शनिवार, 31 अगस्त 2019

भागवत धर्म में सर्वाधिकार

भागवत धर्म में सर्वाधिकार

लगभग २००० वर्षों की पराधीनता के बाद राजनैतिक रूप से १५ अगस्त, १९४७ को स्वतन्त्र हो जाने के बाद भी सांस्कृतिक रूप से अपनों की ही पराधीनता से मुक्त होने की तो कोई सम्भावना भी दिखाई नहीं दे रही है ।
आज इस देश के संकीर्ण विचारकों के द्वारा जो देश व संस्कृति का संकुचन हुआ और अनवरत हो रहा है, वह तो विधर्मी आक्रान्ताओं के द्वारा लाखों वर्षों तक यहाँ लूट-पाट, तोड़-फोड़, कत्लेआम किये जाने पर भी नहीं हो सकता था ।
विशेषतः आज धर्म के नगाड़े बजाने वाले ही भगवद्वाणी, भगवद्‌रूपा आचार्यों की वाणी को सर्वथा भूल गये हैं । भूल गये कि भगवान् श्रीरामके वन-वनान्तर-भ्रमण का कारण केवट, शबरी एवं जटायु पर कृपा करना ही था । इस वन भ्रमण का उद्देश्य असुरों का वध नहीं था क्योंकि यह तो मात्र उनकी संकल्प शक्ति से भी हो सकता था । पुनः कलिकाल में श्री रामानन्दाचार्य जी के रूप में महान विद्वानों की भूमि “काशी” में उद्घोष किया –

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता अपि नित्यरङ्गिणः ।अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो न चापि कालो नहि शुद्धता च ॥
(वैष्णव मताब्ज भास्कर)

संसार में सबको भगवद्‌शरणागति का अधिकार है, चाहे वह समर्थ हो अथवा असमर्थ । क्योंकि भगवद्‌शरणागति में न श्रेष्ठ कुल की अपेक्षा है न अत्यधिक बल की ही, न उत्तम काल की आवश्यकता है, न किसी शुद्धि की ही । प्राणीमात्र शुचि-अशुचि सभी अवस्था में सभी काल में भगवद्‌शरणागति ग्रहण कर सकता है ।

श्री सूरदास जी ने भी कहा –

हरि, हरि, हरि, सुमिरौ सब कोइ । नारि-पुरुष हरि गनत न दोइ ॥
(सूर विनय पत्रिका-१४७)

सनातन धर्म के इस सूर्य स्वरूप सिद्धान्त पर ग्रहण लगाने वाले राहु-केतु स्वरूप आज के संकीर्ण विचारक सर्वथा त्याज्य हैं ।
भूल गये कि जगद्गुरू श्री स्वामी रामानन्द जी ने रैदास (जो कि चमार थे) को भी शिष्य बनाया था जो कलिकाल की गोपी मीरा के गुरू हुए ।

कर्मकाण्ड प्रधान दक्षिण भारत की भूमि में प्रकट हुए शेषावतार श्री रामानुजाचार्य जी कावेरी स्नान के लिए जाते समय एक विप्र के कंधे का सहारा लेते एवं लौटते समय धनुर्दास के कंधे पर हाथ रखकर आते, इससे अन्य ब्राह्मण शिष्यों को बड़ा रोष होता । स्नान को जाते हुए तो ब्राह्मण का स्पर्श और लौटते हुए शूद्र का स्पर्श! राम, राम, राम! ये तो आचरण भ्रष्ट हो गये हैं । बाद में श्री रामानुजाचार्य जी ने उन द्वेषियों को श्री धर्नुधरदास जी के भक्ति, त्याग एवं वैराग्यमय उदात्त व्यक्तित्व से अवगत कराया ।

खेद है कि आज अपने ही धर्मग्रन्थों की वाणी व भावना को यथार्थ रूप से न समझने वाले मनमुखी ज्ञानाभिमानी अज्ञानी लोग संकीर्णता का ध्वज हाथ में लिये अपने ही धर्म को खण्ड-खण्ड करने को खड़े हैं।

भारतीय आर्य संस्कृति में अनेकानेक स्त्रियाँ जैसे देवहूति, सुनीति, सती, मदालसा, सुबुद्धिनी, ब्रज की गोपी, रतिवन्ती, अरुन्धती, अनसूया, लोपामुद्रा, सावित्री, गार्गी, शाण्डिली, गणेशदेई, झालीरानी, शुभा, शोभा, कुन्ती, द्रोपदी, दमयन्ती, सुभद्रा, प्रभुता, उमा भटियानी, गोराबाई, कलाबाई, जीवाबाई, दमाबाई, केशीबाई, बाँदररानी, गोपालीबाई, मीराबाई, कात्यायनी, मुक्ताबाई, जनाबाई, सखूबाई, सहजोबाई, करमैतीबाई, रत्नावती, कुँअररानी, कान्हूपात्रा, चिन्तामणि, पिंगला, हम्मीर, सूर्य परमाल, सरदारबाई, लालबाई, वीरमती, विद्युल्लता, कृष्णा, चम्पा, पद्मा, संघामित्रा, अहिल्याबाई आदि के रूप में आदर्श माता, आदर्श भगिनी, आदर्श पत्नी, आदर्श पुत्री, आदर्श रानी, आदर्श वीरांगना, आदर्श राजनीति निपुणा, आदर्श कार्यकुशला, आदर्श ब्रह्मवादिनी, आदर्श वक्त्री की भूमिका निभाती रही हैं । आज यदि ये न होतीं तो भारतीय आर्य संस्कृति में आदर्श स्त्रियों का स्थान शून्य ही रह जाता ।

