बुधवार, 10 जून 2020

श्री मद् भगवद। गीता :---प्रथम अध्याय

अध्याय एक - कर्मयुद्ध-योग
(योद्धाओं की गणना और सामर्थ्य)
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥ (१)

भावार्थ : धृतराष्ट्र ने कहा - हे संजय! धर्म-भूमि और कर्म-भूमि में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे पुत्रों और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? (१)
संजय उवाच
दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥ (२)

भावार्थ : संजय ने कहा - हे राजन्! इस समय राजा दुर्योधन पाण्डु पुत्रों की सेना की व्यूह-रचना को देखकर आचार्य द्रोणाचार्य के पास जाकर कह रहे हैं। (२)
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌ ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।।


भवार्थ : हे आचार्य! पाण्डु पुत्रों की इस विशाल सेना को देखिए, जिसे आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न ने इतने कौशल से व्यूह के आकार में सजाया है। (३)
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥ (४)
भावार्थ : इस युद्ध में भीम तथा अर्जुन के समान अनेकों महान शूरवीर और धनुर्धर है, युयुधान, विराट और द्रुपद जैसे भी महान योद्धा है। (४)
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌ ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥ (५)
भावार्थ : धृष्टकेतु, चेकितान तथा काशीराज जैसे महान शक्तिशाली और पुरुजित्, कुन्तीभोज तथा शैब्य जैसे मनुष्यों मे श्रेष्ठ योद्धा भी है। (५)
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌ ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ (६)
भावार्थ : युधामन्यु जैसे महान पराक्रमी तथा उत्तमौजा जैसे अत्यन्त शक्तिशाली, सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पुत्रों सहित ये सभी महान योद्धा हैं। (६)
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥ (७)
भावार्थ : हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारी तरफ़ के भी उन विशेष शक्तिशाली योद्धाओं को भी जान लीजिये और आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के उन योद्धाओं के बारे में बतलाता हूँ। (७)
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥ (८)
भावार्थ : मेरी सेना में स्वयं आप-द्रोणाचार्य, पितामह भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा जैसे योद्धा है, जो सदैव युद्ध में विजयी रहे हैं। (८)
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ (९)
भावार्थ : ऎसे अन्य अनेक शूरवीर भी है जो मेरे लिये अपने जीवन का बलिदान देने के लिये अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित है और यह सभी युद्ध-विधा में निपुण है। (९)
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌ ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌ ॥ (१०)
भावार्थ : इस प्रकार भीष्म पितामह द्वारा अच्छी प्रकार से संरक्षित हमारी सेना की शक्ति असीमित है, किन्तु भीम द्वारा अच्छी प्रकार से संरक्षित होकर भी पांडवों की सेना की शक्ति सीमित है। (१०)
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥ (११)
भावार्थ : अत: सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहकर आप सभी निश्चित रूप से भीष्म पितामह की सभी ओर से सहायता करें। (११)
(योद्धाओं द्वारा शंख-ध्वनि)

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌ ॥ (१२)

भावार्थ : तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम-प्रतापी पितामह भीष्म ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए सिंह-गर्जना के समान उच्च स्वर से शंख बजाया। (१२)
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ ॥ (१३)

भावार्थ : तत्पश्चात् अनेक शंख, नगाड़े, ढोल, मृदंग और सींग आदि बाजे अचानक एक साथ बज उठे, उनका वह शब्द बड़ा भयंकर था। (१३)
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥ (१४)

भावार्थ : तत्पश्चात् दूसरी ओर से सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ पर आसीन योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए। (१४)
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥ (१५)

भावार्थ : हृदय के सर्वस्व ज्ञाता श्रीकृष्ण ने "पाञ्चजन्य" नामक, अर्जुन ने "देवदत्त" नामक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने "पौण्ड्र" नामक महाशंख बजाया। (१५)
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥ (१६)

भावार्थ : हे राजन! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने "अनन्तविजय" नामक और नकुल तथा सहदेव ने "सुघोष" और "मणिपुष्पक" नामक शंख बजाए। (१६)
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥ (१७)

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥ (१८)

भावार्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशीराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और कभी न हारने वाला सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु आदि सभी ने अलग-अलग शंख बजाए। (१७-१८)
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌ ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌ ॥ (१९)

भावार्थ : उस भयंकर ध्वनि ने आकाश और पृथ्वी को गुंजायमान करते हुए धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय में शोक उत्पन्न कर दिया। (१९)
(अर्जुन द्वारा सैन्य-निरीक्षण)

अर्जुन उवाचः
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥ (२०)

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते । सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥ (२१)

भावार्थ : हे राजन्‌! इसके बाद हनुमान से अंकित पताका लगे रथ पर आसीन पाण्डु पुत्र अर्जुन ने धनुष उठाकर तीर चलाने की तैयारी के समय धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर हृदय के सर्वस्व ज्ञाता श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहा कि हे अच्युत! कृपा करके मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खडा़ करें। (२०-२१)
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌ ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ (२२)

भावार्थ : जिससे मैं युद्धभूमि में उपस्थित युद्ध की इच्छा रखने वालों को देख सकूँ कि इस युद्ध में मुझे किन-किन से एक साथ युद्ध करना है। (२२)
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥ (२३)

भावार्थ : मैं उनको भी देख सकूँ जो यह राजा लोग यहाँ पर धृतराष्ट् के दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन के हित की इच्छा से युद्ध करने के लिये एकत्रित हुए हैं। (२३)
संजय उवाचः
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌ ॥ (२४)

भावार्थ : संजय ने कहा - हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृदय के पूर्ण ज्ञाता श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में उस उत्तम रथ को खड़ा कर दिया। (२४)
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌ ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति ॥

भावार्थ : इस प्रकार भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण तथा संसार के सभी राजाओं के सामने कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए एकत्रित हुए इन सभी कुरु वंश के सद्स्यों को देख। (२५)
तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌ ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥ (२६)

भावार्थ : वहाँ पृथापुत्र अर्जुन ने अपने ताऊओं-चाचाओं को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को और मित्रों को देखा। (२६)
श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌ ॥ (२७)

भावार्थ : कुन्ती-पुत्र अर्जुन ने ससुरों को और शुभचिन्तकों सहित दोनों तरफ़ की सेनाओं में अपने ही सभी सम्बन्धियों को देखा। (२७)
(अर्जुन की अज्ञानता का निरूपण )

अर्जुन उवाच
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ ।
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌ ॥ (२८)

भावार्थ : तब करुणा से अभिभूत होकर शोक करते हुए अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा वाले इन सभी मित्रों तथा सम्बन्धियों को उपस्थित देखकर। (२८)
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥ (२९)

भावार्थ : मेरे शरीर के सभी अंग काँप रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है, और मेरे शरीर के कम्पन से रोमांच उत्पन्न हो रहा है। (२९)
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥ (३०)

भावार्थ : मेरे हाथ से गांडीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है, मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा भी नही रह पा रहा हूँ। (३०)
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥ (३१)

भावार्थ : हे केशव! मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। (३१)
न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥ (३२)

भावार्थ : हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूँ, हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। (३२)
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥ (३३)

