मंगलवार, 6 दिसंबर 2022

नाम जपो भगवान का बन जायेंगे काम।

जय सियाराम जय जय हनुमान

II हरि-नाम गाओ II

"भगवन्नामकी जय जय"

जय आनन्द, अमृत, अज, अव्यय, आदि, अनादि, अतुल, अभिराम ।
जय अशोक, अघहर, अखिलेश्वर, योगी-मुनि-मानस-विश्राम ।।
जय कलिमल-मर्दन, करुणामय, कोसलपति, गुण-रूप-निधान ।
जय माधव, मधुसूदन, मोहन, मुरलीधर, मृदु-हृदय, महान ।।
जय गोविन्द, गोपिकावल्लभ, गोपति, गो-सेवक, गोपाल ।
जय गरुड़ध्वज, विष्णु, चतुर्भुज, श्री-लक्ष्मीपति, वक्ष-विशाल ।।
जय भय-भयदायक, भवसागर-तारक, भक्त-भक्त श्रीमान ।
जय मुकुन्द, मन्मथ-मन्मथ, मुर-रिपु, मंजुल-वपु, मंगलखान ।।
जय पुरुषोत्तम, प्रकृतिरमण, प्रभु, पावन-पावन, परमानन्द ।
जय फणि-फण-फण-नृत्यकरण, फणिभूषण, फणि-शय्या, सुखकन्द ।।
जय रघुनाथ, रमापति, रघुवर, रावणारि, राघव, श्रीराम ।
जय कंसारि, कमल-दल-लोचन, केशिनिषूदन, कृष्ण, ललाम ।।
जय राधा, राधामाधव, रस, रसनिधि, रसास्वाद-संलग्न ।
जय नटवर, नागर, नँदनंदन, नव-नव-नृत्यानन्द-निमग्न ।।
जय शंकर, शिव, आशुतोष, हर, महादेव, सब मंगल-भूप ।
जय संहारक, रुद्र, भयानक, मुण्डमालधारी, तम-रूप ।।
जय मृड, गंगाधर, गौरीपति, गणपति-पिता, शर्व, रिपु-काम ।
जय भुजंग-भूषण, शासी शेखर, नीलकण्ठ, भव, शोभाधाम ।।
जय काली, लक्ष्मी, सरस्वती, राधा, सीता, श्री, ईशानि ।
जय दुर्गा, तारा, परमेश्वरि, विद्या, प्रज्ञा, परमेशानि ।।
जय आदित्य, भुवनभास्कर, घृणि, तमहर, पातकहर, द्युतिमान ।
जय विघ्नेश, विघ्ननाशक, गण-ईश, सिद्धिदायक, भगवान ।।
जय प्रकाशमय, अग्नि, इन्द्र, नर, नारायण, पर, आत्माराम ।
जय सर्वेश, सर्वगुणनिधि, विधि, सर्वातीत, सर्वमय, श्याम ।।
लीला-गुण-रस-तत्त्व-प्रकाशक, प्रभुके मंगल-नाम अनेक ।
जयति जयति जय नाम नित्य नव मधुर नित्य निर्गुण-गुणवन्त ।।


शनिवार, 3 दिसंबर 2022

🚩🚩🚩🚩🚩सनातन संकल्प संगठन 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩

🚩🚩🚩🚩🚩 सनातन संकल्प संगठन🚩🚩🚩🚩🚩

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🍁🍁🍁🍁❗🍁❗🍁❗

               ।। राष्ट्रीय अध्यक्ष - पं.श्री हरीश दुबे ।।

                  🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩❗

                        मो. 8085731573

                      🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩                     

🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🦞🦞🚩🚩🚩🚩🚩🚩

        ।। राष्ट्रीय उपाध्यक्ष -आचार्य डॉ अजय दीक्षित ।।

         🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩

                        मो. 9559986789

🏹🏹🏹🏹🏹🏹🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🏹🏹🏹🚩     


🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🛑🚩🚩🚩🚩🛑🚩🚩🚩🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳


🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩



           
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩

        

            
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🌺🚩🌺🚩🚩🚩🚩🚩🚩

               

                  
🚩🚩🚩🚩🥢🚩🥢🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
               
                       

🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🌷🌷🌷🚩🚩🚩
     





🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩



गुरुवार, 22 सितंबर 2022

रास लीला

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
                       आचार्य डॉ अजय दीक्षित
                     🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
                    जय सियाराम जय जय हनुमान 






राजा परीक्षित ने यहां प्रश्न कर दिया- शुकदेवजी से पूछते हैं गुरुदेव! मेरी समझ में नहीं आया, सज्जनों! बहुत बहुत ध्यान से पढ़े, परीक्षित कहते हैं- श्रीकृष्ण ने परायी स्त्रियों के साथ रास किया, परायी स्त्रियों के गले में गलबहियाँ डालकर कृष्ण नाचे, ये कहां का धर्म है? मेरी समझ में नहीं आया?

परीक्षित के समय में कलयुग आ गया था, परीक्षित कहते हैं- कलयुग आगे आ रहा है, शुकदेवजी बोले- अब तो घोर कलियुग आने वाला है और कलयुग के लोगों को तो जरा सी बात चाहिये, फिर देखों, शास्त्रार्थ पर उतर आते हैं- ऐसा क्यों लिखा? ऐसा क्यों किया? मनुस्मृति में लिखा है कि धर्म का तत्व गुफा में छुपा हुआ है, इसलिये बड़े जिस रास्ते से जायें, छोटों को उसी रास्ते से जाना चाहिये।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।

हम लोग ईश्वर के अंश हैं, जीव ईश्वर का दश है तो कलयुग के लोगों को लीक प्वाइंट मिल गया, ऐसे ही जो ईश्वर कोटि के पुरूष होते हैं, यदि धर्म के विपरीत भी वो कोई काम करे, उन्हें कोई दोष नहीं लगता, क्योंकि वे ईश्वर है, कर्तु, अकर्तु अन्यथा "कर्तु समर्थ ईश्वरः" ईश्वर वो है जो नहीं करने पर भी सब कुछ करे और करने के बाद भी कुछ नहीं करे।

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्रानीश्वरः।
विनश्यत्याचरन् मौढयाधथा रूद्रोऽब्धिजं विषम्।।

दूसरी बात- तुमने कहां, जो ईश्वर ने किया वो हम करेंगे, मैं इसका विरोध करता हूँ, शुकदेवजी कहते हैं- जो ईश्वर होता है उनका अनुकरण हमें कभी नहीं करना चाहिये, तुम ये बताओ शंकरजी कौन है? परीक्षित ने कहा शंकरजी ईश्वर है, तुम कहते हो- ईश्वर ने जो किया वो हम करेंगे तो समुद्र में से जितना जहर निकला था, पूरे जहर को शंकरजी पी गये।