आज कोई स्त्री धर्म प्रचारिका बन जाती है तो इसका खण्डन करने भारत के ही संकीर्ण धर्म प्रचारक खड़े हो जाते हैं ।आर्यमेदिनी के युगप्रवर्तक धर्मप्रचारक तो थे स्वामी विवेकानन्द, नारी शक्ति के प्रति जिनके उदात्त विचार आज के प्रत्येक धर्म प्रचारक को पढ़ने चाहिए ।

स्वामी जी का ‘women of india’ नामक ग्रन्थ एवं नारी शक्ति सम्बन्धी आपके अन्य सुन्दर विचारों का संग्रह ‘our women’ पुस्तक रूप में प्रकाशित है ।

आज के युग में स्त्रियों को किस प्रकार की शिक्षा की आवश्यकता है, एक शिष्य के इस प्रकार पूछे जाने पर स्वामी जी ने कहा – छात्राओं को जीवन में सीता, सावित्री, दमयन्ती, लीलावती और मीराबाई का चरित्र सुना-पढ़ाकर अपने जीवन को इसी प्रकार समुज्ज्वल करने का उपदेश दें, इसके साथ ही शिल्प, विज्ञान, गृहकार्य एवं सुरक्षा की शिक्षा भी आवश्यक है ।

मेरी इच्छा है कि कुछ बालक ब्रह्मचारी एवं बालिकाओं को ब्रह्मचारिणी बनाकर उनके द्वारा देश-देश, गाँव-गाँव में जाकर अध्यात्म का प्रसार कराया जाये । ब्रह्मचारिणियाँ स्त्रियों में अध्यात्म विद्या का प्रसार करें ।वर्तमान युग में तो स्त्रियों को यंत्र ही बना दिया गया है । राम! राम! राम! क्या ऐसे ही भारत का भविष्य उज्ज्वल होगा?

शिष्य – किन्तु गुरुदेव! भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास में स्त्रियों के लिए कोई मठ बनाने की बात प्राप्त नहीं होती है, बौद्ध काल में हुआ भी तो उसके परिणाम में व्यभिचार बढ़ने लगा था, देशभर में घोर वामाचार सर्वत्र फैल गया था ।

स्वामी जी – मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि एक ही चित्-सत्ता सर्वभूतों में विद्यमान है । इस सिद्धान्त के प्रतिपादक वेद ही जिस संस्कृति का मूलाधार हैं, उस देश में स्त्री व पुरुष में इतनी भिन्नता क्यों समझी जाती है? स्त्री निन्दको! तुमने स्त्रियों की उन्नति के लिए आज तक क्या किया? नियम-नीति में आबद्ध करके स्त्रियों को मात्र जनसंख्या की वृद्धि का यंत्र बना डाला । जगदम्बा की साक्षात् मूर्ति है भारत की नारी ।

नारी निंदा मत करो, नारी नर की खान।
नारी से नर ऊपजे, ध्रुव प्रह्लाद समान ॥

इनका उत्थान नहीं हुआ तो क्या तुम्हारा उत्थान कभी सम्भव है?

शिष्य – गुरुदेव! स्त्री जाति तो साक्षात् माया की मूर्ति है, जैसा कि रामचरितमानस में भी लिखा है –

“नारि विष्णु माया प्रकट”

मानो मनुष्य के अधःपतन के लिए ही स्त्री की सृष्टि हुई है, ऐसी स्थिति में क्या उन्हें भी ज्ञान-भक्ति का लाभ सम्भवहै?

स्वामी जी – किस शास्त्र में लिखा है कि स्त्रियाँ ज्ञान-भक्ति की अधिकारिणी नहीं हैं?