भावार्थ : जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा हैं, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। (३३)
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥ (३४)

भावार्थ : गुरुजन, परिवारीजन, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले और सभी सम्बन्धी भी मेरे सामने खडे़ है। (३४)
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥ (३५)

भावार्थ : हे मधुसूदन! मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूँ, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें, तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है? (३५)
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः ॥(३६)

भावार्थ : हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी? बल्कि इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा। (३६)
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌ ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥ (३७)

भावार्थ : हे माधव! अत: मुझे धृतराष्ट्र के पुत्रों को उनके मित्रों और सम्बन्धियों सहित मारना उचित नही लगता है, क्योंकि अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम कैसे सुखी हो सकते हैं? (३७)
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌ ॥ (३८)

भावार्थ : यधपि लोभ के कारण इन भ्रमित चित्त वालों को कुल के नाश से उत्पन्न होने वाले दोष दिखाई नही देते हैं, और मित्रों से विरोध करने में कोई पाप दिखाई नही देता है।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌ ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥ (३९)

भावार्थ : हे जनार्दन! हम लोग तो कुल के नाश से उत्पन्न दोष को समझने वाले हैं क्यों न हमें इस पाप से बचने के लिये विचार करना चाहिये। (३९)
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥ (४०)

भावार्थ : कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म फैल जाता है। (४०)
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥ (४१)

भावार्थ : हे कृष्ण! अधर्म अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर अवांछित सन्ताने उत्पन्न होती है। (४१)
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥ (४२)

भावार्थ : अवांछित सन्तानों की वृद्धि से निश्चय ही कुल में नारकीय जीवन उत्पन्न होता है, ऎसे पतित कुलों के पितृ गिर जाते है क्योंकि पिण्ड और जल के दान की क्रियाऎं समाप्त हो जाती है। (४२)
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥ (४३)

भावार्थ : इन अवांछित सन्तानो के दुष्कर्मों से सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं। (४३)
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥ (४४)

भावार्थ : हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में रहना पडता है, ऐसा हम सुनते आए हैं। (४४)
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥ (४५)

भावार्थ : ओह! कितने आश्चर्य की बात है कि हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। (४५)

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌ ॥ (४६)

भावार्थ : यदि मुझ शस्त्र-रहित विरोध न करने वाले को, धृतराष्ट्र के पुत्र हाथ में शस्त्र लेकर युद्ध में मार डालें तो भी इस प्रकार मरना मेरे लिए अधिक श्रेयस्कर होगा। (४६)

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥ (४७)

भावार्थ : संजय ने कहा - इस प्रकार शोक से संतप्त हुआ मन वाला अर्जुन युद्ध-भूमि में यह कहकर बाणों सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गया। (४७)
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे कृष्णार्जुनसंवादे धर्मकर्मयुद्धयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद भगवदगीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में धर्मकर्मयुद्ध-योग नाम का पहला अध्याय संपूर्ण हुआ॥

॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥

सोमवार, 18 मई 2020

आखिर!क्या है उपयोग :--जीवन में पीतल के बर्तनों का !

।। हरी ओम् धन्वंतराय नमः ।।
               🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
आखिर!क्या है उपयोग :--जीवन में पीतल के बर्तनों का !
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
                  आचार्य डा. अजय दीक्षित

पीतल के पात्रों का महत्व :-----
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

पीतल के पात्रों का महत्व ज्योतिष व धार्मिक शास्त्रों में भी बताया गया है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सुवर्ण व पीतल की ही भांति पीला रंग देवगुरु बृहस्पति को संबोधित करता है तथा ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार पीतल पर देवगुरु बृहस्पति का आधिपत्य होता है। बृहस्पति ग्रह की शांति हेतु पीतल का उपयोग किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रह शांति व ज्योतिष अनुष्ठानों में दान हेतु भी पीतल के बर्तन दिए जाते हैं।

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

पीतल के बर्तनों का कर्मकांड में अत्यधिक महत्व है। वैवाहिक कार्य में वेदी पढ़ने हेतु व कन्यादान के समय पीतल का कलश प्रयोग किया जाता है। शिवलिंग पर दूध चढ़ाने हेतु भी पीतल के कलश का उपयोग किया जाता है तथा बगलामुखी देवी के अनुष्ठानों में मात्र पीतल के बर्तन ही प्रयोग लिए जाते हैं।

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

 
पीतल के बर्तनों का उपयोग
भारत के कई क्षेत्रों में आज भी सनातनधर्मी जन्म से लेकर मृत्यु के उपरांत तक पीतल के बर्तनों का इस्तेमाल करते हैं। स्थानिक मान्यताओं के अनुसार बालक के जन्म पर नाल छेदन करने के उपरांत पीतल की थाली तो छुरी से पीटा जाता है। मान्यता है कि इससे पितृगण को सूचित किया जाता है कि आपके कुल में जल और पिंडदान करने वाले वंशज का जन्म हो चुका है। 

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि क्रिया के 10वें दिन अस्थि विसर्जन के उपरांत नारायणवली व पीपल पर पितृ जलां‍जलि मात्र पीतल कलश से दी जाती है। मृत्यु संस्कार के अंत में 12वें दिन त्रिपिंडी श्राद्ध व पिंडदान के बाद 12वीं के शुद्धि हवन व गंगा प्रसादी से पहले पीतल के कलश में सोने का टुकड़ा व गंगा जल भरकर पूरे घर को पवित्र किया जाता है।

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

पीतल के बर्तन घर में रखना शुभ माना जाता है। सेहत की दृष्टि से पीतल के बर्तनों में बना भोजन स्वादिष्ट तुष्टि-प्रदाता होता है तथा इससे आरोग्य और शरीर को तेज प्राप्त होता है। पीतल का बर्तन जल्दी गर्म होता है जिससे गैस तथा अन्य ऊर्जा की बचत होती है। पीतल का बर्तन दूसरे बर्तनों से ज्यादा मजबूत और जल्दी न टूटने वाला धातु है। पीतल के कलश में रखा जल अत्यधिक ऊर्जा प्रदान करने में सहायक होता है।

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

पीतल पीले रंग का होने से हमारी आंखों के लिए टॉनिक का काम करता है। पीतल का उपयोग थाली, कटोरे, गिलास, लोटे, गगरे, हंडे, देवताओं की मूर्तियां व सिंहासन, घंटे, अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र, ताले, पानी की टोंटियां, मकानों में लगने वाले सामान और गरीबों के लिए गहने बनाने में होता है।

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

पीतल के बर्तनों से लाभ :---------
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

1. भाग्योदय हेतु पीतल की कटोरी में चना दाल भिगोकर रातभर सिरहाने रखें व सुबह चना दाल पर गुड़ रखकर गाय को खिलाएं।

2. अटूट धन प्राप्ति हेतु पूर्णिमा के दिन भगवान श्रीकृष्ण पर शुद्ध घी से भरा पीतल का कलश चढ़ाकर निर्धन विप्र को दान करें।

3. लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु वैभवलक्ष्मी का पूजन कर पीतल के दीये में शुद्ध घी का दीपक करें।