शंकरजी ईश्वर है इसलिये दस-बीस हजार टन जहर पी गये, तुम उनके अंश हो तो तुम तौले-दो तौले ही पीकर देखो, शिवजी ने विष पी लिया, उन्हें बुखार भी नहीं आया और हम एक बूंद भी विषपान करेंगे तो डेढ़ मिनट में ही हमारा राम नाम सत् हो जायेगा, जो कार्य ईश्वर ने किया वो हम कैसे कर सकते हैं।

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत्।।

ईश्वर के वचन को मानो, ईश्वर के वचन सत्य है, देखो सज्जनों! रामजी और कृष्णजी के चरित्र में अन्तर क्या है? जो रामजी ने किया है वो हम कर सकते हैं और कृष्णजी ने जो कहा वो हम कर सकते हैं, रामजी के किये हुए को करो और कृष्णजी के कहे हुए को करो।

कृष्णजी के किये हुए को हम नहीं कर सकते, क्योंकि राम का जो चरित्र है वो विशुद्ध मानव का चरित्र है और कृष्णजी का जो चरित्र है वो विशुद्ध ईश्वरी योगेश्वर का चरित्र है, दोनों ही भगवान् हैं, लेकिन रामजी के चरित्र में मानवता का प्रदर्शन ज्यादा है और कृष्णजी के चरित्र योगेश्वरता का प्रदर्शन है।

प्रातः काल उठ के रघुनाथा।
मात-पिता गुरु नावहिं माथा।।

रघुवर प्रातः उठकर माता-पिता गुरुजनों को प्रणाम करते हैं, ये तो काम हम कर सकते हैं कि नहीं? हम भी कर सकते हैं और सब को करना ही चाहिये, लेकिन सात दिन के कृष्ण ने पूतना को मार दिया, ये तो हम नहीं कर सकते, छः महीना के कृष्ण ने शकटासुर मार दिया, ये तो हम नहीं कर सकते, पूरे ब्रजमंडल में आग लग गयी और ब्रजवासीयों के देखते-देखते कृष्ण ने उस दावाग्नि का पान कर लिया, ये हम कर सकते हैं क्या? 

कृष्ण ने लाखों गोपियों के साथ रास किया, उसे हम नहीं कर सकते, शुकदेवजी कहते हैं- यह कोई स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं था, जीव और ईश्वर का मिलन था, यह रासलीला छः महीनों तक चली थी, क्या छः-छः महीनों तक ब्रज गोपियाँ अपने घर से बाहर रह सकती थी, इसी बात से सिद्ध होता है कि यह तो जीव का प्रभु से मिलन था।

हम कहते हैं कि हम ईश्वर के अंश हैं, इस पर भी मैं यह कहना चाहता हूं, हम जानते हैं अंश का अर्थ होता है थोड़ा यानी छोटा जैसे हम लोग गंगाजी में नहाते हैं, गंगा स्नान करते वक्त हमारे मुंह से निकलता है हर-हर गंगे, हर-हर गंगे, यह जानते हुए भी कि भारत के जितने भी महानगर है, उन ज्यादातर महानगरों की सारी गंदगी गंगाजी में ही जाती है।

चाहे वो रूद्रप्रयाग हो या उत्तरकाशी हो, हरिद्वार हो या देवप्रयाग, ऋषिकेश हो या प्रयाग, सारा गंदा पानी गंगाजी में जाता है फिर भी हम गंगा स्नान करते हैं और बोलते हैं हर-हर गंगे•• क्यों? क्योंकि हम जानते हैं, इन सारे नगरों की गंदगी मिलकर भी गंगा को गंदा नहीं कर सकती, गंगा विशाल है, गंगा महान् है।

लेकिन आपने कहा- मोतीभाई गंगा स्नान करने चलिये, हमने गंगा स्नान करते-करते सोचा कि शालिग्रामजी की सेवा के लिए गंगाजल ले चलूं, सो मैंने एक चांदी की कटोरी में अढ़ाई सौ ग्राम गंगाजल भी लिया, स्नान करके लौटे तो धर्मशाला के कमरे का ताला खोलने के लिये मैंने गंगाजल की कटोरी नीचे रख दी, पीछे से गंदे मुँह वाला सूअर उस गंगाजल की कटोरी में मुंह लगाकर आधा गंगाजल तो पी गया।

मैंने देखा तो मन खिन्न हो गया, तो सज्जनों! अब बताओ कि क्या उस बचे हुए गंगाजल से मैं अपने शालिग्रामजी भगवान् को स्नान कराऊँ या नहीं? नहीं कराऊँगा, क्योंकि सूअर का मुंह लग जाने से वो गंगाजल गंदा हो गया, और बहती हुई गंगा में तो पूरा सूअर ही डूब जाये तो कोई असर नहीं होता, इसी कटोरी से मुंह लगाया तो असर क्यों हुआ? क्योंकि बहती हुई गंगा विशाल है और कटोरी का गंगाजल अंश है, तो जो ताकत उस विशाल गंगा में है वो अंश में नहीं रही।

इसलिये ईश्वर जो विशाल है और हम ईश्वर के अंश हैं, अंश होने के नाते जो कार्य ईश्वर करता है वो हम कैसे कर सकते हैं? इसलिये ईश्वर के चरित्र को प्रणाम करो, ईश्वर के चरित्र का वंदन करो, दूसरी बात- कुछ नास्तिक लोगों को ये कामी पुरुष की सी लीला लगती है, नहीं-नहीं कृष्ण ने जो गोपियों के साथ जो रास किया ये काम लीला नहीं- "का विजय प्रख्यापनार्थ सेयं रासलीला" काम को जीतने के लिये प्रभु ने रासलीला की।

कोई कहता है हम हलवा नहीं खाते, अरे, खाओगे कहाँ से तुम्हें मिलता ही नहीं है, नहीं खाना तो वो है जो मिलने पर भी इच्छा नहीं रहे, कहते हो कि हम तो ब्रह्मचारी है, जब शादी किसी ने करवाई नहीं, अपनी बेटी किसी ने दी ही नहीं, सगाई वाला कोई आया ही नहीं तो ब्रह्मचारी तो अपने आप हो गये।

नैष्ठिक ब्रह्मचारी सिवाय कृष्ण के किसी और के चरित्र में नहीं है, कृष्ण ने कामदेव से कहा- कोपीन पहन कर जंगल में समाधि लगाकर तो काम को सभी जीतते है, लेकिन असंख्य सुंदरी नारियों के गले में हाथ डालकर रासविहार करके भी मैं तुम पर विजय प्राप्त करूँगा, ये तो काम को जीतने की है रासलीला, इसलिये तो प्रभु ने काम को उल्टा लटका दिया आकाश में।

