शुक्रवार, 31 मार्च 2017

💠💠बनबास काल में महाराज युधिष्ठिर को श्री कृष्ण ने दी राम नाम की दीक्षा💠💠

बनबास काल में महाराज युधिष्ठिर को श्री कृष्ण ने दी राम नाम की दीक्षा💠💠💠💠💠💠💠💠💠

🌼🌼जय श्री सीताराम जी 🌼🌼

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           एक भविष्य कथा

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         अब  एक भूत-समन्वित भविष्य की कथा सुनिए। जब युधिष्ठुर अपनी माता और भाइयों को साथ लिए वनवास कर रहे थे, तब उन्हें देखने के लिए श्री कृष्ण जी वन में गये । वहाँ पाण्डवों ने बड़े प्रेम से श्री कृष्ण जी की पूजा की और युधिष्ठर ने कहा -- हे जगन्नाथ ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं आपसे कुछ पूछता हूँ ।

         हे देवेश ! यह तो आपको ज्ञात ही है कि मैं राज्यभ्रष्ट हूँ । इससे आप मुझे ऐसा कोई व्रत बतलाइये जो लक्ष्मी की प्राप्तिकारक हो और पुत्र-पौत्र को बढ़ाने वाला हो।

         श्री कृष्ण जी बोले -- हे राजन ! तुम इस बात को पूछते हो तो सुनो, मैं गुप्त से भी गुप्त व्रत को तुम्हें बतलाता हूँ ।राम नाम से बढ़कर मोक्षदायक  और लक्ष्मी-वर्धक कोई व्रत नहीं है।यह राम नाम तेजोरूप और अव्यक्त है । राम नाम को जपने वाला राम का ही रूप हो जाता है । इसे स्वयं राम ने ही हनुमान जी से कहा था।

         युधिष्ठर बोले -- हे रुक्मिणीपते ! इस बात को श्री रामचंद्र जी ने हनुमान जी से कब कहा था? 

         श्री कृष्ण जी बोले --रामावतार में जब रावण सीता को हर ले गया था, तब रामचंद्र जी ने हनुमान को बुलाकर कहा कि, हे महावीर ! तुम सीता को खोजने के लिए दक्षिण दिशा में भ्रमण करने जाओ और जैसा समाचार हो, शीघ्र दो।

           श्री हनुमान जी बोले -- हे रघुनाथ! दक्षिण दिशा में तो विशाल सागर है और बहुत से राक्षस रहते हैं, वहाँ मेरा क्या बल लगेगा? 

            श्री रामचंद्र जी बोले -- हे हनुमान ! रावण आदि राक्षसों का निवारण करने वाला वह अत्यंत सरल मन्त्र मैं तुम्हें बतलाता हूँ, जिसकी सहायता से तुम सर्वत्र विजयी होओगे।

          हनुमान जी बोले -- हे प्रभो ! अवश्य ही आप हमें उस मन्त्र को पूर्णतया बतलाइये।

          हनुमान के इस प्रकार प्रार्थना करने पर राम ने उन्हें एकांत में बुलाया।फिर उनके दाहिने कान में "श्री राम " इस नाम का उपदेश दिया । हनुमान ने उस नाम को एक लाख बार जपा और तब वे दक्षिण दिशा को प्रस्थित हुए ।उसी मन्त्र के प्रभाव से वे दुर्गम सागर को पार कर लंका में जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने बड़ी खोज की।इतने पर भी सीता का पता न लगा।तब वे अशोक वाटिका में गये, जहाँ सीता एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई थीं ।उन्होंने शीघ्रता से समीप जाकर प्रणाम किया ।फिर दण्ड के समान पृथ्वी पर पड़ गये।उस समय उन्होंने बालक का रूप धारण कर रखा था ।उन्हें भूमि पर पड़े देखकर सीता ने कहा -- हे बालक! तुम कहाँ से आये हो? किसके बालक हो? 

         हनुमान बोले -- मेरी माता सीता और पिता श्री रामचंद्र जी हैं ।मैं उन्हीं के समीप से आया हूँ । मेरा नाम हनुमान है । इस मुद्रिका को आप लीजिए ।उसे देखकर सीता को यह ज्ञात हुआ कि यह अँगूठी श्री रामचंद्र जी की है तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई ।हनुमान ने कहा -- माता! मुझे बड़ी भूख लगी है, इस वन में बड़े मधुर फल लगे हैं ।यदि आप की आज्ञा हो, तो मैं इन सब का भक्षण कर जाऊँ ।

         सीता बोली  -- हे हनुमान ! इस वन का अधिपति रावण है ।तुम ऐसे शक्तिशाली तो नहीं हो।फिर कैसे इन फलों को भक्षण कर सकोगे? 

          हनुमान बोले -- मेरे हृदयान्तर में 'श्रीराम' का प्रबल शस्त्र है।उससे मैं सब राक्षसों को तृण के समान जानता हूँ । तब उनकी इस उक्ति को सुनकर सीता जी ने आज्ञा दे दी।हनुमान ने फल खाये, वृक्षों को नष्ट किया ।समाचार सुनकर बहुत से राक्षस वहाँ आ पहुँचे।हनुमान ने उन्हें सबसे भीषण युद्ध किया ।हनुमान ने श्री राम मन्त्र के प्रभाव से उनके बल का दलन कर लंका को जला दिया ।सीता जी ने श्री रामचंद्र जी को देने के लिए एक आभूषण दिया ।उसे लेकर हनुमान श्री रामचंद्र जी के पास लौट आये।उस अलंकार को लेकर और हनुमान की बातें सुनकर रामचंद्र जी बहुत प्रसन्न हुए ।

         हे महाराज युधिष्ठर ! यह सब राम नाम की महिमा है । इसलिए हे राजेन्द्र ! तुम राम का नाम जपा करो।

         युधिष्ठुर बोले -- इसके जप की क्या विधि है और इसके पुरश्चरण का क्या फल है? 

          श्री कृष्ण जी बोले -- हे राजेन्द्र ! स्नान करके तुलसी की माला लेकर पवित्र स्थान में जप करे, अथवा किसी पुस्तक पर लिखे अथवा हृदय में स्मरण करे। एक करोड़ अथवा एक लाख की संख्या में उसकी परिसमाप्ति करे।अनेक मन्त्र और विधियाँ हैं ।हे युधिष्ठर! उनमें से एक उत्तम मन्त्र मैं तुमसे कहता हूँ ।पहले 'श्री' शब्द, मध्य में 'जय' शब्द और अन्त में दो 'जय' शब्द को प्रयुक्त कर एक मन्त्र हुआ ।यथा - श्री राम जय राम जय जय राम ।यदि इस मन्त्र को इक्कीस बार जपा जावे तो करोड़ों ब्रह्महत्या का पाप नष्ट हो जाता है । बुद्धिमान को उचित है कि वह इसी मन्त्र से एक लाख जप करे।पश्चात सविधि उद्यापन करे।जप की अपेक्षा राम नाम लिखने में सौ गुना अधिक पुण्य है ।इस प्रकार प्रत्येक लाख मन्त्र जप लेने पर उद्यापन का पृथक कार्य करे।

      डा.अजय दीक्षित

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शुक्रवार, 24 मार्च 2017

🔯 आखिर कैकई ने राम को क्यों दिया वनवास - जानिए कैकई के त्याग की कहानी🔯

आखिर ! क्या कैकेई कलंकित है
                                              डा.अजय दीक्षित 

एक बार युद्ध में राजा दशरथ का मुकाबला बाली से हो गया.
राजा दशरथ की तीनों रानियों में से कैकयी अस्त्र-शस्त्र और रथ
चालन में पारंगत थीं. इसलिए कई बार युद्ध में वह दशरथ जी के साथ
होती थीं.
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जब बाली और राजा दशरथ की भिडंत हुई उस समय भी संयोग वश
कैकई साथ ही थीं. बाली को तो वरदान था कि जिस पर उसकी
दृष्टि पड़ जाए उसका आधा बल उसे प्राप्त हो जाता था.
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स्वाभाविक है कि दशरथ परास्त हो गए. बाली ने दशरथ के सामने
शर्त रखी कि पराजय के मोल स्वरूप या तो अपनी रानी कैकेयी
छोङ जाओ या फिर रघुकुल की शान अपना मुकुट छोङ जाओ.
दशरथ जी ने मुकुट बाली के पास रख छोङा और कैकेयी को लेकर
चले गए.
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कैकेयी कुशल योद्धा थीं. किसी भी वीर योद्धा को यह कैसे
सुहाता कि राजा को अपना मुकुट छोड़कर आना पड़े. कैकेयी को
बहुत दुख था कि रघुकुल का मुकुट उनके बदले रख छोड़ा गया है.
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वह राज मुकुट की वापसी की चिंता में रहतीं थीं. जब श्री राम
जी के राजतिलक का समय आया तब दशरथ जी व कैकयी को मुकुट
को लेकर चर्चा हुई. यह बात तो केवल यही दोनों जानते थे.
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कैकेयी ने रघुकुल की आन को वापस लाने के लिए श्री राम के
वनवास का कलंक अपने ऊपर ले लिया और श्री राम को वन
भिजवाया. उन्होंने श्री राम से कहा भी था कि बाली से मुकुट
वापस लेकर आना है.
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श्री राम जी ने जब बाली को मारकर गिरा दिया. उसके बाद
उनका बाली के साथ संवाद होने लगा. प्रभु ने अपना परिचय देकर
बाली से अपने कुल के शान मुकुट के बारे में पूछा था.
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तब बाली ने बताया- रावण को मैंने बंदी बनाया था. जब वह
भागा तो साथ में छल से वह मुकुट भी लेकर भाग गया. प्रभु मेरे पुत्र
को सेवा में ले लें. वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर आपका मुकुट
लेकर आएगा.
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जब अंगद श्री राम जी के दूत बनकर रावण की सभा में गए. वहां
उन्होंने सभा में अपने पैर जमा दिए और उपस्थित वीरों को अपना
पैर हिलाकर दिखाने की चुनौती दे दी.
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अंगद की चुनौती के बाद एक-एक करके सभी वीरों ने प्यास किए
परंतु असफल रहे. अंत में रावण अंगद के पैर डिगाने के लिए आया. जैसे
ही वह अंगद का पैर हिलाने के लिए झुका, उसका मुकुट गिर गया.
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अंगद वह मुकुट लेकर चले आए. ऐसा प्रताप था रघुकुल के राज मुकुट
का. राजा दशरथ ने गंवाया तो उन्हें पीड़ा झेलनी पड़ी, प्राण भी
गए. बाली के पास से रावण लेकर भागा तो उसके भी प्राण गए.
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रावण से अंगद वापस लेकर आए तो रावण को भी काल का मुंह
देखना पङा परंतु कैकेयी जी के कारण रघुकुल की आन बची. यदि
कैकेयी श्री राम को वनवास न भेजतीं तो रघुकुल का सौभाग्य
वापस न लौटता.
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कैकेयी ने कुल के हित में कितना बड़ा कार्य किया और सारे अपयश
तथा अपमान को झेला. इसलिए श्री राम माता कैकेयी को
सर्वाधिक प्रेम करते थे.
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भगवान राम ने कैसे मांगा कैकेई से बनबास 
कैकेई ने कहा:------
है एक दिन की बात मैं छत पे घमा रही थी।
भीगे हुए थे बाल मैं उनको सुखा रही थी।।
पीछे से मेरी आंखें किसी ने बंद कर लिया।
आंखों का पलभर में सब आनंद लें लिया ।।
मैने कहा आंखों से मेरे हाथ हटाओ ।
उसने कहा पहले मेरा तुम नाम बताओ ।।
मैंने कहा लखन मुझे न आज सताओ ।
मैंने कहा भरत हमारे पास तो आओ ।।
उसने कहा भरत नही हूं नाम बताओ ।
मैंने कहा सत्रुघन ना मुझको सताओ ।।
उसने कहा सत्रुघन नही हूं नाम बताओ।
जो हाथ हटाओगे तो तुम्हे दान मिलेगा ।।
मुंह मांगा आज तुमको बरदान मिलेगा ।।
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जो हाथ हटाया तो छवी थी सामने ।
बनबास का बरदान लिया मांग रामने ।।
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गुरुवार, 23 मार्च 2017