4. दुर्भाग्य से मुक्ति पाने हेतु पीतल की कटोरी में दही भरकर कटोरी समेत पीपल के नीचे रखें।

5. सौभाग्य प्राप्ति हेतु पीतल के कलश में चना दाल भरकर विष्णु मंदिर में चढ़ाएं।
पीतल के बर्तन में खट्टे पदार्थ कभी भी न रखें।

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
जय सियाराम जय जय हनुमान

         किसी भी शंका समाधान के लिए :----
         ह्वाटसप नम्बर :-9559986789 पर मैसेज करें ।

                  .आचार्य डा. अजय दीक्षित

बुधवार, 13 मई 2020

हनुमान साबर मंत्र

हनुमान जी की किसी भी मंत्र जाप से पहले निचे दिए कवच को सिद्ध कर ले ! उनके किसी भी मंत्र जाप से पूर्व स्वयं की रक्षा के लिए इस कवच को पड़कर अपने छाती पर फूक मरे ! फिर आप उनके किसी भी मंत्र का अनुष्ठान कर सकते है !  हनुमान लाला के किसी भी मंत्र की साधना के पहले हनुमान जी को चोला चड़वाए !
आसान लाल
ब्रम्हचर्य का पालन करे
मासाहार न करे
माला मूंगे की रुद्राक्ष की या चन्दन की प्रयोग में ले
साधना के पूर्ण होते ही नारियल फूल प्रसाद भेट चढ़ाये

रक्षा-विधानः 
 रक्षा-कारक  शाबर मन्त्र
“श्रीरामचन्द्र-दूत हनुमान ! तेरी चोकी – लोहे का खीला, भूत का मारूँ पूत । डाकिन का करु दाण्डीया । हम हनुमान साध्या । मुडदां बाँधु । मसाण बाँधु । बाँधु नगर की नाई । भूत बाँधु । पलित बाँधु । उघ मतवा ताव से तप । घाट पन्थ की रक्षा – राजा रामचन्द्र जी करे ।
बावन वीर, चोसठ जोगणी बाँधु । हमारा बाँधा पाछा फिरे, तो वीर की आज्ञा फिरे । नूरी चमार की कुण्ड मां पड़े । तू ही पीछा फिरे, तो माता अञ्जनी का दूध पीया हराम करे । स्फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा ।”

विधिः- उक्त मन्त्र का प्रयोग कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को ही करें । प्रयोग हनुमान् जी के मन्दिर में करें । पहले धूप-दीप-अगरबत्ती-फल-फूल इत्यादि से पूजन करें । सिन्दूर लगाएँ, फिर गेहूँ के आटे का एक बड़ा रोट बनाए । उसमें गुड़ व घृत मिलाए । साथ ही इलायची-जायफल-बादाम-पिस्ते इत्यादि भी डाले तथा इसका भोग लगाए । भोग लगाने के बाद मन्दिर में ही हनुमान् जी के समक्ष बैठकर उक्त मन्त्र का १२५ बार जप करें । जप के अन्त में हनुमान् जी के पैर के नीचे जो तेल होता है, उसे साधक अँगुली से लेकर स्वयं अपने मस्तक पर लगाए । इसके बाद फिर किसी दूसरे दिन उसी समय उपरोक्तानुसार पूजा कर, काले डोरे में २१ मन्त्र और पढ़कर गाँठ लगाए तथा डोरे को गले में धारण करे । मांस-मदिरा का सेवन न करे । इससे सभी प्रकार के वाद-विवाद में जीत होती है । मनोवाञ्छित कार्य पूरे होते हैं तथा शरीर की सुरक्षा होती है ।



हनुमत् ‘साबर’ मन्त्र प्रयोग


।। श्री पार्वत्युवाच ।।

हनुमच्छावरं मन्त्रं, नित्य-नाथोदितं तथा ।
वद मे करुणा-सिन्धो ! सर्व-कर्म-फल-प्रदम् ।।

।। श्रीईश्वर उवाच ।।


आञ्जनेयाख्यं मन्त्रं च, ह्यादि-नाथोदितं तथा ।
सर्व-प्रयोग-सिद्धिं च, तथाप्यत्यन्त-पावनम् ।।

।। मन्त्र ।।

“ॐ ह्रीं यं ह्रीं राम-दूताय, रिपु-पुरी-दाहनाय अक्ष-कुक्षि-विदारणाय, अपरिमित-बल-पराक्रमाय, रावण-गिरि-वज्रायुधाय ह्रीं स्वाहा ।।”

विधिः- ‘आञ्जनेय’ नामक उक्त मन्त्र का प्रयोग गुरुवार के दिन प्रारम्भ करना चाहिए। श्री हनुमान जी की प्रतिमा या चित्र के सम्मुख बैठकर दस सहस्त्र जप करे। इस प्रयोग से सभी कामनाएँ पूर्ण होती है। मनोनुकूल विवाह-सम्बन्ध होता है। अभिमन्त्रित काजल रविवार के दिन लगाना चाहिए। अभिमन्त्रित जल नित्य पीने से सभी रोगों से मुक्त होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। इसी प्रकार आकर्षण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन, मारण आदि सभी प्रयोग उक्त मन्त्र से किए जा सकते हैं।
 



।। मन्त्र ।।


“ॐ नमो भगवते हनुमते, जगत्प्राण-नन्दनाय, ज्वलित-पिंगल-लोचनाय, सर्वाकर्षण-कारणाय ! आकर्षय आकर्षय, आनय आनय, अमुकं दर्शय दर्शय, राम-दूताय आनय आनय, राम आज्ञापयति स्वाहा।”


विधिः- उक्त ‘केरल′- मन्त्र का जप रविवार की रात्रि से प्रारम्भ करे। प्रतिदिन दो हजार जप करे। बारह दिनों तक जप करने पर मन्त्र सिद्धि होती है। उसके बाद पाँच बालकों की पूजा कर उन्हें भोजनादि से सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा कर चुकने पर साधक को रात्रि में श्री हनुमान जी स्वप्न में दर्शन देंगे और अभीष्ट कामना को पूर्ण करेंगे। इस मन्त्र से ‘आकर्षण’ भी होता है। यथा-

।। मन्त्र ।।



“ॐ यं ह्रीं वायु-पुत्राय ! एहि एहि, आगच्छ आगच्छ, आवेशय आवेशय, रामचन्द्र आज्ञापयति स्वाहा ।”

विधिः- ‘कर्णाटक’ नामक उक्त मन्त्र को, पूर्ववत् पुरश्चरण कर, सिद्ध कर लेना चाहिए। फिर यथोक्त-विधि से ‘आकर्षण’ प्रयोग करे। यथा-

।। मन्त्र ।।


ॐ नमो भगवते ! असहाय-सूर ! सूर्य-मण्डल-कवलीकृत ! काल-कालान्तक ! एहि एहि, आवेशय आवेशय, वीर-राघव आज्ञापयति स्वाहा।”
विधिः- उक्त ‘आन्ध्र’ मन्त्र के पुरश्चरण की भी वही विधि है। सिद्ध-मन्त्र द्वारा सौ बार अभिमन्त्रित भस्म को शरीर में लगाने से सर्वत्र विजय मिलती है। 


