बुधवार, 31 मार्च 2021

. श्री श्रीचैतन्य चरित्रावली श्री सनातन को शास्त्रीय शिक्षा अथ स्वस्थाय देवाय नित्याय हतपाप्मने। त्यक्तक्रमविभागाय चैतन्यज्योतिषे नमः॥ महाप्रभु की असीम कृपा प्राप्त हो जाने पर श्री सनातन जी को कुछ शास्त्रीय प्रश्न पूछने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए कहा-'प्रभो! मैं साधनविहीन, परमार्थ-पथ से अनभिज्ञ और संसारी विषयी लोगों का संसर्ग करने वाला परमार्थ सम्बन्धी प्रश्न करना भी नहीं जानता। अतः जिस प्रकार आपने ही दया करके विषयों में आसक्त हुए हम पशुओं को घर जाकर सोते-से जगा दिया, उसी प्रकार अब हमारे इस पशुपने को मेटकर मनुष्यता प्रदान कीजिये, हमारे योग्य जो शिक्षा उचित समझें वही मुझे दीजिये। हम कौन हैं? हमारा क्या कर्तव्य है? भगवान के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? भगवान का क्या स्वरूप है आदि सभी बातों को मुझे संक्षेप में समझा दीजिये।' प्रभु ने कहा- 'सनातन! तुम पर भगवत-कृपा है। तुम्हें शंका ही क्या हो सकती है? तुम जानते हुए भी लोक कल्याण के निमित्त ये प्रश्न कर रहे हो। अस्तु, साधु पुरुषों का यह स्वभाव ही होता है। उनकी सभी चेष्टाएं जगत-हित के ही निमित्त होती हैं, पूछो, तुम क्या पूछना चाहते हो?' 'प्रभो! मैं यह जानना चाहता हूँ कि जीवों में यह विभिन्नता प्रतीत होती है, वह क्यों होती है।' प्रभु ने कहा- 'सनातन! शास्त्रों में मुक्त, नित्य, मुमुक्षु और बद्ध- ये चार प्रकार के जीव बताये हैं। सनक-सनन्दनादि ये मुक्त जीव हैं, इन्हें संसार में रहते हुए भी संसार-बन्धन कभी व्याप नहीं सकता। ये अहर्निश श्रीकृष्ण-संकीर्तन में ही संलग्न रहते हैं। मनु, प्रजापति, इन्द्र और सप्तर्षि आदि सभी नित्य जीव हैं, सृष्टि के निमित्त ये सदा क्रियाशील बने रहते हैं। जो इस अनित्य संसार के नश्वर और क्षणभंगुर भोगों को छोड़ कर प्रभुपादपद्मों का आश्रय ग्रहण करना चाहते हैं वे मुमुक्षु जीव हैं। उनमें प्रायः सभी परमार्थ-पथ के पथियों की गणना हो सकती है। इनके अतिरिक्त जो स्वभाव के ही अनुसार जन्मते और मरते रहते हैं, जिन्हें कर्तव्या कर्तव्य का विवेक नहीं, वे बद्ध जीव कहाते हैं। विषयों में फंसे हुए अज्ञानी पुरुष, पशु, पक्षी आदि सभी जीव इसी श्रेणी में हैं, ये साधन-भजन नहीं कर सकते। उन्हीं के लिये कहा है- पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्। शास्त्रों में जीवों की चौरासी लाख योनियाँ बतायी गयी हैं। भगवत-पादपद्मों से पृथक होकर प्राणी इन नाना योनियों में परिभ्रमण करता रहता है। चिरकाल से भगवत-विच्छेद होने के कारण इसकी वृत्ति बहिर्मुख हो गयी है, यह माया पति को भूलकर माया के बन्धन में पड़ गया है और भगवान की अत्यन्त ही दुरूह गुणमयी दैवी माया उसे नाना योनियों में घुमाती रहती है।' सनातन जी ने