रविवार, 4 मार्च 2018

कवितावली 🕎🕎 लंका दहन

🌱🌱जय श्री सीताराम जी 🌱🌱
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                लंका दहन
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कोपि दसकंध तब प्रलय पयोद बोले,
रावन-रजाइ धाए आइ जूथ जोरि कै।
कह्यो लंकपति लंक बरत, बुताओ बेगि,
बानरु बहाइ मारौ महाबारि बोरि कै।।
'भलें नाथ!' नाइ माथ चले पाथप्रदनाथ,
बरषैं मुसलधार बार-बार घोरि कै।
जीवन तें जागी आगि, चपरि चौगुनी लागी,
'तुलसी' भभरि मेघ भागे मुखु मोरि कै।।

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          लंका जलती देख रावण ने क्रोधित होकर प्रलयकाल के मेघों को बुलाया और वे रावण की आज्ञा से सब अपना दल बटोरकर दौड़े आये। उनसे लंकापति ने कहा--'अरे मेघो! जलती हुई लंकापुरी को शीघ्र बुझाओ और बन्दर को बहाकर गम्भीर जल में डुबाकर मार डालो।' तब मेघों के स्वामी 'महाराज! बहुत अच्छा ' ऐसा कहकर प्रणाम करके चल दिए और बार-बार गरज-गरजकर  मूसलाधार पानी बरसाने लगे; किन्तु जल से अग्नि और भी प्रज्वलित हो गई और चपलतापूर्वक चौगुनी बढ़ गई । तुलसीदास जी कहते हैं--- तब सब मेघ घवड़ाकर मुँह मोड़कर भागे।

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इहाँ ज्वाल जरे जात, उहाँ ग्लानि गरे गात।
सूखे सकुचात सब कहत पुकार हैं।
'जुग षट भानु देखे प्रलयकृषानु देखे,
सेष-मुख-अनल बिलोके बार-बार हैं।।
'तुलसी' सुन्यो न कान सलिलु सर्पी-समान,
अति अचिरिजु कियो केसरीकुमार है '।
बारिद-बचन सुनि धुने सीस सचिवन्ह,
कहैं दससीस! 'ईस- बामता-विकार हैं।।

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          बादल इधर तो अग्नि की लपटों से जले जाते हैं और उधर उनके शरीर ग्लानि से गले जाते हैं। सब मेघ शुष्क हो सकुचाकर पुकारने लगे---'हम लोगों ने बारहों सूर्य देखे, प्रलय का अग्नि देखा और कई बार शेष जी के मुख की ज्वाला देखी। परंतु कभी जल को घृत के समान हुए नहीं सुना। यह महान आश्चर्य केसरीनन्दन हनुमान जी ने कर दिखलाया ।'
         मेघों के वचन सुनकर मन्त्रीगण सिर धुनने लगे और रावण से बोले--- 'यह सब ईश्वर की प्रतिकूलता का विकार है'।।

                  (कवितावली)
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