गोपियाँ कृष्ण के संग रास कर रही थी, वे तो वेद के मंत्र थे साक्षात्, जीव है गोपी और ईश्वर है स्वयं श्रीकृष्ण, तो जीव और ईश्वर का जो विशुद्ध मिलन है उसी को हम रास कहते हैं, ये काम लीला नहीं, काम को जीतने वाली लीला है, काम के मन में अभिमान था कि मैंने सबको जीत लिया, ब्रह्मा को जीत लिया, वरूण को जीत लिया, कुबेर को जीत लिया, यम को जीत लिया, वो योगेश्वर कृष्ण को जीतना चाहता था।

प्रभु ने असंख्य सुंदरी गोपियों के बीच रहकर भी काम को जीता, मन और इन्द्रियों पर जिसका नियंत्रण है उसे कोई विचलित नहीं कर सकता, इस रास लीला के प्रसंग को सुनने का मतलब क्या है? रास के मंगलमय् प्रसंग को जो व्यक्ति सुनते है, पढ़ते है और पढ़कर और चिन्तन के द्वारा इस काम विजय को जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं उन व्यक्तियों के ह्रदय में भक्ति प्रगट हो जाती है, और अंत में गोविन्द के चरणों में प्रीति हो जाती है, और ह्रदय का सबसे बड़ा रोग जो काम है वो काम हमेशा के लिये निकल जाता है।

बताओं, जिस रासलीला को सुनने से या पढ़ने से मन का काम निकल जाये, वो स्वयं कामलीला कैसे हो सकती है? परीक्षित के मन का संदेह दूर हो गया, गोविन्द ब्रजवासीयों के वश में है, इनका प्रेम इतना अगाध सागर है कि ब्रजवासीयों के प्रेम के सागर में ब्रह्मा भी गोता लगाये तो थाह नहीं पा सकते, विधाता में सामर्थ्य नहीं है थाह पाने की, एक अलौकिक बात- यहाॅ गोविन्द से मिलना भी है, गोविन्द से मिलन की आकांक्षा भी है तो गोविन्द के प्रति आशीर्वाद का भाव भी है।

जय श्री कृष्ण! 
जय हो रासबिहारी की!

शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

भगवान विष्णु का नव गुंजर अवतार

🚩|| नवगुंजर अवतार ||🚩





आचार्य डॉ अजय दीक्षित 




     
  अनसुनी कथा वैदिक पथिक से-✍
वैसे तो भगवान विष्णु के मुख्य 10 (दशावतार) एवं कुल 24 अवतार माने गए हैं किन्तु उनका एक ऐसा अवतार भी है जिसके विषय में बहुत ही कम लोगों को जानकारी है और वो है नवगुंजर अवतार। ऐसा इसलिए है क्यूंकि इस अवतार के विषय में महाभारत या किसी भी पुराण में कोई वर्णन नहीं है। 
केवल उड़ीसा के लोक कथाओं में श्रीहरि के इस विचित्र अवतार का वर्णन मिलता है। वहाँ नवगुंजर को श्रीकृष्ण का अवतार भी माना जाता है।
 नवगुंजर अवतार का वर्णन केवल उड़ीसा के महाभारत में मिलता है जिसकी रचना 15 वीं शताब्दी में जन्में उड़ीसा के आदि कवि माने जाने वाले श्री सरला दास ने की है। इन्होने महाभारत के अतिरिक्त उड़िया बिलंका रामायण की भी रचना की है। इनके द्वारा लिखे महाभारत का मूल स्वरुप तो महर्षि व्यास के महाभारत का ही है किन्तु इसमें इन्होने अपनी अपूर्व मौलिकता का परिचय दिया है और कुछ बातें अपनी ओर से भी जोड़ी हैं जिसका कोई वर्णन मूल महाभारत में नहीं है। नवगुंजर अवतार भी उन्ही में से एक है।
 
इनके द्वारा लिखित महाभारत के अनुसार जब अर्जुन अपने निर्वासन के दौरान मणिभद्र की पहाडियों में तपस्या कर रहे थे तब इन्होने इस अद्भुत जीव के दर्शन किये। इस जीव का पूरा शरीर 9 भिन्न पशुओं का मिश्रण था और आकर बहुत बड़ा था। जब अर्जुन ने इन्हे देखा तो वे घबरा गए और उन्होंने अपनी रक्षा के लिए गांडीव धारण किया। वे उस विचित्र प्राणी पर आक्रमण करने ही वाले थे कि उन्होंने सोचा कि ऐसा कोई जीव तो इस पृथ्वी का हो ही नहीं सकता। तब उन्होंने ध्यान से देखा तो उन्हें उस प्राणी के हाथों में कमल का पुष्प दिखाई दिया। ये देख कर वे समझ गए कि ये जीव अवश्य ही श्रीहरि का अवतार है। सत्य से परिचित होते ही श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए और बताया कि विश्वरूप की ही भांति ये भी इनका एक रूप है। 

इस अवतार का "नवगुंजर" नाम 9 प्राणियों 
    के मिश्रण होने के कारण पड़ा है। वे हैं:-
                 *****
सर:- मुर्गे का गर्दन:- मयूर का कूबड़:- ऋषभ का 
कमर:- शेर की पिछला बांया पैर:-बाघ का पिछला दायां पैर:- अश्व का अगला बांया पैर:- गज का अगला दायां पैर:-मनुष्य का पूँछ:-सर्प की

अपने इस अवतार को धारण करने का कारण श्रीकृष्ण का अर्जुन को ये समझाना था कि इतनी विविधताओं से भरे जीवों को मिला कर भी एक सम्पूर्ण मनुष्य की रचना हो सकती है। नवगुंजर को नौ अलग-अलग दिशाओं से देखने पर मनुष्य को अलग-अलग जीव दृष्टिगोचर होते थे किन्तु वास्तव में वो प्राणी एक ही था। इसका अर्थ ये है कि किसी मनुष्य को देखने का दृष्टिकोण अलग-अलग मनुष्यों का भिन्न हो सकता है, किन्तु वास्तव में वो मनुष्य वही होता है जो वो है। इसे साधारण भाषा में समझें तो इस अवतार के द्वारा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को "एकम सत विप्रा बहुधा वदन्ति" का सूत्र दिया, अर्थात "सत्य एक ही होता है जिसे ज्ञानी मनुष्य अलग-अलग नामों से बुलाते हैं।

