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जय संस्कृतवाणी जनकल्याणी
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गुरुवार, 25 जनवरी 2018
*आन्तरजालं सम्बंधितशब्दानि*
शुक्रवार, 5 जनवरी 2018
राजा पृथु
राजा पृथु
डा.अजय दीक्षित
डा.अजय दीक्षित
प्राचीन समय की बात है, विष्णु-भक्त ध्रुव के वंश में अंग नामक राजा हुए। वे बड़े धर्मात्मा और प्रजा-प्रिय थे। वृद्धावस्था में वे राजपाट त्याग कर तपस्या करने वन में चले गए। भृगु आदि मुनियों ने जब देखा कि उनके जाने के बाद पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं बचा है, तब उनहोंने उनके पुत्र वेन का राज्यभिषेक कर दिया। राजा बनते ही वेन अपने बलऔर ऐश्वर्य के मद में चूर हो गया। उसने राज्य में घोषणा करवा दी कि ऋषि मुनि किसी भी प्रकार का यज्ञ और हवन न करें। जो राजाज्ञा का उल्लंघन करेंगे उन्हें दण्डित किया जाएगा। उसके भय से चारों ओर धर्म-कर्म बंद हो गए।
धर्म-संबंधी कार्य में विघ्न उत्पन्न होने पर सभी ऋषि-मुनि एकत्रित होकर राजा वेन के पास गए और उनसे विनम्र स्वर में बोले- ‘‘राजन ! कृपया हमारी बात ध्यानपूर्वक सुनें। इससे आपकी आयु, बल और यश में वृद्धि होगी। राजन ! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का पालन करे तो उसे स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और यदि वह निष्काम भाव से धर्म का पालन करे तो मोक्ष का अधिकारी बनता है। अतः प्रजा का धर्म आप द्वारा नष्ट नहीं होना चाहिए। धर्म नष्ट होने पर राजा नष्ट हो जाता है। राजन ! आपके राज्य में जो यज्ञ और हवन आदि होंगे, उनसे देवता भी प्रसन्न होकर, आपको इच्छित वर प्रदान करेंगे। अतएव आपको यज्ञादि अनुष्ठान बंद करके देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।’’
दुष्ट वेन अहंकार भरे स्वर में बोला—‘‘मुनियों ! तुम बड़े मूर्ख हो। तुमने सारा ज्ञान त्यागकर अधर्म में अपनी बुद्धि लिप्त कर रखी है। तभी तो तुम अपने पालन करने वाले मुझ प्रत्यक्ष ईश्वर को छोड़कर किसी दूसरे ईश्वर की पूजा-अर्चना करना चाहते हो, जो तुम्हारे लिए कल्पित है। जो लोग मूर्खतावश अपने राज-रूपी परमेश्वर का अपमान करते हैं, उन्हें न तो इस लोक में सुख मिलता है और न ही परलोक में। देवगण राजा के शरीर में ही वास करते हैं। इसलिए तुम मेरा ही पूजन करो और मुझे ही यज्ञ का भाग अर्पित करो।’’ अहंकार के कारण वेन की बुद्धि पूर्णतः भ्रष्ट हो गई थी। वह अत्यंत क्रूर, अन्यायी, अधर्मी और कुमार्गी हो गया था। इसलिए ऋषि-मुनियों की विनीत प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया।
उसके पापयुक्त शब्द शुनकर मुनिगण क्रोधित होकर बोले—‘‘वेन ! तू बड़ा अधर्मी और पापी है। यदि तू जीवित रहा तो कुछ ही दिनों में इस सृष्टि को नष्ट कर देगा। जिन भगवान विष्णु की कृपा से तुझे पृथ्वी का राज्य प्राप्त हुआ है, तू उन्हीं परब्रह्म का अपमान कर रहा है। जगत् के कल्याण के लिए तेरा मरना ही उचित है।’’