पूछा- 'प्रभो! इसे माया से छूटकारा कैसे हो? जब जीव माया के अधीन ही होकर घूमता है, तब तो उसके निस्तार का कोई उपाय ही नहीं।' प्रभु ने कहा- 'हाँ, उपाय है और एक ही उपाय है। जो माया को छोड़कर मायापति की शरण में चला जाय उसकी माया छूट जाती है।' सनातन- 'प्रभो! मैं यही तो पूछ रहा हूँ, मायापति की शरण में कैसे जाया जाय?' प्रभु ने कहा- 'भाई! इसमें तो कृपा ही मुख्य मानी गयी है- (1) शास्त्रकृपा, (2) गुरुकृपा और (3) परमात्माकृपा- ये तीन ही मुख्य कृपा हैं। इन तीनों में से किसी की भी कृपा होने से मनुष्य के संसारी बन्धन ढीले हो सकते हैं और वह प्रभु की ओर अग्रसर हो सकता है।' सनातन- 'प्रभो! मैं यह जानना चाहता हूँ, यह जीव प्रभु से विमुख होकर क्यों नाना योनियों में भटकता फिरता है? पृथ्वी पर तो दुःख-ही-दुःख है। स्वर्गादि लोको में तो सुख भी होगा, किन्तु वहाँ भी जीव को शान्ति नहीं, इसकी अन्तिम शान्ति कहाँ जाकर होती हैं?' प्रभु ने कहा- 'सनातन! चींटी के लेकर ब्रह्मापर्यन्त सभी जीव माया के गुणों से आबद्ध हैं। स्वर्ग क्या, ब्रह्मलोक तक शान्ति नहीं, परम शान्ति तो प्रभु के पादपद्मों में पहुँचने पर ही प्राप्त हो सकती है।' सनातन- 'प्रभो! ब्रह्मा जी को तो शान्ति होगी, वे तो चराचर जगत के ईश्वर हैं, उनके लिये क्या दुःख! ये तो सम्पूर्ण जगत को उत्पन्न करते हैं।' प्रभु ने हंसकर कहा- 'सनातन! ईश्वर तो वे ही एक श्रीकृष्ण हैं। न जाने कितने असंख्य ब्रह्मा इस विश्व में प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं।' आश्चर्य के साथ सनातन जी ने कहा- 'प्रभो! यह आपने कैसी बात कही? सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ईश्वर ब्रह्मा जी तो अकेले ही हैं। ब्रह्मा असंख्यों हैं, यह बात मेरी समझ में नहीं आयी इसे समझने की मेरी इच्छा है।' प्रभु ने बड़े ही स्नेह से कहा- 'अच्छा, तुम यों समझो। जिस काशीपुरी में तुम बैठे हो ऐसी पुण्य और पानाशिनी सात पुरी इस भारत वर्ष में हैं। और लाखों नगर हैं, ऐसे-ऐसे नौ खण्डों वाला यह जम्बूद्वीप' है; उन खण्डों के नाम-(1) भारतवर्ष, (2) किन्नरवर्ष, (3) हरिवर्ष, (4) कुरुवर्ष, (5) हिरण्मयवर्ष, (6) रम्यकवर्ष, (7) इलावृतवर्ष, (8) भद्राश्ववर्ष और (9) केतुमालवर्ष- ये हैं। इन खण्डों वाले द्वीप को ही जम्बूद्वीप कहते हैं। जम्बूद्वीप से दुगुना प्लक्षद्वीप है, प्लक्षद्वीप से दुगुना शाल्मलीद्वीप और उसे दुगुना कुशद्वीप है, कुशद्वीप से दुगुना क्रौंचद्वीप, क्रौंचद्वीप से दुगुना शाकद्वीप और शाकद्वीप से दुगुना पुष्करद्वीप है। इस प्रकार पृथ्वी पर सात द्वीप और सात समुद्र हैं। कलियुग वाले पुरुष पूरे जम्बूद्वीप को ही समझने में समर्थ नहीं हो सकते। वे क्षीरसागर का ही पार नहीं पाते फिर दधि, घृत, मधु सागर को तो समझ ही क्या सकते हैं। एक-एक द्वीप के