भगवान के इस नवगुंजर अवतार का महत्त्व अद्वैत साहित्य में बहुत है। 
इस अद्भुत अवतार की कलाकृति पुरी जगन्नाथ मंदिर में स्थापित है। इसके अतिरिक्त जगन्नाथ मंदिर के नीलचक्र पर 8 नवगुंजरों की आकृति उकेरी गयी है जिसे देखने दूर-दूर से लोग वहाँ आते हैं। इसके अतिरिक्त उड़ीसा में खेले जाने वाले एक प्राचीन खेल "गंजपा" में भी नवगुंजर एवं अर्जुन एक पात्र के रूप में उपस्थित होते हैं। ये श्रीकृष्ण के विषरूप का ही एक रूप माना जाता है।
|| जय श्रीकृष्ण जय श्री हरि ||

गुरुवार, 1 सितंबर 2022

अद्भुत जन्म

जय सियाराम जय जय हनुमान
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁


सोलह पौराणिक पात्र,इनका जन्म माता-पिता के वीर्य के सयोंग के बगैर ही हुआ है ।
🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁

दुनिया के सबसे अधिक पुराने धर्म, हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथों में तमाम ऐसी कथायें वर्णित हैं जिनमें ऐसा कहा गया है कि इन सभी का जन्म पिता के वीर्य के सयोंग के बगैर ही हुआ है I आज हम यहाँ पर उन्ही कुछ पात्रों की चर्चा कर रहे हैं I आइये देखते है

राजा पृथु के जन्म की कथा – पृथु एक सूर्यवंशी राजा थे, जो वेन के पुत्र थे। स्वयंभुव मनु के वंशज राजा अंग का विवाह सुनिथा नामक स्त्री से हुआ था। वेन उनका पुत्र हुआ। वह पूरी धरती का एकमात्र राजा था। सिंहासन पर बैठते ही उसने यज्ञ-कर्मादि बंद कर दिये। तब ऋषियों ने मंत्रपूत कुशों से उसे मार डाला, लेकिन सुनिथा ने अपने पुत्र का शव संभाल कर रखा।

 राजा के अभाव में पृथ्वी पर पाप कर्म बढऩे लगे। तब ब्राह्मणों ने मृत राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिसके फलस्वरूप स्त्री-पुरुष का जोड़ा प्रकट हुआ। पुरुष का नाम पृथु तथा स्त्री का नाम अर्चि हुआ। अर्चि पृथु की पत्नी हुई। पृथु पूरी धरती के एकमात्र राजा हुए। पृथु ने ही उबड़-खाबड़ धरती को जोतने योग्य बनाया। नदियों, पर्वतों, झरनों आदि का निर्माण किया। राजा पृथु के नाम से ही इस धरा का नाम पृथ्वी पड़ा।

मनु व शतरूपा के जन्म की कहानी – धर्म ग्रंथों के अनुसार मनु व शतरूपा सृष्टि के प्रथम मानव माने जाते हैं। इन्हीं से मानव जाति का आरंभ हुआ। मनु का जन्म भगवान ब्रह्मा के मन से हुआ माना जाता है। मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव सृष्टि के आदि प्रवर्तक और समस्त मानव जाति के आदि पिता के रूप में किया जाता रहा है। इन्हें ‘आदि पुरूष’ भी कहा गया है। वैदिक संहिताओं में भी मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव थे जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृत हैं। मनु का विवाह ब्रह्मा के दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था।

मनु एक धर्म शास्त्रकार भी थे। धर्मग्रंथों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम से विख्यात है। उत्तानपाद जिसके घर में ध्रुव पैदा हुआ था, इन्हीं का पुत्र था। मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का प्रथम क्षत्रिय माना जाता है। इनके द्वारा प्रणीत ‘स्वायंभुव शास्त्र’ के अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। इनको धर्मशास्त्र का और प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म को आचार संहिता से जोड़ा था।

ऋषि ऋष्यश्रृंग के जन्म की कथा – ऋषि ऋष्यश्रृंग महात्मा काश्यप (विभाण्डक) के पुत्र थे। महात्मा काश्यप बहुत ही प्रतापी ऋषि थे। उनका वीर्य अमोघ था और तपस्या के कारण अन्त:करण शुद्ध हो गया था। एक बार वे सरोवर में पर स्नान करने गए। वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य को जल के साथ एक हिरणी ने पी लिया, जिससे उसे गर्भ रह गया। वास्तव में वह हिरणी एक देवकन्या थी। किसी कारण से ब्रह्माजी उसे श्राप दिया था कि तू हिरण जाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को जन्म देगी, तब श्राप से मुक्त हो जाएगी।

इसी श्राप के कारण महामुनि ऋष्यश्रृंग उस मृगी के पुत्र हुए। वे बड़े तपोनिष्ठ थे। उनके सिर पर एक सींग था, इसीलिए उनका नाम ऋष्यश्रृंग प्रसिद्ध हुआ। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाया था। इस यज्ञ को मुख्य रूप से ऋषि ऋष्यश्रृंग ने संपन्न किया था। इस यज्ञ के फलस्वरूप ही भगवान श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न का जन्म हुआ था।

राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के जन्म की कथा ,,रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा हुए। उनकी दो रानियां थीं- केशिनी और सुमति। दीर्घकाल तक संतान जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर पुत्र कामना से तपस्या करने लगे। तब महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को साठ हजार अभिमानी पुत्र प्राप्त तथा दूसरी से एक वंशधर पुत्र होगा।

कालांतर में सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हजार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें वैसे ही सुरक्षित रखा। समय आने पर उन मटकों से साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया।

देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराया है। यह सोचकर उन्होंने कपिल मुनि का अपमान कर दिया। ध्यानमग्न कपिल मुनि ने जैसे ही अपनी आंखें खोली राजा सगर के 60 हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए।

राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुधन के जन्म की कथा ,,,दशरथ अधेड़ उम्र तक पहुँच गये थे लेकिन उनका वंश सम्हालने के लिए उनका पुत्र रूपी कोई वंशज नहीं था। उन्होंने पुत्र कामना के लिए अश्वमेध यज्ञ तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने का विचार किया। उनके एक मंत्री सुमन्त्र ने उन्हें सलाह दी कि वह यह यज्ञ अपने दामाद ऋष्यशृंग या साधारण की बोलचाल में शृंगि ऋषि से करवायें। दशरथ के कुल गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ थे। वह उनके धर्म गुरु भी थे तथा धार्मिक मंत्री भी। उनके सारे धार्मिक अनुष्ठानों की अध्यक्षता करने का अधिकार केवल धर्म गुरु को ही था। अतः वशिष्ठ की आज्ञा लेकर दशरथ ने शृंगि ऋषि को यज्ञ की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया।