💠🔘कविता कोटि कमल💠🔘

                                                                      
                                                                      ओ कल्पव्रक्ष की सोनजुही!
ओ अमलताश की अमलकली!
धरती के आतप से जलते...
मन पर छाई निर्मल बदली...
मैं तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

तुम कल्पव्रक्ष का फूल और
मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य
मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधूरी गजल शुभे
तुम शाम गान सी पावन हो
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी
बिजुरी सी तुम मनभावन हो.
इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

तुम जिस शय्या पर शयन करो
वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आँगन की हो मौलश्री
वह आँगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ
वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो
वह व्यक्ति नहीं वंशीवट हो
पर मैं वट जैसा सघन छाँह विस्तार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

मै तुमको चाँद सितारों का
सौंपू उपहार भला कैसे
मैं यायावर बंजारा साधू
सुर श्रृंगार भला कैसे
मैन जीवन के प्रश्नों से नाता तोड तुम्हारे साथ शुभे
बारूद बिछी धरती पर कर लूँ
दो पल प्यार भला कैसे
इसलिये विवश हर आँसू को सत्कार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||

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(भूदत्ताचार्य दयानतपुर)
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डा.अजय दीक्षित
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            🔘🔘श्रृष्टि के तीन मंथन🔘🔘
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     🔘कविकुल शिरोमणि डा.अजय दीक्षित🔘
              💠💠💠 "अजय" 💠💠💠
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                              🔺२🔺

  लीलाधारी लीला करते लीला ललित ललाम ।
लीला का कोई भेद ना पाये लीला करें सुखधाम ।।
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बनी नाग की रस्सी गिरि की मथानी है।
मंथन हुआ सागर का कहें ज्ञानी ध्यानी हैं।
पायो रे पायो रे रतन चौदह पायो
आज मन हरषायो ।
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१-तन का मंथन निमि का हुआ है कथा है धरम करम की।
बनी मथानी है सोने की रस्सी हैरेशम की।
कथाहै सत्य मरम की। 
अद्भुत है दृश्य प्यारा बेदों की बानी है -- 
मंथन हुआ है तनका -- कहे ज्ञानी-ध्यानी है ।
पायो रे पायो रे ललन 14 पायो ।
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२--क्षीर सरोवर का किया मंथन कला है श्री किशन की।
 बनी मथानी काठ की अनुपम -- रस्सी है सुनो सन की।
 कथा है मेरे चमन की। 
अद्भुत है आर्यावर्त जिस का न सानी है ।
 मंथन सरोवर का -- कहे ज्ञानी-ध्यानी है ।
 पायो रे पायो रे सजन 14 पायो ।
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३--ऐसा मंथन हुआ न चौथा वेद व्यास की बानी।
 भारत भूमि है अति पावन कथा है परम सुहानी ।
जहां जन्मे ज्ञानी-ध्यानी ।

 गंगा जमुना की धारा -- पावन संगम न्यारा-- मथुरा अयोध्या 'अजय' -- जगन्नाथ का द्वारा पायो रे पायो रे भुवन 14 पायो । 
बनी नाग की रस्सी गिरि की मथानी है।
मंथन हुआ सागर का कहें ज्ञानी ध्यानी हैं।
पायो रे पायो रे रतन चौदह पायो
आज मन हरषायो ।
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सीता की निंदा करने वाले धोबी के पूर्व जन्म का वृतांत

सीता की निंदा करने वाले धोबी के पूर्व जन्म का वृतांत   

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मिथिला नाम की नगरी में महाराज जनक राज्य करते थे। उनका नाम था सीरध्वज। एक बार वे यज्ञ के लिए पृथ्वी जोत रहे थे उस समय फल से बनी गहरी रेखा द्वारा एक कुमारी कन्या का प्रादुर्भाव हुआ। रति से भी सुंदर कन्या को देख कर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उस कन्या का नाम सीता रख दिया ।
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खियों के साथ सीता उद्यान में खेल रहीं थीं। वहाँ उन्हें एक शुक पक्षी का जोड़ा दिखाई दिया,जो बड़ा मनोरम था। वे दोनों पक्षी एक पर्वत की चोटी पर बैठ कर इस प्रकार बोल रहे थे —-‘पृथ्वी पर श्री राम नाम से विख्यात एक बड़े सुंदर राजा होंगे। उनकी महारानी, सीता के नाम से विख्यात होंगी। 
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श्री राम, सीता के साथ ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करेंगे। धन्य हैं वे जानकी देवी और धन्य हैं वे श्री राम।
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तोते को ऐसी बातें करते देख सीता ने यह सोचा कि ये दोनों मेरे ही जीवन की कथा कह रहे हैं, इन्हें पकड़ कर सभी बातें पूछूँ।ऐसा विचार कर उन्होंने अपनी सखियों से कहा, ‘यह पक्षियों का जोड़ा सुंदर है तुम लोग चुपके से जाकर इसे पकड़ लाओ।’
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सखियाँ उस पर्वत पर गयीं और दोनों सुंदर पक्षियों को पकड़ लायीं।
सीता उन पक्षियों से बोलीं—‘तुम दोनों बड़े सुंदर हो; देखो, डरना नहीं। बताओ, तुम कौन हो और कहाँ से आये हो? राम कौन हैं? और सीता कौन हैं? तुम्हें उनकी जानकारी कैसे हुई? सारी बातों को जल्दी जल्दी बताओ। भय न करो।
सीता के इस प्रकार पूछने पर दोनों पक्षी सब बातें बताने लगे —–‘देवि ! वाल्मीकि नाम से विख्यात एक बहुत बड़े महर्षि हैं। हम दोनों उन्हीं के आश्रम में रहते हैं। महर्षि ने रामायण नाम का एक ग्रन्थ बनाया है जो सदा मन को प्रिय जान पड़ता है। उन्होंने शिष्यों को उस रामायण का अध्ययन भी कराया है। रामायण का कलेवर बहुत बड़ा है। हम लोगों ने उसे पूरा सुना है ।,
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राम और जानकी कौन हैं, इस बात को हम बताते हैं तथा इसकी भी सूचना देते हैं कि जानकी के विषय में क्या क्या बातें होने वाली हैं; तुम ध्यान देकर सुनो।
‘महर्षि ऋष्यश्रंग के द्वारा कराये हुए पुत्रेष्टि-यज्ञ के प्रभाव से भगवान विष्णु राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न—ये चार शरीर धारण करके प्रकट होंगे। देवांगनाएँ भी उनकी उत्तम कथा का गान करेंगी।
श्री राम महर्षि विश्वामित्र के साथ भाई लक्ष्मण सहित हाथ में धनुष लिए मिथिला पधारेंगे। उस समय वहाँ वे शिव जी के धनुष को तोड़ेंगे और अत्यन्त मनोहर रूप वाली सीता को अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण करेंगे। फिर उन्हीं के साथ श्री राम अपने विशाल राज्य का पालन करेंगे। ये तथा और भी बहुत सी बातें वहाँ हमारे सुनने में आयी हैं। सुंदरी ! हमने तुम्हें सब कुछ बता दिया। अब हम जाना चाहते हैं, हमें छोड़ दो।
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पक्षियों की ये अत्यंत मधुर बातें सुनकर सीता ने उन्हें मन में धारण किया और पुनः उन दोनों से पूछा —-‘राम कहाँ होंगे? वे किसके पुत्र हैं और कैसे वे आकर जानकी को ग्रहण करेंगे? मनुष्यावतार में उनका श्री विग्रह कैसा होगा?
उनके प्रश्न सुनकर शुकी मन ही मन जान गयी कि ये ही सीता हैं। उन्हें पहचान कर वह सामने आ उनके चरणों पर गिर पड़ी और बोली —- श्री रामचन्द्र का मुख कमल की कली के समान सुंदर होगा। नेत्र बड़े बड़े तथा खिले हुए, नासिका ऊँची, पतली और मनोहारिणी होगी। भुजाएँ घुटनों तक, गला शंख के समान होगा। वक्षःस्थल उत्तम व चौड़ा होगा। उसमें श्रीवत्स का चिन्ह होगा। श्री राम ऐसा ही मनोहर रूप धारण करने वाले हैं। मैं उनका क्या वर्णन कर सकती हूँ। 
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जिसके सौ मुख हैं, वह भी उनके गुणों का बखान नहीं कर सकता। फिर हमारे जैसे पक्षी की क्या बिसात है ।वे जानकी देवी धन्य हैं जो शीघ्र रघुनाथ जी के साथ हजारों वर्षों तक प्रसन्नतापूर्वक विहार करेंगी। परंतु सुंदरी ! तुम कौन हो?
पक्षियों की बातें सुनकर सीता अपने जन्म की चर्चा करती हुई बोलीं—-‘जिसे तुम लोग जानकी कह रहे हो, वह जनक की पुत्री मैं ही हू। श्री राम जब यहाँ आकर मुझे स्वीकार करेंगे, तभी मैं तुम दोनों को छोड़ूँगी। तुम इच्छानुसार खेलते हुए मेरे घर में सुख से रहो।
यह सुनकर शुकी ने जानकी से कहा —-‘साध्वी ! हम वन के पक्षी हैं। हमें तुम्हारे घर में सुख नहीं मिलेगा। मैं गर्भिणी हूँ, अपने स्थान पर जाकर बच्चे पैदा करूँगी। उसके बाद फिर यहाँ आ जाऊँगी।
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उसके ऐसा कहने पर भी सीता ने उसे नहीं छोड़ा। तब उसके पति ने कहा —-‘सीता ! मेरी भार्या को छोड़ दो। यह गर्भिणी है। जब यह बच्चों को जन्म दे लेगी, तब इसे लेकर फिर तुम्हारे पास आ जाऊँगा। तोते के ऐसा कहने पर जानकी ने कहा — महामते ! तुम आराम से जा सकते हो, मगर यह मेरा प्रिय करने वाली है। मैं इसे अपने पास बड़े सुख से रखूँगी ।
जब सीता ने उस शुकी को छोड़ने से मना कर दिया, तब वह पक्षी अत्यंत दुखी हो गया। उसने करुणायुक्त वाणी में कहा —-‘योगी लोग जो बात कहते हैं वह सत्य ही है—-किसी से कुछ न कहे, मौन होकर रहे, नहीं तो उन्मत्त प्राणी अपने वचनरूपी दोष के कारण ही बन्धन में पड़ता है। यदि हम इस पर्वत के ऊपर बैठकर वार्तालाप न करते होते तो हमारे लिए यह बन्धन कैसे प्राप्त होता। इसलिए मौन ही रहना चाहिए ।’ इतना कहकर पक्षी पुनः बोला—– ‘सुन्दरी ! मैं अपनी इस भार्या के विना जीवित नहीं रह सकता, इसलिए इसे छोड़ दो। सीता ! तुम बहुत अच्छी हो, मेरी प्रार्थना मान लो।’ इस तरह उसने बहुत समझाया, किन्तु सीता ने उसकी पत्नी को नहीं छोड़ा, तब उसकी भार्या ने क्रोध और दुख से व्याकुल होकर जानकी को शाप दिया ——- ‘अरी ! जिस प्रकार तू मुझे इस समय अपने पति से अलग कर रही है, वैसे ही तुझे स्वयं भी गर्भिणी की अवस्था में श्री राम से अलग होना पड़ेगा।’
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यों कहकर पति वियोग के कारण उसके प्राण निकल गये। उसने श्री रामचंद्र जी का स्मरण तथा पुनः पुनः राम नाम का उच्चारण करते हुए प्राण त्याग किया था, इसलिए उसे ले जाने के लिए एक सुंदर विमान आया और वह पक्षिणी उस पर बैठकर भगवान के धाम को चली गई।
भार्या की मृत्यु हो जाने पर पक्षी शोक से आतुर होकर बोला —— ‘मैं मनुष्यों से भरी श्री राम की नगरी अयोध्या में जन्म लूँगा तथा मेरे ही वाक्य से इसे पति के वियोग का भारी दुख उठाना पड़ेगा।’
यह कहकर वह चला गया। क्रोध और सीता जी का अपमान करने के कारण उसका धोबी की योनि में जन्म हुआ।
उस धोबी के कथन से ही सीता जी निन्दित हुईं और उन्हें पति से वियुक्त होना पड़ा।धोबी के रूप में उत्पन्न हुए उस तोते का शाप ही सीता का पति से विछोह कराने में कारण हुआ और वे वन में गयीं।

