक्त होकर दौड़ते हुए जा सकता है ।नेत्रनिमीलन से तात्पर्य जिसे श्रुति-स्मृति दोनों का ही ज्ञान नहीं है, ऐसी स्थिति में उससे यदि किसी विधि-विधान का अतिक्रमण भी हो जायेगा तो भी दोष न लगकर उसे फलप्राप्ति ही होगी ।
वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा ।
(भा.माहा. २/६७)
वेद-उपनिषद वृक्ष ठहरे और श्रीमद्भागवत गलित मधुर फल ।
फल की मधुरता, उपयोगिता को वृक्ष कभी प्राप्त नहीं कर सकता है । इसी कारण कहीं-कहीं स्मृतियों से विरोध भी देखा गया है । स्वयं श्री भगवान् ने किया – यथा स्मृति-ग्रन्थों में समुद्र यात्रा का निषेध किया गया है किन्तु भगवान् श्रीरामने समुद्र पार सेतु निर्माण कर समुद्र यात्रा की एवं भगवान् श्रीकृष्णने तो समुद्र में ही द्वारका का निर्माण कराके निवास किया ।
देश, काल परिस्थितियों के अनुसार स्वयं भगवान् ने भी स्मार्त-मर्यादा को स्वीकार नहीं किया (सभी धर्मों को छोड़कर ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ मात्र वैष्णव धर्म का समर्थन किया) ।
धन्य है,
यदि स्मार्त मर्यादा को मानकर सेतु निर्माण कर समुद्र यात्रा न करते तो पापिष्ठ रावण का वध कैसे होता? भगवान् श्रीकृष्ण यदि द्वारका का निर्माण करा समुद्र-निवास न करते तो दुष्ट कालयवन का वध कैसे होता? अतः धर्म को प्रधान रखते हुए, स्मार्त मर्यादा के विरुद्ध आचरण करते हुए भी भगवान् को देखा गया है ।
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥
(महाभारत, वन पर्व-३१३/११७)
तर्केऽप्रतिष्ठा श्रुतयो विभिन्नाः नासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥
(गरुड़ पुराण-१, १०९.५१)
भारत के कट्टर स्मार्त लोग समुद्र पार करके देशान्तरों में सनातन धर्म का प्रचार करने नहीं गये अतः निरन्तर धर्म का संकुचन ही होता रहा । इसके विपरीत बौद्धों के द्वारा विदेशों में बौद्ध धर्म का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ । परिणाम में थाइलैण्ड, बर्मा आदि सम्पूर्ण मध्य एशिया बौद्धधर्मावलम्बी हो गया । कोई समय था, जब एक सनातन धर्म ही समग्र विश्व में था । हमारे पौराणिक इतिहास के अनुसार सातों द्वीप सनातनी थे ।
श्रीमद्भागवत के अनुसार –
अम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम् ।
(भा. ९/४/१५)
सूर्यवंशी महाराज अम्बरीष सातों द्वीपों के सम्राट थे । जो परम कृष्ण भक्त थे (महाराज अम्बरीष की अनन्य कृष्णभक्ति ९/४/१८-२१ में दृष्टव्य है) अम्बरीष जी की ही भाँति उनकी सम्पूर्ण प्रजा (सप्तद्वीपों की प्रजा) भी उत्तमश्लोक भगवान् श्री हरि की कथा प्रेम से श्रवण करती तो कभी गान करती, इसके अतिरिक्त प्रजाजनों को स्वर्ग की भी कोई इच्छा नहीं थी ।
मध्यएशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार से हानि यह हुई कि अहिंसा प्रधान बौद्ध धर्मावलंबियों पर अपनी क्रूरता, कट्टरता, हिंसा प्रधान वृत्ति के लिए कुख्यात यवनों ने धर्मान्तरण कराके उन्हें यवन बना डाला ।
भारत में क्या-क्या कहर बरसाया गया था । क्रूरकर्मा फिरोजशाह तुगलक के समय में हिन्दू पुजारी व प्रचारकों को जीवित ही आग में फेंक दिया जाता था । बाबर का पूर्वज तैमूर लंग तो ९० हजार सैनिक लेकर मेरठ, हरिद्वार, शिवालिक, नगरकोट व जम्मू तक मन्दिरों-मूर्तियों का भंजन व इस्लाम न स्वीकार करने वाले हिन्दुओं का कत्लेआम करता रहा ।