।। मन्त्र ।।


“ॐ नमो भगवते अञ्जन-पुत्राय, उज्जयिनी-निवासिने, गुरुतर-पराक्रमाय, श्रीराम-दूताय लंकापुरी-दहनाय, यक्ष-राक्षस-संहार-कारिणे हुं फट्।”


विधिः- उक्त ‘गुर्जर’ मन्त्र का दस हजार जप रात्रि में भगवती दुर्गा के मन्दिर में करना चाहिए। तदन्तर केवल एक हजार जप से कार्य-सिद्धि होगी। इस मन्त्र से अभिमन्त्रित तिल का लड्डू खाने से और भस्म द्वारा मार्जन करने से भविष्य-कथन करने की शक्ति मिलती है। तीन दिनों तक अभिमन्त्रित शर्करा को जल में पीने से श्रीहनुमानजी स्वप्न में आकर सभी बातें बताते हैं, इसमें सन्देह नहीं यथा-


संकट से रक्षा के लिए कुछ विशिष्ट प्रयोग

भयंकर,आपति आने पर हनुमान जी का ध्यान करके रूद्राक्ष माला पर १०८ बार जप करने से कुछ ही दिनों में सब कुछ सामान्य हो जाता है।
मंत्र:-त्वमस्मिन् कार्य निर्वाहे प्रमाणं हरि सतम।
तस्य चिन्तयतो यत्नों दुःख क्षय करो भवेत्॥

शत्रु,रोग हो या दरिद्रता,बंधन हो या भय निम्न मंत्र का जप बेजोड़ है,इनसे छुटकारा दिलाने में यह प्रयोग अनूभुत है।नित्य पाँच लौंग,सिनदुर,तुलसी पत्र के साथ अर्पण कर सामान्य मे एक माला,विशेष में पाँच या ग्यारह माला का जप करें।कार्य पूर्ण होने पर १०८बार,गूगूल,तिल धूप,गुड़ का हवन कर लें।आपद काल में मानसिक जप से भी संकट का निवारण होता है।
मंत्र:-मर्कटेश महोत्साह सर्व शोक विनाशनं,शत्रु संहार माम रक्ष श्रियम दापय में प्रभो॥
अनेकानेक रोग से भी लोग परेशान रहते है,इस कारण श्री हनुमान जी का तीव्र रोग हर मंत्र का जप करनें,जल,दवा अभिमंत्रित कर पीने से असाध्य रोग भी दूर होता है। तांबा के पात्र में जल भरकर सामने रख श्री हनुमान जी का ध्यान कर मंत्र जप कर जलपान करने से शीघ्र रोग दूर होता है।श्री हनुमान जी का सप्तमुखी ध्यान कर मंत्र जप करें।
मंत्र:- नमो भगवते सप्त वदनाय षष्ट गोमुखाय,सूर्य रुपाय सर्व रोग हराय मुक्तिदात्रे


“को नहीं जानत जग में कपि सकंट मोचन नाम तिहारो ....”

कलियुग की शुरुआत होते ही सारे देवता इस भू लोक को छोड़ कर चले गए थे सिर्फ भैरव और हनुमान ही ऐसे देवता है जिन्होंने कलयुग में भू लोक पर निवास किआ ! इसलिए हनुमान लाला और भैरव महाराज दोनों की उपासना  कलयुग में उत्तम फल प्रदान करती है

जब भी ऐसी कोई समस्या हो आप किसी भी पात्र में जल ले ले और निम्न मंत्र से उसे अभिमंत्रित कर ले मतलब इसके दो तरीके हैं एक तो मंत्र जप करते समय अपने सीधे हाथ की एक अंगुली इस जल से स्पर्श कराये रखे या जितना आप को मंत्र जप करना हैं उतना कर ले और फिर पूरे श्रद्धा विस्वास से इस जल में एक फूंक मार दे ..

यह मन में भावना रखते हुए की इस मंत्र की परम शक्ति अब जल में निहित हैं .. और यह सब मानने की बात नहीं हैं अनेको वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध भी हुआ हैं की निश्चय ही कुछ तो परिवर्तन उच्च उर्जा का जल में समावेश होता ही हैं .
मंत्र :
ॐ नमो हनुमते पवन पुत्राय ,वैश्वानर मुखाय पाप दृष्टी ,घोर दृष्टी , हनुमदाज्ञा स्फुरेत स्वाहा ||

कम से कम १०८ बार मंत्र जप तो करे ही  और इस अभिमंत्रित जल को जो भी पीड़ित हैं उ स पर छिडके .. उसे भगवान् हुनमान की कृपा से निश्चय ही लाभ होना शुरू हो जायेगा और जो भी   इसे रोज करना चाहे उनके जीवन कि अनेको कठिनाई तो स्वत ही दूर होती जाएगी .. तो आवश्यक सावधानी जो की हनुमान साधना में होती हैं वह करते हुए कर सकते हैं .. 



हनुमान जी के संकट-नाशक अनुष्ठान

१॰  विनियोगः अस्य श्री हनुमन्महामन्त्रस्य ईश्वर ऋषिःगायत्री छन्दःहनुमान देवताहं बीजंनमः शक्तिःआञ्जनेयाय कीलकम् मम सर्व-प्रतिबन्धक-निवृत्ति-पूर्वकं हनुमत्प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः 
ऋष्यादिन्यासःईश्वर ऋषये नमः शिरसिगायत्री छन्दसे नमः मुखेहनुमान देवतायै नमः हृदिहं बीजाय नमः नाभौनमः शक्तये नमः गुह्येआञ्जनेयाय कीलकाय नमः पादयो मम सर्व-प्रतिबन्धक-निवृत्ति-पूर्वकं हनुमत्प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे 
करन्यासः ह्रां आञ्जनेयाय अंगुष्ठाभ्यां नमः ह्रीं महाबलाय तर्जनीभ्यां नमः ह्रूं शरणागत-रक्षकाय मध्यमाभ्यां नमः ह्रैं श्री-राम-दूताय अनामिकाभ्यां नमः ह्रौं हरिमर्कटाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः ह्रः सीता-शोक-विनाशकाय करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः 
हृदयादिन्यासः ह्रां आञ्जनेयाय हृदयाय नमः ह्रीं महाबलाय शिरसे स्वाहा ह्रूं शरणागत-रक्षकाय शिखायै वषट् ह्रैं श्री-राम-दूताय कवचाय हुम् ह्रौं हरिमर्कटाय नेत्र-त्रयाय वोषट् ह्रः सीता-शोक-विनाशकाय अस्त्राय फट् 
ध्यानः-
 उद्यद्बालदिवाकरद्युतितनु पीताम्बरालंकृतं 
देवेन्द्र-प्रमुख-प्रशस्त-यशसं श्रीराम-भूप-प्रियम् ।।
सीता-शोक-विनाशिनं पटुतरं भक्तेष्ट-सिद्धि-प्रदं 
ध्यायेद्वानर-पुंगवं हरिवरं श्रीमारुति सिद्धिदम् ।।