डा.अजय दीक्षित
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बुधवार, 22 मार्च 2017

🔯🔯श्री मुचुकुन्द जी की कथा🔯🔯

श्री मुचुकुन्द जी की कथा
Raja Muchukunda Story : 
                    


महाराज मुचुकुन्द राजा मान्धाता के पुत्र थे। ये पृथ्वी के एक छत्र सम्राट थे। बल और पराक्रम इतना कि देवराज इन्द्र भी इनकी सहायता के इच्छुक रहते थे।
एक बार असुरों ने देवताओं को परास्त कर दिया। दुखी होकर देवताओं ने महाराज मुचुकुन्द से सहायता की प्रार्थना की। देवराज की प्रार्थना स्वीकार करके वे बहुत समय तक असुरों से युद्ध करते रहे। बहुत समय पश्चात देवताओं को शिव जी की कृपा से स्वामी कार्तिकेय के रूप में योग्य सेनापति मिल गये। तब देवराज इन्द्र ने महाराज से कहा –राजन् ! आपने हमारी बड़ी सेवा की। आप हजारों वर्षों से यहाँ हैं। अतः अब आपकी राजधानी का कहीं पता नहीं है। आपके परिवार वाले सब काल के गाल में चले गये। हम आप पर प्रसन्न हैं। मोक्ष को छोड़ आप कुछ भी वर माँग लें; क्योंकि मोक्ष देना हमारी शक्ति से बाहर है।
महाराज को मानवीय बुद्धि ने दबा लिया। उन्होंने कहा – देवराज ! मैं यह वरदान माँगता हूँ कि मैं जी भर सो लूँ, कोई विघ्न न डाले।जो मेरी निद्रा भंग करे, वह तुरंत भस्म हो जाय।
देवराज ने कहा –ऐसा ही होगा, आप पृथ्वी पर जाकर शयन कीजिए। जो आपको जगायेगा, वह तुरंत भस्म हो जायगा। महाराज मुचुकुन्द भारतवर्ष में आकर एक गुफा में सो गये। सोते सोते उन्हें कई युग बीत गये।
द्वापर आ गया, भगवान ने यदुवंश में अवतार लिया। उसी समय कालयवन ने मथुरा को घेर लिया। उसे मरवाने की नियत से और महाराज मुचुकुन्द पर कृपा करने की इच्छा से भगवान श्री कृष्ण कालयवन के सामने से छिपकर भागे। भागते भागते भगवान उस गुफा में घुसकर छिप गये, जहाँ महाराज मुचुकुन्द सो रहे थे। भगवान ने अपना पीताम्बर धीरे से उन्हें ओढ़ा दिया और आप छिपकर तमाशा देखने लगे।
कालयवन गुफा में आया और महाराज को ही भगवान कृष्ण समझकर दुपट्टा खींच कर जगाने लगा। महाराज जल्दी से उठे। सामने कालयवन खड़ा था, दृष्टि पड़ते ही वह जलकर भस्म हो गया ।
अब तो महाराज इधर उधर देखने लगे। भगवान के तेज से गुफा जगमगा रही थी। उन्होंने भगवान श्री कृष्ण को मंद मंद मुस्कराते हुए देखा। देखते ही वे समझ गये कि ये साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं, वे भगवान के चरणों में लोट पोट हो गये।
भगवान ने उन्हें उठाकर छाती से लगाया, भाँति भाँति के वरों का प्रलोभन दिया; परंतु उन्होंने यही कहा -प्रभो ! मुझे देना है तो अपनी भक्ति दीजिए। भगवान ने कहा –अब अगले जन्म में तुम सब जीवों में समान दृष्टि बाले ब्राह्मण होओगे, तब तुम मेरी जी खोलकर उपासना करना। वरदान देकर भगवान अन्तर्धान हो गये।
डा. अजय दीक्षित
Drajaidixit@gmail.com

🔯🔯ऋषि दुर्वासा और कल्पवृक्ष की कथा🔯🔯

ऋषि दुर्वासा और कल्पवृक्ष की कथा
Rishi Durvasa and Kalpavriksha Tree Story : 
                         