बाद एक-एक समुद्र है। जम्बूद्वीप सबसे छोटा द्वीप है। पृथ्वी पर ये सात द्वीप हैं, इसीलिये पृथ्वी सप्तद्वीपा कही जाती है। इसे भूलोक भी कहते हैं। इसी प्रकार भूसे भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्यम- ये छः लोक ऊपर हैं और तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, पाताल और रसातल- ये सात लोक नीचे हैं। इन प्रत्येक लोकों में अनेक छोटे-छोटे लोक हैं। स्वर्ग ही देख लो, असंख्यों लोक हैं। रात्रि में जो असंख्य तारे चमकते हैं, ये सब स्वर्ग के पृथक-पृथक लोक हैं। इनमें भी पृथ्वी की तरह असंख्यों जीव हैं। चन्द्रलोक, भौमलोक, ध्रुवलोक, सूर्यलोक- जैसे असंख्यों लोक स्वर्ग में हैं। उन्हें सूर्य के प्रकाश की भी अपेक्षा नहीं रहती। ये सब अपने-अपने प्रकाशों से प्रकाशित होते हैं। लाखों, करोड़ों नहीं, असंख्यों लोक इतने बड़े हैं कि जिनके सामने सूर्य का प्रकाश जुगनू (पटबीजने)-की भाँति प्रतीत होता है। ये सभी लोक स्वर्ग में ही बोले जाते हैं। स्वर्गलोक से ऊपर महर्लोक है; उसमे भी असंख्यों जीव हैं। इसी प्रकार जन, तप और सत्यलोक में असंख्यों छोटे-छोटे स्वतंत्र लोक हैं। नीचे के सात लोकों में भी स्वर्ग के समान सुख है। नरक के लोक भी वहीं है। और नरक भी लाखों प्रकार के हैं। इन चौदह लोकों के स्वामी ब्रह्मा जी हैं, ब्रह्मालोक सबसे श्रेष्ठ है। यह चौदह लोकों वाला ब्रह्मा जी का अण्ड है, इसीलिये ब्रह्माण्ड कहते हैं। इस ब्रह्माण्ड के स्वामी सदा एक ही ब्रह्मा नहीं होते। सौ वर्ष के पश्चात् वे बदल जाते हैं। वे सौ वर्ष भी हमारे नहीं, ब्रह्मा जी के अपने सौ वर्ष।' सनातन- 'प्रभो! मैं ब्रह्मा जी के वर्ष का परिणाम जानना चाहता हूँ। ब्रह्मा जी का एक वर्ष हमारे वर्षों से कितने दिन का होता है?' प्रभु ने कहा- 'अच्छा तुम हिसाब लगाओ। जो किसी प्रकार भी न दीखे और जिसके किसी तरह भी विभाग न हो सकें, उसे 'परम अणु' कहते हैं। दो परमाणुओं को एक अणु होता है, तीन अणुओं का एक 'त्रिसरेणु' होता है। हां, 'त्रिसरेणु' दीखता है। झरोखे में से सूर्य के प्रकाश के साथ जो छोटे-छोटे कण उड़ते-से दीखते हैं, वे ही त्रसरेणु हैं। वह इतना हल्का होता है कि उसका पृथ्वी पर गिरना असम्भव है, वह आकाश में ही घूमा करता है और सूर्य के प्रकाश के साथ झरोखे में से दीखता है। जितनी देर में तीन 'त्रसरेणु' को उल्लंघन करके सूर्य आगे बढ़े उस कालको 'त्रुटि' कहते हैं। ऐसी-ऐसी तीन सौ त्रुटियों का एक 'बोध' होता है तीन बोध का एक 'लव' और तीन लवका एक 'निमेष' माना जाता है। तीन निमेष का एक क्षण और पांच क्षण के काल को 'काष्ठा' कहते हैं। पंद्रह काष्ठा का एक 'लघु' और पंद्रह लघु की एक 'घड़ी' होती है। दो घड़ी कर एक मुहूर्त और छः या सात (दिन के घटने-बढ़ने के कारण) घड़ी होने पर मनुष्यों का एक 'पहर' होता है। चार