निम्नलिखित मन्त्रों में से किसी एक मन्त्र का जप  मास तक नित्य-प्रति ३००० करना चाहिए -

१॰ “ हं हनुमते आञ्जनेयाय महाबलाय नमः 
२॰ “ आञ्जनेयाय महाबलाय हुं फट् 

२॰  “ नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलशत्रुसंहारणाय स्वाहा।
 नमो भगवते पञ्चवदनाय महाबलप्रचण्डाय सकलब्रह्माण्डनायकाय सकलभूत-प्रेत-पिशाच-शाकिनी-डाकिनी-यक्षिणी-पूतना-महामारी-सकलविघ्ननिवारणाय स्वाहा।
 आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् (गायत्री)
 नमो हनुमते महाबलप्रचण्डाय महाभीम पराक्रमाय गजक्रान्तदिङ्मण्डलयशोवितानधवलीकृतमहाचलपराक्रमाय पञ्चवदनाय नृसिंहाय वज्रदेहाय ज्वलदग्नितनूरुहाय रुद्रावताराय महाभीमायमम मनोरथपरकायसिद्धिं देहि देहि स्वाहा।
 नमो भगवते पञ्चवदनाय महाभीमपराक्रमाय सकलसिद्धिदाय वाञ्छितपूरकाय सर्वविघ्ननिवारणाय मनो वाञ्छितफलप्रदाय सर्वजीववशीकराय दारिद्रयविध्वंसनाय परममंगलाय सर्वदुःखनिवारणाय अञ्जनीपुत्राय सकलसम्पत्तिकराय जयप्रदाय  ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रूं फट् स्वाहा।
विधिः-
सर्वकामना सिद्धि का संकल्प करके उपर्युक्त पूरे मन्त्र का १३ दिनों में ब्राह्मणों द्वारा ३३००० जप पूर्ण कराये। तेरहवें दिन १३ पान के पत्तों पर १३ सुपारी रखकर शुद्ध रोली अथवा पीसी हुई हल्दी रखकर स्वयं १०८ बार उक्त मन्त्र का जाप करके एक पान को उठाकर अलग रख दे। तदन्तर पञ्चोपचार से पूजन करके गाय का घृतसफेद दूर्वा तथा सफेद कमल का भाग मिलाकर उसके साथ उस पान का अग्नि में हवन कर दे। इसी प्रकार १३ पानों का हवन करे।
तदन्तर ब्राह्मणों द्वारा उक्त मन्त्र से ३२००० आहुतियाँ दिलाकर हवन करायें। तथा ब्राह्मणों को भोजन कराये।

३॰  “ ऐं ह्रीं श्रीं नमो भगवते हनुमते मम कार्येषु ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल असाध्यं साधय साधय मां रक्ष रक्ष सर्वदुष्टेभ्यो हुं फट् स्वाहा।
विधिः-मंगलवार से प्रारम्भ करके इस मन्त्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करता रहे और कम-से-कम सात मंगलवार तक तो अवश्य करे। इससे इसके फलस्वरुप घर का पारस्परिक विग्रह मिटता हैदुष्टों का निवारण होता है और बड़ा कठिन कार्य भी आसानी से सफल हो जाता है।

४॰  “हनुमन् सर्वधर्मज्ञ सर्वकार्यविधायक।
अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।
या  “हनूमन्नञ्जनीसूनो वायुपुत्र महाबल।
अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।
विधिःप्रतिदिन तीन हजार के हिसाब से ११ दिनों में ३३ हजार जप जोफिर ३३०० दशांश हवन या जप करके ३३ ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाये। इससे अकस्मात् आयी हुई विपत्ति सहज ही टल जाती है।

 हनुमान जी की साधना में ब्रम्हचर्य अनिवार्य है ! भोजन याम नियम की सावधानी बरते ! दशांश हवन करने से हनुमान जी सब कष्टो से मुक्ति देते है ! सारे ही मंत्र विलक्षण है बस नियमित जाप और हवन की आवश्यकता है



पीलिया रोग को झाड़ा मंत्र
- “ यो यो हनुमन्त फलफलित धग्धगिति आयुराष परुडाह 
प्रत्येक मंगलवार को व्रत रखकर इस मंत्र का २५ माला जप करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है  इस मंत्र के द्वारा पीलिया रोग को झाड़ा जा सकता है 


विष निवारण मंत्र
 पश्चिम-मुखाय-गरुडासनाय पंचमुखहनुमते नमः मं मं मं मं मंसकल विषहराय स्वाहा 
इस मन्त्र की जप संख्या १० हजार हैइसकी साधना दीपावली की अर्द्ध-रात्रि पर करनी चाहिए  यह मन्त्र विष निवारण में अत्यधिक सहायक है 



ग्रह-दोष निवारण मंत्र
 उत्तरमुखाय आदि वराहाय लं लं लं लं लं सी हं सी हं नील-कण्ठ-मूर्तये लक्ष्मणप्राणदात्रे वीरहनुमते लंकोपदहनाय सकल सम्पत्ति-कराय पुत्र-पौत्रद्यभीष्ट-कराय  नमः स्वाहा 
इस मन्त्र का उपयोग महामारीअमंगल एवं ग्रह-दोष निवारण के लिए है 


वशीकरण  मंत्र
 नमो पंचवदनाय हनुमते ऊर्ध्वमुखाय हयग्रीवाय रुं रुं रुं रुं रुं रुद्रमूर्तये सकललोक वशकराय वेदविद्या-स्वरुपिणे  नमः स्वाहा 
यह वशीकरण के लिए उपयोगी मन्त्र है 



भूत-प्रेत दोष निवारण मंत्र

 श्री महाञ्जनाय पवन-पुत्र-वेशयावेशय  श्रीहनुमते फट् 
यह २५ अक्षरों का मन्त्र है इसके ऋषि ब्रह्माछन्द गायत्रीदेवता हनुमानजीबीज श्री और शक्ति फट् बताई गई है  छः दीर्घ स्वरों से युक्त बीज से षडङ्गन्यास करने का विधान है  इस मन्त्र का ध्यान इस प्रकार है -
आञ्जनेयं पाटलास्यं स्वर्णाद्रिसमविग्रहम् 
परिजातद्रुमूलस्थं चिन्तयेत् साधकोत्तम् ।। (नारद पुराण ७५-१०२)
इस प्रकार ध्यान करते हुए साधक को एक लाख जप करना चाहिए  तिलशक्कर और घी से दशांश हवन करें और श्री हनुमान जी का पूजन करें  यह मंत्र ग्रह-दोष निवारणभूत-प्रेत दोष निवारण में अत्यधिक उपयोगी है 


उदररोग नाशक मंत्र

 यो यो हनुमंत फलफलित धग्धगित आयुराषः परुडाह 
उक्त मन्त्र को प्रतिदिन ११ बार पढ़ने से सब तरह के पेट के रोग शांत हो जाते हैं

