मंगलवार, 13 अगस्त 2019

मृत्यु का उत्तम काल

मृत्यु का उत्तम काल

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आचार्य डा.अजय दीक्षित

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मृत्यु के उत्तम काल के विषय में भी कुछ धारणाएँ हैं। 

- 'जो व्यक्ति सूर्य के उत्तर दिशा में जाने पर (उत्तरायण होने पर) मरता है या किसी अन्य शुभ नक्षत्र एवं मुहूर्त में मरता है, वह सचमुच पुण्यवान है।' यह भावना उपनिषदों में व्यक्त उत्तरायण एवं दक्षिणायन में मरने की धारणा पर आधारित है। छान्दोग्योपनिषद में आया है- 'अब (यदि यह आत्मज्ञानी व्यक्ति मरता है) चाहे लोग उसकी अन्त्येष्टि क्रिया (श्राद्ध आदि) करें या न करें, वह अर्चि: अर्थात् प्रकाश को प्राप्त होता है, प्रकाश से दिन, दिन से चन्द्र के अर्ध प्रकाश (शुक्ल पक्ष), उससे उत्तरायण के छ: मास, उससे वर्ष, वर्ष से सूर्य, सूर्य से चन्द्र, चन्द्र से विद्युत को प्राप्त होता है। अमानव उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है। यह देवों का मार्ग है; वह मार्ग, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। जो लोग इस मार्ग से जाते हैं, वे मानव जीवन में पुन: नहीं लौटते। हाँ, वे नहीं लौटते।' ऐसी ही बात छान्दोग्योपनिषद में आयी है, जहाँ कहा गया है कि पंचाग्नि-विद्या जानने वाले गृहस्थ तथा विश्वास (श्रद्धा) एवं तप करने वाले वानप्रस्थ एवं परिव्राजक (जो अभी ब्रह्म को नहीं जानते) भी देवयान (देवमार्ग) से जाते हैं। और जो लोग ग्रामवासी हैं, यज्ञपरायण हैं, दान-दक्षिणायुक्त हैं, धूम को जाते हैं, वे धूम से रात्रि, रात्रि से चन्द्र के अर्ध अंधकार (कृष्ण पक्ष) में, उससे दक्षिणायन के छ: मास, उससे पितृलोक, उससे आकाश एवं चन्द्र को जाते हैं, जहाँ वे कर्मफल पाते हैं और पुन: उसी मार्ग से लौट आते हैं। छान्दोग्योपनिषद ने एक तीसरे स्थान की ओर संकेत किया है, जहाँ कीट-पतंग आदि लगातार आते-जाते रहते हैं।


बृहदारण्यकोपनिषद ने भी देवलोग, पितृलोक एवं उस लोक का उल्लेख किया है, जहाँ कीट, पतंग आदि जाते हैं। भगवद्गीता  ने भी उपनिषदों के इन वचनों को सूक्ष्म रूप में कहा है-मैं उन कालों का वर्णन करूँगा, जब कि भक्तगण कभी न लौटने के लिए इस विश्व से विदा होते हैं। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण सूर्य के छ:; जब ब्रह्मज्ञानी इन कालों में मरते हैं, तो ब्रह्मलोक जाते हैं। धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन सूर्य के छ: मासों में मरने वाले भक्तगण चन्द्रलोक में जाते हैं और पुन: लौट आते हैं। इस विषय में ये दो मार्ग, जो प्रकाशमान एवं अंधकारमय हैं, सनातन हैं। एक से जाने वाला कभी नहीं लौटता, किन्तु दूसरे से आने वाला लौट आता है। वेदान्तसूत्र ने 'प्रकाश', 'दिन' आदि शब्दों को यथाश्रुत शाब्दिक अर्थ में लेने को नहीं कहा है; अर्थात् उसके मत से ये मार्गों के लक्षण या स्तर नहीं हैं, प्रत्युत ये उन देवताओं के प्रतीक हैं, जो मृतात्माओं को सहायता देते हैं और देवलोक एवं पितृलोक के मार्गों में उन्हें ले जाते हैं, अर्थात् वे आतिवाहिक एवं अभिमानी देवता हैं। शंकर ने वेदान्तसूत्र[66] की व्याख्या में बताया है कि जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो इससे यही समझना चाहिए कि वहाँ अर्चिरादि की प्रशस्ति मात्र है-जो ब्रह्मज्ञानी है, वह यदि दक्षिणायन में मर जाता है तो भी वह अपने ज्ञान का फल पाता है, अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त करता है। जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो ऐसा करके उन्होंने केवल लोकप्रसिद्ध प्रयोग या आचरण को मान्यता दी और उन्होंने यह भी प्रकट किया कि उनमें यह शक्ति भी थी कि वे अपनी इच्छाशक्ति से ही मर सकते हैं, क्योंकि उनके पिता ने उन्हें ऐसा वर दे रखा था।[67] शंकर एवं वेदान्तसूत्र के वचनों के रहते हुए भी लोकप्रसिद्ध बात यही रही है कि उत्तरायण में मरना उत्तम है।[68]