उसके पापयुक्त शब्द शुनकर मुनिगण क्रोधित होकर बोले—‘‘वेन ! तू बड़ा अधर्मी और पापी है। यदि तू जीवित रहा तो कुछ ही दिनों में इस सृष्टि को नष्ट कर देगा। जिन भगवान विष्णु की कृपा से तुझे पृथ्वी का राज्य प्राप्त हुआ है, तू उन्हीं परब्रह्म का अपमान कर रहा है। जगत् के कल्याण के लिए तेरा मरना ही उचित है।’’
इस प्रकार उन्होंने दुष्ट वेन को मारने का निश्चय कर उस पर प्रहार करने आरम्भ कर दिए। फिर शीघ्र ही उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया और अपने आश्रमों को लौट गए। इधर वेन की माता मोहवश अपने पुत्र के मृत शरीर की रक्षा करने लगी। वेन की मृत्यु के पश्चात् राज्य में चोरो-डाकुओं का अतंक बढ़ गया।
एक दिन सरस्वती नदी के तट पर कुछ मुनिगण बैठे धर्म-चर्चा कर रहे थे। तभी डाकुओं का एक दल उधर से निकला। उन्हें देखकर मुनिगण सोच में पड़ गए। उनके मन में एक ही विचार उत्पन्न होने लगा-‘‘वेन के मरते ही राज् में अराजकता फैल गई है। राज्य में चोर डाकू बढ़ गए हैं, जो निर्दोष प्रजा को लूट रहे हैं। यद्यपि ऋषि-मुनि शांत स्वभाव के होते हैं, तथापि दीनों की उपेक्षा करने से उनका तप क्षण भर में ही क्षीण हो जाता है। राजा अंग का वंश नष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसमें अनेक पराक्रमी और धर्मात्मा राजा हो चुके हैं। इसलिए हमें उनका उत्तराधिकारी अवश्य उत्पन्न करना होगा, जो अपने पुरुषार्थ से प्रजा की रक्षा कर सके।’
एक दिन सरस्वती नदी के तट पर कुछ मुनिगण बैठे धर्म-चर्चा कर रहे थे। तभी डाकुओं का एक दल उधर से निकला। उन्हें देखकर मुनिगण सोच में पड़ गए। उनके मन में एक ही विचार उत्पन्न होने लगा-‘‘वेन के मरते ही राज् में अराजकता फैल गई है। राज्य में चोर डाकू बढ़ गए हैं, जो निर्दोष प्रजा को लूट रहे हैं। यद्यपि ऋषि-मुनि शांत स्वभाव के होते हैं, तथापि दीनों की उपेक्षा करने से उनका तप क्षण भर में ही क्षीण हो जाता है। राजा अंग का वंश नष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसमें अनेक पराक्रमी और धर्मात्मा राजा हो चुके हैं। इसलिए हमें उनका उत्तराधिकारी अवश्य उत्पन्न करना होगा, जो अपने पुरुषार्थ से प्रजा की रक्षा कर सके।’
तब उन्होंने आपस में विचार कर राज्य के उत्तराधिकारी के लिए वेन की जँघा को बड़े जोर से मथा तो उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका रंग काला था उसके सभी अंग टेढ़े-मेढ़े और छोटे थे। उसने जन्म लेते ही राजा वेन के सभी भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया। बाद में, वह और उसके वंशधर वन और पर्वतों में रहनेवाले ‘निषाद’ कहलाए। इसके बाद मुनियों ने वेन की भुजाओं का मंथन किया। उसमें से दिव्य स्वरूप धारण किए स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। उस पुरुष के दाहिने हाथ में भगवान विष्णु के हस्तरेखाएँ और चरणों में कमल का चिह्न अंकित देखकर उन्होंने उसे भगवान विष्णु का ही अंश समझा।