पहर का 'दिन' और चार पहर की 'रात्रि' होती है, इसलिये आठ पहर की एक दिन-रात्रि मानी गयी है। ऐसे सात दिन-रात्रि का एक 'सप्ताह' और पंद्रह दिनों का एक पक्ष होता है। शुक्ल और कृष्ण-भेद से 'पक्ष' दो हैं। दो पक्ष का एक 'मास' होता है। दो मास की एक 'ऋतु' और तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। उत्तरायण और दक्षिणायन के भेद से अयन दो हैं, इसलिये दो अयनों का मनुष्यों का एक वर्ष होता है। उत्तरायण को 'देवताओं का दिन' और दक्षिणायन को 'देवताओं की रात्रि' समझनी चाहिये। अर्थात जिसे हम वर्ष कहते हैं, वह 'देवताओं का एक दिन' ही होता है। देवताओं के तीन सौ साठ दिनों का एक देव वर्ष होता है, जिसे 'दिव्य वर्ष' कहते हैं। देवताओं के वर्षों से चार हजार वर्ष का सत्ययुग, तीन हजार वर्ष का त्रेता, दो हजार वर्ष का द्वापर और एक हजार वर्ष का कलियुग होता है। एक युग बीतने के पश्चात् फौरन ही दूसरा युग नहीं लग जाता, इसलिये उसके आगे-पीछे के समय को सन्धि और सन्ध्यांश कहते हैं। दिव्य वर्षों से सत्ययुग का आठ सौ वर्ष, त्रेता का छः सौ वर्ष, द्वापर का चार सौ वर्ष और कलियुग का दो सौ वर्ष सन्धि-सन्ध्यांश काल माना गया है। चार युगों को मिलाकर 'चौकड़ी' कहते हैं। देवताओं के बारह हजार वर्षों (अर्थात मनुष्यों के तैंतालीस लाख बीस हजार वर्ष)- की एक 'चौकड़ी' होती है। ऐसी चौकड़ी जब 71 बीत जाती है, तब एक 'मन्वन्तर' होता है। एक मन्वन्तर के समाप्त होते ही पिछले इन्द्र, मनु, सप्तर्षि आदि बदल जाते हैं और नये बनाये जाते हैं। ऐसे चौदह मन्वन्तर बीत जाते हैं, तब 'ब्रह्मा जी का एक दिन' होता है और इतनी ही बड़ी उनकी रात्रि। उनके एक दिन में चौदह इन्द्र और चौदह मनु बदल जाते हैं। ब्रह्मा जी के एक दिन को 'कल्प' कहते हैं। दिन में वे सृष्टि का काम करते रहते हैं, रात्रि में सब सृष्टि का संहार करके उसे अपने में लीन करके सो जाते हैं, दिन होते ही फिर काम में लग जाते हैं। जिस प्रकार दुकानदार दिन में तो बाहर भाँति-भाँति की वस्तुएँ फैलाकर बैठता है और रात्रि में सबको समेट करके दुकान में बंद कर देता है, प्रातःकाल फिर ज्यों-का-त्यों पसारा फैला देता है, इसी प्रकार ब्रह्मा जी रोज व्यापार करते रहते हैं। ब्रह्मा जी के तीन सौ साठ दिनों का 'ब्रह्मवर्ष' होता है। ऐसे वर्षों से एक ब्रह्मा की आयु सौ वर्ष की होती है। कल्प में तो तीन ही लोकों को नाश होता है। ब्रह्मा जी की आयु के बाद इस चौदह भुवन वाले ब्रह्माण्ड का ही नाश हो जाता है, उसे 'महाप्रलय' कहते हैं। तब ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक के मुक्त पुरुषों के साथ भगवान के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, फिर नये ब्रह्मा होते हैं।' प्रभु के मुख से ब्रह्मा जी की आयु सुनकर परम विस्मित हुए सनातन जी ने पूछा- 