बुद्धदेव नामक हिन्दू धर्म प्रचारक का मस्तक धड़ से अलग कर दिया था । सिक्खों के पंचम गुरू श्री अर्जुनदेव को क्या कम अमानुषिक यातनाएं दी गयीं, धधकते अंगारों पर बिठाया गया, ऊपर से जलती हुई बालू बरसाई गई, इतना ही नहीं, गाय की ताजी खाल खींचकर उसमें लपेटकर सिलने का उपक्रम भी किया गया और नवम गुरू श्री त्यागराय (तेग बहादुर) पर क्रूर मुगल औरंगजेब के अत्याचार आज भी हृदय में प्रतिकार की ज्वाला को भड़का देते हैं । लोहे के गर्म खंबे से चिपकाया जाना, जलती हुई बालू बरसाना और अन्त में धड़ से मस्तक अलग कर दिया जाना, क्या यह मनुष्यों का कार्य हो सकता है? दशम गुरू गोविन्द सिंह के दो पुत्र जोरावरसिंह व फतेह सिंह को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर जीवित ही दीवार में चिन दिया गया । कहाँ तक करें इन क्रूरों की असच्चर्चा, भारत भूमि के तो बलिदानियों की नामावली से ही एक नया ग्रन्थ बन सकता है।
बौद्धों पर भी इन नरपिशाचों का कहर कुछ कम नहीं था । अभी कुछ समय पूर्व ही बामियान, मध्य एशिया में संसार की सबसे विशाल बुद्ध मूर्ति को तोड़ा गया और धर्मान्तरण की परम्परा तो अब तक जीवन्त है ।
संकीर्णताओं ने इतना दुर्बल कर दिया हिन्दू समाज को कि कश्मीर के महाराज ने घोषणा की, जिन हिन्दुओं का बलात् धर्मान्तरण करा मुसलमान बनाया गया है, वे पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर सकते हैं किन्तु इस पर काशी के विद्वत्समाज ने ही विद्रोह खड़ा कर दिया कि अब उन्हें स्वीकार नहीं किया जायेगा । ऐसे वेदज्ञान से बहुत बड़ी हानि हुई इस राष्ट्र व धर्म की ।
भूल गये अपने ऋषियों का आचरण –
सरस्वत्यज्ञया कण्वो मिश्र देशमुपाययो ।
म्लेच्छान् संस्कृत्यं चाभाष्य तदा दश सहस्रकम् ॥
(भविष्यपुराण ४/२१/१६)
सरस्वती की आज्ञा से महर्षि कण्व मिस्र देश गये और वहाँ दस हजार म्लेच्छों को उन्होंने सुसंस्कृत बनाया । जो शुद्ध व पवित्र होकर भारत लौटना चाहते थे उन्हें पुनः स्वीकार कर लिया गया । महाराष्ट्र के ‘चित्पावन ब्राह्मण’ आज महान वेदज्ञ माने जाते हैं, जो वंशानुगत यहूदी और मिस्र देश के आसपास से आये हुए हैं । इसी प्रकार ईरानी, शक, हूण, मग एवं यहूदी आदि अनेक जातियों ने हिन्दू संस्कृति को अपनाया और उन्हें ऋषियों द्वारा स्वीकार किया गया ।
स्मृति में भी स्त्री समर्थन –
आज हठधर्मिता के कारण मनुष्य इतना अन्धाहो गया कि श्रुति-स्मृति धर्मों के सिद्धान्त भी यथार्थ रूप से न समझते हुए मात्र दुराग्रह में ही पड़ा हुआ है ।
ध्यान रहे, सबसे प्रमुख स्मृति शास्त्र तो श्रीमद्भगवद्गीता ही है । जहाँ स्वयं श्री भगवान् ने कहा है –
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
(गी. ९/३२)
पापयोनि होते हुए भी स्त्री, वैश्य और शूद्र सर्वथा मेरे शरणागत होकर मुझे प्राप्त कर लेते हैं ।
कहाँ है स्मृति में स्त्रियों का बहिष्कार ।
स्मृति-शास्त्र का अन्तिम उद्घोष है –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गी. १८/६६)
सभी धर्मों को त्याग कर मेरे शरणागत हो जाओ । सर्वधर्मान् से वैदिक धर्म, श्रुति धर्म, स्मृति धर्म, सबका ग्रहण हो जाता है ।
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