जिस समय भारत में ब्राह्मण-पण्डितों ने ब्राह्मणेतर जातियों को वेदपाठ का अनधिकारी घोषित किया, साथ ही स्त्रियों के भी सब अधिकार उस समय छीन लिये गये, अन्यथा वैदिक युग में देखो तो मैत्रेयी, गार्गी……….आदि ब्रह्मविचार में ऋषियों से कुछ कम नहीं रहीं हैं ।

ना वेदविन्मनुते तं बृहन्तम् ।
(तैत्तिरीय ब्राह्मण- ३/१२/९/७)

तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन ।
(बृहदारण्यकोपनिषत्-४/१०/२२)

अर्थात् जिस प्रकार पुरुष ब्रह्मचारी रहकर तप व योग द्वारा ब्रह्मप्राप्ति करते थे, उसी प्रकार कितनी ही स्त्रियाँ ब्रह्मवादिनी ब्रह्मचारिणी हुई हैं ।

सर्वाणि शास्त्राणि षडंग वेदान्, काव्यादिकान् वेत्ति, परञ्च सर्वम् ।
तन्नास्ति नोवेत्ति यदत्र बाला, तस्मादभूच्चित्र- पदं जनानाम् ॥
(शंकर दिग्विजय ३/१६)

सभी शास्त्रों, अंगों सहित वेदों व काव्यों की ज्ञाता भारती-देवी से श्रेष्ठ कोई विदुषी नहीं थी ।

अत्र सिद्धा शिवा नाम ब्राह्मणी वेद पारगा ।
अधीत्य सकलान वेदान लेभेऽसंदेहमक्षयम ॥
(महाभारत उद्योग पर्व १९०/१८)

वेदों में पारंगत शिवा नामक ब्राह्मणी ने सभी वेदों का अध्ययन कर मोक्ष प्राप्त किया ।सहस्त्र वेदज्ञ विप्र-सभा में गार्गी ने ब्रह्मज्ञानी याज्ञवल्क्य को शास्त्रार्थ के लिए आह्वान किया । इन सब आदर्श विदुषी स्त्रियों को जब उस समय अध्यात्म ज्ञान का अधिकार था तब आज क्यों नहीं?

श्री प्रह्लाद जी ने भी तो यही कहा –

“स्त्रीबालानां च मे यथा”
(भा. ७/७/१७)

स्त्री हो अथवा बालक सबको मेरे समान ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।भारत वर्ष की अवनति का कारण ही है – नारी शक्ति का विद्रोह रूप अपमान ।

फिर मनु जी ने तो कहा है –

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाक्रियाः ॥
(मनु स्मृति-३/५६)

स्वामी जी की प्रबल इच्छा थी कि भारत की अविवाहित बालिकाओं के लिए ऐसा कोई मठ बने जहाँ उन्हें निःशुल्क आवास, भोजन व शस्त्रों तथा शास्त्रों की समुचित शिक्षा प्राप्त हो सके । जो चिर कौमार्य – वृत का पालन करने की इच्छा रखेंगी, उन्हें मठ की शिक्षिका तथा प्रचारिका बनाया जायेगा, जिससे वे देश-विदेश में जाकर नारी शक्ति को प्रबुद्ध कर सकेंगी । त्याग, संयम एवं सेवा ही उनके जीवन का व्रत होगा तब फिर से यह भूमि सीता, सावित्री और गार्गी से सज्जित हो सकेगी ।

कुछ ब्रह्मवादिनियों के नाम इस प्रकार हैं –

ऋग्वेद की ऋषिकायें –

घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत् ।
ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति: ॥
इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी ।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती ॥
श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा ।
रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता: ॥
(बृहद्देवता २/८४, ८५, ८६)

घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या – सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हुई हैं ।

भूल गये, विदेहराज जनक की सभा में महर्षि याज्ञवल्क्य से ब्रह्मवादिनी वाचक्नवी का धर्म के गूढ़ तत्त्वों पर कैसा शास्त्रार्थ हुआ था ।वहाँ तो वाचक्नवी के स्त्री होने पर कोई बात नहीं उठायी गई है फिर आज स्त्री का प्रचारिका बनना, स्त्री का कथा कहना प्रश्नवाचक क्यों है?

आश्चर्य तो यह है कि ऐसे संकीर्ण विचारकों को ही अधिक विद्वान् कहा और समझा जाता है । इससे अधिक कदर्थना क्या होगी? वस्तुतः न वे धर्मज्ञ हैं, न ही धर्म प्रचारक, हाँ, धर्मध्वजी अवश्य हैं; जो भारतीय संस्कृति को स्वतन्त्र स्वदेश में ही पल्लवित होने में परिपन्थी बन रहे हैं ।

भारत व भारतीयता जिनका प्राण थी और वे स्वयं भारत के प्राण थे ऐसे महामना श्री मदनमोहन मालवीय जी, देश व धर्म का ऐसा कोई कार्य नहीं जिसमें श्री मालवीय जी के उदार हृदय ने भाग न लिया हो ।बात उस समय की है जब इन्हीं संकीर्ण विचारों के चलते कल्याणी नामक छात्रा को हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी में बहुत आग्रह करने पर भी वेद-कक्षा में प्रवेश प्राप्त नहीं हुआ ।