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

वैशाख-स्नान से पाँच प्रेतों का उद्धार :---आचार्य डा.अजय दीक्षित

वैशाख-स्नान से पाँच प्रेतों का उद्धार :---आचार्य डा.अजय दीक्षित द्वारा प्रकाशित किया गया ।

अम्बरीष ने कहा – मुने ! जिसके चिन्तन मात्र से पाप राशि का लय हो जाता है, उस पाप प्रशमन नामक स्तोत्र को मैं भी सुनना चाहता हूँ। आज मैं धन्य हूँ, अनुगृहीत हूँ, आपने मुझे उस शुभ विधि का श्रवण कराया, जिसके सुनने मात्र से पापों का क्षय हो जाता है। वैशाख मास में जो भगवान केशव के कल्याणमय नामों का कीर्तन किया जाता है, उसी को मैं संसार में सबसे बड़ा पुण्य, पवित्र, मनोरम तथा एकमात्र सुकृत से ही सुलभ होने वाला शुभ कर्म मानता हूँ।। अहो ! जो लोग माधव मास में भगवान मधुसूदन के नामों का स्मरण करते हैं वे धन्य हैं। अत: यदि आप उचित समझें तो मुझे पुन: माधवमास की ही पवित्र कथा सुनाएँ।

सूतजी कहते हैं – राजाओं में श्रेष्ठ हरिभक्त अम्बरीष का वचन सुनकर नारद मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई। यद्यपि वे वैशाख स्नान के लिये जाने को उत्कंठित थे, तथापि सत्संग में आनन्द आने के कारण रुक गये और राजा से बोले।

नारद जीने कहा – महीपाल ! मुझे ऎसा जान पड़ता है कि यदि दो व्यक्तियों में परस्पर भगवत्कथा-संबंधी सरस वार्तापाल छिड़ जाए तो वह अत्यन्त विशुद्ध – अन्त:करण को शुद्ध करने वाला होता है। आज तुम्हारे साथ जो माधवमास के माहात्म्य की चर्चा चल रही है, यह वैशाख-स्नान की अपेक्षा अधिक पुण्य प्रदान करने वाली है क्योंकि माधवमास के देवता भगवान श्रीविष्णु हैं (अत: उनका कीर्तन भगवान का ही कीर्तन है)। जिसका जीवन धर्म के लिए और धर्म भगवान की प्रसन्नता के लिए है तथा जो रातों-दिन पुण्योपार्जन में ही लगा रहता है, उसी को इस पृथ्वी पर मैं वैष्णव मानता हूँ। राजन् ! अब मैं वैशाख स्नान से होने वाले पुण्य फल का संक्षेप में वर्णन करता हूँ। विस्तार के साथ सारा वर्णन तो मेरे पिता – ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते। वैशाख में डुबकी लगाने मात्र से समस्त पाप छूट जाते हैं।

पूर्वकाल की बात है कोई मुनीश्वर तीर्थयात्रा के प्रसंग से सर्वत्र घूम रहे थे। उनका नाम था मुनिशर्मा। वे बड़े धर्मात्मा, सत्यवादी, पवित्र तथा शम, दम एवं शान्तिधर्म से युक्त थे। वे प्रतिदिन पितरों का तर्पण और श्राद्ध करते थे। उन्हें वेदों और स्मृतियों के विधानों का सम्यक् ज्ञान था। वे मधुर वाणी बोलते और भगवान का पूजन करते रहते थे। वैष्णवों के संसर्ग में ही उनका समय व्यतीत होता था। वे तीनों कालों के ज्ञाता, मुनि, दयालु, अत्यन्त तेजस्वी, तत्वज्ञानी और ब्राह्मणभक्त थे। वैशाख का महीना था, मुनिशर्मा स्नान के लिए नर्मदा के किनारे जा रहे थे। उसी समय उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषों को देखा, जो भारी दुर्गति में फँसे हुए थे। वे अभी-अभी एक-दूसरे से मिले थे। उनके शरीर का रंग काला था। वे एक बरगद की छाया में बैठे थे और पापों के कारण उद्विग्न होकर चारों ओर दृष्टिपात कर रहे थे।

उन्हें देखकर द्विजवर मुनिशर्मा बड़े विस्मय में पड़े और सोचने लगे – इस भयानक वन में मनुष्य कहाँ से आए? इनकी चेष्टा बड़ी दयनीय है किन्तु इनका आकार बड़ा भयंकर दिखाई देता है। ये पापभागी चोर तो नहीं हैं? विप्रवर मुनिशर्मा की बुद्धि बड़ी स्थिर थी, वे ज्यों ही इस प्रकार विचार करने लगे, उसी समय उपर्युक्त पाँचों पुरुष उनके पास आये और हाथ जोड़कर मुनिशर्मा से बोले।

उन पुरुषों ने कहा – विप्रवर ! हमें आप कल्याणमय पुरुषोत्तम जान पड़ते हैं, हम दु:खी जीव हैं। अपना दु:ख विचारकर आपको बताना चाहते हैं। द्विजराज ! आप कृपा करके हमारी कष्ट कथा सुनें। दैववश जिनके पाप प्रकट हो गए हैं, उन दीन दु:खी प्राणियों के आधार आप जेसे संत महात्मा ही हैं। साधु पुरुष अपनी दृष्टिमात्र से पीड़ितों की पीड़ाएँ हर लेते हैं, अब उनमें से एक ने सबका परिचय देना आरंभ किया – मैं पंचाल देश का क्षत्रिय हूँ, मेरा नाम नरवाहन है।

मैंने मार्ग में मोहवश बाण द्वारा एक ब्राह्मण की हत्या कर डाली। मुझसे ब्रह्म हत्या का पाप हो गया इसलिए शिखा, सूत्र और तिलक से रहित होकर इस पृथ्वी पर घूमता हूँ और सबसे कहता फिरता हूँ कि “मैं ब्रह्महत्यारा हूँ।” मुझ महापापी ब्रह्मघाती को आप कृपा की भिक्षा दें। इस दशा में पड़े-पड़े मुझे एक वर्ष बीत गया। मैं पाप से जल रहा हूँ, मेरा चित्त शोक से व्याकुल है तथा ये जो सामने दिखाई देते हैं, इनका नाम चन्द्रशर्मा है। ये जाति के ब्राह्मण है, इन्होंने मोह से मलिन होकर गुरु का वध किया है और ये मगध देश के निवासी हैं। इनके स्वजनों ने इनका परित्याग कर दिया है। ये भी घूमते-घामते दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं। इनके भी न शिखा है न सूत्र। ब्राह्मण का कोई भी चिह्न इनके शरीर में नहीं रह गया है।

इनके सिवा जो ये तीसरे व्यक्ति हैं, इनका नाम देवशर्मा है। स्वामिन् ! ये भी बड़े कष्ट में है। ये भी जाति के ब्राह्मण हैं, किन्तु मोहवश वेश्या की आसक्ति में फँसकर शराबी हो गए थे। इन्होंने भी पूछने पर अपना सारा हाल सच-सच कह सुनाया है। अपने प्रथम पापाचार को याद करके इनके हृदय में बड़ा संताप होता है। ये सदा मनस्ताप से पीड़ित रहते हैं। इनको इनकी स्त्री ने, बन्धु-बान्धवों ने तथा गाँव के सब लोगों ने वहाँ से निकाल दिया है। ये अपने उसी पाप के साथ भ्रमण करते हुए यहाँ आए हैं।