एक समय जब श्री रामचंद्र जी का दर्शन करने के लिए अपने साठ हजार शिष्यों सहित दुर्वासा ऋषि अयोध्या को जा रहे थे, तब मार्ग में जाते हुए दुर्वासा ने सोचा कि, मनुष्य का रूप धारण कर यह तो विष्णु जी ही संसार में अवतीर्ण हुए हैं; यह तो मैं जानता हूँ किन्तु संसारी जनों को आज मैं उनका पौरुष दिखलाऊँगा।
अपने मन में ऐसा विचारते हुए वे अयोध्या आए और नगरी में प्रवेश कर सबको साथ लिए भगवान के भवन के आठ चौकों को लाँघकर पहले सीता जी के भवन में पहुँचे। तब शिष्यों सहित दुर्वासा को सीता जी के द्वार पर उपस्थित देख पहरेदारों ने शीघ्रता से दौड़कर श्री रामचंद्र जी को इसकी सूचना दी। यह सुनते ही भगवान राम मुनि दुर्वासा के पास आ पहुँचे और प्रणाम कर सबको बड़े आदर सहित भवन के भीतर लिवा गये तथा बैठने के लिए सुंदर आसन दिया। तब आसन पर बैठते ही दुर्वासा ने मधुर वचनों में श्री रामचंद्र जी से कहा कि, आज एक हजार वर्ष का मेरा उपवास व्रत पूरा हुआ है। इस कारण मेरे शिष्यों सहित मुझे भोजन कराइये और इसके लिए आपको केवल एक मुहूर्त का समय देता हूँ।
साथ ही यह भी ज्ञात रहे कि मेरा यह भोजन जल, धेनु और अग्नि की सहायता से प्रस्तुत न किया जायेगा। केवल एक मुहूर्त में ही मेरी इच्छानुसार वह भोजन जिसमें विविध प्रकार के पकवान प्रस्तुत हों, मुझे प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त यदि तुम अपने गार्हस्थ्य-धर्म की रक्षा चाहो तो शिव पूजन निमित्त मुझे ऐसे पुष्प मँगवा दो कि जैसे पुष्प यहाँ अब तक किसी ने देखे न हों । यदि यह तुम्हारा किया न हो सके, तो मुझसे स्पष्ट कह दो कि, मैं इसमें असमर्थ हूँ । मैं चला जाऊँ।
तब मुनि की इस बात को सुनकर श्री रामचंद्र जी ने मुस्कराते हुए नम्रता से कहा —“भगवान् ! मुझे आपकी यह सब आज्ञा स्वीकार है।” तब राम की बात सुनकर दुर्वासा ने प्रसन्न होकर कहा — मैं सरयू में स्नान करके अभी तुम्हारे पास आता हूँ, शीघ्रता करना। हमारे लिए सब सामग्रियों को प्रस्तुत करने के लिए अपने भाइयों तथा सीता को शीघ्रता के लिए कह देना।
रामचंद्र जी ने कहा —अच्छा, आप जाइये स्नान कर आइये। दुर्वासा जी स्नान करने चले गये । राम चिन्तित हो गये। लक्ष्मण आदि भ्राता, जानकी तथा सब के सब व्याकुल हो राम की ओर निर्निमेष दृष्टि से देखने लगे कि मुनि ने तो इस प्रकार की सब अद्भुत वस्तुएँ माँगी हैं। इसके लिए देखें कि अब भगवान क्या करते हैं? क्योंकि बिना अग्नि, जल और बिना गौ के उनके लिए किस प्रकार से भोजन प्रस्तुत करते हैं। तब रामचंद्र जी ने लक्ष्मण जी से एक पत्र लिखवाया। फिर उस पत्र को अपने बाण में बाँध कर धनुष पर चढ़ाया और छोड़ दिया । वह बाण वायु वेग से उड़कर अमरावती में इन्द्र की सुधर्मा नामक सभा में जाकर उनके सामने गिर पड़ा।
उस बाण को देखकर इन्द्र व्याकुल हो गये कि यह किसका बाण है? फिर उठाकर जो देखा तो उस पर राम का नाम अंकित था। फिर उसमें बँधे पत्र को खोलकर पढ़ा। पत्र खुलते ही वह बाण फिर वहाँ से उड़कर राम के तरकश में आ घुसा। उधर इन्द्र ने उस पत्र को सभा में बैठे हुए सब देवताओं को सुनाया । उसमें लिखा था — इन्द्र ! स्वर्ग में सुखी रहो। मैं सर्वदा तुम्हारा स्मरण करता हूँ; परंतु तुम्हें एक आज्ञा देता हूँ। आज 1000 वर्ष के भूखे हुए दुर्वासा मुनि अपने साठ हजार शिष्यों के साथ मेरे यहाँ आए हैं। वे ऐसा भोजन चाहते हैं, जो गऊ, जल अथवा अग्नि के द्वारा सिद्ध न किया हो। इसके साथ ही उन्होंने शिव पूजन के लिए ऐसे पुष्प माँगे हैं जिन्हें कि अब तक मनुष्यों ने न देखा हो। मैंने उनकी यह माँग स्वीकार कर ली है। वे सरयू में स्नान करने गये हैं। इसलिए तुम शीघ्र ही कल्पवृक्ष और पारिजात जो क्षीरसागर से निकले हैं, क्षणमात्र में मेरे पास भेज दो, इसके लिए रावण के संहारक मेरे बाणों की प्रतीक्षा मत करना। यह पत्र देवताओं को सुनाकर इन्द्रदेव तत्क्षण उठ पड़े और कल्पवृक्ष तथा पारिजात को साथ ले देवताओं सहित विमान में बैठकर अयोध्या में आ पहुँचे।
लक्ष्मण जी ने इन्द्र का स्वागत किया। इन्द्र ने राम के पास पहुँच पारिजात और कल्पवृक्ष को राम को अर्पण किया। इतने ही में सरयू तट से दुर्वासा ने अपने एक शिष्य को राम के पास भेजा कि तुम जाकर देखो कि राम इस समय क्या कर रहे हैं? मैंने जो आज्ञा दी है, उसके अनुसार कुछ अन्न अब तक बना है कि नहीं? अब-तक वैसे ही चिन्तामग्न हैं या कुछ कर रहे हैं? यदि मेरी आज्ञानुसार पकवान प्रस्तुत कर रहे हैं तो अब तक कितनी सामग्री तैयार हुई है? यह सब तुम चुपके से देखकर मेरे पास आओ।तब ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर वह शिष्य राम के भवन में आया। देखा तो कल्पवृक्ष और पारिजात से युक्त देवताओं की मण्डली में राम विराजमान हैं । यह देखकर उस शिष्य ने शीघ्र ही दुर्वासा के पास जाकर वह समाचार कह सुनाया। शिष्य की यह बात सुनकर दुर्वासा को आश्चर्य हुआ। स्नान कर शिष्यों को साथ ले दुर्वासा ऋषि श्री रामचंद्र जी के सुंदर भवन में आ पहुँचे।
दुर्वासा जी को आया देख देवताओं सहित राम ने उठकर उन्हें तथा उनके सब शिष्यों को बड़े आदर के साथ प्रणाम किया और उत्तम आसन पर बिठाकर सीता तथा लक्ष्मण आदि के साथ उनकी पूजा की, फिर जिन पुष्पों को मनुष्यों ने अब-तक नहीं देखा था, शिव पूजन के हेतु पारिजात के उन पुष्पों को राम ने दुर्वासा के समक्ष प्रस्तुत किया। उन पुष्पों को देख मुनि दुर्वासा ने एक बार तो आश्चर्य किया किन्तु मौन भाव से उन्हें ग्रहण कर शिव जी तथा अन्य देवताओं की उन पुष्पों से पूजा की।फिर उसी क्षण श्री रामचंद्र जी ने लक्ष्मण तथा सीता आदि को सब भोजन परोसने की आज्ञा दी।
तब दिव्य अलंकारों से विभूषित सीता ने कल्पवृक्ष और पारिजात की पूजा कर अनेक पात्रों को लाकर उनके नीचे रख दिया और वह प्रार्थना करती हुयी इस प्रकार बोली कि, हे क्षीरसागर से उत्पन्न होने तथा देवताओं के मनोरथों को पूर्ण करने वाले कल्पवृक्ष !  आज शिष्यों सहित हमारे यहाँ आए हुए दुर्वासा को तुम सन्तुष्ट कर दो। तब सीता के इस प्रकार कहते ही कल्पवृक्ष ने पलमात्र में वहाँ रखे हुए करोड़ों पात्रों को अनेक प्रकार की खाद्य सामग्रियों से पूर्ण कर दिया । फिर तो उन सब अन्नों को उर्मिला सहित सीता ने सुवर्ण के पात्रों में रख रख कर दुर्वासा के समक्ष परोस दिया। फिर तो रामचंद्र से निवेदित दुर्वासा ने अपने शिष्यों के साथ बड़े प्रेम से वह सब भोजन किया। फिर हाथ मुँह धो ताम्बूल तथा दक्षिणा ली।
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🔯 नशा छुडाने की 🔯 चमत्कारिक औषधि🎆

चमत्कारी औषधि------------
             
लोग जो अन्जाने में ही किन्हीं व्यसनों से ग्रस्त हो गए हैं उनके लिए अपने वर्षों के श्रम ,शोध एवं अनुभव के आधार पर एक रामबाण तरीका बता रहा हूं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि इसे आप धन कमाने के स्थान पर लोकहित में ही प्रयोग करेंगे । इसका उपयोग किसी एक विशेष नशे की आदत से छुटकारा पाने के लिए नहीं बल्कि कई तरह के नशों की आदत से छुटकारे के लिए मैंने प्रयोग कराया है और सफलता पाई है ।
इससे आप यदि इन नशीले पदार्थों के आदी हैं तो फिर देर किस बात की है बस अपने गुरू या इष्ट का स्मरण करके एक बार मन में यह विचार तो लाइए कि आपको उक्त नशा छोड़ना है फिर शेष काम तो यह चमत्कारी औषधि करेगी और कुछ ही दिनों में आप पाएंगे कि जादू हो रहा है कि जिस पदार्थ की आपको जानलेवा तलब होती थी वह पता नहीं कहां विलीन हो गई है ।
मैंने जिन पदार्थों पर इस श्रेष्ठ औषधि का प्रयोग किया है वे हैं : -
बीड़ी
सिगरेट
चिलम
चबाने वाली तम्बाकू
चाय
काफ़ी
अफ़ीम
अगर मौका लगेगा तो इसे नींद की गोलियां खाने वाले मरीजों के लिए भी अनुभव करूंगा ताकि उनकी इस नामुराद दवा (या जहर) से पीछा छूट जाए ।
पारस पीपल (यह एक बड़ा पेड़ होता है इसके पत्ते अचानक देखने में प्रसिद्ध पेड़ पीपल के पत्तों की तरह होते है तथा भिंडी के फूलों की तरह पीले फूल आते हैं तथा कुछ दिनों में ये फूल गाढ़े गुलाबी होकर मुर्झा जाते हैं ,इस पेड़ को मराठी में "भेंडी " ही कहा जाता है ) के पुराने पेड़ की छाल जो स्वतः ही पेड़ से अलग हो जाती है ,उसको लेकर खूब बारीक पीस कर मैदे की तरह बना लें व शीशी में भर लें । यह बारीक चूर्ण बारह ग्राम लेकर २५० मि.ली. पानी में हलकी आंच पर जैसे चाय बनाते हैं वैसे ही पकाएं और १०० मि.ली. पक कर रह जाने पर छान कर चाय की तरह ही हलका गर्म सा पी लीजिए ।
सुबह शाम नियमित रूप से पंद्रह दिनों तक सेवन कराने से मैंने पाया है कि मादक द्रव्यों की आदत छूट जाती है तथा नफ़रत सी होने लगती है । एकबार व्यसन छूट जाए तो पुनः इन दुर्व्यसनों को प्रयोग नहीं करना चाहिए फिर व्यसन से मुक्त होने के बाद मैं आदी व्यक्ति को दो माह तक बैद्यनाथ कंपनी का "दिमाग दोष हरी" नामक दवा का सेवन कराता हूं ।
अगर आपके क्षेत्र में पारस पीपल नहीं पाया जाता है तो किसी महाराष्ट्र में रहने वाले मित्र से मंगवाने में देर न करिए और लाभान्वित होइए । ईश्वर को धन्यवाद दीजिये कि उसने साधारण सी दिखने वाली चीज़ों में कैसे दिव्य गुण भर रखे हैं.......!!
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रविवार, 19 मार्च 2017