विद्वान् कहे जाने वाले संकीर्ण विचारकों का कथन था कि स्त्रियों को वेदाधिकार नहीं है ।विवादों में एक ओर समर्थन था तो दूसरी ओर विरोध । समय व्यतीत होता रहा, निर्णय तक कोई नहीं पहुँच सका । अन्त में हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी ने धर्म प्राण मालवीय जी की अध्यक्षता व अनेकों गणमान्य विद्वानों की उपस्थिति में शास्त्रों के आधार पर विचार-विमर्श के उपरान्त यह निर्णय दिया –

स्त्रियों को भी पुरुषों की भाँति वेदाधिकार है । २१ अगस्त सन् १९४६ को स्वयं महामना मालवीय जी ने इस निर्णय की घोषणा की । तदनुसार कुमारी कल्याणी को वेद-कक्षा में प्रवेश प्राप्त हुआ और विद्यालय में स्त्रियों के वेदाध्ययन पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध न रहने का निर्णय हुआ ।

अब भी कोई दुराग्रह करे तो इसका कोई उपचार नहीं । लोकापवाद तो सीता जी के अग्नि-परीक्षा दिये जाने पर भी समाप्त न हो सका था किन्तु इतना अवश्य है, ऐसे हठ धर्मी धर्मप्रेमी तो कदापि नहीं किन्तु काष्ठ के घुन की भाँति धर्म को खोखला करने की पहल अवश्य कर रहे हैं 

अधिकार ।

श्रुतिः स्मृति उभे नेत्रे विप्राणां प्रकीर्तिते ।
एकेन विकलः काणः द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ॥
(हारीत संहिता)

श्रुति व स्मृति का ज्ञान ही ब्राह्मण के दो नेत्र हैं, इनमें से यदि एक का भी ज्ञान नहीं है तो वह काना है और यदि दोनों के ही बोध से रहित है तो वह अन्धा है ।किन्तु भागवत धर्म वह मार्ग है जहाँ अन्धा भी स्खलन, पतन के भय से सर्वथा मुक्त होकर दौड़ सकता है ।

योगेश्वर श्री कवि जी के वचन –

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥
(भा. ११/२/३४)

भोले-भाले अज्ञानी जन भी सुगमता से भगवत्प्राप्ति कर सकें, इसके लिये स्वयं श्री भगवान् ने अपने मुख से जो मार्ग बताया है, वही “भागवत धर्म” है । यह भागवत धर्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तो है ही, गोपनीय होने से स्वयं श्री भगवान् के मुख से ही प्रकट हुआ है, अन्यथा वर्णाश्रम धर्मों की भाँति मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर आदि स्मृतिकारों से भी प्रकट कराया जा सकता था ।

यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥
(भा. ११/२/३५)

सबसे प्रथम बात भागवत धर्म मनुष्य मात्र का धर्म है । यह इस धर्म की महत्ता है कि बड़े-बड़े विघ्न भी भागवतधर्मावलम्बी को चलायमान नहीं कर सकते हैं । यह वो सुगम राजपथ है, जिस पर अन्धाव्यक्ति भी स्खलन-पतन के भय से मुक्त होकर दौड़ते हुए जा सकता है ।नेत्रनिमीलन से तात्पर्य जिसे श्रुति-स्मृति दोनों का ही ज्ञान नहीं है, ऐसी स्थिति में उससे यदि किसी विधि-विधान का अतिक्रमण भी हो जायेगा तो भी दोष न लगकर उसे फलप्राप्ति ही होगी ।

वेदोपनिषदां साराज्जाता भागवती कथा ।
(भा.माहा. २/६७)

वेद-उपनिषद वृक्ष ठहरे और श्रीमद्भागवत गलित मधुर फल ।

फल की मधुरता, उपयोगिता को वृक्ष कभी प्राप्त नहीं कर सकता है । इसी कारण कहीं-कहीं स्मृतियों से विरोध भी देखा गया है । स्वयं श्री भगवान् ने किया – यथा स्मृति-ग्रन्थों में समुद्र यात्रा का निषेध किया गया है किन्तु भगवान् श्रीरामने समुद्र पार सेतु निर्माण कर समुद्र यात्रा की एवं भगवान् श्रीकृष्णने तो समुद्र में ही द्वारका का निर्माण कराके निवास किया ।

देश, काल परिस्थितियों के अनुसार स्वयं भगवान् ने भी स्मार्त-मर्यादा को स्वीकार नहीं किया  (सभी धर्मों को छोड़कर ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ मात्र वैष्णव धर्म का समर्थन किया) ।