'प्रभो! यह तो महान आश्चर्य की बात है। इसे सुनकर तो बड़ा भारी वैराग्य होता है। इस हिसाब से तो हमारी आयु कुछ भी नहीं, जिसे हम सौ वर्ष की परमायु मानते हैं, वह ब्रह्मा जी के एक क्षण क्या 'लव' के भी करोड़ वें अंश के बराबर नहीं। इसी पर यह मूर्ख प्राणी इतना गर्व करता है।' प्रभु ने उत्तेजित भाव से उल्लास के साथ उत्तर दिया। उस समय सनातन को बताते-बताते उनका चेहरा चमक रहा था, आँखों से प्रसन्नता की किरणें जोरों से निकल-निकलकर सनातन जी के शरीर में प्रवेश कर रही थीं। प्रभु ने कहा- 'सनातन! यह प्राणी जब समझता नहीं, तभी तो माया में फँसकर अपनी क्षुद्र परिधि को ही सब कुछ समझता है। कूप का मेंढक समुद्र का क्या अनुमान लगा सकता है? उसके लिये तो कुएँ से बढ़कर दूसरा कोई समुद्र ही नहीं। तुम प्रत्यक्ष देखते हो। जिसे तुम अपना एक दिन कहते हो, उसी में लाखों ऐसे जीव हैं जो अनेक बार मर जाते हैं और अनेकों बार नया जन्म धारण कर लेते हैं। तुम्हारा एक दिन ही हुआ, उनके अनेक जन्म बीत गये। देवता और ब्रह्मा जी के सामने हमारी आयु तो भुनगों के समान है। इस विषयों में सभी पुराणों में बड़ा ही सुन्दर विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। पुराणों में इसी के समझाने के लिये एक अत्यन्त ही मनोहर कथा आती है। सत्ययुग में रैवत नाम के एक बड़े ही पराक्रमी और सर्वशक्तिमान राजा थे। ब्रह्मा जी के वरदान से वे सभी लोकों में जा-आ सकते थे। सत्ययुग के मनुष्य आज कल से चौगुने लम्बे होते हैं। उनके एक रेवती नाम की कन्या थी, वह साधारण लड़कियों की अपेक्षा कुछ अधिक लम्बी थी। बहुत खोजने पर भी महाराज को उसके योग्य कोई वर नहीं मिला। तब उन्होंने सोचा-चलो, ब्रह्मा जी से ही कुछ पूछ आवें कि हम इस लड़की का विवाह किसके साथ करें। दो-चार राजकुमार अच्छे तो हैं, उनमें से कौन-सा सर्वश्रेष्ठ होगा, इस बात का निर्णय ब्रह्मा जी से ही करा लावें। यह सोचकर वे अपनी लड़की को साथ लेकर ब्रह्मलोक में पहुँचे। उस समय ब्रह्मा जी अनेक देवता, ऋषि और अन्य लोंको के देवों से घिरे हुए- 'हाहा, हूहू' का गान सुन रहे थे। महाराज रैवत भी प्रणाम करके चुपचाप एक ओर बैठ गये। आधी घड़ी के पश्चात् गायन समाप्त हो गया, तब पितामह ब्रह्मा जी ने हंसते हुए राजा रैवत से पूछा- 'कहो, भाई! कैसे आना हुआ?' हाथ जोड़े हुए दीन भाव से महाराज ने कहा- 'भगवन! आपके श्रीचरणों के दर्शनों के निमित्त चला आया।' सोचा था, इस लड़की के पति के सम्बन्ध में आप से पूछूंगा। आप जिनके लिये आज्ञा करेंगे, उसे ही दे दूंगा।' मुसकराकर भगवान ब्रह्मादेव जी ने कहा- 'तुम्हीं बताओ, तुम्हें कौन-सा राजकुमार बहुत पसंद है?' कुछ सोचकर महाराज ने कहा- 'प्रभो! अमुक राजकुमार मुझे सबसे अधिक अच्छा लगता है, फिर आप जिसके लिये आज्ञा करेंगे उसे ही इसे दूँगा। आपकी आज्ञा ही