मुनिगण प्रसन्न होकर बोले—‘‘यह पुरुष भगवान नारायण की कला से प्रकट हुआ है और यह स्त्री साक्षात् लक्ष्मी का अवतार है। यह दिव्य पुरुष अपने सुयश का विस्तार करने के कारण संसार में पृथु के नाम से प्रसिद्ध होगा। सुंदर वस्त्राभूषणों से अलंकृत यह अतीव सुंदर स्त्री इसकी पत्नी अर्चि होगी। पृथु के रूप में स्वयं भगवान विष्णु ने संसार की रक्षा के लिए लक्ष्मीरूपा अर्चि के साथ अवतार लिया है।’’
महात्मा पृथु जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर अपने शुभ-कर्मों द्वारा पापी वेन को नरक से छुड़ा दिया। तत्पश्चात् ऋषियों-मुनियों ने पृथु के राज्यभिषेक का आयोजन किया। इस शुभ अवसर पर समस्त देवगण उपस्थित हुए। भगवान विष्णु ने पृथु को अपना सुदर्शन चक्र, ब्रह्माजी ने वेदमयी कवच, भगवान शिव ने दस चक्रकार चिह्नों वाली दिव्य तलवार, वायुदेव ने दो चँवर, धर्म ने कीर्तिमयी माला, देवराज इन्द्र ने मनोहर मुकुट, यमराज ने कालदण्ड, अग्निदेव ने दिव्य धनुष और कुबेर ने सोने का राजसिंहासन भेट किया।
जब मुनिगण पृथु की स्तुति करने लगे, तब पृथु बोले—‘‘मान्यवरों ! अभी इस लोक में मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ है, फिर आप किन गुणों के लिए मेरी स्तुति करेंगे ? आप केवल परब्रह्म परमात्मा की ही स्तुति करें। भगवान विष्णु के रहते तुच्छ मनुष्यों की स्तुति नहीं करते। इसलिए आप कृपया मेरी स्तुति न करें।’’ उनकी बात सुन सभी ऋषि-मुनि आत्मविभोर हो गए। तब पृथु ने उन्हें अभिलषित वस्तुएँ देकर संतुष्ट किया। वे सभी राजा पृथु को आशीर्वाद देने लगे। जब ऋषि-मुनियों ने पृथु का राज्याभिषेक किया, उन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, प्रजाजन के शरीर अन्न के अभाव में दुर्बल हो गए थे। उन्होंने राजा पृथु से सहायता की विनती की।
प्रजाजन की करुण विनती सुनकर पृथु का मन करुणा से द्रवित हो गया। कुछ देर विचार करके उन्हें पृथ्वी के अन्नहीन होने का कारण ज्ञात हो गया। वे जान गए कि पृथ्वी ने सभी प्रकार के अन्न तथा औषधियों को अपने गर्भ में छिपा लिया है। तब उन्होंने क्रोधित होकर धनुष उठाया और पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर बाण चलाने के लिए उद्यत हो गए। उन्हें बाण चढ़ाए देखकर पृथ्वी अपने प्राण बचाने के लिए गाय का रूप रख कर भागने लगी।
पृथ्वी को गाय-रूप में भागते देख क्रोधित पृथु ने उसका पीछा करने लगे। वह प्राण बचाते हुए जिस-जिस स्थान पर जाती, वहीं-वहीं उसे राजा पृथु हाथ में धनुष बाण लिए दिखाई देते।
पृथ्वी को गाय-रूप में भागते देख क्रोधित पृथु ने उसका पीछा करने लगे। वह प्राण बचाते हुए जिस-जिस स्थान पर जाती, वहीं-वहीं उसे राजा पृथु हाथ में धनुष बाण लिए दिखाई देते।
जब उसे कहीं भी शरण नहीं मिली तो वह भयभीत होकर उन्हीं की शरण में आई और बोली—‘‘महाराज ! आप सभी प्राणियों की रक्षा करने को सदा तत्पर रहते हैं, फिर मुझ दीन-हीन और निरपराधिनी को क्यों मारना चाहते हैं ? आप धर्मज्ञ हैं, आप क्या आपका क्षत्रिय धर्म एक स्त्री का वध करने का अनुमति देगा ? स्त्रियाँ कोई अपराध करें तो साधाण जीव भी उन पर हाथ नहीं उठाते, फिर आप जैसे करुणामय और दीन-वत्सल ऐसा कैसे कर सकते हैं ? फिर सोचें की मेरा वध करने के बाद आप अपनी प्रजा को कहाँ रखेंगे ?’’