शृंगि ऋषि ने दोनों यज्ञ भलि भांति पूर्ण करवाये तथा पुत्रकामेष्टि यज्ञ के दौरान यज्ञ वेदि से एक आलौकिक यज्ञ पुरुष या प्रजापत्य पुरुष उत्पन्न हुआ तथा दशरथ को स्वर्णपात्र में नैवेद्य का प्रसाद प्रदान करके यह कहा कि अपनी पत्नियों को यह प्रसाद खिला कर वह पुत्र प्राप्ति कर सकते हैं। दशरथ इस बात से अति प्रसन्न हुये और उन्होंने अपनी पट्टरानी कौशल्या को उस प्रसाद का आधा भाग खिला दिया। बचे हुये भाग का आधा भाग (एक चौथाई) दशरथ ने अपनी दूसरी रानी सुमित्रा को दिया।

 उसके बचे हुये भाग का आधा हिस्सा (एक बटा आठवाँ) उन्होंने कैकेयी को दिया। कुछ सोचकर उन्होंने बचा हुआ आठवाँ भाग भी सुमित्रा को दे दिया। सुमित्रा ने पहला भाग भी यह जानकर नहीं खाया था कि जब तक राजा दशरथ कैकेयी को उसका हिस्सा नहीं दे देते तब तक वह अपना हिस्सा नहीं खायेगी। अब कैकेयी ने अपना हिस्सा पहले खा लिया और तत्पश्चात् सुमित्रा ने अपना हिस्सा खाया। इसी कारण राम (कौशल्या से), भरत (कैकेयी से) तथा लक्ष्मण व शत्रुघ्न (सुमित्रा से) का जन्म हुआ।

जनक नंदिनी सीता के जन्म की कहानी – भगवान श्रीराम की पत्नी सीता का जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था। रामायण के अनुसार उनका जन्म भूमि से हुआ था। वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड में राजा जनक महर्षि विश्वामित्र से कहते हैं कि-

अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता।
भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा।

अर्थात्- एक दिन मैं यज्ञ के लिए भूमि शोधन करते समय खेत में हल चला रहा था। उसी समय हल के अग्र भाग से जोती गई भूमि से एक कन्या प्रकट हुई। सीता (हल द्वारा खींची गई रेखा) से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृथ्वी से प्रकट हुई वह मेरी कन्या क्रमश: बढ़कर सयानी हुई।

पवन पुत्र हनुमान के जन्म कि कथा – पुराणों की कथानुसार हनुमान की माता अंजना संतान सुख से वंचित थी। कई जतन करने के बाद भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस दुःख से पीड़ित अंजना मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा-पप्पा सरोवर के पूर्व में एक नरसिंहा आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करना पड़ेगा तब जाकर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।

अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु का ही भक्षण किया तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से खुश होकर उसे वरदान दिया जिसके परिणामस्वरूप चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा को अंजना को पुत्र की प्राप्ति हुई। वायु के द्वारा उत्पन्न इस पुत्र को ऋषियों ने वायु पुत्र नाम दिया।

हनुमान पुत्र मकरध्वज के ज़न्म की कथा – हनुमान वैसे तो ब्रह्मचारी थे फिर भी वो एक पुत्र के पिता बने थे हालांकि यह पुत्र वीर्य कि जगाह पसीनें कि बूंद से हुआ था। कथा कुछ इस प्रकार है जब हनुमानजी सीता की खोज में लंका पहुंचे और मेघनाद द्वारा पकड़े जाने पर उन्हें रावण के दरबार में प्रस्तुत किया गया। तब रावण ने उनकी पूंछ में आग लगवा दी थी और हनुमान ने जलती हुई पूंछ से लंका जला दी।

 जलती हुई पूंछ की वजह से हनुमानजी को तीव्र वेदना हो रही थी जिसे शांत करने के लिए वे समुद्र के जल से अपनी पूंछ की अग्नि को शांत करने पहुंचे। उस समय उनके पसीने की एक बूंद पानी में टपकी जिसे एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई और उससे उसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम पड़ा मकरध्वज। मकरध्वज भी हनुमानजी के समान ही महान पराक्रमी और तेजस्वी था उसे अहिरावण द्वारा पाताल लोक का द्वार पाल नियुक्त किया गया था। 

जब अहिरावण श्रीराम और लक्ष्मण को देवी के समक्ष बलि चढ़ाने के लिए अपनी माया के बल पर पाताल ले आया था तब श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराने के लिए हनुमान पाताल लोक पहुंचे और वहां उनकी भेंट मकरध्वज से हुई। तत्पश्चात मकरध्वज ने अपनी उत्पत्ति की कथा हनुमान को सुनाई। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

धृतराष्ट्र, पाण्डु और महाज्ञानी विदुर का जन्म – द्वापर युग जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था और जिस काल में महाभारत हुआ उस युग को द्वापर युग कहा जाता है I द्वापर युग में हस्तिनापुर में जहाँ महामहिम भीष्म हुए थे, उन्ही महामहिम भीष्म के पिता महाराज शान्तनु और उनकी पत्नी रानी सत्यवती के सयोंग से चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र हुये थे। लेकिन जब चित्रांगद और विचित्रवीर्य बाल्यावस्था में ही थे तभी हस्तिनापुर के महाराज शांतनु का स्वर्गवास हो गया था I

 महाराज के स्वर्गवास के बाद हस्तिनापुर के राजसिंघासन पर महामहिम भीष्म का अधिकार था क्योंकि वह सबसे बड़े थे किन्तु उन्होंने अपने पिता का विवाह सत्यवती से करवाने के लिए सत्यवती के पिता दाक्षराज को यह वचन दिया था कि वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे और आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन करेंगे साथ ही साथ हस्तिनापुर के सिर्फ और सिर्फ संरक्षक ही रहेंगे अतः उन्होंने शासन नहीं संभाला और उसकी देखरेख करने लगे।
 
साथ ही भीष्म ने ही चित्रांगद और विचित्रवीर्य का पालन पोषण भी किया I लेकिन दुर्भाग्य से शासन पाने के बाद चित्रांगद गन्धर्वों से युद्ध करते हुये चित्रांगद मारा गया। और उसके बाद भीष्म ने उनके अनुज विचित्रवीर्य को राज्य सौंप दिया। लेकिन कुछ समय के उपरांत ही क्षय रोग ने विचित्रवीर्य को भी अपना ग्रास बना लिया और उसकी भी म्रत्यु हो गयी I

अब इस महान कुल के नाश होने का भय राज माता सत्यवती को खाने लगा क्योंकि उसके दोनों पुत्र बिना किसी संतान के ही स्वर्ग सिधार चुके थे I तब सत्यवती ने भीष्म से निवेदन किया और कहा कि, “पुत्र भीष्म! अब तुम ही इस प्रतापी वंश को नष्ट होने से बचा सकते हो I तुम्हे मेरी आज्ञा है कि तुम इन दोनों रानियों से पुत्र उत्पन्न करो।” लेकिन भीष्म ने माता की बात सुन कर स्पष्ट रूप से कहा कि ” हे माता ! मैं अपनी प्रतिज्ञा से बंधा हुआ हूँ और मै किसी भी स्थिति में इसे भंग नहीं कर सकता।”