ये चौथे महाशय जाति के वैश्य हैं। इनका नाम विधुर है। ये गुरुपत्नी के साथ समागम करने वाले हैं। इनकी माता मिथिला में जाकर वेश्या हो गई थी। इन्होंने मोहवश तीन महीनों तक उसी का उपभोग किया है परन्तु जब असली बात का पता लगा है तो बहुत दु:खी होकर पृथ्वी पर विचरते हुए ये भी यहाँ आ पहुँचे हैं। हम में से ये जो पाँचवें दिखाई दे रहे हैं, ये भी वैश्य ही हैं, इनका नाम नन्द है। ये पापियों का संसर्ग करने वाले महापापी हैं। इन्होंने प्रतिदिन धन के लालच में पड़कर बहुत चोरी की है। पातकों से आक्रान्त हो जाने पर इन्हें स्वजनों ने त्याग दिया है तब ये स्वयं भी खिन्न होकर दैवात् यहाँ आ पहुँचे हैं।

इस प्रकार हम पाँचों महापापी एक स्थान पर जुट गए हैं। हम सब के सब दु:खों से घिरे हुए हैं। अनेकों तीर्थों में घूम आए मगर हमारा घोर पातक नहीं मिटता। आपको तेज से उद्दीप्त देखकर हम लोगों का मन प्रसन्न हो गया है। आप जैसे साधु पुरुष के पुण्यमय दर्शन से हमारे पातकों के अन्त होने की सूचना मिल रही है। स्वामिन् ! कोई ऎसा उपाय बताइए, जिससे हम लोगों के पापों का नाश हो जाए। प्रभो ! आप वेदार्थ के ज्ञाता और परम दयालु जान पड़ते हैं, आपसे हमें अपने उद्धार की बड़ी आशा है।

मुनिशर्मा ने कहा – तुम लोगों ने अज्ञानवश पाप किया, किन्तु इसके लिए तुम्हारे हृदय में अनुताप है तथा तुम सब के सब सत्य बोल रहे हो, इस कारण तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करना मेरा कर्तव्य है। मैं अपनी भुजा उठाकर कहता हूँ, मेरी सत्य बातें सुनो। पूर्वकाल में जब मुनियों का समुदाय एकत्रित हुआ था, उस समय मैंने महर्षि अंगिरा के मुख से जो कुछ सुना था वही वेद शास्त्रों में भी देखा। वह सबके लिए विश्वास करने योग्य है। मेरी आराधना से संतुष्ट हुए स्वयं भगवान विष्णु ने भी पहले ऎसी ही बात बताई थी, वह इस प्रकार है।

भोजन से बढ़कर दूसरा कोई तृप्ति का साधन नहीं है। पिता से बढ़कर कोई गुरु नहीं है। ब्राह्मणों से उत्तम दूसरा कोई पात्र नहीं है तथा भगवान विष्णु से श्रेष्ठ दूसरा कोई देवता नहीं है। गंगा की समानता करने वाला कोई तीर्थ, गोदान की तुलना करने वाला कोई दान, गायत्री के समान जप, एकादशी के तुल्य व्रत, भार्या के सदृश मित्र, दया के समान धर्म तथा स्वतंत्रता के समान सुख नहीं है। गार्हस्थ्य से बढ़कर आश्रम और सत्य से बढ़कर सदाचार नहीं है। इसी प्रकार संतोष के समान सुख तथा वैशाख माह के समान महान् पापों का अपहरण करने वाला दूसरा कोई मास नहीं है।

वैशाख मास भगवान मधुसूदन को बहुत ही प्रिय है। गंगा आदि तीर्थों में तो वैशाख स्नान का सुयोग अत्यन्त दुर्लभ है। उस समय गंगा, जमुना तथा नर्मदा की प्राप्ति कठिन होती है। जो शुद्ध हृदय वाला मनुष्य भगवान के भजन में तत्पर हो पूरे वैशाख भर प्रात:काल गंगा स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है। इसलिए पुण्य के सारभूत इस वैशाख मास में तुम सभी पातकी मेरे साथ नर्मदा तट पर चलो और उसमें गोते लगाओ। नर्मदा के जल का मुनि लोग भी सेवन करते हैं, वह समस्त पापों के भय का नाश करने वाला है। मुनि के यों कहने पर वे सब पापी उनके साथ अद्भुत पुण्य प्रदान करने वाली नर्मदा की प्रशंसा करते हुए उसके तट पर गए।

किनारे पहुँचकर ब्राह्मण श्रेष्ठ मुनिशर्मा का चित्त परसन्न हो गया। उन्होंने वेदोक्त विधि के अनुसार नर्मदा के जल में प्रात: स्नान किया। उपर्युक्त पाँचों पापियों ने भी ब्राह्मण के कहने से ज्यों ही नर्मदा में डुबकी लगाई त्यों ही उनके शरीर का रंग बदल गया। वे तत्काल सुवर्ण के समान कान्तिमान हो गए फिर मुनिशर्मा ने सब लोगों के सामने उन्हें पाप-प्रशमन नामक स्तोत्र सुनाया।

भूपाल ! अब तुम पाप-प्रशमन नामक स्तोत्र सुनो। इसका भक्तिपूर्वक श्रवण करके भी मनुष्य पाप राशि से मुक्त हो जाता है। इसके चिन्तन मात्र से बहुतेरे पापी शुद्ध हो चुके हैं। इसके सिवा और भी बहुत-से मनुष्य इस स्तोत्र का सहारा लेकर अज्ञानजनित पाप से मुक्त हो गए हैं। जब मनुष्यों का चित्त परायी स्त्री, पराए धन तथा जीव-हिंसा आदि की ओर जाए तो इस प्रायश्चित्तरुपा स्तुति की शरण लेनी चाहिए, यह स्तुति इस प्रकार है –

 

विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नम:।

नमामि विष्णुं चित्तस्थमहंकारगतं हरिम्।।

चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम्।

विष्णुमीड्यमशेषाणामनादिनिधनं हरिम्।।

अर्थ – संपूर्ण विश्व में व्यापक भगवान श्रीविष्णु को सर्वदा नमस्कार है। विष्णु को बारम्बार प्रणाम है। मैं अपने चित्त में विराजमान विष्णु को नमस्कार करता हूँ। अपने अहंकार में व्याप्त श्रीहरि को मस्तक झुकाता हूँ। श्रीविष्णु चित्त में विराजमान ईश्वर (मन और इन्द्रियों के शासक), अव्यक्त, अनन्त, अपराजित, सबके द्वारा स्तवन करने योग्य तथा आदि-अन्त से रहित है, ऎसे श्रीहरि को मैं नित्य-निरन्तर प्रणाम करता हूँ।

 

विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत्।

योsहंकारगतो विष्णुर्यो विष्णुर्मयि संस्थित:।।

करोति कर्तृभूतोsसौ स्थावरस्य चरस्य च।

तत्पापं नाशमायाति तस्मिन् विष्णौ विचिन्तिते।।

अर्थ – जो विष्णु मेरे चित्त में विराजमान हैं, जो विष्णु मेरी बुद्धि में स्थित हैं, जो विष्णु मेरे अहंकार में व्याप्त हैं तथा जो विष्णु सदा मेरे स्वरुप में स्थित हैं, वे ही कर्ता होकर सब कुछ करते हैं। उन विष्णु भगवान का चिन्तन करने पर चराचर प्राणियों का सारा पाप नष्ट हो जाता है।

 

ध्यातो हरति य: पापं स्वप्ने दृष्टश्च पापिनाम्।

तमुपेन्द्रमहं विष्णुं नमामि प्रणतप्रियम्।।

अर्थ – जो ध्यान करने और स्वप्न में दिख जाने पर भी पापियों के पाप हर लेते हैं तथा चरणों में पड़े हुए शरणागत भक्त जिन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, उन वामनरूपधारी भगवान श्रीविष्णु को नमस्कार करता/करती हूँ।

 

जगत्यस्मिन्निरालम्बे ह्यजमक्षरमव्ययम्।

हस्तावलम्बनं स्तोत्रं विष्णुं वन्दे सनातनम्।।

अर्थ – जो अजन्मा, अक्षर और अविनाशी हैं तथा इस अवलम्बशून्य संसार में हाथ का सहारा देने वाले हैं, स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति की जाती है, उन सनातन श्रीविष्णु को मैं सदा प्रणाम करता/करती हूँ।

 

सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज।

हृ्षीकेश हृ्षीकेश हृ्षीकेश नमोsस्तु ते।।

अर्थ – हे सर्वेश्वर ! हे ईश्वर ! हे व्यापक परमात्मन् ! हे अधोक्षज ! हे इन्द्रियों का शासन करने वाले अन्तर्यामी हृषीकेश ! आपको बारम्बार नमस्कार है।

 

नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव।

दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाशु जनार्दन।।

अर्थ – हे नृसिंह ! हे अनन्त ! हे गोविन्द ! हे भूतभावन ! हे केशव ! हे जनार्दन ! मेरे दुर्वचन, दुष्कर्म और दुश्चिन्तन को शीघ्र नष्ट कीजिए।

 

यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना।

आकर्णय महाबाहो तच्छमं नय केशव।।

अर्थ – महाबाहो ! मेरी प्रार्थना सुनिए – अपने चित्त के वश में होकर मैंने जो कुछ बुरा चिन्तन किया हो, उसको शान्त कर दीजिए।

 

ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण।

जगन्नाथ जगद्धात: पापं शमय मेsच्युत।।

अर्थ – ब्राह्मणों का हित साधन करने वाले देवता गोविन्द ! परमार्थ में तत्पर रहने वाले जगन्नाथ ! जगत को धारण करने वाले अच्युत ! मेरे पापों का नाश कीजिए।

 

यच्चापराह्णे सायाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि।

कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता।।

जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।

नामत्रयोच्चारणत: सर्वं यातु मम क्षयम्।।

अर्थ – मैंने पूर्वाह्न, सायाह्न, मध्याह्न तथा रात्रि के समय शरीर, मन और वाणी के द्वारा, जानकर या अनजान में जो कुछ पाप किया हो, वह सब “हृषीकेश, पुण्डरीकाक्ष और माधव” – इन तीन नामों के उच्चारण से नष्ट हो जाए।

 

शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष मानसम्।

पापं प्रशममायातु वाक्कृतं मम माधव।।

अर्थ – हृषीकेश ! आपके नामोच्चारण से मेरा शारीरिक पाप नष्ट हो जाए, पुण्डरीकाक्ष ! आपके स्मरण से मेरा मानस पाप शान्त हो जाए तथा माधव ! आपके नाम-कीर्तन से मेरे वाचिक पाप का नाश हो जाए।

 

यद् भुज्जान: पिबंस्तिष्ठन् स्वपण्जाग्रद् यदा स्थित:।

अकार्षं पापमर्थार्थं कायेन मनसा गिरा।।

महदल्पं च यत्पापं दुर्योनिनरकावहम्।

तत्सर्वं विलयं यातु वासुदेवस्य कीर्तनात् ।।

अर्थ – मैंने खाते, पीते, खड़े होते, सोते, जागते तथा ठहरते समय मन, वाणी और शरीर से, स्वार्थ या धन के लिए जो कुत्सित योनियों और नरकों की प्राप्ति कराने वाला महान या थोड़ा पाप किया है, वह सब भगवान वासुदेव का नामोच्चारण करने से नष्ट हो जाए।

 

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।

अस्मिन् संकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु।।

अर्थ – जिसे परब्रह्म, परम धाम और परम पपवित्र कहते हैं, वह तत्त्व भगवान विष्णु ही है, इन श्रीविष्णु भगवान का कीर्तन करने से मेरे जो भी पाप हों, वे नष्ट हो जाएँ।

 

यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शविवर्जितम्।

सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं मे भवत्वलम्।।

अर्थ – जो गन्ध और स्पर्श से रहित हैं, ज्ञानी पुरुष जिसे पाकर पुन: इस संसार में नहीं लौटते, वह श्रीविष्णु का ही परम पद है। वह सब मुझे पूर्णरूप से प्राप्त हो जाए।

 

पापप्रशमनं स्तोत्रं य: पठेच्छृृणुयान्नर:।

शारीरैर्मानसैर्वाचा कृतै: पापै: प्रमुच्यते।।

मुक्त: पापग्रहादिभ्यो याति विष्णो:परं पदम्।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्तोत्रं  सर्वाघनाशनम्।।

प्रायश्चित्तमघौघानां पठितव्यं नरोत्तमै: (अध्याय 88, श्लोक 72 से 91 तक)

अर्थ – यह “पाप-प्रशमन” नामक स्तोत्र है. जो मनुष्य इसे पढ़ता और सुनता है वह शरीर, मन और वाणी द्वारा किए हुए पापों से मुक्त हो जाता है. इतना ही नहीं वह पाप ग्रह आदि के भय से भी मुक्त होकर विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है. यह स्तोत्र सब पापों का नाश करने वाला तथा पाप राशि का प्रायश्चित है. इसलिए श्रेष्ठ मनुष्यों को पूर्ण प्रयत्न कर के इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए.

राजन् ! इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से पूर्वजन्म तथा इस जन्म के किये हुए पाप भी तत्काल नष्ट हो जाते हैं। यह स्तोत्र पापरूपी वृक्ष के लिए कुठार और पापमय ईंधन के लिए दावानल है। पापराशिरूपी अन्धकार-समूह का नाश करने के लिए यह स्तोत्र सूर्य के समान है। मैंने सम्पूर्ण जगत पर अनुग्रह करने के लिए इसे तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है। इसके पुण्यमय माहात्म्य का वर्णन करने में स्वयं श्रीहरि भी समर्थ नहीं हैं