तब पृथु बोले—‘‘पृथ्वी ! तुमने यज्ञों का भाग लेकर भी प्रजा को अन्न नहीं दिया, इसलिए आज मैं तुम्हें समाप्त कर दूँगा। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुमने ब्रह्मा जी द्वारा उतपन्न किए गए अन्नादि बीजों को अपने गर्भ में छिपा लिया है और उन्हें न निकाल कर अनेक जीवों की हत्या कर रही हो। जो केवल अपना पोषण करने वाला तथा अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो—उसका वध शास्त्रों में तर्कसंगत है। अब मैं तुम्हारे गर्भ को अपने बाणों से छिन्न-भिन्न कर दूँगा और प्रजाजन की क्षुधा शांत कर योगबल से उन्हें धारण करूँगा।’’
तब पृथु बोले—‘‘पृथ्वी ! तुमने यज्ञों का भाग लेकर भी प्रजा को अन्न नहीं दिया, इसलिए आज मैं तुम्हें समाप्त कर दूँगा। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुमने ब्रह्मा जी द्वारा उतपन्न किए गए अन्नादि बीजों को अपने गर्भ में छिपा लिया है और उन्हें न निकाल कर अनेक जीवों की हत्या कर रही हो। जो केवल अपना पोषण करने वाला तथा अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो—उसका वध शास्त्रों में तर्कसंगत है। अब मैं तुम्हारे गर्भ को अपने बाणों से छिन्न-भिन्न कर दूँगा और प्रजाजन की क्षुधा शांत कर योगबल से उन्हें धारण करूँगा।’’
क्रोध की तीव्रता से राजा पृथु उस समय साक्षात् काल के समान दिखाई पड़ रहे थे। उनके भयंकर रूप को देखकर पृथ्वी करुण स्वर में उनकी स्तुति करती हुई बोली—‘‘राजन ! ब्रह्माजी ने जिस अन्नादि को उत्पन्न किया था, उसे केवल दुराचारी मनुष्य ही खा रहे थे। अनेक राजाओं ने मेरा आदर करना छोड़ दिया था, इसलिए मैंने अन्न को अपने गर्भ में छिपा लिया। यदि आप वह अन्न प्राप्त करना चाहते हैं तो मेरे योग्य एक बछड़ा, दोहन पात्र और दुहनेवाले की व्यवस्था कीजिए। मैं दूध के रूप में आपको वे पदार्थ प्रदान कर दूँगी। एक बात और राजन ! आप मुझे समतल कर दें। जिससे कि मेरे ऊपर इन्द्र द्वारा बरसाया गया जल वर्ष भर बना रहे। यह आप सभी के लिए मंगलकारक होग।’’तब पृथु ने स्वयंभू मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथों से ही पृथ्वी का सारा दुग्ध दुह लिया। फिर उन्होंने अपने धनुष की नोक से पर्वतों को तोड़कर पृथ्वी को समतल कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने पृथ्वी को अपनी पुत्री रूप में स्वीकार किया। दैत्य मधु-कैटभ के मेद से निर्मित होने के कारण पृथ्वी को पहले मोदिनी कहा जाता था, किंतु राजा पृथु की पुत्री बनने के बाद यह पृथ्वी नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार राजा पृथु ने पृथ्वी का मनोरथ सिद्ध करते हुए अपनी प्रजा की रक्षा की।
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