💠💠64 कलाओं के ज्ञाता थे श्री कृष्ण💠💠

।।जय श्री राम राधेश्याम।।
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                      डा.अजय दीक्षित
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64 कलाओं के ज्ञाता थे श्री कृष्ण
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: श्री कृष्ण अपनी शिक्षा ग्रहण करने आवंतिपुर (उज्जैन) गुरु सांदीपनि के आश्रम में गए थे जहाँ वो मात्र 64 दिन-रात रहे थे। वहां पर उन्होंने ने मात्र 64 दिन-रातं में ही अपने गुरु से 64 कलाओं की शिक्षा हासिल कर ली थी। हालांकि श्री कृष्ण भगवान के अवतार थे और यह कलाएं उन को पहले से ही आती थी। पर चूंकि श्री कृष्ण का जन्म एक साधारण मनुष्य के रूप में हुआ था इसलिए उन्होंने गुरु के पास जाकर यह पुनः सीखी।
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64 Kalas of Lord Shri Krishna in Hindi
निम्न 64 कलाओं में पारंगत थे श्रीकृष्ण
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1- नृत्य – नाचना
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2- वाद्य- तरह-तरह के बाजे बजाना
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3- गायन विद्या – गायकी।
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4- नाट्य – तरह-तरह के हाव-भाव व अभिनय
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5- इंद्रजाल- जादूगरी
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6- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
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7- सुगंधित चीजें- इत्र, तेल आदि बनाना
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8- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
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9- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या
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10- बच्चों के खेल
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11- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
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12- मन्त्रविद्या
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13- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
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14- रत्नों को अलग-अलग प्रकार के आकारों में काटना
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15- कई प्रकार के मातृका यन्त्र बनाना
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16- सांकेतिक भाषा बनाना
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17- जल को बांधना।
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18- बेल-बूटे बनाना
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19- चावल और फूलों से पूजा के उपहार की रचना करना। (देव पूजन या अन्य शुभ मौकों पर कई रंगों से रंगे चावल, जौ आदि चीजों और फूलों को तरह-तरह से सजाना)
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20- फूलों की सेज बनाना
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21- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना – इस कला के जरिए तोता-मैना की तरह बोलना या उनको बोल सिखाए जाते हैं।
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22- वृक्षों की चिकित्सा
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23- भेड़, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
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24- उच्चाटन की विधि
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25- घर आदि बनाने की कारीगरी
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26- गलीचे, दरी आदि बनाना
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27- बढ़ई की कारीगरी
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28- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना यानी आसन, कुर्सी, पलंग आदि को बेंत आदि चीजों से बनाना।
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29- तरह-तरह खाने की चीजें बनाना यानी कई तरह सब्जी, रस, मीठे पकवान, कड़ी आदि बनाने की कला
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30- हाथ की फूर्ती के काम
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31- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
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32- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
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33- द्यू्त क्रीड़ा
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34- समस्त छन्दों का ज्ञान
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35- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
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36- दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
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37- कपड़े और गहने बनाना
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38- हार-माला आदि बनाना
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39- विचित्र सिद्धियां दिखलाना यानी ऐसे मंत्रों का प्रयोग या फिर जड़ी-बुटियों को मिलाकर ऐसी चीजें या औषधि बनाना जिससे शत्रु कमजोर हो या नुकसान उठाए।
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40-कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना – स्त्रियों की चोटी पर सजाने के लिए गहनों का रूप देकर फूलों को गूंथना।
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41- कठपुतली बनाना, नाचाना
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42- प्रतिमा आदि बनाना
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43- पहेलियां बूझना
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44- सूई का काम यानी कपड़ों की सिलाई, रफू, कसीदाकारी व मोजे, बनियान या कच्छे बुनना।
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45 – बालों की सफाई का कौशल
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46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
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47- कई देशों की भाषा का ज्ञान
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48 – मलेच्छ-काव्यों का समझ लेना – ऐसे संकेतों को लिखने व समझने की कला जो उसे जानने वाला ही समझ सके।
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49 – सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
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50 – सोना-चांदी आदि बना लेना
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51 – मणियों के रंग को पहचानना
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52- खानों की पहचान
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53- चित्रकारी
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54- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
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55- शय्या-रचना
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56- मणियों की फर्श बनाना यानी घर के फर्श के कुछ हिस्से में मोती, रत्नों से जड़ना।
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57- कूटनीति
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58- ग्रंथों को पढ़ाने की चातुराई
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59- नई-नई बातें निकालना
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60- समस्यापूर्ति करना
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61- समस्त कोशों का ज्ञान
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62- मन में कटक रचना करना यानी किसी श्लोक आदि में छूटे पद या चरण को मन से पूरा करना।
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63-छल से काम निकालना
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64- कानों के पत्तों की रचना करना यानी शंख, हाथीदांत सहित कई तरह के कान के गहने तैयार करना।
डा.अजय दीक्षित 
DrAjaiDixit@gmail.Com

💠💠राम द्वारा कौवे को वरदान💠💠

曆曆जय श्री सीताराम जी 曆曆
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राम द्वारा कौवे को वरदान



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          राम ने कौए से कहा --'तू अपने नेत्र के अतिरिक्त और जो कुछ भी वर माँगना चाहे माँग ले।' तब इस प्रकार राम की बात सुनकर वह कौआ बोला-- हे राम ! मुझ पर इसी प्रकार आपकी सर्वदा कृपा बनी रहे । मैं इस लोक  में सुखद और वरदानों को लेकर क्या करूँगा?
         तब कौए की इस बात को सुनकर रामचंद्र जी ने कहा -- किसी भी द्वीपान्तर में होने वाली भूत-भविष्य तथा वर्तमान की सब बातें तेरी आँखों के समक्ष विद्यमान रहेंगी। मेरे वरदान से तुझे सब कुछ ज्ञात होगा । यात्रा में मनुष्य सर्वदा तुम्हारा शकुन देखेंगे । तू जब तक बैठा रहेगा, तब तक दक्ष पथिक का कार्य स्थिर होगा।तू चलता रहेगा तो उसका कार्य शीघ्र पूर्ण होगा। इसी प्रकार से लोग तेरा शकुन देखेंगे । ग्राम प्रवेश में अथवा ग्रह प्रवेश के समय तुम जिसकी दाहिनी ओर से निकल जाओगे, उसके लिए वह मंगलकारक शकुन होगा।प्रेत के दशाह पिंड का जब तक तू स्पर्श न करेगा, तब तक उस प्रेत की सद्गति कदापि न होगी और उसके घर वाले भी  यही समझेंगे कि अभी प्रेत की इच्छा पूर्ण नहीं हुई है । तुम जिन- जिन पकवानों एवं उन दी हुई वस्तुओं को स्पर्श नहीं करोगे, प्रेत के वंशज यही समझेंगे कि, यह कृत्य अभी पूरा नहीं हुआ है, अतः जब वह तुमसे पूरा करा लेगा, तभी उस प्रेत को सद्गति प्राप्त होगी और तुम भी उसके दशाह पिण्ड को तभी स्पर्श करना जब वह सर्वांग पूर्ण हो।
         दूसरा वरदान यह कि जो लेखक लिखते समय भूल जावेंगे, वहाँ पर वे तुम्हारे पैर का चिन्ह बना देंगे।तब पुस्तक में तुम्हारे पैर का चिन्ह देखकर लोग समझ जायेंगे कि यहाँ भी कुछ भ्रम है ।
          इस प्रकार उस कौवे को वरदान देकर रामचंद्र जी मौन हो गये ।कौआ भी भगवान को प्रणाम कर वहाँ से उड़ गया।इस प्रकार भगवान अनेकानेक चरित्र किया करते थे।
डा.अजय दीक्षित 
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                       एक दिन जब श्री  रामचंद्र जी बहुत से मनुष्यों से घिरे अपनी सभा में बैठे थे, तब अंगूर की लताओं में बैठे हुए एक कौए पर उनकी दृष्टि पड़ी जो एक ही नेत्र से दोनों नेत्रों का काम ले रहा था ।वह अपनी आकृति से बड़ा दीन, उग्रदृष्टि, उच्च स्वर वाला और बड़ा ही चंचल ज्ञात हो रहा था ।रामचंद्र जी ने देखा कि वह बारम्बार मेरी ओर देखता हुआ काँव-काँव कर रहा है।यह देख उनके हृदय में दया आई और वे अपने पूर्व क्रोध का स्मरण करते हुए बोले -- आ, यहाँ मेरे पास आ।यह सुनकर कौआ उस अंगूर की लता से उड़कर राम के आगे जा बैठा और राम को देखकर जोर-जोर से बोलने लगा।

💠💠निर्बल भी बलवान को मार सकता है 💠💠

जय श्री सीताराम जी
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   डा.अजय दीक्षित                 
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जौं रघुवीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई ।।
राम बान रबि उएँ जानकी ।
तम बरूथ कहँ जातुधान की।
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई।।
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुवीरा।।
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं।।
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना।।
मोरें  हृदय   परम  संदेहा ।
सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा।।
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल वीरा।।
सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
सुनु माता साखामृग
          नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि
          खाइ परम लघु ब्याल।।
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☀☀☀☀हनुमानजी ने कहा -- माता  ! श्री रामचंद्र जी ने यदि खबर पायी होती तो वे विलम्ब न करते।यहाँ पर तर्क यह है कि क्या सचमुच में राम जी को खबर नहीं थी? नहीं, ऐसा नहीं है, उन्हें अच्छी तरह से ज्ञात था कि सीता जी को कौन हर कर ले गया है ।इस बात की सूचना तो गीधराज जटायु ने मरने से पहले दी थी और सुग्रीव ने भी कहा था कि रावण किसी स्त्री का हरण करके ले गया है, फिर सीता जी के आभूषणों को देखकर यह बात निश्चित हो गयी थी कि रावण ही सीता जी को हर कर ले गया है ।फिर वानरों को चारों दिशाओं में भेजने का कोई औचित्य भी नहीं था ।
           इसका एक ही कारण है कि सीता जी ने भक्त का अपराध किया था और राम जी ने यह प्रदर्शित कर दिया कि मैं अपने प्रति किए अपराध को तो ध्यान नहीं देता; किन्तु यदि कोई मेरे भक्त का अपराध करता है तो उसे अवश्य दण्ड भुगतना पड़ता है,  चाहे वह मेरी पत्नी ही क्यों न हो ।
जो अपराध भगत कर करई।
राम रोष पावक सो जरई।।
जो भक्त का अपराध करता है, उसे राम जी के क्रोधरूपी अग्नि में जलना पड़ता है ।इसलिए हमलोगों को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी भक्त का हमसे कहीं अपमान न होने पाये।
           हिरण का पीछा करते हुए राम जी जब दूर चले गये थे, तब 'हा लक्ष्मण ' की आवाज सुनकर सीता जी ने लक्ष्मण को जाने का आदेश दिया था, परंतु जब लक्ष्मण जी ने कहा कि भगवान पर कोई संकट आ ही नहीं सकता ।तब सीता जी ने लक्ष्मण का अपमान किया था ।वाल्मीकि रामायण में तो यहाँ तक सीता जी ने कह दिया कि मैं तुम्हारे हृदय की बात जानती हूँ, परंतु तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं होगी। मैं प्राण त्याग दूँगी; परंतु  तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं होने दूंगी।इसी अपराध के कारण भगवान ने जानते हुए भी सीता जी को खोजने का गंभीर प्रयास नहीं किया था ।जब हनुमानजी ने आकर कहा था कि माता ने लक्ष्मण सहित आपके चरणों में प्रणाम किया है, तब राम जी ने कहा कि हाँ अब उनका दोष समाप्त हो गया और तभी वे तुरंत सेना लेकर चल दिए थे ।
          हनुमान जी ने कहा कि हे जानकी जी!  रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहाँ रह सकता है? हे माता !  मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ, परंतु श्री रामचंद्र जी की शपथ है, मुझे उनकी ऐसी आज्ञा नहीं है ।अतः हे माता !  कुछ दिन और धीरज रखो।श्री राम जी वानरों सहित यहाँ आवेंगे और राक्षसों को मारकर आपको ले जायँगे ।नारद आदि ऋषि तीनों लोकों में उनका यश गायेंगे।
           सीता जी ने पूछा -- हे पुत्र! क्या सब वानर तुम्हारे इतने ही छोटे छोटे हैं । हनुमानजी ने कहा -- माता, मैं  तो बड़ा हूँ ।मुझसे तो और बहुत छोटे हैं । सीता जी ने सोचा,  तब तो हो गया मेरा उद्धार।
           हनुमान जी ने कहा -- माता, कोई संदेह है क्या?  सीता जी ने कहा -- संदेह?  मुझे तो बहुत बड़ा भारी  संदेह है ।यह सुनकर हनुमानजी ने अपना शरीर प्रकट किया । सोने के पर्वत के आकार का अत्यंत विशाल शरीर, युद्ध में शत्रुओं के  हृदय में भय उत्पन्न करने वाला।
          तब सीता जी के मन में विश्वास हुआ ।इसके बाद हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया ।उन्होंने कहा -- हे माता !  सुनो,  वानरों में  बहुत बल- बुद्धि नहीं होती।परंतु प्रभु का प्रताप ऐसा है कि उनके  प्रताप से छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है, अर्थात अत्यंत निर्वल भी बलवान को मार सकता है ।
डा.अजय दीक्षित 
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भगवान शिव का अघोर रुप तथा रहस्यमयी प्रश्नों के उत्तर