काफी मनाने के बाद भी जब भीष्म नहीं माने तो अंत में सत्यवती ने अपने जेष्ठ पुत्र वेदव्यास को बुलवाया और वेदव्यास को पूरी जानकारी और उनके समक्ष अपनी इच्छा प्रकट की I वेदव्यास ने उनसे कहा कि ठीक है माते आप अपनी दोनों बहुओं से कहिये की वह मेरे सामने निर्वस्त्र होकर आये और चली जाये ऐसा करने से उनके भीतर गर्भ हो जाएगा I

सत्यवती ने इसकी पूरी जानकारी अम्बिका और अम्बालिका को दी तो सबसे पहले अम्बिका वेदव्यास के पास गयी लेकिन उन्होंने उनका तेज देखकर अपनी आँखे बंद कर ली और चली गयी उसके बाद अम्बालिका गयी उन्होंने वेदव्यास को देखकर डर गयी और उनका चेहरा पीला पड़ गया और वह भी चली गयी I

वहां से वापस आने के बाद वेदव्यास ने अपनी माता सत्यवती से कहा कि माते आपकी बड़ी बहू से जो पुत्र होगा वह बहुत ही पराक्रमी होगा लेकिन आँखे बंद होने की वजह से वह जन्मांध होगा और देवी अम्बालिका से जो पुत्र होगा वह पांडु रोग से ग्रषित होगा I इस पर महारानी सत्यवती ने अपनी बड़ी बहू अम्बिका को एक बार फिर से वेदव्यास के सामने से जाने के लिए कहा तो वह स्वयं न जाकर उन्होंने अपनी दासी को भेज दिया I दासी बिना किसी संकोच के उनके सामने से गुजर गयी तो इस पर वेदव्यास ने वापस आकर पूरी बात बताई और कहा कि माते इस दासी से जो पुत्र होगा वह महान ग्यानी , वेद-वेदान्त में पारंगत अत्यन्त नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।” और तभी उसके बाद समय आने पर अम्बिका के गर्भ से जन्मांध धृतराष्ट्र, अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पाण्डु तथा दासी के गर्भ से धर्मात्मा विदुर का जन्म हुआ।

द्रोणाचार्य के जन्म की कथा – द्रोणाचार्य कौरव व पाण्डव राजकुमारों के गुरु थे। द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है- एक समय गंगा द्वार नामक स्थान पर महर्षि भरद्वाज रहा करते थे। वे बड़े व्रतशील व यशस्वी थे। एक दिन वे महर्षियों को साथ लेकर गंगा स्नान करने गए। वहां उन्होंने देखा कि घृताची नामक अप्सरा स्नान करके जल से निकल रही है। उसे देखकर उनके मन में काम वासना जाग उठी और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। तब उन्होंने उस वीर्य को द्रोण नामक यज्ञ पात्र (यज्ञ के लिए उपयोग किया जाने वाला एक प्रकार का बर्तन) में रख दिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ। द्रोण ने सारे वेदों का अध्ययन किया। महर्षि भरद्वाज ने पहले ही आग्नेयास्त्र की शिक्षा अग्निवेश्य को दे दी थी। अपने गुरु भरद्वाज की आज्ञा से अग्निवेश्य ने द्रोणाचार्य को आग्नेयास्त्र की शिक्षा दी। द्रोणाचार्य का विवाह शरद्वान की पुत्री कृपी से हुआ था।

कृपाचार्य व कृपी के जन्म की कथा – कृपाचार्य महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक थे। उनके जन्म के संबंध में पूरा वर्णन महाभारत के आदि पर्व में मिलता है। उसके अनुसार- महर्षि गौतम के पुत्र थे शरद्वान। वे बाणों के साथ ही पैदा हुए थे। उनका मन धनुर्वेद में जितना लगता था, उतना पढ़ाई में नहीं लगता था। उन्होंने तपस्या करके सारे अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए। शरद्वान की घोर तपस्या और धनुर्वेद में निपुणता देखकर देवराज इंद्र बहुत भयभीत हो गए। उन्होंने शरद्वान की तपस्या में विघ्न डालने के लिए जानपदी नाम की देवकन्या भेजी। वह शरद्वान के आश्रम में आकर उन्हें लुभाने लगी। उस सुंदरी को देखकर शरद्वान के हाथों से धनुष-बाण गिर गए। वे बड़े संयमी थे तो उन्होंने स्वयं को रोक लिया, लेकिन उनके मन में विकार आ गया था। इसलिए अनजाने में ही उनका शुक्रपात हो गया। वे धनुष, बाण, आश्रम और उस सुंदरी को छोड़कर तुरंत वहां से चल गए।

उनका वीर्य सरकंडों पर गिरा था, इसलिए वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसी समय संयोग से राजा शांतनु वहां से गुजरे। उनकी नजर उस बालक व बालिका पर पड़ी। शांतनु ने उन्हें उठा लिया और अपने साथ ले आए। बालक का नाम रखा कृप और बालिका नाम रखा कृपी। जब शरद्वान को यह बात मालूम हुई तो वे राजा शांतनु के पास आए और उन बच्चों के नाम, गोत्र आदि बतलाकर चारों प्रकार के धनुर्वेदों, विविध शास्त्रों और उनके रहस्यों की शिक्षा दी। थोड़े ही दिनों में कृप सभी विषयों में पारंगत हो गए। कृपाचार्य की योग्यता देखते हुए उन्हें कुरुवंश का कुलगुरु नियुक्त किया गया।

कौरवों के जन्म की कथा – एक बार महर्षि वेदव्यास हस्तिनापुर आए। गांधारी ने उनकी बहुत सेवा की। जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को वरदान मांगने को कहा। गांधारी ने अपने पति के समान ही बलवान सौ पुत्र होने का वर मांगा। समय पर गांधारी को गर्भ ठहरा और वह दो वर्ष तक पेट में ही रहा। इससे गांधारी घबरा गई और उसने अपना गर्भ गिरा दिया। उसके पेट से लोहे के समान एक मांस पिण्ड निकला।

महर्षि वेदव्यास ने अपनी योगदृष्टि से यह सब देख लिया और वे तुरंत गांधारी के पास आए। तब गांधारी ने उन्हें वह मांस पिण्ड दिखाया। महर्षि वेदव्यास ने गांधारी से कहा कि तुम जल्दी से सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का प्रबंध कर दो तथा इस मांस पिण्ड पर जल छिड़को। जल छिड़कने पर उस मांस पिण्ड के एक सौ एक टुकड़े हो गए। व्यासजी ने कहा कि मांस पिण्डों के इन एक सौ एक टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में डाल दो। अब इन कुंडों को दो साल बाद ही खोलना। इतना कहकर महर्षि वेदव्यास तपस्या करने हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस पिण्डों से पहले दुर्योधन और बाद में गांधारी के 99 पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई।

