रविवार, 1 दिसंबर 2019

जननी जनक वंधु सुत दारा ********************

💥💥जय श्री सीताराम जी 💥💥
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         जननी जनक वंधु सुत दारा
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भक्ति जैसो नात नहीं, भरत जैसो भ्रात नहीं।
सीय सी न मातु, तीन लोक काहू ठौर है।
लछिमन सो नेम नहीं, शबरी सो प्रेम नहीं।
हनुमत सी न सेवा, जो साधु सिर मौर है।
भारत सो देश नहीं, राम सो 'राजेश, नहीं।
वेद सो संदेश नहीं, सुग्रीव सी न दौर है।
गंग सो न पानी, महादेव सो न दानी।
संत तुलसी की बानी सी, न बानी कहूँ और है।

         श्री तुलसीदास जी महाराज की जय।

जननी  जनक  वंधु  सुत दारा।
तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सबकै    ममता   ताग   बटोरी।
मम पद मनहिं बाँधि वर डोरी।।

          श्री रामचरितमानस की ये पावन पंक्तियां श्री सीताराम जी की कृपा और श्री हनुमान जी की प्रेरणा से कथा प्रसंग का पावन विषय बने हैं, जिसका अर्थ है, माता, पिता, भाई, पुत्र, पत्नी, शरीर, धन, भवन, प्रेमी जन और परिवार, इन सबकी ओर जो हमारे मन की भावना आकर्षित होती है, इन सब भावनाओं को इकठ्ठा करके एक मोटी रस्सी बना ली जाय। सब कै ममता ताग बटोरी -- ममता के तागे इकट्ठे करके और एक ऐसी रस्सी बना लें। जिस रस्सी से भगवान को बांध लें। मम पद मनहिं बाँधि वर डोरी -- मन से मेरे चरणों को बाँध लें, या उन चरणों से बंध जायँ। और  देखो अगर हम संसार में बंधते हैं तो आसक्ति है और भगवान में बंधते हैं तो भक्ति है।

          इसमेें देखा जाय तो पूरे दस हैं। जननी जनक वंधु सुत दारा -- पांच हुए। तन धन भवन मित्र और परिवार -- पांच यह, पूरे दस हैं और मुझे लगता है इन दसों को भगवान से जोड़ दें। अब इस संदर्भ में कुछ निवेदन करूँ। समाज में दो तरह के लोग दिखाई देते हैं। कुछ लोग कहते हैं -- हम तो भैया अपने माता-पिता को ही भगवान मानते हैं। हम और भगवान को जानते ही नहीं। पर दूसरे तरह के लोग कहते हैं कि हम तो भगवान को मानते हैं। माता-पिता से हमें कोई लेना-देना नहीं, और भगवान से ही लेना-देना है, संसार से क्या मतलब? तो जो भगवान को मानते हैं वे माता-पिता को नहीं मानते, और जो माता-पिता को भगवान मानते हैं, वे भगवान को नहीं मानते और दोनों तरह की धारणाओं का समर्थन करने वाले लोग हैं। 

          लेकिन मैं आपसे निवेदन करूँ कि ये दोनों धारणायें अलग-अलग होकर ठीक नहीं हैं। क्यों नहीं हैं? क्योंकि हमारा जब जन्म होता है, तो एक का जन्म नहीं होता, दो का जन्म होता है। एक तो शरीर का जन्म होता है, एक उसका जन्म होता है जो शरीर के भीतर है। शरीर का जन्म, और जो शरीर के भीतर है उसका जन्म। पर हम एक का ही जन्म मानते हैं दूसरे की तरफ ध्यान ही नहीं जाता।

         तो मुझे लगता है कि जब तक शरीर है, तब तक शरीर से शरीर को जन्म देने वाले माता-पिता का पूजन, सेवा करना चाहिए, और जब तक यह शरीर के भीतर जीव है तब तक इसे भगवान को माता-पिता मानकर उनकी भक्ति करनी चाहिए। दोनों बहुत आवश्यक हैं। इसीलिए श्री बिन्दु जी महाराज लिखते हैं --

यहां सब मुझसे कहते हैं तू मेरा है तू मेरा है।
मैं किसका हूं यह झगड़ा तुम मिटा दोगे तो क्या होगा।।

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