भगवान शिव का अघोर रुप तथा रहस्यमयी प्रश्नों के उत्तर :***        



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-----शिव का अघोर रूप --------
एक बार पार्वती ने स्वपन देखा मैं अपने पती का श्रंगार
अस्थियों से कर रही हूँ।स्वप्न टूटा और प्रात: हुई ।माता ने स्कंद से कहा -- बेटा आज मै तुम्हारे पिता का अस्थियों से श्रंगार करूँगी,इसलिए तुम्हें पाँच पक्षियों
की अस्थियाँ लानी हैं ।स्कंद गये और पाँच पक्षियों की 
अस्थियाँ लेकर आये ।माता पार्वती ने विश्वकर्मा को याद किया ।विश्वकर्मा आये आैर उन अस्थियों से निर्माण कार्य प्रारम्भ किया। मोर कीहडडी से त्रिशूल,बाज की हडडी से कँडा, कबूतर की हडडी से भाला, कागा की हडडी से डमरू बनाया ।
कुन्डल बनाने के लिये जब हंस की हडडी मोडी तो
उसमें से दो बूँद जल धरती पे गिरे ।जिससे श्वेतार्क,तथा
पारिजात के दो बृक्षों की उत्पत्ति हो गई।भगवान शिव ने उन्हें अपना पुत्र माना ।इस तरह पार्वती ने शिव का श्रंगार किया।
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----------ऊँ पशुपतये नम: --------
रहस्यमयी प्रश्नों के उत्तर -----
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डा.अजय दीक्षित
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--प्रश्न-- १-- शिव जी के धनुष का क्या नाम था?

" पिनाक "
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प्रश्न-- २-- शिव धनुष को किसने बनाया था?

" स्वयं शिव जी ने "
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प्रश्न-- ३-- क्या शिव जीके पास "चक्र"था,चक्रकानाम क्या था?

शिव के चक्र का नाम " भवरेंदु" था ।
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विष्णु जी के चक्र का नाम " कांता"(सुदर्शन) था ।
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दुर्गाजी के चक्र का नाम " मृत्यु मंजरी " था 🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲🔲

प्रश्न--४ -- कृष्ण जी को सुदर्शन चक्र कहाँ से मिला ?

शिवजी ने विष्णुजी को दिया, विष्णुजी ने पार्वती माता को दिया, माताजी ने परसुराम जी को दिया, परसुराम जी ने श्री कृष्णजी को दिया ।
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प्रश्न-- ५-- गुरू शिष्य परम्परा किसने चलाई ?

" भगवान शिव ने"
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प्रश्न-- ६-- शिवजी के प्रथम शिष्य कौन थे ?

शिवजी के प्रथम शिष्य " सप्तरिषी " थे ।
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प्रश्न-- ७-- शिवजी के प्रमुख गण कौन थे ?

भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, भृगिरिटी, शैल गोकर्ण, घंटाकर्ण आदि
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                  डा.अजय दीक्षित
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शनिवार, 18 मार्च 2017

💠💠💠 कथा दिति, अदिति और कश्यप ऋषि की 💠💠💠

कथा दिति, अदिति और कश्यप ऋषि की
                               
पूर्व जन्म में देवकी द्वारा किये गये कर्म ही देवकी के दु:खों का कारण:- दक्ष प्रजापति की दिति और अदिति नाम की दो सुन्दर कन्याओं का विवाह कश्यप मुनि के साथ हुआ। अदिति के अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए। भगवान विष्णु ने इन्द्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्रों हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष को मार डाला। तब दिति ने सोचा–मैं कोई ऐसा उपाय करूंगी जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्र को मार डाले। भगवान की कैसी माया है, लोग अपने को और अपने आत्मीय को तो बचाना चाहते हैं, लेकिन दूसरों से द्रोह करते हैं। यह द्रोह नरक में ले जाने का रास्ता है।

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तब इन्द्र जैसे ओजस्वी पुत्र के लिए दिति के मन में इच्छा जाग्रत हुई। अत: वह अपने पति कश्यपजी को प्रसन्न करने के लिए उनकी सेवा करने लगी। दिति ने अपने मन का संयम कर प्रेम, विवेक, मधुर भाषण, मुस्कान व चितवन से कश्यपजी के मन को जीत लिया। वे दिति की सेवाओं से मुग्ध होकर जड़ हो गये। उन्होंने दिति से कहा–’अब तुम जो चाहो हम करने को तैयार हैं।’ दिति ने देखा कि ये वचनबद्ध हो गये हैं, तो उसने कश्यपजी से प्रार्थना की कि मुझे बलशाली एवं परम शक्तिसम्पन्न पुत्र देने की कृपा करें, जो इन्द्र को मार दे। यह सुनकर कश्यपजी को बहुत दु:ख हुआ क्योंकि इन्द्र अदिति के गर्भ से कश्यपजी के बेटे हैं। उन्होंने सोचा कि माया ने मुझे पकड़ लिया। संसार में लोग स्वार्थ के लिए पति-पुत्रादि का भी नाश कर देते हैं। अब क्या हो? मैंने जो वचन दिया है, न तो वह व्यर्थ होना चाहिए और न इन्द्र का अनिष्ट होना चाहिए।
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इस प्रकार सोच-विचार करके कश्यप मुनि ने दिति को एक वर्ष का ‘पुंसवन व्रत’ धारण करने के लिए कहा। कश्यपजी ने कहा कि यदि तुम एक वर्ष तक व्रत का पालन करोगी तो तुम्हारे जो बेटा होगा वह इन्द्र को मारने वाला होगा लेकिन यदि व्रत में कोई त्रुटि हो जायेगी तो वह इन्द्र का मित्र हो जायेगा। कश्यप मुनि ने व्रत के लिए दिति को इन नियमों का पालन करने के लिए कहा–

इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वचन या कर्म के द्वारा सताये नहीं। किसी को शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीर के नख व बाल न काटे, किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे, क्रोध न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसी की पहनी हुई माला न पहने। जूठा न खाय, मांसयुक्त अन्न का भोजन न करे, शूद्र का और रजस्वला स्त्री का अन्न भी न खाये, जूठे मुँह, संध्या के समय, बाल खोले हुये घर से बाहर न जाये, सुबह शाम सोना नहीं चाहिए। इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मों का त्याग कर सदैव पवित्र और सौभाग्य के चिह्नों से सुसज्जित रहे। प्रात: गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान नारायण की पूजा करके ही कलेवा करे। सुहागिन स्रियों व पति की सेवा में संलग्न रहे। और यही भावना करती रहे कि पति का तेज मेरी कोख में है।💠💠
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अपने पति की बात मानकर दिति उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारणकर पुंसवन व्रत का पालन करने लगी। वह भूमि पर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। इस प्रकार जब उसका तेजस्वी गर्भकाल पूर्ण होने को आया तो दिति के अत्यन्त दीप्तिमान अंगों को देखकर अदिति को बड़ा दु:ख हुआ। उसने अपने मन में सोचा कि यदि दिति के गर्भ से इन्द्र के समान महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायेगा।

इस प्रकार चिन्ताग्रस्त अदिति ने अपने पुत्र इन्द्र से कहा–इस समय दिति के गर्भ में तुम्हारा शत्रु पल रहा है। अत: ऐसा कोई प्रयत्न करो कि गर्भस्थ शिशु नष्ट हो जाये। दिति का वह गर्भ मेरे हृदय में लोहे की कील के समान चुभ रहा है। अत: जिस किसी भी उपाय से तुम उसे नष्ट कर दो।
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जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोग की भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रु को अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले।’

चतुर राजनीतिज्ञ वही है जिसे शत्रु के घर की एक-एक बात का पता हो। इन्द्र कोई साधारण राजनीतिज्ञ नहीं हैं। अपनी माता की बात मानकर इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी सौतेली माता के पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्र ने ऊपर से मधुर किन्तु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक दिति से कहा–’हे माता ! व्रत के कारण आप अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं अत: मैं आपकी सेवा करने के लिए आया हूँ।’ जिस प्रकार बहेलिया हिरन को मारने के लिए हिरन की सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट-वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति के व्रत-पालन की त्रुटि पकड़ने के लिए उसकी सेवा करने लगे।
💠💠💠💠💠💠💠💠💠💠💠💠💠💠💠

एक दिन व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी दिति से इन्द्र ने कहा–माता मैं आपके चरण दबाऊँगा; क्योंकि बड़ों की सेवा से मनुष्य अक्षय गति प्राप्त कर लेता है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे।

चरण दबने से दिति को बहुत सुख हुआ और उसे नींद आने लगी। उस दिन वह पैर धोना भूल गयी और बाल खोले ही सो गयी।

दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र योगबल से अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथ में शस्त्र लेकर बड़ी सावधानी से दिति के उदर में प्रवेश कर गये और वज्र से उस गर्भस्थ बालक के सात टुकड़े कर डाले। तब वे सातों टुकड़े सूर्य के समान तेजस्वी सात कुमारों के रूप में परिणत हो गये।