राधा के जन्म की कथा – ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार एक बार गोलोक में किसी बात पर राधा और श्रीदामा नामक गोप में विवाद हो गया। इस पर श्रीराधा ने उस गोप को असुर योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। तब उस गोप ने भी श्रीराधा को यह श्राप दिया कि आपको भी मानव योनि में जन्म लेना पड़ेगा। वहां गोकुल में श्रीहरि के ही अंश महायोगी रायाण नामक एक वैश्य होंगे। आपका छाया रूप उनके साथ रहेगा। भूतल पर लोग आपको रायाण की पत्नी ही समझेंगे, श्रीहरि के साथ कुछ समय आपका विछोह रहेगा।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण के अवतार का समय आया तो उन्होंने राधा से कहा कि तुम शीघ्र ही वृषभानु के घर जन्म लो। श्रीकृष्ण के कहने पर ही राधा व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं। राधा देवी अयोनिजा थीं, माता के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुई। उनकी माता ने गर्भ में वायु को धारण कर रखा था। उन्होंने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया परंतु वहां स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गईं।

कर्ण के जन्म की कथा – कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था, और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। चूंकि वह अभी भी अविवाहित थी इसलिये लोक-लाज के डर से उसने उस पुत्र को एक बक्से में रख कर गंगाजी में बहा दिया।

पांडवों के जन्म की कथा – पांचो पांडवो का जन्म भी बिना पिता के वीर्य के हुआ था। एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों – कुन्ती तथा माद्री – के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, “राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।”

इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़” उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।” पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।

इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, “राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।”

ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, “हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?” कुन्ती बोली, “हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ।

 आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।” इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।

एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।

द्रौपदी व धृष्टद्युम्न के जन्म की कथा – द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के मित्र थे। राजा बनने के बाद द्रुपद को अंहकार हो गया। जब द्रोणाचार्य राजा द्रुपद को अपना मित्र समझकर उनसे मिलने गए तो द्रुपद ने उनका बहुत अपमान किया। बाद में द्रोणाचार्य ने पाण्डवों के माध्यम से द्रुपद को पराजित कर अपने अपमान का बदला लिया।

 राजा द्रुपद अपनी पराजय का बदला लेना चाहते थे था इसलिए उन्होंने ऐसा यज्ञ करने का निर्णय लिया, जिसमें से द्रोणाचार्य का वध करने वाला वीर पुत्र उत्पन्न हो सके। राजा द्रुपद इस यज्ञ को करवाले के लिए कई विद्वान ऋषियों के पास गए, लेकिन किसी ने भी उनकी इच्छा पूरी नहीं की।

अंत में महात्मा याज ने द्रुपद का यज्ञ करवा स्वीकार कर लिया। महात्मा याज ने जब राजा द्रुपद का यज्ञ करवाया तो यज्ञ के अग्निकुण्ड में से एक दिव्य कुमार प्रकट हुआ। इसके बाद उस अग्निकुंड में से एक दिव्य कन्या भी प्रकट हुई। वह अत्यंत ही सुंदर थी।

 ब्राह्मणों ने उन दोनों का नामकरण किया। वे बोले- यह कुमार बड़ा धृष्ट(ढीट) और असहिष्णु है। इसकी उत्पत्ति अग्निकुंड से हुई है, इसलिए इसका धृष्टद्युम्न होगा। यह कुमारी कृष्ण वर्ण की है इसलिए इसका नाम कृष्णा होगा। द्रुपद की पुत्री होने के कारण कृष्णा ही द्रौपदी के नाम से विख्यात हुई।

सोमवार, 29 अगस्त 2022

कण -कण में भगवान









भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य विभूतियां!!!!!!!

जगत के भौतिक प्रतीत होने वाले कुछ पदार्थों में भी विशेष देवत्व स्थित रहता है । यह भगवान की विभूतियां कहलाती हैं । इस प्रकार विभूति का अर्थ अतिमानव और दिव्य शक्तियों से है । भगवान अपने तेज, शक्ति, बुद्धि, बल आदि को किसी विशिष्ट पुरुष में प्रतिष्ठित कर लोक-कल्याण के लिए जगत में प्रकट कर देते हैं ।

गीता के दसवें अध्याय में भगवान की विभूतियों का बड़ा ही रोचक वर्णन किया गया है; किन्तु भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अर्जुन से कहते हैं–’मेरी विभूतियों का अंत नहीं है । यह तो मैंने तेरे लिए संक्षेप में कहा है ।’ (गीता १०।१९)।

हरि की दिव्य विभूति अमित है, है अनन्त उनका विस्तार ।
बता रहे हैं उनमें से कुछ जो प्रधान हैं सबमें सार ।।
हूँ नारद देवर्षि वर्ग में, वृक्षों में मैं हूँ पीपल ।
हूँ गन्धर्व चित्ररथ मैं ही, सिद्धों में मुनि सिद्ध कपिल ।।
नागों में मैं शेषनाग हूँ, जलचर गण में वरुण महान ।
पितरों में अर्यमा, नियंताओं में मैं हूँ यम बलवान ।।
सब का तेज, शक्ति, जीवन मैं, मैं ही हूँ सबका आधार ।
सब में ओतप्रोत सदा मैं, अखिल विश्व मेरा विस्तार ।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी भगवान श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा को अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहा है–

मैं सबका उत्पादक परमेश्वर हूँ और राधा ईश्वरी प्रकृति हैं । मैं देवताओं में श्रीकृष्ण हूँ। गोलोक मैं स्वयं ही द्विभुजरूप से निवास करता हूँ और वैकुण्ठ में चतुर्भुज विष्णुरूप से । शिवलोक में मैं ही शिव हूँ । ब्रह्मलोक में ब्रह्मा हूँ । 

तेजस्वियों में सूर्य हूँ । पवित्रों में अग्नि हूँ । द्रव-पदार्थों में जल हूँ । इन्द्रियों में मन हूँ । शीघ्रगामियों में समीर (वायु) हूँ । दण्ड प्रदान करने वालों में मैं यम हूँ । कालगणना करने वालों में काल हूँ । 

अक्षरों में अकार हूँ । सामों में साम हूँ । चौदह इन्द्रों में इन्द्र हूँ । धनियों में कुबेर हूँ । दिक्पालों में ईशान हूँ । व्यापक तत्त्वों में आकाश हूँ । जीवों में सबका अन्तरात्मा हूँ । आश्रमों में ब्रह्मतत्त्वज्ञ संन्यास आश्रम हूँ । 