लेने तो आया हूँ।' इतना सुनते ही भगवान ब्रह्मा जी अपनी सफेद दाढ़ी को हिलाते हुए बड़े ही जोरों से हंसने लगे और बोले- 'राजन! जिस राजकुमार का तुम नाम ले रहे हो, वह कुल तो कबका नष्ट हो गया। अब तो उन वंशों का नाम-निशान भी नहीं रहा। तुम्हारी पुरी को अन्य राजाओं ने अपनी राजधानी बना लिया। अब तो वहाँ कलियुग आ रहा है। तुम इसी समय जाओ, व्रज में भगवान श्रीकृष्ण जी के बड़े भाई शेष जी के अवतार बलराम जी अवतीर्ण हुए हैं, जाकर इस कन्या को उन्हें ही दे दो, वे सब ठीक कर लेंगे।' भगवान ब्रह्मदेव जी की आज्ञा शिरोधार्य करके और उनके चरणों में प्रणाम करके महाराज पृथ्वी पर आये और रेवती जी को श्री बलराम जी को देकर वे तपस्या करने चले गये। इधर बलराम जी ने अपनी पत्नी को बहुत लम्बी देखकर उसके गले में अपना हल डालकर नीचे खींचकर अपने बराबर बना लिया।' सनातन जी ने कहा- 'प्रभो! बड़े आश्चर्य की बात है। ब्रह्मा जी भी स्थायी नहीं रहते। इस जगत के एकमात्र स्वामी की भी अन्त में यह गति होती है।' प्रभु ने कहा- 'जो उत्पन्न हुआ है, उसका अन्त अवश्य होगा, चाहे आज हो या कल। हाँ, मैं तुम्हें यह बता रहा था कि जैसा यह चौदह लोक वाला ब्रह्माण्ड है, वैसे असंख्य ब्रह्माण्ड इस विश्व में हैं और उनके स्वामी असंख्य ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। जैसे गूलर के पेड़ पर असंख्य गूलर के फल लगे रहते हैं, इसी प्रकार विश्व में अनन्त गूलर के समान ब्रह्माण्ड लटके हुए हैं। ब्रह्माण्ड के समस्त प्राणी गूलर के भीतर के भुनगों के समान हैं। महाविष्णु की नाभिकमल में से ब्रह्मा जी उत्पन्न होते हैं और वे सृष्टि करने लगे जाते हैं। असंख्य ब्रह्मा गंगा जी के प्रवाह की तरह निकल-निकलकर सृष्टि में प्रवृत्त होते हैं। उनके नीचे सांस लेने से ब्रह्माण्डों का नाश होता है, ऊपर सांस लेने से ब्रह्मा जी के सहित ब्रह्माण्ड उत्पन्न हो जाता है इसी व्यापार का नाम संसार चक्र है। कुम्हार के चक्र के समान यह संसार चक्र घूमता रहता है, इसी से लोकों की सृष्टि होती रहती है।' सनातन जी ने परम वैराग्य के स्वर में कहा- 'प्रभो! इस चक्रसे छुटकारा पाने का उपाय बताइये?' प्रभु ने कहा- 'श्री कृष्ण इस चक्र से एकदम पृथक हैं। उन्हें संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय से कुछ काम नहीं। इसे तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि करते रहते हैं। वे तो नित्य ही गोपियों के साथ आनन्द में रासक्रीड़ा करते रहते हैं। वे वृन्दावन को छोड़कर एक पग भी इधर-उधर नहीं जाते इसलिये सर्वात्मना और सर्वभाव से उन्हीं की शरण जाने से इस चक्र से मुक्ति हो सकती है।' सनातन- 'प्रभो! मैं उपाय जानना चाहता हूँ।' प्रभु ने कहा- 'सनातन! मैंने कह तो दिया। वे तप से, जप से, योग-यज्ञ से तथा पाठ-पूजा से प्रसन्न नहीं