धन्य है,

यदि स्मार्त मर्यादा को मानकर सेतु निर्माण कर समुद्र यात्रा न करते तो पापिष्ठ रावण का वध कैसे होता? भगवान् श्रीकृष्ण यदि द्वारका का निर्माण करा समुद्र-निवास न करते तो दुष्ट कालयवन का वध कैसे होता? अतः धर्म को प्रधान रखते हुए, स्मार्त मर्यादा के विरुद्ध आचरण करते हुए भी भगवान् को देखा गया है ।

तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य मतं प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥
(महाभारत, वन पर्व-३१३/११७)

तर्केऽप्रतिष्ठा श्रुतयो विभिन्नाः नासावृषिर्यस्य मतं न भिन्नम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥
(गरुड़ पुराण-१, १०९.५१)

भारत के कट्टर स्मार्त लोग समुद्र पार करके देशान्तरों में सनातन धर्म का प्रचार करने नहीं गये अतः निरन्तर धर्म का संकुचन ही होता रहा । इसके विपरीत बौद्धों के द्वारा विदेशों में बौद्ध धर्म का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ । परिणाम में थाइलैण्ड, बर्मा आदि सम्पूर्ण मध्य एशिया बौद्धधर्मावलम्बी हो गया । कोई समय था, जब एक सनातन धर्म ही समग्र विश्व में था । हमारे पौराणिक इतिहास के अनुसार सातों द्वीप सनातनी थे ।

श्रीमद्भागवत के अनुसार –

अम्बरीषो महाभागः सप्तद्वीपवतीं महीम् ।
(भा. ९/४/१५)

सूर्यवंशी महाराज अम्बरीष सातों द्वीपों के सम्राट थे । जो परम कृष्ण भक्त थे (महाराज अम्बरीष की अनन्य कृष्णभक्ति ९/४/१८-२१ में दृष्टव्य है) अम्बरीष जी की ही भाँति उनकी सम्पूर्ण प्रजा (सप्तद्वीपों की प्रजा) भी उत्तमश्लोक भगवान् श्री हरि की कथा प्रेम से श्रवण करती तो कभी गान करती, इसके अतिरिक्त प्रजाजनों को स्वर्ग की भी कोई इच्छा नहीं थी ।

मध्यएशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार से हानि यह हुई कि अहिंसा प्रधान बौद्ध धर्मावलंबियों पर अपनी क्रूरता, कट्टरता, हिंसा प्रधान वृत्ति के लिए कुख्यात यवनों ने धर्मान्तरण कराके उन्हें यवन बना डाला ।

भारत में क्या-क्या कहर बरसाया गया था । क्रूरकर्मा फिरोजशाह तुगलक के समय में हिन्दू पुजारी व प्रचारकों को जीवित ही आग में फेंक दिया जाता था । बाबर का पूर्वज तैमूर लंग तो ९० हजार सैनिक लेकर मेरठ, हरिद्वार, शिवालिक, नगरकोट व जम्मू तक मन्दिरों-मूर्तियों का भंजन व इस्लाम न स्वीकार करने वाले हिन्दुओं का कत्लेआम करता रहा ।

बुद्धदेव नामक हिन्दू धर्म प्रचारक का मस्तक धड़ से अलग कर दिया था । सिक्खों के पंचम गुरू श्री अर्जुनदेव को क्या कम अमानुषिक यातनाएं दी गयीं, धधकते अंगारों पर बिठाया गया, ऊपर से जलती हुई बालू बरसाई गई, इतना ही नहीं, गाय की ताजी खाल खींचकर उसमें लपेटकर सिलने का उपक्रम भी किया गया और नवम गुरू श्री त्यागराय (तेग बहादुर) पर क्रूर मुगल औरंगजेब के अत्याचार आज भी हृदय में प्रतिकार की ज्वाला को भड़का देते हैं । लोहे के गर्म खंबे से चिपकाया जाना, जलती हुई बालू बरसाना और अन्त में धड़ से मस्तक अलग कर दिया जाना, क्या यह मनुष्यों का कार्य हो सकता है? दशम गुरू गोविन्द सिंह के दो पुत्र जोरावरसिंह व फतेह सिंह को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर जीवित ही दीवार में चिन दिया गया । कहाँ तक करें इन क्रूरों की असच्चर्चा, भारत भूमि के तो बलिदानियों की नामावली से ही एक नया ग्रन्थ बन सकता है।

बौद्धों पर भी इन नरपिशाचों का कहर कुछ कम नहीं था । अभी कुछ समय पूर्व ही बामियान, मध्य एशिया में संसार की सबसे विशाल बुद्ध मूर्ति को तोड़ा गया और धर्मान्तरण की परम्परा तो अब तक जीवन्त है ।

संकीर्णताओं ने इतना दुर्बल कर दिया हिन्दू समाज को कि कश्मीर के महाराज ने घोषणा की, जिन हिन्दुओं का बलात् धर्मान्तरण करा मुसलमान बनाया गया है, वे पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर सकते हैं किन्तु इस पर काशी के विद्वत्समाज ने ही विद्रोह खड़ा कर दिया कि अब उन्हें स्वीकार नहीं किया जायेगा । ऐसे वेदज्ञान से बहुत बड़ी हानि हुई इस राष्ट्र व धर्म की ।