धनों में मैं बहुमूल्य रत्न हूँ । तैजस पदार्थों में सुवर्ण हूँ । मणियों में कौस्तुभ हूँ । पूज्य प्रतिमाओं में शालग्रामिशला तथा पत्तों में तुलसीदल हूँ । फूलों में पारिजात और तीर्थों में पुष्कर हूँ ।

योगीन्द्रों में गणेश, सेनापतियों में स्कन्द, धनुर्धरों में लक्ष्मण, राजेन्द्रों में राम, नक्षत्रों में चन्द्रमा, मासों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसन्त, दिनों में रविवार, तिथियों में एकादशी, सहनशीलों में पृथ्वी, बान्धवों में माता, भक्ष्य वस्तुओं में अमृत, गौ से प्रकट होने वाले खाद्यपदार्थों में घी, वृक्षों में कल्पवृक्ष, कामधेनुओं में सुरभि, नदियों में पापनाशिनी गंगा, पंडितों में पांडित्यपूर्ण वाणी, मन्त्रों में प्रणव, विद्याओं में उनका बीजरूप तथा खेत से पैदा होने वाली वस्तुओं में धान्य हूँ । 

वृक्षों में पीपल, गुरुओं में मन्त्रदाता गुरु, प्रजापतियों में कश्यप, पक्षियों में गरुड़, नागों में अनन्त (शेषनाग), नरों में नरेश, ब्रह्मर्षियों में भृगु, देवर्षियों में नारद, राजर्षियों में जनक, महर्षियों में शुकदेव, गन्धर्वों में चित्ररथ, सिद्धों में कपिलमुनि, बुद्धिमानों में बृहस्पति, कवियों में शुक्राचार्य, ग्रहों में शनि, शिल्पियों में विश्वकर्मा, मृगों में मृगेन्द्र, वृषभों में नन्दी व गजराजों में ऐरावत हूँ ।

छन्दों में गायत्री, सम्पूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, समुद्रों में जलनिधि, पर्वतों में सुमेरु, रत्नवान शैलों में हिमालय, प्रकृतियों में देवी पार्वती तथा देवियों में लक्ष्मी हूँ ।

मैं नारियों में शतरूपा, अपनी प्रियाओं में राधिका तथा सतियों में वेदमाता सावित्री हूँ । दैत्यों में प्रह्लाद, बलिष्ठों में बलि, ज्ञानियों में नारायण ऋषि, वानरों में हनुमान, पाण्डवों में अर्जुन, नागकन्याओं में मनसा, वसुओं में द्रोण, बादलों में द्रोण, जम्बूद्वीप में भारतवर्ष, कामियों में कामदेव, अप्सराओं में रम्भा और लोकों में गोलोक हूँ । 

मातृकाओं में शान्ति, सुन्दरियों में रति, साक्षियों में धर्म, दिन के क्षणों में संध्या, देवताओं में इन्द्र, राक्षसों में विभीषण, रुद्रों में कालाग्निरुद्र, भैरवों में संहारभैरव, शंखों में पांचजन्य, अंगों में मस्तक, पुराणों में भागवत, इतिहासों में महाभारत, मनुओं में स्वायम्भुव, मुनियों में व्यासदेव, पितृपत्नियों में स्वधा, अग्निप्रियाओं में स्वाहा, यज्ञों में राजसूय, यज्ञपत्नियों में दक्षिणा हूँ ।

अस्त्र-शस्त्रज्ञों में परशुराम, पौराणिकों में सूतजी, नीतिज्ञों में अंगिरा, व्रतों में विष्णु-व्रत, ओषधियों में दूर्वा, तृणों में कुश, धर्म-कर्मों में सत्य, स्नेह-पात्रों में पुत्र, शत्रुओं में व्याधि, व्याधियों में ज्वर, मेरी भक्ति में दास्यभक्ति, विवेकियों में संन्यासी, शस्त्रों में सुदर्शन चक्र और शुभ आशीर्वादों में कुशल हूँ ।

ऐश्वर्यों में महाज्ञान, सुखों में वैराग्य, प्रसन्नता प्रदान करने वालों में मधुर वचन, दानों में आत्मदान, संचयों में धर्मकर्म का संचय, कर्मों में मेरा पूजन, कठोर कर्मों में तप, पुरियों में काशी, नगरों में कांची, वैद्यों में अश्विनीकुमार, भेषजों (दवा) में रसायन, मन्त्रवेत्ताओं में धन्वन्तरि, दुर्गुणों में विषाद, रागों में मेघ-मल्हार, रागिनियों में कामोद, पशु जीवों में गौ, पवित्रों में तीर्थ व वनों में चन्दन हूँ ।

समस्त स्थूल आधारों में मैं ही महान विराट् हूँ । सूक्ष्म पदार्थों में परमाणु, मेरे पार्षदों में श्रीदामा, मेरे बन्धुओं में उद्धव और नि:शंकों में वैष्णव हूँ । वैष्णवों से बढ़कर दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है । 

मैं वृक्षों में अंकुर तथा सम्पूर्ण वस्तुओं में उनका आकार हूँ । समस्त जीवों में मेरा निवास है, मुझमें सारा जगत फैला हुआ है । जैसे वृक्ष में फल और फलों में वृक्ष का अंकुर है, उसी प्रकार मैं सबका कारणरूप हूँ; मेरा ईश्वर दूसरा कोई नहीं है।  मैं ही सबके समस्त बीजों का परम कारण हूँ । मैं सब जीवों की आत्मा हूँ । जहां मैं हूँ, उसी शरीर में सब शक्तियां और भूख-प्यास आदि हैं; मेरे निकलते ही सब उसी तरह निकल जाते हैं जैसे राजा के पीछे-पीछे उसके सेवक । 

सारांश यह है कि भगवान श्रीकृष्ण सब कुछ हैं–वे पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, सनातन ब्रह्म हैं, गोलोक बिहारी हैं, क्षीरसागर-शायी परमात्मा हैं, वैकुण्ठ-निवासी विष्णु हैं, बदरिकाश्रम-सेवी नर-नारायण ऋषि हैं, सर्वव्यापी आत्मा हैं; भूत, भविष्य, वर्तमान में जो कुछ है, वे वह सब कुछ हैं, और जो उनमें नहीं है, वह कभी कहीं नहीं था, न है और न होगा । संसार में जो भी ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, वह सब भगवान के तेज का अंश होने से उनकी विभूति हैं । श्रीकृष्ण रूपी ईश्वरीय सत्ता कण-कण में व्याप्त है । इसका स्पन्दन शुद्ध हृदय द्वारा ही हो सकता है।

बुधवार, 13 अप्रैल 2022

युग वर्णन


■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय  = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना। ये हमारा भारत जिस पर हमको गर्व है l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