होते, उनकी प्रसन्नता का एकमात्र साधन अनन्य होकर उनकी भक्ति करना ही है। बिना प्रेमा भक्ति के कोई उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता। जिसे वे अपना कहकर वरण कर लेते हैं, उसे अपनी गोपी वा सखी बनाकर अपनी लीला में सम्मिलित कर लेते हैं, सखी बने बिना उनकी क्रीड़ा का दूसरा कोई अनुभव कर ही नहीं सकता। सखी कोई स्वयं थोड़े ही बन सकता है। जो अपने पुरुषार्थ से उनकी क्रीड़ा में सम्मिलित होने का अभिमान करते हैं, वे उन तक कभी नहीं पहुँच सकते। जब अनन्य होकर, दीन होकर, निराश्रय होकर सभी प्रकार के पुरुषार्थों का परित्याग करके केवल मात्र उन्हीं का आश्रय ग्रहण किया जाय तब कहीं उस ओर पैर बढ़ाने का अधिकार प्राप्त हो सकता है।' सनातन- 'प्रभो! अनन्यता कैसे प्राप्त हो, भक्ति का अंकुर कैसे हृदय में उत्पन्न हो ?' प्रभु ने कहा- 'सनातन! अनन्यता प्राप्त करने का सर्वोत्तम एक ही उपाय है, जैसे कि परमहंसशिरोमणि जडभरत जी ने राजा रहूगण से कहा है- रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा। न च्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैंर्विना महत्पादरजोऽभिषेकम्॥ भगवान जडभरत कहते हैं- 'राजन् रहूगण! महात्माओं की चरणरज में लोटे बिना भगवत-कृपा की प्राप्ति तप से, यज्ञ से, दान से, घर-द्वार छोड़ देने से, वेदों के पढ़ने से, जल, अग्नि या सूर्य के सेवन करने से नहीं हो सकती।' उसकी प्राप्ति का एक ही साधन है, श्रद्धापूर्वक परम समर्थ भगवद्भक्त साधु पुरुषों की चरणधूलि में लोटा जाय। उसे मस्तक पर धारण किया जाय यही एकमात्र उपाय है। साधु-सेवा के बिना जो भगवत्कृपा का अनुभव करना चाहता है, वह मानो बिना नौका या जहाज के ही अपार सागर को हाथों से तैरकर उस पार जाना चाहता है। इसी बात को लक्ष्य करके भक्तराज प्रह्लाद जी ने अपने पिता हिरण्यकशिपु से कहा है- नैषां मतिस्तावदुरुक्रमांघ्रिं स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थः महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किंचनानां न वृणीत यावत्॥ हे तात! जिनके हृदय से विषयों का विकार एक दम दूर हो गया है, ऐसे परम पूजनीय भगवद्भक्तों की चरणरज से जब तक मनुष्य भलीभाँति सिर से पैर तक स्नान नहीं करता तब तक वेदवाक्यों से उत्पन्न हुई भी उसकी बुद्धि उसे प्रभु के पादपद्मों के समीप पहुँचाने में एक दम असमर्थ होती है। अर्थात बिना भगवद्भक्तों की चरण धूलि मस्तक पर धारण किये कोई भी पुरुष श्रीकृष्ण पादपद्मों के स्पर्श करने के निमित्त आगे नहीं बढ़ सकता। तत्त्वदर्शी ज्ञानियों की जब तक श्रद्धा के साथ, भक्ति के साथ प्रेम पूर्वक सेवा नहीं की जाती, उनके चरणों में जब तक स्वाभाविक स्नेह नहीं होता, तब तक वह भगवत-कथा श्रवण करने का भी अधिकारी नहीं होता। भगवान ने अर्जुन को उपदेश करते हुए गीता में