गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

विश्वरूप तथा वृत्रासुर कथा

।। ऊं नम: शिवाय ।।

    विश्वरूप वध तथा वृत्रासुर जन्म कथा
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           विश्वरूप के तीन सिर थे।वे एक मुँह से सोमरस तथा दूसरे से सुरा पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे।उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिए वे यज्ञ के समय प्रत्यक्ष रूप में ऊँचे स्वर से बोलकर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति देते थे ।साथ ही वे छिप छिप कर असुरों को भी आहुति दिया करते थे ।उनकी माता असुर कुल की थीं, इसीलिए वे मातृस्नेह के वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरों को भाग पहुँचाया करते थे । 
          देवराज इन्द्र ने देखा कि इस प्रकार वे देवताओं का अपराध और धर्म की ओट में कपट कर रहे हैं ।इससे इन्द्र डर गये और क्रोध में भरकर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उनके तीनों सिर काट लिए ।विश्वरूप का सोमरस पीने वाला सिर पपीहा,  सुरापान करने वाला गौरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया । इन्द्र चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुयी हत्या को दूर कर सकते थे; परंतु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा,  वरं हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्ष तक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया ।तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिए उन्होंने अपनी ब्रह्महत्या को चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया। 
           पृथ्वी ने बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समय पर अपने आप भर जायेगा, इन्द्र की ब्रह्महत्या का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया । वही  ब्रह्महत्या पृथ्वी में कहीं कहीं ऊसर के रूप में दिखाई पड़ती है ।दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया । उन्हें यह वरदान मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जाने पर फिर जम जायेगा। उनमें अब भी गोंद के रूप में ब्रह्महत्या दिखाई पड़ती है । 
          स्त्रियों ने यह वरदान पाकर कि वे सर्वदा पुरुष का सहवास कर सकें, ब्रह्महत्या का तीसरा चतुर्थांश स्वीकार किया । उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने में रज के रूप में दिखाई पड़ती है । जल ने यह वरदान पाकर कि खर्च करते रहने पर भी निर्झर आदि के रूप में तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी,  ब्रह्महत्या का चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया ।फेन,  बुदबुद आदि के रूप में वही ब्रह्महत्या दिखाई पड़ती है । अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण करते हैं ।
          विश्वरूप की मृत्यु के बाद उनके पिता त्वष्टा 'हे इन्द्रशत्रो ! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र-से-शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो '--- इस मन्त्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिए हवन करने लगे । यज्ञ समाप्त होने पर दक्षिणाग्नि से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ । वह ऐसा जान पड़ता था,  मानो लोकों का नाश करने के लिए प्रलयकालीन काल ही प्रकट हुआ हो।वह प्रतिदिन अपने शरीर के सब ओर बाण के बराबर बढ़ जाया करता था ।  जले हुए पहाड़ के समान काला और बड़े डील डौल का था।उसके शरीर में संध्याकालीन बादलों के समान दीप्ति निकलती रहती थी।उसके सिर के बाल तथा दाढ़ी मूँछ तपे हुए ताँवे के समान लाल तथा नेत्र दोपहर के समान प्रचण्ड थे ।चमकते हुए त्रिशूल को लेकर जब वह नाचने,  चिल्लाने और कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी।जब उसका कन्दरा के समान मुख खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाश को पी जायेगा,  जीभ से सारे नक्षत्रों को चाट जायगा और अपनी विशाल एवं विकराल दाढ़ों से तीनों लोकों को निगल जायगा ।उसके भयावने रूप को देखकर सब लोग डर गये और  इधर उधर भागने लगे ।
          त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। इसी से उस पापी और अत्यंत क्रूर पुरुष का नाम वृत्रासुर पड़ा।

                  डा.अजय दीक्षित

Dr Ajai Dixit@gmail.Com

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