भूल गये अपने ऋषियों का आचरण –

सरस्वत्यज्ञया कण्वो मिश्र देशमुपाययो ।
म्लेच्छान् संस्कृत्यं चाभाष्य तदा दश सहस्रकम् ॥
(भविष्यपुराण ४/२१/१६)

सरस्वती की आज्ञा से महर्षि कण्व मिस्र देश गये और वहाँ दस हजार म्लेच्छों को उन्होंने सुसंस्कृत बनाया । जो शुद्ध व पवित्र होकर भारत लौटना चाहते थे उन्हें पुनः स्वीकार कर लिया गया । महाराष्ट्र के ‘चित्पावन ब्राह्मण’ आज महान वेदज्ञ माने जाते हैं, जो वंशानुगत यहूदी और मिस्र देश के आसपास से आये हुए हैं । इसी प्रकार ईरानी, शक, हूण, मग एवं यहूदी आदि अनेक जातियों ने हिन्दू संस्कृति को अपनाया और उन्हें ऋषियों द्वारा स्वीकार किया गया ।

स्मृति में भी स्त्री समर्थन –

आज हठधर्मिता के कारण मनुष्य इतना अन्धाहो गया कि श्रुति-स्मृति धर्मों के सिद्धान्त भी यथार्थ रूप से न समझते हुए मात्र दुराग्रह में ही पड़ा हुआ है ।

ध्यान रहे, सबसे प्रमुख स्मृति शास्त्र तो श्रीमद्भगवद्गीता ही है । जहाँ स्वयं श्री भगवान् ने कहा है –

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
(गी. ९/३२)

पापयोनि होते हुए भी स्त्री, वैश्य और शूद्र सर्वथा मेरे शरणागत होकर मुझे प्राप्त कर लेते हैं ।

कहाँ है स्मृति में स्त्रियों का बहिष्कार ।

स्मृति-शास्त्र का अन्तिम उद्घोष है –

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गी. १८/६६)

सभी धर्मों को त्याग कर मेरे शरणागत हो जाओ । सर्वधर्मान् से वैदिक धर्म, श्रुति धर्म, स्मृति धर्म, सबका ग्रहण हो जाता है ।

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

कौरव पक्ष में एक से बड़कर एक महान योद्धा थे लेकिन फिर भी कौरव हार गए इसका क्या कारण था? आओ जानते हैं पांच बड़े कारण

महाभारत युद्ध को भारत की भूमि कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था। कौरवों और पांडवों की सेना भी कुल 18 अक्षोहिनी सेना थी जिनमें कौरवों की 11 और पांडवों की 7 अक्षौहिणी सेना थी। एक अक्षौहिणी में 21870 हाथी, 21870 रथ, 65610 घोड़े और 109350 पैदल होते थे। कौरव पक्ष में एक से बड़कर एक महान योद्धा थे लेकिन फिर भी कौरव हार गए इसका क्या कारण था? आओ जानते हैं पांच बड़े कारण।


          

1.पहली सबसे बड़ी चूक
जब युद्ध तय ही हो गया तो दुर्योधन श्रीकृष्ण से सहायता मांगने हेतु द्वारिका जा पहुंचा। उस वक्त श्रीकृष्ण सोए हुए थे तो दुर्योधन उनके सिरहाने जा बैठा। इसके बाद ही अर्जुन भी इसी कार्य हेतु पहुंचा और वे उनके पैरों के पास जा बैठा। जब श्रीकृष्ण की आंख खुली तो उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को देखा। अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, 'भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिए आपसे सहयोग लेने आया हूं।'
 
 
अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा दुर्योधन बोला, हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिए आया हूं। चूंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूं इसलिए मांगने का पहला अधिकार मेरा है।' तब श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे दुर्योधन! मेरी दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आए हो। अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूंगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूंगा। अब तुम लोग निश्‍चय कर लो कि किसे क्या चाहिए।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्रीकृष्ण की विशाल सेना लेने चाहता था। यह कुरुवंशी दुर्योधनी की सबसे बड़ी चूक थी
 
 
2.दूसरी सबसे बड़ी चूक
कौरवों की सेना पांडवों से युद्ध हारने लगी तो दुर्योधन भीष्म पितामह के पास गया और कहने लगा कि आप अपनी पूरी शक्ति से यह युद्ध नहीं लड़ रहे हैं। मुझे तो आप पर शंका हो रही है। यह सुनकर भीष्म पितामह क्रोधित हो गए और उन्होंने तुरंत ही अपनी कमान से पांच सोने के तीर लिए और उन्हें अभिमंत्रित करके बोले कि कल इन पांच तीरों से वे पांचों पांडवों को मार देंगे। तब दुर्योधन ने वे पांचों तीर पितामह के हाथ से लेकर कहा ठीक है कल सुबह इन तीरों को मैं आपको वापस कर दूंगा।
 