स्वयं ही लिखा है- तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ अर्थात 'हे अर्जुन! तू दण्डवत-प्रणाम-सेवा और निष्कपट भाव से किये हुए प्रश्न द्वारा उस ज्ञान को जान। (विनीतभाव से पूछने पर) वे तत्त्वदर्शी महात्मागण तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे।' उपदेश का वही अधिकारी है, जिसके हृदय में देवता, द्विज, गुरुजन और भगवत-भक्तों के प्रति श्रद्धा के भाव हैं। जो इनमें श्रद्धा के भाव नहीं रखता, वह परमार्थ की ओर अग्रसर ही नहीं हो सकता। फिर प्रभु कृपा का अधिकारी तो बन ही कैसे सकता है? सनातन! बहुत बातों में क्या रखा है, मैं तुझे सारातिसार बताता हूँ। प्राणिमात्र का परम पुरुषार्थ श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति करना ही है। परम अराध्य वे ही श्री नन्दनन्दन वृन्दावनचन्द्र श्रीकृष्णचन्द्र जी हैं। अपने सभी पुरुषार्थों का आश्रय छोड़कर अनन्य भाव से व्रजांगनाओं की भाँति संसारी सम्बन्धों से मुख मोड़कर पतिभाव से उनकी आराधना करना यही उपासना की उत्तम-से-उत्तम प्रणाली है और पठनीय शास्त्रों में श्रीमद्भागवत ही सर्वोपरि शास्त्र है। क्योकि इसे भगवान व्यासदेव ने सभी पुराणों के अनन्तर जिस प्रकार दही को मथकर उसमें से सारभूत मक्खन को निकाल लेते हैं, उसी प्रकार सर्वशास्त्रों को मथकर उनका सार निकाला है। बस, यही कल्याण का मार्ग है। इसे तुम मेरे मत का सार समझो। इससे अधिक कोई किसी बात का आग्रह करे तो उसे तुम अन्यथा समझना। मेरे इस ज्ञान को हृदय में धारण करो। साधु-महात्मा, संत तथा भगवद्भक्तों के चरणों में दृढ़ अनुराग रखो। वे कैसे भी हों उनकी निन्दा कभी मत करो। सबको ईश्वर-बुद्धि से नम्र होकर प्रणाम करो। तुम्हारा कल्याण होगा, मैं तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। मेरे इस अमल-विमल शास्त्र सम्मत ज्ञान का तुम विस्तार के साथ भक्ति के ग्रन्थों में वर्णन करना। मंगलमय भगवान तुम्हारा मंगल करेंगे!' इतना कहकर महाप्रभु चुप हो गये। महाप्रभु के चुप हो जाने पर सनातन जी ने भक्तिभाव के सहित महाप्रभु के चरणों में प्रणाम किया और महाप्रभु ने उनके शरीर पर हाथ फेरते हुए उन्हें आशीर्वाद दिया। इस प्रकार दो महीनों तक महाप्रभु के समीप काशी में रहकर सनातन भाँति-भाँति के शास्त्रीय प्रश्न पूछते रहे और प्रभु उन्हें प्रेम पूर्वक सभी गुप्त तत्त्व समझाते रहें। इन दो महीनों में ही सनातन जी ने प्रभु से बहुत-सी भक्तिमार्ग की गूढ़ता तिगूढ़ बातें समझ लीं, जिनका विस्तार के साथ उन्होंने अपने अनेकों ग्रन्थों में वर्णन किया है। श्रीकृष्ण! गोविन्द! हरे मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव! ----------:::×:::---------- - प्रभुदत्त ब्रह्मचारी श्री श्रीचैतन्य चरित्रावली (123) गीताप्रेस (गोरखपुर) "जय जय श्री राधे