      

तीर्थस्थान गमनसंपादित करें

पुराणों के आधार पर कुछ निबन्धों का ऐसा कथन है कि अन्तकाल उपस्थित होने पर व्यक्ति को, यदि सम्भव हो तो, किसी तीर्थ-स्थान (यथा गंगा) में ले जाना चाहिए। शुद्धितत्त्व[52] ने कूर्मपुराण को उद्धृत किया है-'गंगा के जल में, वाराणसी के स्थल या जल में, गंगासागर में या उसकी भूमि, जल या अन्तरिक्ष में मरने से व्यक्ति मोक्ष (संसार से अन्तिम छुटकारा) पाता है।' इसी अर्थ में स्कन्दपुराण में आया है-'गंगा के तटों से एक गव्यूति (दो कोस) तक क्षेत्र (पवित्र स्थान) होता है, इतनी दूर तक दान, जप एवं होम करने से गंगा का ही फल प्राप्त होता है; जो इस क्षेत्र में मरता है, वह स्वर्ग जाता है और पुन: जन्म नहीं पाता'।[53]पूजारत्नाकर में आया है-'जहाँ जहाँ शालग्रामशिला होती है, वहाँ हरि का निवास रहता है; जो शालग्रामशिला के पास मरता है, वह हरि का परमपद प्राप्त करता है।' ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई अनार्य देश (कीकट) में भी शालग्राम से एक कोस की दूरी पर मरता है, वह वैकुण्ठ (विष्णुलोक) पाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुलसी के वन में मरता है या मरते समय जिसके मुख में तुलसीदल रहता है, वह करोड़ों पाप करने पर भी मोक्षपद प्राप्त करता है। इस प्रकार की भावनाएँ आज भी लोकप्रसिद्ध हैं।

कूर्मपुराणम्- गंगायां च जले मोक्षो वाराणस्यां जले स्थले। 
जले स्थले चान्तरिक्षे गंगासागरसंगमे।। 
स्कन्दे- तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते। 
अत्र दानं जपो होमो गंगायां नात्र संशय:।। 
अत्रस्थास्त्रिदिवं यान्ति ये मृता न पुनर्भवा:।[54]
पूजारत्नाकरे- शालग्रामशिला यत्र तत्र संनिहितो हरि:। 
तत्सन्निघौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णो: परं पदम्।। 
लिंगपुराणे-शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्तत:। 
कीकटेपि मृतो याति वैकुण्ठभवनं नर:।। 
वैष्णवामृते व्यास-तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युर्भवेत् क्वचित्। 
स निर्भर्त्स्य नरं पापी लीलयैव हरिं विशेत्।। 
प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम्। 
निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियृतोपि स:।।[55]



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