वज्र के आघात से गर्भस्थ शिशु रोने लगे। तब दानवशत्रु इन्द्र ने उससे ‘मा रुद’ ‘मत रोओ’ कहा। फिर इन्द्र ने उन सातों टुकड़ों के सात-सात टुकड़े और कर दिये। इस प्रकार उनचास (49) कुमारों के रूप में होकर वे जोर-जोर से रोने लगे। तब उन सबों ने हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा–’देवराज ! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं।’ इन्द्र ने मन-ही-मन सोचा कि निश्चय ही यह सौतेली माँ दिति के व्रत का परिणाम है कि वज्र से मारे जाने पर भी इनका विनाश नहीं हुआ। ये एक से अनेक हो गये, फिर भी उदर की रक्षा हो रही है। इसमें सन्देह नहीं कि ये अवध्य हैं, इसलिए ये देवता हो जायँ। जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भ के बालकों को ‘मा रुद’ कह कर चुप कराया था, इसलिए ये मरुद्गण नाम से प्रसिद्ध होंगे। इन्द्र ने सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी (सोमरस का पान करने वाले) देवता बना लिया।

छली इन्द्र द्वारा अपने गर्भ को विकृत किया जानकर दिति जाग गयी और दु:खी होकर क्रोध करने लगी। यह सब मेरी बहन अदिति द्वारा कराया गया है–ऐसा जानकर दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न-भिन्न कर डाला है, उसका त्रिभुवन का राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमश: उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेंगे और वह पुत्र-शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारावास में रहेगी।

तब कश्यपजी ने दिति को शांत करते हुए कहा–देवी ! तुम क्रोध मत करो। तुम्हारे ये उनचास पुत्र मरुद् देवता होंगे, जो इन्द्र के मित्र बनेंगे। तुम्हारा शाप अट्ठाईसवें द्वापरयुग में सफल होगा। वरुणदेव ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापों के संयोग से यह अदिति मनुष्य योनि में जन्म लेकर देवकी के रूप में उत्पन्न होगी और अपने किये कर्म का फल भोगेगी।
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                         डा.अजय दीक्षित
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शुक्रवार, 17 मार्च 2017

जब सती के भयंकर रूप से डर कर भागना पड़ा भगवान शिव को ।🔘🔘🔘🔘🔘🔘🔘🔘🔘🔘🔘🔘

                         ।।राम।।
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डा.अजय दीक्षित
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जब सती के भयंकर रूप से डर कर भागना पड़ा भगवान शिव को ।
           

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देवी पुराण के अनुसार जब सती के पिता दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया तो उसमें अपनी पुत्री सती और दामाद भगवान शिव को निमंत्रित नहीं किया। यज्ञ के बारे में जान कर सती बिना निमंत्रण ही पिता के यज्ञ में जाने की जिद करने लगी।
तब भगवान महादेव ने सती से कहा कि- किसी भी शुभ कार्य में बिना बुलाए जाना और मृत्यु- ये दोनों ही एक समान है। मेरा अपमान करने की इच्छा से ही तुम्हारे पिता ये महायज्ञ कर रहे हैं। यदि ससुराल में अपमान होता है तो वहां जाना मृत्यु से भी बढ़कर होता है।
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देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव की ये बात सुनकर देवी सती बोलीं- महादेव। आप वहां जाएं या नहीं। लेकिन मैं वहां अवश्य जाऊंगी। पिता के घर में महायज्ञ के महोत्सव का समाचार सुनकर कोई कन्या धैर्य रखकर अपने घर में कैसे रह सकती है।
देवी सती के ऐसा कहने पर शिवजी ने कहा- मेरे रोकने पर भी तुम मेरी बात नहीं सुन रही हो। दुर्बुद्धि व्यक्ति स्वयं गलत कार्य कर दूसरे पर दोष लगाता है। अब मैंने जान लिया है कि तुम मेरे कहने में नहीं रह गई हो। अत: अपनी रूचि के अनुसार तुम कुछ भी करो, मेरी आज्ञा की प्रतीक्षा क्यों कर रही ।
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जब महादेव ने यह बात कही तो सती क्षणभर के लिए सोचने लगीं कि इन शंकर ने पहले तो मुझे पत्नी रूप में प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की थी और अब ये मेरा अपमान कर रहे हैं, इसलिए अब मैं इन्हें अपना प्रभाव दिखाती हूं। यह सोचकर देवी सती ने अपना रौद्र रूप धारण कर लिया।
क्रोध से फड़कते हुए ओठों वाली तथा कालाग्नि के समान नेत्रों वाली उन भगवती सती को देखकर महादेव ने अपने नेत्र बंद कर लिए। भयानक दाढ़ों से युक्त मुखवाली भगवती ने अचानक उस समय अट्टाहस किया, जिसे सुनकर महादेव भयभीत हो गए। बड़ी कठिनाई से आंखों को खोलकर उन्होंने भगवती के इस भयानक रूप को देखा।
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देवी भगवती के इस भयंकर रूप को देखकर भगवान शिव भय के मारे इधर-उधर भागने लगे। शिव को दौड़ते हुए देखकर देवी सती ने कहा-डरो मत-डरो मत। इस शब्द को सुनकर शिव अत्यधिक डर के मारे वहां एक क्षण भी नहीं रूके और बहुत तेजी से भागने लगे।
इस प्रकार अपने स्वामी को भयभीत देख देवी भगवती अपने दस श्रेष्ठ रूप धारण कर सभी दिशाओं में स्थित हो गईं। महादेव जिस ओर भी भागते उस दिशा में वे भयंकर रूप वाली भगवती को ही देखते थे। तब भगवान शिव ने अपनी आंखें बंद कर ली और वहीं ठहर गए।
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जब भगवान शिव ने अपनी आंखें खोली तो उन्होंने अपने सामने भगवती काली को देखा। तब उन्होंने कहा- श्यामवर्ण वाली आप कौन हैं और मेरी प्राणप्रिया सती कहां चली गईं। तब देवी काली बोली- क्या अपने सामने स्थित मुझ सती को आप नहीं देख रहे हैं। ये जो अलग-अलग दिशाओं में स्थित हैं ये मेरे ही रूप हैं। इनके नाम काली, तारा, लोकेशी, कमला, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, षोडशी, त्रिपुरसुंदरी, बगलामुखी, धूमावती और मातंगी हैं।
देवी सती के ये वचन सुनकर शिवजी बोले- मैं आपको पूर्णा तथा पराप्रकृति के रूप में जान गया हूं। अत: अज्ञानवश आपको न जानते हुए मैंने जो कुछ कहा है, उसे क्षमा करें। ऐसा कहने पर देवी सती का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने महादेव से कहा कि- यदि मेरे पिता दक्ष के यज्ञ में आपका अपमान हुआ तो मैं उस यज्ञ को पूर्ण नहीं होने दूंगी। ऐसा कहकर देवी सती अपने पिता के यज्ञ में चली गईं।
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                      डा.अजय दीक्षित
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गुरुवार, 16 मार्च 2017

अदभुत रहस्य -> श्रीविष्णु जी का सुदर्शन चक्र

अदभुतरहस्य->श्रीविष्णुजी कासुदर्शन चक्र
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डा.अजय दीक्षित
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१--कहाँ से आया सुदर्शन चक्र ?
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२--किसने बनाया सुदरशन चक्र ?
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३-- कैसे मिला श्री विष्णु जी को ?
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पौराणिक शास्त्रों के अनुसार श्रीदामा नाम का एक क्रूर असुर था जो देवताओं को परेशान किया करता था वो बचपन से ही दैत्येगुरु शुक्राचार्य का शिष्य था। गुरु कृपा से उसको दिव्य शक्तियां और वज्र के समान शरीर प्राप्त था, उसने अपने बल और पराक्रम से देवताओ से स्वर्ग छीन लिया और उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया, समस्त देवता दुखी हो ब्रह्म देव की शरण में पहुंचे। ब्रह्म देव उन्हें साथ लेकर नारायण के समक्ष पहुंचे।
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नारायण ने सबसे बैकुंठ में आने का कारण पूछा तब ब्रह्माजी ने उन्हें श्रीदामा असुर के विषय में सब बताया ये सुनकर विष्णु बोले,” हे देवो! तुम चिंता मत करो शीघ्र ही श्रीदामा का अंत निकट है जल्द ही उसके अत्याचारों से आपको मुक्ति मिलेगी।”
श्री विष्णु ने ये कहकर देवो को विदा किया। जब श्रीदामा को ये पता चला कि देवगण विष्णु से सहायता मांगने गए थे तो वो बड़ा क्रोधित हुआ उसने नारायण का श्रीवत्स चुराने की योजना बनाई।
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जब श्री विष्णु को ये पता लगा कि श्रीदामा उनका श्री वत्स चुराने की योजना बना रहा है तो श्री विष्णु ने श्रीदामा को युद्ध के लिए ललकारा तब श्रीदामा और विष्णु जी में घोर युद्ध हुआ। श्री विष्णु ने श्रीदामा पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया लेकिन वो सब भी निष्फल रहे। विष्णु यह समझ गए थे की शुक्राचार्य की कृपा से श्रीदामा का शरीर वज्र समान हो गया है।
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अतः श्रीदामा को किसी भी अस्त्र या शस्त्र से मारा नहीं जा सकता। इस युद्ध में श्रीदामा का पलड़ा भारी पड़ा। भगवान विष्णु को युद्ध छोड़कर जाना पड़ा और श्रीदामा ने विष्णु पत्नी महालक्ष्मी का हरण कर लिया।
महालक्ष्मी के कारण चिंतित विष्णु ने कैलाश पहुंचकर वहां “हरिश्वरलिंग” की स्थापना की। नारायण ने बद्री क्षेत्र पहुंचकर वहां से 1000 ब्रह्मकमल लिए तथा शिव पूजन करना शुरू किया। नारायण हर एक ब्रह्मकमल को शिव जी का एक नाम लेकर चढ़ाते थे। इस तरह नारायण ने 999 ब्रह्मकमलो से शिव पूजन किया और शिव नाम जपकर “शिवसहस्त्रनाम स्तोत्र” की रचना कर दी।
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जब विष्णु जी आखरी ब्रह्मकमल चढाने लगे तो उन्होंने देखा कि एक ब्रह्मकमल कहीं लुप्त हो गया है। विष्णु पूजन छोड़ ब्रह्मकमल लेने नहीं जा सकते थे। तब श्री विष्णु को याद आया कि देवगण उन्हें कमलनयन कहकर पुकारते हैं। विष्णु ने अपना दाहिना नेत्र निकालकर हरिश्वरलिंग पर अर्पण किया। परमेश्वर शिव तत्काल ही वहां प्रकट हो गए।
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परमेश्वर शिव ने भगवन विष्णु से प्रसन्न होकर इच्छित वर मांगने को कहा। शिव जी के ये वचन सुन विष्णु बोले कि श्रीदामा के आतंक से सारा जगत आतंकित है देवता स्वर्ग से निकाल दिए गए है तथा श्रीदामा ने लक्ष्मी का भी अपहरण कर लिया है।
श्रीदामा के गुरु व शिवभक्त शुक्राचार्य की कृपा से अभय बना हुआ है उसके वज्र के समान शरीर पर किसी भी अस्त्र या शस्त्र का प्रभाव नहीं पड़ता। अतः आप मुझे वो दिव्यास्त्र प्रदान करें जिससे अपने महाशक्तिशाली असुर जालंधर का वध किया था।
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तभी शिव की दाहिनी भुजा से महातेजस्वी सुदर्शन चक्र प्रकट हुआ।
उन्होंने सुदर्शन चक्र को देते हुए भगवान विष्णु से कहा- "देवेश! यह सुदर्शन नाम का श्रेष्ठ आयुध बारह अरों, छह नाभियों एवं दो युगों से युक्त, तीव्र गतिशील और समस्त आयुधों का नाश करने वाला है।
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सज्जनों की रक्षा करने के लिए इसके अरों में देवता, राशियाँ, ऋतुएँ, अग्नि, सोम, मित्र,वरुण, शचीपति इन्द्र, विश्वेदेव, प्रजापति, हनुमान, धन्वन्तरि, तप तथा चैत्र से लेकर फाल्गुन तक के बारह महीने प्रतिष्ठित हैं। आप इसे लेकर निर्भीक होकर शत्रुओं का संहार करें।
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भगवान शिव ने कहा कि यह अमोघ है, इसका प्रहार कभी खाली नहीं जाता।
भगवान विष्णु ने कहा कि प्रभु यह अमोघ है इसे परखने के लिए मैं सबसे पहले इसका प्रहार आप पर ही करना चाहता हूं।
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भगवान शिव ने कहा अगर आप यह चाहते हैं तो प्रहार करके देख लीजिए। सुदर्शन चक्र के प्रहार से भगवान शिव के तीन खंड हो गए। इसके बाद भगवान विष्णु को अपने किए पर प्रयश्चित होने लगा और शिव की आराधना करने लगे।
भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि सुदर्शन चक्र के प्रहार से मेरा प्राकृत विकार ही कटा है। मैं और मेरा स्वभाव क्षत नहीं हुआ है यह तो अच्छेद्य और अदाह्य है।
भगवान शिव विष्णु से कहा कि आप निराश न होइये। मेरे शरीर के जो तीन खंड हुए हैं अब वह हिरण्याक्ष, सुवर्णाक्ष और विरूपाक्ष महादेव के नाम से जाना जाएगा। भगवान शिव अब इन तीन रुपों में भी पूजे जाते हैं।
इसके बाद भगवान विष्णु ने श्रीदामा से युद्ध किया और सुदर्शन चक्र से उसका वध कर दिया। इसके बाद से सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु के साथ सदैव रहने लगा।
डा.अजय दीक्षित
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12 ज्योतिर्लिंग + सप्तपुरी + चार धाम + 51शक्ति पीठ