 
भगवान श्रीकृष्ण को इस घटना का पता चल गया। तब उन्होंने अर्जुन को बुलाया और कहा कि हे अर्जुन एक बार तुमने दुर्योधन की जान एक गंधर्व से बचाई थी। तब तुम्हें दुर्योधन ने वचन दिया था कि इसके बदले कोई भी चीज मांग लेना, तो अब समय आ गया है कि अभी तुम जाओ और दुर्योधन से पांच सोने के तीर मांग लो। अर्जुन दुर्योधन के पास गया और उसने तीर मांगे। क्षत्रिय होने के नाते दुर्योधन ने अपने वचन को पूरा किया और तीर अर्जुन को दे दिए। यदि दुर्योधन ऐसा नहीं करता तो निश्चित ही पांचों पांडव मारे जाते।

        


      3.तीसरी सबसे बड़ी चूक

युद्ध में जब घटोत्कच ने कौरवों की सेना को कुचलना शुरू किया तो दुर्योधन घबरा गया और ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। तब कृष्ण ने कर्ण से कहा कि आपके पास तो अमोघ अस्त्र है जिसके प्रयोग से कोई बच नहीं सकता तो आप उसे क्यों नहीं चलाते। कर्ण कहने लगा नहीं ये अस्त्र तो मैंने अर्जुन के लिए बचा कर रखा है।

 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन पर तो तुम तब चलाओंगे जब ये कौरव सेना बचेगी, ये दुर्योधन बचेगा। जब ये सभी घटोत्कच के हाथों मारे जाएंगे तो फिर उस अस्त्र के चलाने का क्या फायदा? दुर्योधन को कृष्ण की ये बात समझ में आ गई और वह कर्ण से अमोघ अस्त्र चलाने की जिद करने लगता है। कर्ण दुर्योधन को समझाता है कि तुम घबराओ नहीं ये कृष्ण की कोई चाल है। लेकिन दुर्योधन एक नहीं सुनता है और कर्ण मजबूरन वह अमोघ अस्त्र को घटोत्कच के उपर चला देता है। घटोत्कच को दूसरे तरीके से भी मारा जा सकता था लेकिन डर के बारे दुर्योधन यह बड़ी चूक कर बैठा और अर्जुन को मारने का एक मौका हाथ से जाता रहा।

 
4.चौथी सबसे बड़ी चूक
महाभारत युद्ध में जयद्रथ के कारण अकेला अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया था और दुर्योधन आदि योद्धाओं ने एक साथ मिलकर उसे मार दिया था। इस जघन्नय अपराध के बाद अर्जुन प्रण लेते हैं कि अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध नहीं कर पाया तो मैं स्वयं अग्नि समाधि ले लूंगा। इस प्रतिज्ञा से कौरवों में हर्ष व्याप्त हो जाता है और पांडवों में निराशा फैल जाती है।
 
 
कौरव किसी भी प्रकार से जयद्रथ को सूर्योस्त तक बचाने और छुपाने में लग जाते हैं। जब काफी समय तक अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुंच पाया तो श्रीकृष्ण ने अपनी माया से सूर्य को कुछ देर के लिए छिपा दिया, जिससे ऐसा लगने लगा कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त समझकर जयद्रथ खुद ही अर्जुन के सामने हंसता हुआ घमंड से आ खड़ा होता है। तभी उसी समय सूर्य पुन: निकल आता है और अर्जुन तुरंत ही पलटकर जयद्रथ का वध कर देता है। यदि जयद्रथ कुछ देर और छुपा रहता तो युद्ध का वहीं अंत हो गया होता। यह कौरव पक्ष की सबसे बड़ी चूक थी।
 
 
5.पांचवीं सबसे बड़ी चूक
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से सेनापति थे। भीष्म घोर युद्ध करते हुए न केवल पांडवों की सेना के हजारों सैनिकों का संहार कर दिया बल्कि अर्जुन को घायल कर उनके रथ को भी जर्जर कर दिया था। ऐसे में श्रीकृष्ण को एक युक्ति समझ में आती है और कृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं। भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं।
 