12 ज्योतिर्लिंग + सप्तपुरी + चार धाम + 51शक्ति पीठ 
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धरती पर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग माने गए हैं। हिंदू धार्मिक पुराणों के अनुसार इन्हीं 12 जगहों पर भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए।
1. सोमनाथ
यह शिवलिंग गुजरात के सौराष्ट्र में स्थापित है।
2. श्री शैल मल्लिकार्जुन
मद्रास में कृष्णा नदी के किनारे पर्वत पर स्थापित है श्री शैल मल्लिकार्जुन शिवलिंग।
3. महाकाल
उज्जैन में स्थापित महाकालेश्वर शिवलिंग, जहां शिवजी ने दैत्यों का नाश किया था।
4. ओंकारेश्वर ममलेश्वर
मध्यप्रदेश के धार्मिक स्थल ओंकारेश्वर में नर्मदा तट पर पर्वतराज विंध्य की कठोर तपस्या से खुश होकर वरदान देने यहां प्रकट हुए थे शिवजी। जहां ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित हो गया।
5. नागेश्वर
गुजरात के दारूका वन के निकट स्थापित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग।
6. बैद्यनाथ
झारखंड के देवघर में बैद्यनाथ धाम में स्थापित शिवलिंग।
7. भीमशंकर
महाराष्ट्र की भीमा नदी के किनारे स्थापित भीमशंकर ज्योतिर्लिंग।
8. त्र्यंम्बकेश्वर
नासिक (महाराष्ट्र) से 25 किलोमीटर दूर त्र्यंम्बकेश्वर में स्थापित ज्योतिर्लिंग।
9. घुष्मेश्वर
महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में एलोरा गुफा के समीप वेसल गांव में स्थापित घुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंग।
10. केदारनाथ
हिमालय का दुर्गम केदारनाथ ज्योतिर्लिंग। उत्तराखंड में स्थित है।
11. विश्वनाथ
बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में स्थापित विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग।
12. रामेश्वरम्
त्रिचनापल्ली (मद्रास) समुद्र तट पर भगवान श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग।
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7 सप्तपुरी :
सनातन धर्म मे सात नगरों को बहुत पवित्र मानता है जिन्हें सप्तपुरी कहा जाता है।
1. अयोध्या,
2. मथुरा,
3. हरिद्वार,
4. काशी,
5. कांची,
6. उज्जैन
7. द्वारका
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चारधाम
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चारधाम की स्थापना आद्य शंकराचार्य ने की। उद्देश्य था उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चार दिशाओं में स्थित इन धामों की यात्रा कर मनुष्य भारत की सांस्कृतिक विरासत को जाने-समझें।
1. बदरीनाथ धाम
कहां है- उत्तर दिशा में हिमालय पर अलकनंदा नदी के पास
प्रतिमा- विष्णु की शालिग्राम शिला से बनी चतुर्भुज मूर्ति। इसके आसपास बाईं ओर उद्धवजी तथा दाईं ओर कुबेर की प्रतिमा।
2. द्वारका धाम
कहां है- पश्चिम दिशा में गुजरात के जामनगर के पास समुद्र तट पर।
प्रतिमा- भगवान श्रीकृष्ण।
3. रामेश्वरम
कहां है- दक्षिण दिशा में तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में समुद्र के बीच रामेश्वर द्वीप।
प्रतिमा- शिवलिंग
4. जगन्नाथपुरी
कहां है- पूर्व दिशा में उड़ीसा राज्य के पुरी में।
प्रतिमा- विष्णु की नीलमाधव प्रतिमा जो जगन्नाथ कहलाती है। सुभद्रा और बलभद्र की प्रतिमाएं भी।
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51 शक्तिपीठ :
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ये देश भर में स्थित देवी के वो मंदिर है जहाँ देवी के शरीर क़े अंग या आभूषण गीरे थे। सबसे ज्यादा शक्ति पीठ बंगाल में है। शक्तिपीठों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी आप हमारे पिछले लेख 51 शक्ति पीठ पर प्राप्त कर सकते है।
बंगाल के शक्तिपीठ
1. काली मंदिर – कोलकाता
2. युगाद्या- वर्धमान (बर्दमान)
3. त्रिस्त्रोता- जलपाइगुड़ी
4. बहुला- केतुग्राम
5. वक्त्रेश्वर- दुब्राजपुर
6. नलहटी- नलहटी
7. नन्दीपुर- नन्दीपुर
8. अट्टहास- लाबपुर
9. किरीट- बड़नगर
10. विभाष- मिदनापुर
मध्यप्रदेश के शक्तिपीठ
12. हरसिद्धि- उज्जैन
13. शारदा मंदिर- मेहर
14. ताराचंडी मंदिर- अमरकंटक
तमिलनाडु के शक्तिपीठ
15. शुचि- कन्याकुमारी
16. रत्नावली- अज्ञात
17. भद्रकाली मंदिर- संगमस्थल
18. कामाक्षीदेवी- शिवकांची
बिहार के शक्तिपीठ
19. मिथिला- अज्ञात
20. वैद्यनाथ- बी. देवघर
21. पटनेश्वरी देवी- पटना
उत्तरप्रदेश के शक्तिपीठ
22. चामुण्डा माता- मथुरा
23. विशालाक्षी- मीरघाट
24. ललितादेवी मंदिर- प्रयाग
राजस्थान के शक्तिपीठ
25. सावित्रीदेवी- पुष्कर
26. वैराट- जयपुर
गुजरात के शक्तिपीठ
27. अम्बिक देवी मंदिर- गिरनार
11. भैरव पर्वत- गिरनार
आंध्रप्रदेश के शक्तिपीठ
28. गोदावरीतट- गोदावरी स्टेशन
29. भ्रमराम्बादेवी- श्रीशैल
महाराष्ट्र के शक्तिपीठ
30. करवीर- कोल्हापुर
31. भद्रकाली- नासिक
कश्मीर के शक्तिपीठ
32. श्रीपर्वत- लद्दाख
33. पार्वतीपीठ- अमरनाथ गुफा
पंजाब के शक्तिपीठ
34. विश्वमुखी मंदिर- जालंधर
उड़ीसा के शक्तिपीठ
35. विरजादेवी- पुरी
हिमाचल प्रदेश के शक्तिपीठ
36. ज्वालामुखी शक्तिपीठ- कांगड़ा
असम के शक्तिपीठ
37. कामाख्यादेवी- गुवाहाटी
मेघालय के शक्तिपीठ
38. जयंती- शिलांग
त्रिपुरा के शक्तिपीठ
39. राजराजेश्वरी त्रिपुरासुंदरी- राधाकिशोरपुर
हरियाणा के शक्तिपीठ
40. कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ- कुरुक्षेत्र
41. कालमाधव शक्तिपीठ- अज्ञात
नेपाल के शक्तिपीठ
42. गण्डकी- गण्डकी
43. भगवती गुहेश्वरी- पशुपतिनाथ
पाकिस्तान के शक्तिपीठ
44. हिंगलाजदेवी- हिंगलाज
श्रीलंका के शक्तिपीठ
45. लंका शक्तिपीठ- अज्ञात
तिब्बत के शक्तिपीठ
46. मानस शक्तिपीठ- मानसरोवर
बांगलादेश के शक्तिपीठ
47. यशोर- जैशौर
48. भवानी मंदिर- चटगांव
49. करतोयातट- भवानीपुर
50. उग्रतारा देवी- बारीसाल
51 वीं पंचसागर शक्तिपीठ है। यह कहां स्थित है इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है।  खोजकर अगली पोस्ट में प्रकाशित करेंगे