 
दरअसल, भीष्म ने अपनी मृत्यु का रहस्य यह बताया था कि वे किसी नपुंसक व्यक्ति के समक्ष हथियार नहीं उठाएंगे। इसी दौरान उन्हें मारा जा सकता है। इस नीति के तरह युद्ध में भीष्म के सामने शिखंडी को उतारा जाता है। शिखंडी के समक्ष भीष्म अपने अस्त्र त्याग देते हैं। शिखंडक्ष भीष्म पर सैंकड़ों तीर छोड़ता है लेकिन भीष्म का उसे कुछ भी नहीं होता है। लेकिन पीछे से अर्जुन भी अपने तीन शिखंडी के तीरों के साथ छोड़ते है जिसके चलते भीष्म का शरीर छलनी हो जाता है। भीष्म वे कराहते हुए नीचे गिर पड़ते हैं और भीष्म बाणों की शरशय्या पर लेट जाते हैं। यह कौरव पक्ष के भीष्म की सबसे बड़ी चूक थी कि वे अपनी मृत्यु का राज बता देते हैं। यदि भीष्म तीरों की शरश्या पर नहीं लेटते तो पांडव युद्ध में शायद ही जीत पाते। लेकिन जहां श्रीकृष्ण है वहां सबकुछ संभव है।

दुर्योधन ने गिनाई अपनी तीन गलतियां :
अंत में जब दुर्योधन कुरूक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में आखिरी सांस से ले रहा था, उस समय उसने अपनी तीन अंगुलियां उठा रखी थी। भगवान श्रीकृष्ण उसके पास गए तब उसने कहा, मेरी पहली गलती यह थी कि मैंने स्वयं नारायण के स्थान पर उनकी नारायणी सेना को चुना। यदि नारायण युद्ध में कौरवों के पक्ष में होते, तो आज परिणाम कुछ और ही होता।
 
 
मेरी दूसरी गलती यह थी कि अपनी माता के लाख कहने पर भी मैं उनके सामने पेड़ के पत्तों से बना लंगोट पहनकर गया। यदि वह नग्नावस्था में जाता, तो आज उसे कोई भी योद्धा परास्त नहीं कर सकता था। और, मेरी तीसरी और अंतीम गलती यह थी कि मैं युद्ध में आखिर में गया। यदि वह पहले ही जाता तो कई बातों को समझ सकता था और शायद उसके भाई और मित्रों की जान बच जाती।..मगर कृष्ण ने दुर्योधन को कहा कि अगर तुम कुछ भी कर लेते तब भी हार जाते। ऐसा सुनने के बाद दुर्योधन ने अपनी अंगुली नीचे कर ली।
 


 


 

1.पहली सबसे बड़ी चूक

जब युद्ध तय ही हो गया तो दुर्योधन श्रीकृष्ण से सहायता मांगने हेतु द्वारिका जा पहुंचा। उस वक्त श्रीकृष्ण सोए हुए थे तो दुर्योधन उनके सिरहाने जा बैठा। इसके बाद ही अर्जुन भी इसी कार्य हेतु पहुंचा और वे उनके पैरों के पास जा बैठा। जब श्रीकृष्ण की आंख खुली तो उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को देखा। अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा। अर्जुन ने कहा, 'भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिए आपसे सहयोग लेने आया हूं।'
 

 


अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा दुर्योधन बोला, हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिए आया हूं। चूंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूं इसलिए मांगने का पहला अधिकार मेरा है।' तब श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे दुर्योधन! मेरी दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आए हो। अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूंगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूंगा। अब तुम लोग निश्‍चय कर लो कि किसे क्या चाहिए।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्रीकृष्ण की विशाल सेना लेने चाहता था। यह कुरुवंशी दुर्योधनी की सबसे बड़ी चूक थी
 

 


2.दूसरी सबसे बड़ी चूक

कौरवों की सेना पांडवों से युद्ध हारने लगी तो दुर्योधन भीष्म पितामह के पास गया और कहने लगा कि आप अपनी पूरी शक्ति से यह युद्ध नहीं लड़ रहे हैं। मुझे तो आप पर शंका हो रही है। यह सुनकर भीष्म पितामह क्रोधित हो गए और उन्होंने तुरंत ही अपनी कमान से पांच सोने के तीर लिए और उन्हें अभिमंत्रित करके बोले कि कल इन पांच तीरों से वे पांचों पांडवों को मार देंगे। तब दुर्योधन ने वे पांचों तीर पितामह के हाथ से लेकर कहा ठीक है कल सुबह इन तीरों को मैं आपको वापस कर दूंगा।
 

 


भगवान श्रीकृष्ण को इस घटना का पता चल गया। तब उन्होंने अर्जुन को बुलाया और कहा कि हे अर्जुन एक बार तुमने दुर्योधन की जान एक गंधर्व से बचाई थी। तब तुम्हें दुर्योधन ने वचन दिया था कि इसके बदले कोई भी चीज मांग लेना, तो अब समय आ गया है कि अभी तुम जाओ और दुर्योधन से पांच सोने के तीर मांग लो। अर्जुन दुर्योधन के पास गया और उसने तीर मांगे। क्षत्रिय होने के नाते दुर्योधन ने अपने वचन को पूरा किया और तीर अर्जुन को दे दिए। यदि दुर्योधन ऐसा नहीं करता तो निश्चित ही पांचों पांडव मारे जाते।